समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Sunday, May 9, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-8(शेष भाग)


मैंने भी कॉलेज का मुँह देखा

मन पर जिस बात का बोझ होता है, वह बात आम तौर पर पहले हो जाती है। पढ़ने आए एक विद्यार्थी ने सुनानी तो यहाँ अपने कॉलेज की कहानी थी, पर छेड़ बैठा अपने घर का किस्सा। लेकिन नींव पर ही कुछ खड़ा हो सकता है। नींव के बग़ैर इमारत के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। इस अध्याय के कुछ पृष्ठ तो अगले वृत्तांत की नींव ही समझो।
कालेज में मेरे लिए सब कुछ नया नया ही था। मेरे अन्दर एक हीन भावना भी अवश्य होगी। उसका आधार मेरी विद्या प्राप्ति की पृष्ठभूमि से जा जुड़ता है। जिसने पूरी तरह स्कूल की पढ़ाई का आनन्द भी न उठाया हो, वह कॉलेज के माहौल में इतनी जल्दी कैसे घुल मिल सकता है। सो, पहला महीना मैंने प्रोफेसरों और कुछ विद्यार्थियों से जान-पहचान में ही बिता दिया। कुछ प्रोफेसरों के दिल में आरंभ में मेरे प्रति लगाव इसलिए बढ़ गया था क्योंकि मेरा भाई एक वर्ष पहले ही यहाँ से बी.एड. करके गया था। नरम स्वभाव और सुयोग्य होने के कारण वह सब अध्यापकों की प्रशंसा का पात्र था। वह 36 साल का था जब उसने बी.एड. में दाख़िला लिया था। इसलिए भी सब प्रोफेसर उसका बड़ा सम्मान करते थे। पढ़ने में ही नहीं, वह खेलों और सांस्कृतिक आयोजनों में भी आगे रहता था। वह वॉलीबाल और बैडमिंटन का अच्छा खिलाड़ी था। मंचीय कविता का धनी था। धैर्य के साथ बोलने में उसका मुकाबला कोई प्रोफेसर भी नहीं कर सकता था। अंग्रेजी पर उसकी इतनी पकड़ थी कि अंग्रेजी में लेक्चर देते समय कुछ प्रोफेसर भी उससे झेंपते थे। उस समय बी.एड. की शिक्षा और परीक्षा का माध्यम अंग्रेजी था और अंग्रेजी पढ़ने, लिखने और बोलने में हरबंस लाल गोयल का कोई सानी नहीं था। कुछ भरीपूरी देह और मुझसे ऊँचे कद के कारण भी सभी प्रोफेसर उसका रौब मानते होंगे, पर मैं अपने भाई से बस एक गुण को छोड़ कर शेष सभी में पीछे था। अंग्रेजी मेरी बहुत बढ़िया थी परन्तु भाई जैसी नहीं थी। खिलाड़ी मैं कतई नहीं था। इकहरे शरीर और मोटे शीशे वाली ऐनक के कारण मैं एक साधारण-सा लड़का लगता होऊँगा। हाँ, साहित्यिक सूझबूझ के मामले में मैं अपने भाई से आगे था। पंजाबी के अतिरिक्त मैं अंग्रेजी और हिन्दी में भी साहित्य रचने में समर्थ था, पर भाई की तरह मैं सभी पीरियड में उपस्थित नहीं रह सकता था। भाई तो ट्यूशन पढ़ाने का काम रात के समय भी कर सकता था लेकिन मुझे सारा काम दिन में ही निबटाना पड़ता। इसलिए दोपहर के बाद कताई-बुनाई वाले दो पीरियड में मैं लगातार हाज़िर नहीं हो सकता था। उस समय मुझे सूदां के घर बेवी और उसकी बहन वीना को ट्यूशन पढ़ानी होती थी। सिर्फ़ सप्ताह में एक बार ही कताई-बुनाई से जुड़े प्रैक्टीकल वाले दो पीरियड में शामिल हो पाता था। इन पीरियडों में सभी विद्यार्थियों को गांधी चरखे पर सूत कातना होता था। मैं जिस दिन भी जाता, गांधी चरखा संग लेकर जाता। कातना मुझे बहुत अच्छा आता था। उस दिन प्रेम और मेरा एक अन्य सहपाठी प्रो. अमरनाथ तैश को छेड़ने के लिए मेरी शिकायत लगाते।
''देखो जी, आ गया पूरे हफ्ते बाद पोइट। आपने इसे लाड़ में बिगाड़ रखा है। हम तो खुद अब आगे से प्रैक्टीकल नहीं करेंगे।''
''ओ भई, सुनो तो सही। मैं तरसेम जी को कुछ नहीं कह सकता। लाला जी मेरे समधी हैं।'' तैश साहिब बात को हँसी में खत्म कर देते।
समधी वाली बात तैश साहब ने शुरू में ही निपटा दी थी। उसने सारी क्लास को होंठों पर दो उंगलियाँ रखते हुए बताया था कि उसके दोस्त अमर नाथ की बेटी पुष्पा लाला तरसेम लाल गोयल के भतीजे मास्टर देवराज से ब्याही हुई है। लड़के न तो मेरे से झगड़ा मोल लेना चाहते, और न ही तैश साहिब का विरोध करना चाहते थे। बस, हँसी-ठट्ठे के लिए ही यह नोंक-झोंक करते-रहते। इस बहाने अन्य बहुत से लड़के-लड़कियों को भी गैर-हाज़िर रहने का अवसर मिल जाता।
प्रो. तैश पुराना बी.ए. बी.टी. था और जगराऊँ के प्राइमरी टीचर्स ट्रेनिंग स्कूल का सेवामुक्त अध्यापक था। सारी उम्र उसने 'कताई-बुनाई' का विषय ही पढ़ाया था। कॉलेज में स्पिनिंग एंड वीविंग का विषय पढ़ाने के लिए प्रो. तैश से बढ़ कर दूसरा कोई योग्य मास्टर हो ही नहीं सकता था। क्लास में वह थ्यौरी अंग्रेजी में नहीं पढ़ाता था। अंग्रेजी बोलने का उसका अभ्यास नहीं था। उसने अंग्रेजी में इस विषय पर एक किताब लिखी हुई थी और वह एकमात्र किताब पूरे पंजाब में इस विषय पर मिलती थी। बहुत सरल अंग्रेजी में कपास बोने से लेकर चुगने, बेलने, छांटने, पीसने, कातने के साथ साथ अटेरन और कपड़ा बुनने तक की शिक्षा इस पुस्तक में दर्ज़ थी। इसलिए थ्यौरी में जो विद्यार्थी उपस्थित होते, वे तैश साहिब से या तो बातें सुना करते या उर्दू के शेर। शेर भी बहुत सीधे-सादे तंज़िया किस्म के होते। हँसी-ठट्ठा करने के लिए एक शेर की बार बार फरमाइश करते। तैश साहिब लड़के-लड़कियों को मन बहलाने के लिए वह शेर सुनाते -
धोती ने कहा पाजामे से, हम दोनों बने हैं धागे से
जब एक है रिश्ता दोनों में, तो क्या बनता है भागे से

पाजामे ने कहा धोती से, क्या इतना फ़र्क क़ोई थोड़ा है
कि तुम खुलती हो पीछे को, और मैं खुलता हूँ आगे से।

कपास को बोने से संबंधित एक प्रश्न वार्षिक परीक्षा में अवश्य आता। प्रो. तैश ने उसके बारे में यह आख्यान सबको रटा रखा था-
डड्ड टपूसी कंगणी, डांगो डांग कपाह
खेस दी बुक्कल मार के, छल्लियां विच दी जाह।

इसका अर्थ यह था कि कंगणी के एक बूटे और दूसरे बूटे के बीच मेंढ़क की छलांग जितना फासना होना चाहिए और कपास के पौधों में एक दूसरे के बीच डांग(लाठी) बराबर फासला होना चाहिए। मक्की इस तरह बीजी जानी चाहिए कि खेस की बुक्कल मार कर आदमी छल्लियों के खेत में से आसानी से गुजर सके।
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दूसरा क्राफ्ट था- लैदर वर्क। प्रो. राठौर के पास लैदर वर्क का पीरियड लगता था। मालूम नहीं वह सज्जन व्यक्ति कितना पढ़ा हुआ था, पर था अपने विषय का माहिर और काम करवाने में सख्त भी। मेरे हाथ में कॉलेज का काम करवाते समय लगी चोट की जानकारी उसे थी, लेकिन उसे तो अपना काम पूरा चाहिए था - एक चप्पलों का जोड़ा, एक ऐनक केस, एक बटुआ, एक कोइनकेस और लेडीज़ पर्स। लेडीज़ पर्स तो मैंने अपने भाईवाला ही लाकर दिखा दिया क्योंकि वह घर में संभाल कर रखा हुआ था। हाथ पर लगी गंभीर चोट के कारण दूसरा काम करना मेरे लिए कठिन था। मुझे यह काम करवाने के लिए कामरेड सहदेव लाल का सहारा लेना पड़ा। वह कम्युनिस्ट के तौर पर सारे पंजाब में प्रसिद्ध था। उन दिनों जसवंत सिंह कंवल इस सहदेव लाल का श्रद्धालू हुआ करता था। सहदेव मेरे भाई का मैट्रिक का जमाती था। जानता वह मुझे पहले भी था, पर बी.एड. की ट्रेनिंग के दौरान एक तो विचारात्मक समानता के कारण और दूसरा भाई की मित्रता के कारण मैं उसके बहुत करीब हो गया था। वह उन दिनों क्रिश्चियन जे.बी.टी. स्कूल में अध्यापक था। उसके जे.बी.टी. के स्कूल में भी लैदर वर्क का विषय एक क्रॉफ्ट के तौर पर पढ़ाया जाता था। मैंने कामरेड को अपनी समस्या बताई। उसने लैदर वर्क के टीचर को बुलाया और मेरे दायें हाथ में बंधी पट्टियाँ दिखलाते हुए मदद करने को कहा। उस भद्र पुरुष क्रॉफ्ट अध्यापक ने आवश्यक चमड़ा, चमड़े पर प्रयोग किए जाने वाले रंग और रंग घोलने के लिए स्प्रिट आदि लाने के लिए कहा। चौथे दिन कामरेड स्वयं चमड़े का बना सारा खूबसूरत सामान, बचे हुए रंगों की छोटी-छोटी शीशियाँ और पव्वे में बचा हुआ स्प्रिट लेकर कॉलेज में आ पहुँचा। मामूली-सा लाल रंग स्प्रिट में मिल जाने से पव्वा ऐसा प्रतीत होता था मानो उसमें शराब हो। स्प्रिट की खुशबू तो शराब जैसी होती ही है। सहदेव लाल का यह अहसान कॉलेज में मुझे कम्युनिस्ट के तौर पर प्रसिद्ध करने और कुछ अध्यापकों की आँखों की किरकिरी बनने के लिए काफी था। पता नहीं किसने प्रिंसीपल को जा बताया। प्रिंसीपल के अमानवीय स्वभाव का पता तो मुझे उसी वक्त चल गया था, जब कॉलेज की बेसमेंट में पत्थर उठाते समय मेरा दायां हाथ बहुत भारी पत्थर के नीचे आ गया था और बीच की दो उंगलियाँ बुरी तरह कुचली गई थीं। मैं बेहोश हो गया था। मैं नहीं जानता कब विद्यार्थी मित्र मुझे सायकिल पर बिठाकर किसी डॉक्टर के पास ले गए थे। पट्टी करवाने और अन्य दवा दारू करवाने के पश्चात् जब मुझे वापस घर ले जा रहे थे तो शायद दवाइयों और टीकों के असर के कारण हाथ में अधिक दर्द नहीं हुआ था लेकिन मुझे आँखों से कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। मुझे पकड़ कर ही सुरिंदर चौधरी और मदन खोसला ने सीढ़ियों पर चढ़ाया होगा। माँ देख कर चिंतातुर हो उठी थी। चौधरी और खोसला ने साधारण चोट कह कर माँ को हौसला दिया था। बारिश की वजह से नीचे बैठ गई बेसमेंट की छत के भारी पत्थर को उठाकर बाहर निकालने का आदेश प्रिंसीपल ने ही विद्यार्थियों को दिया था परन्तु जब सुरिंदर चौधरी और अन्य विद्यार्थियों ने मेरी चोट के इलाज का खर्च मांगा तो प्रिंसीपल आना कानी करने लगा। मेरे विद्यार्थी साथियों का व्यवहार नम्रतापूर्ण था। अधिक जोर देने पर प्रिंसीपल ने तीस रुपये मंजूर कर दिए। मैं तीस रुपये लेने के लिए तैयार नहीं था। दो सौ रुपये से अधिक इलाज पर लग चुके थे और जो पीड़ा हुई, वह अलग। डॉक्टर की समझदारी और योग्य इलाज के कारण उंगलियाँ किसी हद तक सीधी हो गई थीं और देखने में भी कुछ ठीक ही लगने लगी थीं। पर आज भी अगर इन उंगलियों को गौर से देखो तो ये उस चोट की कहानी धीमे स्वर में बयान कर ही जाती हैं।
इस चोट की घटना का दिल पर लगा जख्म शायद भूल ही जाता यदि कामरेड द्वारा कॉलेज में चमड़े के बने सामान और स्प्रिट का पव्वा लाकर देने वाली घटना के बाद इस जख्म को प्रिंसीपल पुन: न खरोंचता।
प्रिंसीपल द्वारा मुझे दफ्तर में बुला लिया गया। कामरेड सहदेव लाल के कॉलेज में आने के विषय में पूछा गया। एक विद्यार्थी होने के नाते मुझे यह झूठ बोलना पड़ा कि कामरेड अपने घर से मेरा यह सामान देने आया था क्योंकि प्रो. राठौर ने आज यह सामान देखना है। स्प्रिट को शराब समझ कर प्रिंसीपल ने कई सवाल कर दिए। मेरे समझाने पर भी उस मोटी खाल वाले प्रिंसीपल की समझ में यह बात न आई कि स्प्रिट का इस्तेमाल चमड़े के रंगों को घोलने के लिए किया जाता है। यदि वाइस प्रिंसीपल प्रो. आर.पी. गर्ग, अंग्रेजी के प्रो. सूद और लैदर वर्क के प्रो. राठौर मेरी शराफ़त और पव्वे में स्प्रिट वाली बात की तसदीक न करते तो संभव था कि प्रिंसीपल मुझे कॉलेज से मुअत्तल करने का नोटिस निकाल ही देता। बाद में, प्रो. गर्ग की उपस्थिति में चमड़े का सामान किसी दूसरे से बनवाने की सारी कहानी मैंने प्रो. राठौर को बता दी थी। हालांकि राठौर कुछ टेढ़ा व्यक्ति था पर प्रो. गर्ग का लिहाज भी करता था और कॉलेज के काम के कारण मेरे हाथ में लगी चोट की मजबूरी भी समझता था। जिस समय मुझे चोट लगी थी उस वक्त मेरा ध्यान इस बात की ओर नहीं गया था कि चोट लगने के कारण मेरी कमजोर नज़र का होना भी हो सकता है। लेकिन बाद में मैंने अनुमान लगाया कि ऐसा ही था क्योंकि जब सभी लड़कों ने कई क्विंटल के लम्बे-चौड़े पत्थर के नीचे से अपने अपने हाथ निकाल लिए थे तो फिर मेरा हाथ ही क्यों रह गया था। बी.एड. के पेपर होने के समय और बाद में पढ़ाई के समय मेरा यह निश्चय दृढ़ हो गया कि आँखों की रोशनी की कमी के कारण मेरे साथ यह बड़ा हादसा हुआ।
कुछ दिन बाद प्रिंसीपल प्रो. दीपक शर्मा अपनी काली लौ सहित कॉलेज छोड़ कर चला गया था और प्रो. गर्ग कार्यकारी प्रिंसीपल बन गया था। यदि ऐसा न होता तो शायद वह खुंदक में मेरा कोई नुकसान कर ही देता। वैसे मुझे प्रो. गर्ग ने भी समझा दिया था कि मैं कामरेड सहदेव लाल को कॉलेज में न बुलाया करूँ, क्योंकि अगर कोई हड़ताल हो गई तो उसकी सारी जिम्मेदारी मेरे ऊपर आएगी और बी.एड. में इंटरनल असिसटेंट और टीचिंग प्रैक्टिस के नंबर प्रोफेसरों के हाथ में होने के कारण मेरा नुकसान भी हो सकता है।
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प्रो. तैश हफ्ते में एक बार काते हुए और अटेरे हुए सूत को जमा करता था। मैं सौ ग्राम की जगह डेढ-दो सौ ग्राम सूत जमा करवा देता। घर में माँ के लिए एक हफ्ते में डेढ़-दो सौ ग्राम सूत कातना मामूली काम होता। सूत कौन सा बोलता था कि किसका काता हुआ है। तैश साहब को तो सूत चाहिए था। मेरे द्वारा समय से सूत जमा करवाने के कारण वह लड़के-लड़कियों की शिकायत से बचा रहता।
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कॉलेज में मैं कुछ असाधारण करके दिखलाना चाहता था। इसलिए खेलों को छोड़ कर हर गतिविधि में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता, पर कॉलेज के लीडर विद्यार्थियों वाले दांव-पेंच मुझे नहीं आते थे, क्योंकि कॉलेज का इस प्रकार का अनुभव मेरे पास नहीं था। क्लास शुरू होने से कुछ दिन बाद ही एजूकेशन फोरम के पदों का चुनाव होना था। यह फोरम ही कॉलेज का सबसे प्रभावशाली संगठन था। यद्यपि यह स्टुडेंट यूनियन जैसा प्रैशर ग्रुप तो नहीं था पर विद्यार्थियों की सारी समस्याएँ प्रिंसीपल के पास ले जाने और उन्हें हल करवाने की सारी जिम्मेवारी फोरम की ही थी। इस फोरम के चुनाव के लिए भाषण प्रतियोगिताएँ करवाई गईं। आठ लड़कों और दो लड़कियों ने उस प्रतियोगिता में भाग लिया। मुख्य जज प्रो. कन्हैया लाल कपूर था। मौके पर दिए गए विषय पर ही पाँच मिनट बोलना था। मुझे तसल्ली थी कि मैं ठीक बोला हूँ और आस थी कि अगर पहले नहीं तो दूसरे स्थान पर तो आ ही जाऊँगा। जब प्रो. कपूर प्रतियोगिता का नतीजा सुनाने के लिए स्टेज पर आए तो मेरे भाषण के नुक्तों और भाषा का विशेष तौर पर उन्होंने ज़िक्र किया, पर जब परिणाम सुनाया तो सुरिंदर चौधरी प्रथम, प्राणनाथ और मैं दोनों द्वितीय रहे थे। कॉलेज की नियमावली के अनुसार एक सचिव और दूसरा संयुक्त सचिव चुना जाना था। सुरिंदर चौधरी सचिव बन गया और प्राण नाथ संयुक्त सचिव। चौधरी ने प्रिंसीपल को मनाने की कोशिश की कि दोनों के नंबर बराबर होने के कारण दोनों ही संयुक्त सचिव बनने चाहिएँ, परन्तु प्रिंसीपल दीपक शर्मा तो बा-दलील बात को मानने वाले दिन जन्मा ही नहीं था। इस तरह खूबसूरती से चलाया गया तीर तुक्का बन कर रह गया। प्रिंसीपल की दलील थी कि वर्णमाला के अनुसार 'पी' का स्थान पहला है और 'टी' का बाद में। इसलिए प्राणनाथ ही दूसरे स्थान पर माना जाएगा।
मैगज़ीन के अंग्रेजी और पंजाबी सेक्सन के विद्यार्थी संपादक बनाने के लिए एक लिखित टैस्ट हुआ। दस नंबर का निबंध था और दस नंबर की ग्रामर। टैस्ट में बैठने वाले हम पाँच विद्यार्थी ही थे। एक विद्यार्थी अंग्रेजी का एम.ए. के.बी. राय भी था। वह पहले स्थान पर रहा। मैं एक नंबर के अभाव में दूसरे स्थान पर था। पाँच ईडियम्स टैस्ट में दिए गए थे जिनको वाक्यों में प्रयोग करना था। उनमें से एक ईडियम था- गो ऑफ+(Go Off)A सारे ईडियम वाक्यों में ठीक प्रयोग किए गए थे। अपनी ओर से मैंने यह ईडियम भी ठीक प्रयोग किया गया था - The Gun Went off -(बंदूक चल गई)। यह जल्दबाजी या नज़र की कमी ही हो सकती है कि मैं 'ऑफ़' लिखना भूल गया था और मेरी बंदूक चलते-चलते रह गई थी।
पंजाबी में संपादक बनने की मुझे कोई आस नहीं थी। पंजाबी का प्रोफेसर पहले ही निर्णय कर चुका था, टैस्ट तो यूँ ही दिखावा मात्र था। फिर भी मैं टैस्ट में बैठ गया। बलदेव प्रेमी (अब बलदेव सिंह सड़कनामा) मेरा सहपाठी था। आत्म हमराही भी उन दिनों बी.एड. करता था। हमराही अपने आप को बड़ा कवि समझने के कारण टैस्ट में नहीं बैठा था। बलदेव और मैं दोनों टैस्ट में बैठे थे। संपादक एक महिला को बनाना था, वह बन गई। बलदेव सिंह सहायक संपादक बन गया। इस बात का मुझे अफ़सोस भी कोई नहीं था। प्रोफेसर साहब की खुशी के लिए, जो कुछ हुआ, सब ठीक था। प्रोफेसर साहब का वर्ष अच्छा गुजर गया था और बलदेव की पूंछमारी ने अपना रंग ठीक ही दिखाया था।
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प्रो. आर.पी. गर्ग धुरी का रहने वाला था। प्रो. सूद के ननिहाल मौड़ां थी। मेरी ननिहाल भी मौड़ां थी। गर्ग के साथ एक इलाके के होने तथा भाई की मित्रता तथा सूद के साथ मौसेरी सांझ होने के कारण दोनों से मुझे अच्छी सहायता मिल जाती थी लेकिन प्रोफेसर पराशर मेरे प्रति पता नहीं क्यों सख्त रहने लग पड़ा। शायद स्वयं आर.एस.एस. से संबंधित होने के कारण वह मुझे अच्छा नहीं समझता था। मेरे भाई के दोस्त और मुझे सगे भाइयों की तरह प्यार करने वाले मास्टर चरन दास की कभी मुलाकात प्रो. पराशर से हो गई थी। मास्टर चरन दास ने तो शायद यह भी बताया हो कि मेरा भाई आर.एस.एस. का स्वयं-सेवक है और तरसेम कामरेड है। बस, पराशर के लिए यही सूचना काफी थी। वह मेरी पाठ योजना से लेकर मेरे क्लास में बैठने तक में कमी निकालता रहता। पराशर से एक खतरा था कि वह कहीं मेरे लेक्चर ही कम न कर दे। इसलिए उसकी क्लास में मैं हर हाल में उपस्थित रहता। पर मैथ वाला प्रो. शर्मा, जिसे पता नहीं क्यों 'शिक्षा के सिद्धांत' (Principles of Education) पेपर भी दे दिया गया था, मेरे साथ ज़रूरत से ज्यादा लिहाज रखता। उसने स्वयं मुझे पीरियड से छूट दे रखी थी। मेरे जैसे दो-चार अन्य लड़के-लड़कियों को भी उसने छूट दे रखी थी। छूट पाने वाले हम सभी विद्यार्थी खुश थे और शर्मा जी भी। बरनाला इलाके के हम पाँच विद्यार्थी थे। सत्य भूषण गोयल बरनाले से था। मदन खोसला, हरबंस लाल गोयल और ज्ञान चंद जैन धूरी के थे। मुझे छोड़कर ये सभी विद्यार्थी हॉस्टल में रहा करते थे। लेकिन सत्य भूषण और खोसला कभी-कभार मेरे घर आ जाते। मैं भी उनके कमरे में चला जाता। सत्य भूषण स्टेज पर अच्छा बोल लेता था और खोसला बढ़िया ग़ज़ल कह लेता था। दोनों के साथ मेरी अधिक निकटता का कारण ही उनका साहित्य की ओर झुकाव था। मेरे चोट लगने के समय सुरिंदर चौधरी के अलावा ये दोनों सहपाठी बड़े काम आए थे। सत्य भूषण बाद में एम.ए. करने के बाद किरती कॉलेज, निआल पातड़ा लेक्चरर जा लगा और कॉलेज टेक ओवर हो जाने पर वह सरकारी कॉलेज फ़ाजिल्का से बतौर प्रिंसीपल सेवा-मुक्त हुआ। खोसला ज़हीन और प्रतिभाशाली होने के बावजूद कुछ असुखद घटनाओं का शिकार हो गया और आख़िर ज़िन्दगी से हाथ धो बैठा। बी.एड. कॉलेज के मित्रों में से अधिक निकटता मेरी मदन खोसला के साथ ही थी। उसकी मौत ने मुझे महीनों तक बेचैन किए रखा।
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वार्षिक परीक्षा में मेरे साथ तीन घटनाएँ घटीं। एक तो माँ को भाई के हुक्म के कारण तपा में छोड़ना पड़ा और किराये वाला चौबारा खाली करके मुझे ताया के पोते देस राज के पास लगभग एक महीना रहना पड़ा। दूसरा, पेपर आरंभ होने से तीन दिन पहले मुझे बुखार चढ़ने लग पड़ा। खोसला और सत्य भूषण मुझे गली नंबर दो के डॉक्टर जैन के पास ले गए। डॉ. जैन का पूरा नाम याद नहीं, पर उसने मुझे बड़े ध्यान से देखा। पूरी केस हिस्ट्री ली। दवाई तो उसने दे दी पर अगले दिन मोगे के सिविल अस्पताल पहुँचने के लिए सवेरे दस बजे का समय दे दिया। बाकी बात मुझे बताने की बजाय उसने सत्य भूषण और मदन खोसला को बताई होगी, पर मेरे बार-बार पूछने पर उन्होंने असलीयत नहीं बताई थी।
सिविल अस्पताल में स्क्रीनिंग करवाई गई। प्राइवेट एक्स-रे भी करवाया। एक फेफड़े के खराब होने के बारे में बताने के साथ साथ डॉ. जैन ने मुझे सेहत का पूरा ख्याल करने के लिए कहा। खोसले से बार-बार पूछने पर आख़िर उसने सच सच बता दिया।
''डॉक्टर ने टी.बी. की शंका जतायी थी पर तुझे टी.बी. है नहीं। एक्सरे बिलकुल क्लीअर है।'' खोसला द्वारा हौसला दिये जाने के बावजूद मेरे दिल में यह बात दृढ़ हो गई थी कि मुझे टी.बी. है, पर है अभी पहली स्टेज पर। इस संबंध में मैंने भाई को भी ख़त लिख दिया। मैं अन्दर ही अन्दर पूरी तरह हिल गया था। यह बात मेरे मन में घर कर गई थी कि बहन सीता की मौत 1959 में टी.बी. से ही हुई थी। टी.बी. छूत की बीमारी है। जब बहन सीता को तपा में तपेदिक की रोगी होने के कारण साथ लगने वाले बंत मौड़ां वाले के चौबारे में रखा हुआ था तो मैं भी अधिकतर उसके पास आता-जाता था। संगरूर के करीब घाबदां के सरकारी टी.बी. अस्पताल में पूरी तरह स्वस्थ हो जाने के बाद बहन अपनी ससुराल चली गई थी और उसे तपेदिक ने पुन: घेर दिया था। तब भी मैं प्राय: उसके पास जाता था। तपा से माँ जाती या फिर मैं। इसलिए मेरे अन्दर बीमारी संबंधी डर बैठ जाना स्वाभाविक था।
भाई की बहुत ही हौसला बढ़ाने वाली चिट्ठी आई थी। मक्खन, बादाम और दूध पर जोर देने के लिए कहा था। भाभी के हवाले से भी लिखा था कि उसे मेरी सेहत की बहुत चिंता है। चिट्ठी अंग्रेजी में थी। भाभी वाली सतरें शायद इस प्रकार थीं - Your bhabi is very much worried about your health. She sends you her blessings and prays for your long life and prosperity. But I did not tell any thing to mata ji about your illness. You know about her temperament very well. Moreover, mother is after all mother. भाभी की तसल्ली और भाई की चिंता ने मानो तपते हुए दिल पर ठंडी फुहार का काम किया हो। अगले दिन भाई स्वयं भी आ गया। देस राज की उपस्थिति में वह मुझे तीन सौ रुपये चुपके से दे गया और देस राज से कह गया कि मेरी सेहत का ख्याल रखे। भाई की उपस्थिति में मैं पहली बार जी भर कर रोया होऊँगा। रो कर मन हल्का हो गया था पर लम्बी उम्र भोगने वाला शक का कांटा अन्दर से नहीं निकल सका था।
जैसा कि मैंने पहले भी कहीं बताया है कि किसी भी पेपर में मैंने रात में पढ़ाई नहीं की थी। हाँ, दिन के समय पाँच-छह घंटों से भी ज्यादा पढ़ लेता था। बहुत सारे परचे तो ठीक हो गए थे पर अंग्रेजी और सॉयक्लोजी के पेपर खराब हो गए थे। पता नहीं क्या हुआ, अंग्रेजी के तीन सवाल करने के बाद मुझे उत्तर कापी की लाइनें ही दिखाई देना बंद हो गई। प्रश्न पत्र भी साफ-साफ नहीं पढ़ा जा रहा था। लेकिन मैंने जैसे-तैसे दो सवाल कर दिए थे। लाइनों के ऊपर नीचे होने का कोई ख्याल ही नहीं किया। घबराहट इतनी बढ़ गई थी कि दस-बारह पन्नों पर लिखे जाने वाले सवाल सिर्फ़ तीन-साढ़े तीन पन्नों पर करके लौट आया था। सॉयक्लोजी वाले पेपर के दिन भी मुझे अंत में स्टेटिक्स का सवाल करना था। सवाल स्टैंडर्ड डिवीएशन का था। सवाल पूरी तरह मेरी पकड़ में था पर यहाँ भी आँखें धोखा दे गईं। सवाल बीच में ही रह गया।
बी.ए. तक के कुछ परचों में मेरी आँखें इसी तरह जवाब दे जाया करतीं और मैं बाद वाले सवाल सही ढंग से न कर पाता।
आँखों की रोशनी लगभग खत्म हो गई। मैं अपनी पढ़ाई और परीक्षाओं में आई कमियों का मन ही मन में जब लेखा-जोखा करता हूँ तो मेरी समझ में आता है कि असल में मेरी आँखों की रोशनी तो मैट्रिक से कुछ समय पहले ही कम होनी प्रारंभ हो गई होगी लेकिन सच्चाई का पूरा पता बाइसवें साल में जाकर लगा। इसका पता कैसे चला, यह एक अलग दर्दभरी कहानी है। देस राज के परिवार ने मेरी सेहत का वैसे ही ख्याल रखा जैसे भाई कह कर गया था। देस राज उन दिनों बैंक में काम करता था। उसकी आमदनी कम और खर्चे अधिक थे। उसका बड़ा बेटा सुरिंदर उसके छोटे भाई धर्म चंद के पास दिल्ली में पढ़ता था। शायद सुरिंदर का कुछ पैसे भेजने का सन्देशा आया था। मैंने यह बात सुन ली थी। डेढ़ सौ रुपया मेरे पास बच गया था। मैंने वह डेढ़ सौ रुपया देस राज को देते हुए कहा कि वह इसे सुरिंदर को भेज दे। उसने मना भी किया, पर मैंने तो ये पैसे उसे देने के लिए ही जेब में से निकाले थे और तरीके से देने में भी सफल हो गया था।
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अध्यापन का पहले से ही अनुभव होने के कारण प्रैक्टीकल और अध्यापन निपुणता की परीक्षाओं में कोई कठिनाई नहीं आई। बाहर से आने वाले परीक्षक और हमारे कॉलेज के प्रोफेसर आपसी विचार-विमर्श के साथ ही नंबर लगाते थे। मेरे लिए फायदे की बात यह हुई कि मैं प्रो. पराशर के ग्रुप में नहीं था। इसलिए मुझे कोई खतरा नहीं था।
बी.एड. का परिणाम वही आया जिसकी मुझे आस थी। अंग्रेजी और सॉयक्लोजी में सिर्फ पास होने योग्य ही नंबर थे और शेष सब ठीक था। चलो, कुछ भी था, बी.एड. के बहाने कॉलेज का मुँह मैंने देख लिया था।
(जारी…)
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