समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Saturday, June 12, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-9(शेष भाग)


कांगड़ा की नौकरी

चिट्ठी-पत्तर के माध्यम से यह फैसला हो गया था कि अगले महीने माँ मेरे साथ आएगी। इसलिए मैंने एक कमरा किराये पर ले लिया था जिस पर स्लेटों की छत वाला एक और कमरा बना हुआ था। रसोई, गुसलखाना भी था और इस रैन-बसेरे के साथ वक्त-बेवक्त जंगल-पानी जाने की भी कोई चिंता नहीं थी। बड़ी बात यह थी कि उसके साथ ही हरीश का छोटा-सा कमरा था, किसी साधू की कुटिया जैसा। यह सब कमरे एक बिल्डिंग का हिस्सा थे जिसका मालिक कांगड़े के देवी मंदिर का पुजारी चंदर मुनी था। उसकी अपनी रिहायश भी मेरे वाले कमरे के बिलकुल साथ थी। स्कूल से आते समय शहर की मुख्य सड़क से दायें हाथ सौ एक गज आगे एक गली थी। गली के पीछे से वे सीढ़ियाँ आ जाती थीं जो मंदिर को जाती थीं। मेरे इलाके में इस मंदिर को ‘माता का भवन’ कहते हैं। सीढ़ियों की गिनती तो याद नहीं, तीनेक मिनट चलने के बाद दायें हाथ माता का भवन आता और उससे आगे बीसेक सीढ़ियाँ चढ़कर चंदर मुनी का निवास।
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स्कूल में जो कुछ घटित हुआ, वह ज्यादातर तो चिट्ठियों में लिख दिया था, पर भाई सबकुछ विस्तार से मेरे मुँह से सुनना चाहता था। वह मेरी इस नियुक्ति पर बहुत प्रसन्न था। इसके बावजूद कि वह स्वयं वैष्णव था, उसने विशेष तौर पर मुझे रोज़ दो अंडे खाने की हिदायत दी। यह भी कहा कि अब पीछे पैसा भेजने की चिंता न करना। फल भी खाना और दूध भी पीना। सैर के लिए अवश्य जाते रहना। चीड़ के दरख्तों के बीच से गुजरकर आने वाली हवा बड़ी मुफ़ीद होती है।
बातें करते-करते उसने रामकरन की बात भी छेड़ दी। रामकरन चाचा मनसा राम का सबसे बड़ा लड़का था। उसे टी.बी. हो गई थी। चाचा मनसा राम जो ताया मथरा दास का सबसे छोटा भाई था, उन दिनों हमारे खानदान में सबसे अमीर था। इसलिए उसने रामकरन को कसौली भेज दिया था। शायद यह डॉक्टरों की हिदायत थी या वैद्य-हकीमों की। वह डेढ़ साल कसौली में रहा। कसौली को उन दिनों पंजाबी लोग सबसे बढ़िया सैनीटोरियम समझा करते थे। लेकिन अमीर लोग ही कसौली की हवा-पानी का लाभ उठा सकते थे। आज की तरह टी.बी. के इलाज के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं मिला करती थीं इसलिए पहाड़ी हवा-पानी, गद्दियों की भेड़-बकरियों की मेंगड़ों की गंध और चीड़ के दरख्त, ये सब तपेदिक के रोज के कुदरती इलाज समझे जाते थे। मेरे भाई ने भी मेरे लिए पहाड़ों की नौकरी का चयन इसीलिए किया था ताकि मैं तपेदिक के रोग का शिकार होने से बच जाऊँ, क्योंकि इस बीमारी से बहन सीता की मौत का दुख भी अभी हमारे परिवार को भूला नहीं था।
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माँ के साथ मेरी छोटी भतीजी सरोज भी तैयार हो गई। उस समय वह पाँचवी में पढ़ती थी। उसे ले जाकर मैं भी राज़ी था और माँ भी, पर एक चिंता थी मुझे भी और माँ को भी कि अगर इसका मन नहीं लगा तो इसे कौन छोड़ने आएगा। बड़ी मुश्किल से उसे पाँचवी कक्षा में दाख़िला दिलाया। सरकारी प्राइमरी स्कूल की पहाड़िन अध्यापिकाएं पैरों पर पानी नहीं पडने देती थीं। हैड टीचर ने उसके मीडियम की समस्या खड़ी कर दी। आख़िर प्रिंसीपल साहब के दख़ल और टैस्ट लेने के बाद सरोज को दाख़िल कर लिया गया, पर वही समस्या सामने आ गई, जिसका डर था। खाने-पीने की मनमर्जी की चीजों से भी वह न बहलती। हमेशा वापस जाने की रट लगाती रहती। एक दिन कहने लगी-
''डाकखाने वाले भाई मुझे छोड़ आएंगे।''
''ऐसा कर तरसेम, इसे बोरी में बन्द करके डाकखाने वालों को दे आ।'' माँ ने हँस कर कहा।
लेकिन एक महीने के अन्दर-अन्दर उसका मन लगते लगते ऐसा लगा कि मानो वापस लौटने की बात ही भूल गई हो। स्कूल में जो कुछ पढ़ती, उसके बारे में शाम को आकर मुझे बताती। दिसम्बर में उसके नौ-माही इम्तेहान होने थे। एक दिन स्कूल से खाली पीरियड में मैं सरोज के स्कूल चला गया। उसकी अध्यापिका ने जिस खुशी से उसकी प्रशंसा की, मेरा सेरभर लहू बढ़ गया। अध्यापिका का उलाहना प्रशंसा में बदल गया था। वैसे भी मेरे बारे में उसे सेंट हिलडाज़ गर्ल्ज हायर सेकेंडरी स्कूल से पता चल गया था कि मेरे अपने स्कूल में मेरा कितना प्रभाव है। इस लड़कियों के स्कूल के प्रिंसीपल के निमंत्रण पर मैं विद्यार्थियों को सम्बोधित करने गया था। उस स्कूल में अध्यापिका की बेटी भी पढ़ती थी। उस लड़की ने ही मेरे बारे में अपनी माँ को सबकुछ बताया होगा। हैड टीचर की पहली मुलाकात वाला रूखा रवैया मानो अब घी-शक्कर में बदल गया था।
दिसम्बर के टैस्ट में सरोज अपनी कक्षा में प्रथम आई। दूसरे स्थान पर रहने वाली लड़की के नंबर से सरोज के नंबर कहीं अधिक थे। मैं उन दिनों बीमार था। कई दिनों से स्कूल नहीं गया था। सरोज की हैड टीचर और संबंधित अध्यापिका बधाई देने खुद घर आईं।
यहाँ रह कर सबसे अधिक खुश थी मेरी माँ। उसे तो मानो स्वर्ग हाथ लग गया हो। वे सवेरे उठती, नहाती और माता के भवन माथा टेकने चली जाती। जिस माता के भवन पर एक बार आने के लिए मेरी माँ को 30-35 साल पहले गगरेट से खच्चरों पर आना पड़ा था, वह भवन अब घर बैठी भी रोज़ देखती, माता के दर्शन के लिए अव्वल तो सवेरे-शाम दो बार जाती, नहीं तो सवेरे अवश्य जाती, इसमें नागा नहीं होने देती। चंदर मुनी की पत्नी माँ को हाथ जोड़ कर प्रणाम करती। अन्य भोजकियों(पुजारियों) की स्त्रियों से लेकर बच्चे तक माँ को 'माँ जी' कह कर माथा टेकते। माँ इसे अपना धन्यभाग समझती। मेरे जन्म को अपना जीवन सफल मानने वाली बात कहते हुए वह न थकती। मैं माँ को खिझाने के लिए दिन में एक बार अवश्य कहता-
''खाण पींण नूं भोजकी
दुख सहिण नूं दोजकी।''

''न बेटा, फिर भी ब्राह्मण की औलाद हैं ये। इन्हें माड़ा वचन नहीं कहते।'' माँ मुझे नसीहत देते हुए कहती। मुझे माता के भवन के दर्शन करने के लिए भी कहती रहती और मैं माँ को हँस कर यह कह कर टाल जाता-
''माँ, तू रोज़ दो वक्त जाती है। अपना पुण्य आधा-आधा।''
नवरात्रों में दो बार मैं माता के भवन फेरा लगा आया था। देखने यह गया था कि माता की पिंडी घी की कैसे बनी हुई है। सचमुच, वह घी के स्थान पर सफ़ेद दूधिया संगमरमर की पिंडी प्रतीत होती थी। इस तरह का माता का रूप मैंने अन्य किसी मंदिर में नहीं देखा था।
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मेरी आँखों की हालत के बारे में हरीश पूरी तरह जान गया था। पड़ोसी होने के कारण वह अक्सर शाम को मेरे पास आ जाता। मैं उसे सैर के लिए ले जाता। उसके संग सैर करने में मुझे कोई झिझक नहीं थी। अगर अंधेरा भी हो जाता तो भी वह मेरे साथ मेरा सहारा बनकर चलता। छुट्टी के दिन हम किसी न किसी तरफ निकल जाया करते। एक बार महाराजा रणजीत सिंह का किला देखने गए। मुख्य द्वार पर महाराजा रणजीत सिंह के नाम का पत्थर अभी भी लगा हुआ था। वैसे सारा किला ढह चुका था। हमारे हाथ एक पत्ती लग गई। दो जगहों पर हमने पत्ती से काफी गहरा खोदा। एक जगह से गेहूं और दूसरी जगह से चावल निकले। बिलकुल काले मानो जले हुए हों। हमने अंदाजा लगाया कि यहाँ फौजों के लिए किसी वक्त अनाज़ जमा किया गया होगा। किले से आगे दूर तक ठाठें मारता पानी का प्रवाह, मानो कोई समुद्र हो। नहाने के लिए मन हुआ, पर मैं तेज बहते पानी में घुसने से डरता था, इसलिए नहाने का ख्याल त्याग दिया। जलधारा के इस तरह के बहाव, जल कुंड और अनेक अन्य नज़ारे जब भी आकर्षित करते, मैं छुट्टी वाले दिन कभी हरीश के साथ तो कभी जसबीर के साथ चला जाता। हरीश तैरना भी जानता था। इसलिए वह कहीं भी जाकर नहाने से नहीं झिझकता था। अगर मैं नहाता तो बस किनारे बैठकर ही नहाया करता।
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लोग कहते थे कि जैसी ठंड इस बार पड़ी है, वैसी कभी नहीं पड़ी। धर्मशाला के पहाड़ों पर पड़ी बर्फ़ रूई के गोलों जैसी लगती, पर बुखार चढ़ने के कारण मेरा घर से निकलना बन्द हो गया। बुखार के साथ खांसी-जुकाम के कारण कमजोरी दिन-ब-दिन बढ़ती गई। मन करता था यहाँ से भाग जाऊँ। यह बात मुझे कई वर्ष बाद समझ में आई कि सीलन भरा मौसम मेरे मुआफ़िक नहीं आता। लेकिन मैंने तो दिसम्बर में ही नौकरी छोड़ कर घर लौटने का फैसला कर लिया था। प्रिंसीपल और सब सीनियर अध्यापकों का प्यार और सत्कार भी मुझे वहाँ रहने के लिए रोक न सका। भाई को ख़त लिख दिया। उसने उत्तर दिया कि यदि मन उचाट हो गया है तो बेशक नौकरी छोड़ दूँ। लेकिन साथ ही लिखा कि तेरे लिए पहाड़ी आबोहवा अच्छी है। मैं भाई की सारी बात समझ गया था। अपने स्टाफ के अलावा अपने प्रिय मित्र जसबीर और हरीश की नसीहत भी किसी काम न आई। सरोज की अध्यापिकाओं के पास जब उसका सर्टिफिकेट लेने गया तो वे सर्टिफिकेट देने को तैयार नहीं थीं। हैड टीचर उम्र में मुझसे बहुत बड़ी थी। उसने बड़ी बहनों की तरह मुझे बहुत समझाया, पर पता नहीं मेरे दिल में क्या था, मैं जिद्द पर अड़ा रहा। प्रिंसीपल मिश्रा जब मेरी रिलीविंग चिट पर दस्तख्त कर रहा था, उसका गला भर आया। सचमुच उसकी आँखों में से आँसू बह निकले। इस तरह का प्यार ज़िन्दगी में मुझे किसी मुख्य अध्यापक से प्राप्त नहीं हुआ था। पर मैं क्या था, मानो पत्थर बन गया होऊँ। मैं उसके प्यार का मोल नहीं चुका सका। इस बात का पछतावा मुझे अगले स्कूलों में पहुँचकर भी सताता रहा। मुझे एक देवता की कद्र करनी नहीं आई थी। शायद अब वह इस संसार में हैं या नहीं। अगर होंगे तो लगभग सौ बरस के होंगे। उनके प्रति मेरा आदर-सम्मान आखिरी दम तक बना रहेगा और उन्हें स्मरण करते हुए क्षमा याचना की मुद्रा में उस स्कूल को छोड़ने के साल भर बाद एस.डी. हाई स्कूल, मौड़ मंडी छोड़ते समय भी मुझे उनका स्मरण आया था और अक्सर अब भी उसी तरह की मुद्रा में उन क्षणों के दौरान आ जाया करता हूँ जब कभी किसी अफ़सर का व्यवहार अमानवीय अनुभव करता हूँ।
18 जनवरी 1964 को पहली बस पकड़कर तीन बजे वाली गाड़ी से तपा पहुँच गया था। समझो, बुद्धू लौट कर घर आ गया था।
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नवम्बर के दूसरे सप्ताह स्कूल में एक असुखद घटना घटी। बाकी अध्यापकों के लिए यह सरसरी बात थी पर मेरे लिए दुखद। मेरे से अधिक यह दुखद बात पीतांबर दास के लिए थी। वह सीनियर अध्यापकों में से था। तीसरे नंबर पर अध्यापक माया दास के बाद वह अंग्रेजी का सबसे बढ़िया अध्यापक था। उसने कुछ मॉटो बनवाए और बड़ी कक्षाओं में लगवा दिए। ये सब मॉटो मुझे दिखलाकर लगाए गए थे। मैंने उससे कहा था कि यह आर्य समाजियों का स्कूल है, इसलिए ‘Religion is opium for the society’ वाला मॉटो मत लगवा। लेकिन उसने मेरी बात को शायद सरसरी तौर पर लिया हो। ग्यारहवीं कक्षा में यह मॉटो लगवा दिया गया। अगले दिन प्रिंसीपल अर्थ-शास्त्र के घंटे में जब कक्षा में गया, पीरियड तो उसने पूरा पढ़ाया होगा लेकिन पीरियड के तुरन्त पश्चात् पीतांबर दास की पेशी हो गई थी। उसने इस मॉटो को लगाने में मेरा नाम खामख्वाह लगा दिया। जब मुझे बुलाया गया तो मैंने साफ़ कह दिया कि मैंने तो इस मॉटो को लगाने पर पीतांबर दास को रोका था और साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया कि आर्य और सनातम धर्म की संस्थाओं में इस प्रकार के मॉटो पसंद नहीं किए जाते। उस मॉटो को लेकर जो विचार-विमर्श हुआ, उससे प्रिंसीपल के दिल में मेरे ज्ञान के संबंध में जो वृद्धि हुई, मुझे कभी यह महूसस नहीं हुआ कि वह कोई नकारात्मक होगा। पर पीतांबर दास की कच्ची कामरेडी के कारण मैंने उसके साथ मेलजोल बिलकुल ही कम कर दिया। मुझे तपा मंडी के आर्य स्कूल के हैड मास्टर यशपाल भाटिया की आदतों से पता चल गया था कि आर्य समाजी धर्म विरोधी किसी कार्यवाही को बर्दाश्त नहीं करते। मेरी यह बुज़दिली समझो या समय के फेर से आई समझ कि मैंने पीतांबर दास के इस काम का समर्थन नहीं किया था।
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अभी स्कूल में उपस्थित हुए कुछ ही दिन हुए थे कि हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग का नियुक्ति पत्र भी आ गया। भाई ने डाक से यह नियुक्ति पत्र भेजते हुए लिखा था कि अगर यह स्कूल मंडी के करीब हो तो मैं इस प्राइवेट स्कूल की नौकरी छोड़कर वहाँ चला जाऊँ। मैंने दो दिन का अवकाश लेकर मंडी के लिए बस पकड़ ली। मुझे नहीं मालूम था कि मेरे पहुँचने तक दफ्तर बन्द हो जाएगा। रात मुझे एक होटल में बितानी पड़ी। वैसे रात में रहने के लिए मैं कम्बल और अटैची लेकर गया था। मैं जानता था कि आज वापस लौटना नहीं हो सकेगा। जैसे मुबारकपुर चौकी से कांगड़े के सफ़र में काफी फ़र्क़ था, उससे भी अधिक फ़र्क़ कांगड़ा से मंडी तक के सफ़र में था। पहाड़ों की ऊँचाई, भिन्न-भिन्न प्रकार की वनस्पति और ठंड के कारण जहाँ कांगड़े का अभी पहाड़ी मौसम नहीं लगता था, वहीं बैजनाथ से मंडी तक का सारा सफ़र ऊँची पहाड़ियों, ढलानों, मोड़ों तथा ठंड और सीलन के कारण पूरी तरह पहाड़ी लगता था। जिस होटल में मैं ठहरा, वहाँ एक तिब्बती जोड़ा भी ठहरा हुआ था। बौध धर्म के ये पैरोकार दलाईलामा के साथ तिब्बत से भाग कर भारत आए हुए थे और शरणार्थियों वाली ज़िन्दगी गुजार रहे थे। उनके बताने पर पता चला कि वे धर्मशाला के पास एक स्कूल में रहते हैं। पर रात में जब मैंने उन्हें मांस खाते देखा तो हैरान रह गया। यह मुझे पहले नहीं पता था कि अहिंसावादी बौधी मांस भी खा लेते हैं।
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सवेरे तैयार होकर ज़िला शिक्षा अधिकारी के दफ्तर इस आस से पहुँचा कि वह स्टेशन बदल देगा और मेरी नियुक्ति सुंदर नगर के करीब किसी स्कूल में कर देगा क्योंकि रात में होटल के मालिक ने मुझे बता दिया था कि पांगना यहाँ से 60 मील की दूरी पर है। बस कोई नहीं जाती। माल ढोने-उतारने के लिए ट्रक जाते हैं। आगे कुछ मील पैदल चलकर जाना पड़ता है। इसलिए मैंने रात में अपने मन में निश्चय कर लिया था कि पांगना नहीं जाना है। अफ़सर कोई मुसलमान था। सिर पर सफ़ेद टोपी से वह मुझे कांग्रेसी पंडित प्रतीत हुआ, पर बाहर लगी नाम वाली तख्ती तो झूठ नहीं बोलती थी।
मैंने हाथ जोड़ दिए, पर मेरी समझ में यह नहीं आ रहा था कि उससे किस तरह संबोधित होऊँ। होंठों के फड़कने के सिवाय मैं कुछ और नहीं कह पाया था। अफ़सर ने कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और कहा-
''कहाँ से तशरीफ़ लाए हैं ?''
''तपा मंडी, ज़िला संगरूर, पंजाब से।'' साथ ही मैंने शिमला से आया नियुक्ति पत्र सामने रख दिया और विनय की कि मेरी नियुक्ति सुंदर नगर या इसके आसपास कर दी जाए।
''तपा मंडी ! यह वही तपा मंडी है जहाँ के पंडित गोवर्धन दास ही हैं ?''
''जी हाँ।''
''अच्छा ! वहाँ अफीम खूब बिकती है।''
''पहले बिका करती थी, अब नहीं।'' मैंने सच के आस पास रहकर ही जवाब दिया।
मुझे आशा थी कि तपा मंडी के बारे में इतना कुछ जानने वाला अफ़सर मेरी विनती अवश्य मान लेगा, पर उसकी शर्त थी कि पहले मैं हिमाचल प्रदेश सरकार का मुलाज़िम बनूँ और फिर बदली के लिए चिट्ठी-पत्र करूँ। मुलाज़िम बनने का तात्पर्य यह था कि मैं पहले सरकारी हायर सेकेंडरी स्कूल, पांगना जाकर उपस्थित होऊँ। जब तिलों में तेल न दिखाई दिया तो मैं बग़ैर कुछ कहे अपने कागज़ मेज पर से उठाकर दफ्तर से बाहर आ गया। यहाँ आते समय जो खुशी थी, यहाँ से लौटते समय उससे बढ़कर उदासी थी। दो दिहाड़ियाँ बर्बाद हो गई थीं और साठ रुपये भी। भाई को पत्र में सब कुछ लिख दिया और उसे तसल्ली थी कि मैंने जो कुछ किया है, ठीक ही किया है। लक्ष्मण को भी नियुक्ति पत्र आ गया था और था भी मंडी ज़िले का। उसने मेरे आ जाने के बाद ही घर से पैर निकालना था, यह बात भाई के खत से पता चली थी।
तिब्बतियों को मिलकर उनके स्कूल देखने की अभिलाषा जो दिल में थी, वह अक्तूबर की तनख्वाह लेकर पूरी भी कर ली। सबसे बड़ी हैरानी वाली बात यह हुई कि ये तिब्बती बच्चे हिन्दी इतनी सुंदर लिखते थे, मानो मोती पिरोये हों। न ही कांगड़ा में और न ही पंजाब के किसी बच्चे की मैंने इतनी सुंदर लिखावट देखी थी। मैंने अपने मन ही मन अनुमान लगाया कि चीन और तिब्बत की चित्र लिपि होने के कारण सुंदर लिखाई का वरदान इन लोगों को कुदरत की ओर से मिला हुआ है। यह स्कूल धर्मशाला के करीब ही था। इसलिए दिन छिपने से पहले घर लौट आया और फिर इन तिब्बती बच्चों और अध्यापकों को कांगड़ा के करीब एक बहती धारा में नहाते और तैरते देखा, जिन्हें पूरी तरह तैरना नहीं आता था, वे कारों की ट्यूब पहनकर तैर रहे थे। उनकी याददाश्त का कमाल यह था कि उन्होंने मुझे पहचान लिया और मेरे साथ उनकी स्कूल में जो बातें हुई थीं, वे शब्द-दर-शब्द बताने लग पड़े।
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हरीश के पड़ोस में रहने का एक लाभ यह हुआ कि मुझे 'गांधी आई अस्पताल, अलीगढ़' का पता लग गया और उसने मुझे छुट्टियों में अलीगढ़ आने का न्यौता दे दिया। मैंने उसका पूरा पता नोट करके छुट्टियों में अलीगढ़ जाने का फैसला कर लिया।
कांगड़ा में चिट्टी-पत्र का सिलसिला हरीश को छोड़कर अन्य किसी से नहीं था। इसका एक कारण तो यह भी था कि मुझे ग्रीष्म अवकाश में उसके पास अलीगढ़ जाना था जिस कारण मैं उससे राब्ता रखना चाहता था। पर इससे मुझे जो एक लाभ और हुआ, वह था - आठवीं और दसवीं के मेरे सौ प्रतिशत नतीजों की सूचना। उसने चिट्ठी में ही लिखा था कि स्कूल में अब भी मेरा नाम बड़ी इज्ज़त से लिया जाता है और अगर मैं आना चाहूँ तो अब भी प्रिंसीपल बग़ैर किसी अर्जी के मुझे नियुक्ति पत्र भेजने को तयार है।
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जब सर्दी अधिक पड़ने लग पड़ी तो बहुत सारे विद्यार्थी कांगड़ी साथ लाने लग पड़े। कांगड़ी एक प्रकार की छोटी अंगीठी थी जिसे कुम्हार मिट्टी से बनाकर आवा में पकाते थे। उस कांगड़ी में चार-पाँच कोयले रखने की गुंजाइश होती। लुटिया के आकार जैसी इस कांगड़ी को पकड़ने के लिए मिट्टी का कुण्डा लगा होता। बच्चे बेंच पर कांगड़ी रख लेते और हाथ सेंकते रहते। इस तरह की बात मैंने सर्दियों में जुआर में नहीं देखी थी। जुआर में इस तरह की ठण्ड पड़ी भी नहीं थी।
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हमारे कमरे के दायीं ओर एक थानेदार रहता था। पहले वह कांगड़ा के थाने में था और बाद में उसकी बदली धर्मशाला की हो गई थी। लेकिन रिहाइश उसने अभी नहीं बदली थी। माँ के साथ थानेदारनी की थोड़ी-बहुत बोलचाल बनी थी। वैसे उनका पूरा परिवार थानेदारी की हवा में ही उड़ा घूमता था। उसका एक लड़का आठवीं कक्षा में था और लड़की दसवीं में। लड़के को वे राज कहते थे और लड़की को सवरना। वहाँ मेरी रिहाइश के कुछ दिन बाद से ही लड़की अपने भाई को कभी हिसाब और कभी एलजबरे के सवालों पर निशानी लगाकर मेरे पास भेज दिया करती थी और मैं वे सवाल कापी पर हल कर दिया करता था। पाँच सात बार तो मैंने ऐसा किया होगा, पर जब मैंने देखा कि मेरी मेहनत और लियाकत को न थानेदार और न ही उसकी घरवाली कुछ समझते हैं तो मैंने कोई न कोई बहाना लगाकर लड़के को वापस लौटाना आरंभ कर दिया। जो बाप अपने बच्चों के उस्ताद से भी यह आस रखे कि थानेदार होने के कारण वह उसे दुआ-सलाम करे, भला तरसेम जैसा आदमी यह कैसे कर सकता था। वैसे भी पुलिसवालों के साथ मुझे कभी भी अधिक हमदर्दी नहीं रही थी और फिर वह थानेदार जो अपनी बेटी के सवाल हल करवाने के लिए किसी अध्यापक के पास अपने लड़के को भेजता हो, ऐसे शकी मिजाज़ पुलिसिये के साथ तो मैं बात करने को भी तैयार नहीं था। लड़के को छोड़कर मुझे वे पति-पत्नी और बेटी, तीनों ही अकड़बाज लगे। इसीलिए थानेदार ने जब स्वयं आकर उसकी लड़की को उनके कमरे में जाकर ट्यूशन पढ़ाने की बात की तो मैंने स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया। लड़की की माँ ने भी मेरी माँ से बार-बार कहा, पर लड़की के माँ-बाप की थानेदारी वाली अकड़ और शकी स्वभाव के चलते मैंने पुन: कोरा जवाब दे दिया।
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पता नहीं क्यों मैं ज्योतिष को विज्ञान समझता आ रहा हूँ। न मेरा लोगों की तरह ईश्वर में भरोसा है, न मैं किसी मंदिर-गुरुद्वारे में जाता हूँ, पर किसी अच्छे ज्योतिष का नाम सुनकर अगर संभव हो तो उसके पास अवश्य जाता हूँ। कांगड़े में गाँव गग्गल में एक ज्योतिष रहता था। असली नाम तो उसका कुछ और ही होगा, पर इलाके में उसे बिधू राम के नाम से जाना जाता था। उसका लड़का हमारे पास ग्याहरवीं कक्षा में पढ़ता था। उसके बुलाने पर मेरा जाना आसान हो गया। जब गया तो उसके बड़े कमरे में कम से कम तीस-चालीस लोग बैठे होंगे। विद्यार्थी होने के कारण उसका बेटा मनीष मुझे अलग कमरे में ले गया और बताया कि उसके पिताजी किसी आवश्यक कार्य से साथ वाले गाँव में गए हुए हैं और उसने अपने पिता को मेरे आने में बारे में बता रखा है। यह ज्योतिषी केवल अपने इलाके में ही प्रसिद्ध नहीं था, डा. राजेन्द्र प्रसाद और पंडित नेहरू जैसे नेता भी उससे मिलने किसी समय आए थे। वह ब्लॉक समिति का चेयरमैन भी था। कहते थे कि उसके पास भृगु संहिता है। आदर-सम्मान तो पहले मनीष ही कर चुका था। पंडित जी आए, मनीष ने मेरी ओर इशारा किया। पंडित जी ने एक बड़ा सा कागज़ों का बंडल खंगाला। मेरे अतीत के बारे में इस प्रकार बताना शुरू कर दिया मानो वे मेरी ज़िन्दगी के चश्मदीद गवाह हों। फिर भविष्य के बारे में बताया, पर जो कुछ भविष्य के विषय में बताया, वह बिलकुल भी सच साबित नहीं हुआ।
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अंदरेटा कांगड़ा के निकट ही था। यहाँ पंजाबी नाटक की नकड़दादी नोरा रिचर्ड का निवास भी था और शोभा सिंह चित्रकार का भी। इसलिए इस पहाड़ी गाँव को देखने की बड़ी हसरत थी। इतवार को जाने का मन बनाया। हरीश ने वायदा करने के बावजूद सेहत खराब होने का बहाना बना दिया। मैं अकेला ही बस में चढ़ गया। अंदरेटे से काफी पहले बस एक हादसे का शिकार हो गई। कई मुसाफ़िरों को कई चोटें आईं। मुझे कोई चोट तो न आई, पर पूरा शरीर मानो कस-सा गया हो। मैंने अंदरेटा जाने का प्रोग्राम त्याग दिया और दो घंटे बाद कांगड़े को आ रही बस में चढ़ गया। पता नहीं, फिर कभी अंदरेटा जाने का सबब ही नहीं बन सका। नोरा रिचर्ड से मिलने का फिर कभी अवसर मिल ही नहीं सका। हाँ, शोभा सिंह चित्रकार से बीस साल बाद पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला 1983 में मुलाकात हो गई। कनवोकेशन में उन्हें डॉक्टरेट की डिगरी मिलनी थी और मुझे साहित्यिक उपलब्धियों के लिए गोल्ड मैडल। मिल कर मन तो प्रसन्न हो गया, पर आँखों की रौशनी चले जाने के कारण उनके नूरानी चेहरे के दर्शनों से वंचित रहने का मुझे आज भी अफ़सोस है।
कुछ ऐसी ही घटना योल्ह कैंप देखने जाते समय घटित हुई। चल तो मैं पड़ा, पर अड्डे से ही मुझे वापस बुला लिया गया। मैं यह स्थान इसलिए देखना चाहता था कि यहाँ देश की आज़ादी के बाद भी हमारी अपनी सरकार ने कम्युनिस्ट पार्टी के बहुत सारे नेताओं को काफी समय तक बन्द रखा था। योल्ह कैंप के बारे में या तो आज़ादी से पहले के अंग्रेज अफ़सर या कुछ सजा काटने वाले गोरे जानते थे या इस जेल के बारे में हमारे कुछ बुजुर्ग कामरेड। इन देशभक्त साथियों में से कुछ तो अभी भी जीवित हैं। मैं इस तीर्थ से भी वंचित रह गया।
(जारी…)
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1 comment:

Sanjeet Tripathi said...

is kisht me naye anubhav hue, shakki thanedar se lekar bhavishy galat batane wale bhrugu sanhita rakhne wale jyotish tak, aur , aur bhi....

shukriya.......