समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Saturday, August 28, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-12(द्वितीय भाग)

आख़िरी प्रायवेट स्कूल - बठिंडा

26 जनवरी को स्कूल में गणतंत्र दिवस बड़े धूमधाम से मनाया गया। उन दिनों स्कूल में महिंदर सिंह बावरा क्रॉफ्ट टीचर था। बढ़ई होने के कारण उसे क्रॉफ्ट टीचर के पद पर रखा हुआ था। वैसे वह शायद मैट्रिक पास भी नहीं था। लेकिन उसकी स्कूल में कद्र इस कारण भी थी कि वह शहर की राम लीला में हनुमान बना करता था। सनातन धर्म सभा के लिए हनुमान का रोल करने वाले की अहमियत हुआ ही करती है, इसलिए उसकी भी थी। स्कूल में वह बच्चों को नाटक तैयार करवाता, गीत तैयार करवाता। गणतंत्र दिवस का सारा कार्यक्रम उसने ही तैयार करवाया था, पर निगरानी सारी मेरी थी। इसका एक कारण तो यह था कि मैं सांस्कृतिक गतिविधियों में दिलचस्पी रखने वाला सबसे सीनियर मास्टर था। दूसरा स्कूल की प्रबंधक कमेटी और अध्यापकों को मेरे लेखक होने के बारे में पता चल गया था। सो, विद्यार्थियों को जो प्राग्रोम तैयार करवाया गया, उसमें मेरी भूमिका भी थी, मैंने स्वयं भी एक कविता स्टेज पर सुनाई थी। उस दौरान मैं पंजाबी और हिन्दी दोनों भाषाओं में कविता लिखा करता था। इस अवसर के अनुसार जो उपयुक्त कविता मुझे याद थी, वह हिन्दी में थी। कविता पढ़ने का मेरा अपना खास अन्दाज था। जिस जोश और आत्मविश्वास के साथ मैंने कविता पढ़ी, मैं सारे समारोह का केन्द्र बिन्दु बन गया। स्कूल में ही नहीं, सारे बठिंडा शहर में मेरी बल्ले-बल्ले हो गई।
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जे.बी.टी. क्लास की अब कोई समस्या नहीं थी, न पढ़ाई की और न हॉस्टल की। मेरी भी कोई समस्या नहीं थी। मुझे पंजाबी पढ़ाने के लिए किताब पहले से पढ़ने की ज़रूरत नहीं थी। जे.बी.टी. को मैं लेक्चर देता था। सारा सिलेबस मेरी पकड़ में था। दसवीं, ग्यारहवीं और एक छोटी कक्षा को मैं पंजाबी पढ़ाता था। इसलिए किताब पढ़ने का काम कोई विद्यार्थी ही करता। मैं तो केवल कठिन शब्दों के अर्थ ही बताता। कविता के अर्थ बताते समय मुझे खुद ही सुरूर आने लग पड़ता। यह मेरी खुशकिस्मती समझो कि मुझे गुरबाणी, सूफ़ी और वीर रस के काव्य में से सब चुनिंदा बंद जुबानी याद थे। सब आधुनिक कविताएँ भी अगर पूरी नहीं तो आधी मुझे कंठस्थ थीं। इसलिए जब मैं कविताओं के अर्थ समझाता और बहुत सी काव्य-पंक्तियाँ भी स्वयं ही बोलता तो विद्यार्थी बहुत प्रभावित होते। मेरा रौब-दबदबा स्कूल में दुगना-चौगुना हो गया था। मैं समझता था कि मौड़ मंदी की अंग्रेजी पढ़ाने और हैड मास्टर की कापियाँ चैक करने और रामपुराफूल स्कूल के हिसाब पढ़ाने से यहाँ पंजाबी पढ़ाने का काम मेरे लिए बहुत आसान था। दिमाग पर कोई बोझ नहीं था, कोई तनाव नहीं था। दोनों स्कूल छोड़ने के कारण जो हीनभावना मेरे अन्दर घर कर गई थी, वह भी यहाँ आकर गायब हो गई थी। मानो कुबड़े को बजी लात फायदेमंद साबित हुई थी। हॉस्टल सुपरिटेंडेंट होने के कारण मेरी अपनी रोटी का मसला तो हल हो ही गया था, शाम को प्रिंसीपल, सेठ और गुप्ता भी आते और हॉस्टल में शाम की रोटी खाकर जाते। मुझे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ना था। लड़के भी बेहद खुश थे, वे महसूस करते थे कि वे स्कूल के सीनियर स्टाफ के बहुत नज़दीक हो गए हैं। इनमें से अगर कोई विद्यार्थी दुखी था तो वह था - सुखदेव धालीवाल। शायद उसे भ्रम था कि मोंगा, सिद्धू और वर्मा मेरे अधिक करीबी हैं और वे सीनियर स्टाफ से भी घुलेमिले हैं। ऐसा होना स्वाभाविक भी था।
मुझे घर जाने का बहुत कम अवसर मिलता था। हॉस्टल सुपरिटेंडेंट होने के कारण कुछ विद्यार्थी इतवार को भी घर नहीं जाते थे। इसलिए मेरे लिए हॉस्टल छोड़ना कठिन था। वैसे भी माँ और भाई के अलावा वहाँ मेरा और था भी कौन। हालांकि भतीजे और भतीजियाँ भी मुझे बहुत प्यार करते थे, पर भाभी का मेरे प्रति रवैया अक्सर कठोर ही रहता। इसलिए मेरे अन्दर घर के लिए वह खिंचाव नहीं था, जो अक्सर हुआ करता है।
मौड़ मंडी वाले हॉस्टल की बनस्पित यहाँ के हॉस्टल में रहने का एक लाभ यह था कि यहाँ सवेरे या हाजत के समय बाहर जाने की आवश्यकता नहीं थी। लैट्रिन हॉस्टल में ही बनी हुई थी। मेरी समस्या यह थी कि मैं रात के समय बाहर नहीं जा सकता था। मौड़ मंडी के हॉस्टल में रहते समय मैं रात की रोटी पूरी नहीं खाया करता था। मुझे यह भय सताता रहता था कि कहीं रात को हाजत न हो जाए। गर्मी में सुबह पाँच बजे के बाद और सर्दी में छह बजे के बाद मुझे बाहर जाने में कोई कठिनाई नहीं थी। पाँच-साढ़े पाँच बजे गर्मियों में पौ-फटने की रौशनी मेरे बाहर जाने के लिए काफी थी। सर्दियों में साढ़े पाँच बजे के बाद ही बाहर जा सकता था। मैंने यहाँ रात की रोटी के बाद दूध पीना भी आरंभ कर दिया था जब कि मौड़ मंडी के हॉस्टल में सिर्फ़ शाम की रोटी ही खाता था।
हॉस्टल का कर्ता-धर्ता होने के कारण फर्स्ट फ्लोर की सारी बत्तियाँ और ग्राउंड फ्लोर के किचन तक के सारे बल्ब और ट्यूब-लाइटें जलती रखता। इस तरह रात के समय मुझे हॉस्टल में घूमने में कोई दिक्कत न पेश आती। वैसे भी मैं एक बढ़िया-सी टॉर्च अपने पास रखता था। शायद बठिंडा में कभी टॉर्च की ज़रूरत नहीं पड़ी थी। मुझे कोई एक भी मौका ऐसा याद नहीं जब रात के समय बिजली गई हो। इस सबकुछ के बावजूद नज़र की कमजोरी तो कमजोरी ही थी।
एक दिन मैं किचन में से निकल कर अपने कमरे की ओर जा रहा था कि मेरा पैर ठीक जगह पर नहीं रखा गया और मैं गिरते-गिरते बमुश्किल बचा। उस समय मेरे संग महिंदर सिंह बावरा भी था। उसे भी हॉस्टल की करारी और स्वादिष्ट दाल का चस्का लग गया था और मेरे न चाहने पर भी कभी कभार शाम को हॉस्टल में आ जाता, हॉस्टल में नहीं, किचन में। मैं तो गिरता-गिरता बमुश्किल बचा था, पर उसने मेरे जख्म पर ऐसा नमक छिड़का कि मुझे उसकी खिंचाई करनी पड़ी। जिस समय यह घटना घटी, उस समय बावरा ने मुझे धृतराष्ट्र कहकर सम्बोधित किया। हालांकि उसने जो कुछ कहा था, उसमें आधा सच तो था ही, पर सच बर्दाश्त करना कौन सा आसान है। उस समय मुझे जो ऐनक लगी हुई थी उसके शीशे का नंबर साढ़े पाँच और साढ़े चार माइनस था और दोनों तरफ डेढ़ से दो के सिलेंड्रीकल नंबर भी थे। यह मेरी दूर की ऐनक थी। पास की ऐनक मुझे नहीं लगी थी। वैसे नज़दीक की निगाह भी मेरी ठीक नहीं थी। मैं स्वयं अधिक पढ़ता नहीं था। पढ़ने का काम दूसरों से लेता था। कक्षा में विद्यार्थियों से और कमरे में ओम प्रकाश वर्मा से। वर्मा को अपने संग रखने के मुझे कई फायदे थे। पहला फायदा यह था कि जे.बी.टी. का वो सिलेबस जिसे मुझे पढ़ाना होता, उसे कमरे में वर्मा से पहले ही पढ़वा लेता। थोड़ा-सा पढ़ने से ही मेरा काम चल जाता था क्योंकि इस सिलेबस का दो-तिहाई से अधिक ज्ञान तो मुझे पहले ही था। शेष कक्षाओं को पढ़ाने के लिए मुझे कुछ भी पढ़ने की ज़रूरत नहीं थी। साहित्यिक पत्रिकाएँ और अख़बार पढ़ने के लिए भी कोई न कोई मेरे कमरे में आ ही जाता। अख़बार की सुर्खियाँ तो मैं खुद पढ़ लेता। रेडियों पर खबरें सुनी होने के कारण बहुत सी खबरें अख़बार में से पढ़ने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी। यद्यपि रेडियो उस समय पूरी तरह भारत सरकार के नियंत्रण में था और समाचार भी सरकार के पक्ष वाले ही प्रसारित होते थे, किंतु मैं अपनी नज़र और नज़रिये से सरकार के सच-झूठ की छानबीन कर लेता था। वैसे भी उन दिनों में ''ट्रिब्यून'' ही मुख्य अख़बार था और यह अख़बार तथा पंजाबी, हिन्दी पत्रिकाओं को पढ़ने वाला कोई न कोई विद्यार्थी मेरे पास आ ही जाता। कांगड़ा में नौकरी के समय से ही पढ़ने-लिखने का काम मैं इसी प्रकार चलाया करता था। मेरी नज़र निरतंर घटती जा रही थी। ऐनक का नंबर बढ़ना बन्द हो गया था। डेढ़-दो से आरंभ होकर चार और साढ़े पाँच पर आकर रुक गया था। यहाँ रहकर हर समय यह चिंता लगी रहती कि अब नज़र का क्या होगा, क्योंकि मैं दो बार 'गांधी आई होस्पीटल, अलीगढ़' भी हो आया था। मेरी कम होती निगाह को लेकर मेरी माँ बहुत चिंतित थी और भाई भी। पर मेरी आँखों के इलाज के लिए घर का कोई भी सदस्य उपाय नहीं कर रहा था।
मार्च में दसवीं-ग्यारहवीं के इम्तिहान भी शुरू हो गए थे और घरेलू परीक्षाएँ भी। जे.बी.टी. को पढ़ाने वाले सब अध्यापकों ने इन परीक्षाओं में व्यस्त हो जाना था। इसलिए प्रिंसीपल ने जे.बी.टी. के लिए घरेलू परीक्षाओं का प्रोग्राम बना दिया। शिक्षार्थी यह परीक्षा नहीं देना चाहते थे क्योंकि उन्हें पता था कि यह परीक्षा ज़रूरी नहीं है। इसलिए प्रिंसीपल और शिक्षार्थियों के मध्य या ऐसा कह लो कि दफ्तर और जे.बी.टी. शिक्षार्थियों के बीच तनाव की स्थिति पैदा हो गई। सेठ और गुप्ता जो हमेशा मेरी पीठ पर रहे, वे समझते थे कि मैं ही इस समस्या का कोई हल खोज सकता हूँ। प्रिंसीपल गुप्ता से उनके संबंध अफ़सर-मातहतों वाले नहीं थे बल्कि मंडली के यारों जैसे थे। वे अपने यार को हर हालत में इस उलझन में से निकालना चाहते थे। प्रिंसीपल ने मुझे बुलाया, सेठ और गुप्ता को भी। मेरी राय यह थी कि दबाव में स्थिति बढ़ सकती है। मेरी इस बात से सब सहमत थे। कल तक का समय लेकर मैंने इस समस्या के हल को खोजने के लिए अपने दिमाग को पूरी तरह इस ओर लगा दिया।
उन दिनों में स्कूल ने एक बाग खरीदा था - उजड़ा हुआ बाग। इस बाग को ग्राउंड के तौर पर इस्तेमाल किया जाना था। पर समस्या यह थी कि इस लम्बे-चौड़े बाग में चौपड़ की कच्ची सड़क बनी हुई थी। यह सड़क दसेक फुट चौड़ी और ग्राउंड से तीन फुट ऊँची थी। कमेटी इस सड़क को खत्म करके समतल ग्राउंड की शक्ल में तब्दील करना चाहती थी। इस काम पर मज़दूर लगाकर कम से कम दस हजार रुपये का खर्चा होने की संभावना थी। उन दिनों मजदूर की दिहाड़ी तीन-चार रुपये थी। इतनी बड़ी रकम से तो स्कूल मास्टरों को दो ढाई महीनों की तनख्वाह दिया करता था। मैंने जे.बी.टी. के हॉस्टल में रहने वाले शिक्षार्थियों की बैठक बुलाई। तजवीज़ रखी कि दस दिन का सोशल सर्विस कैम्प लगा दिया जाए तो परीक्षाओं से छुटकारा मिलने की आस है। कैम्प की रूप रेखा पूछने पर मैंने चौपड़ की सड़क को समतल ग्राउंड में बदलने की तजवीज़ रख दी। शिक्षार्थी लम्बी-चौड़ी बहस के बाद तैयार हो गए, क्योंकि उन्हें सोशल सर्विस सर्टीफिकेट्स और अच्छी कार-सेवा के लिए ईनामों का भी लालच दिया। वैसे भी अग्रज विद्यार्थियों में मोंगा, सिद्धू और वर्मा ही थे, या फिर था धालीवाल। शायद एक और बड़ी उम्र का शिक्षार्थी था -हरनेक सिंह। वह जितना सज्जन था, उतना तकड़ा भी था। मोंगे और इस सज्जन शिक्षार्थी के कारण मेरी योजना सफल हो गई।
दो या तीन शिक्षार्थी अभी भी ऐसे थे जो हॉस्टल में नहीं रहते थे, उनमें से एक सेठ साहब का छोटा भाई त्रलोक चंद था और दूसरा दविंदर कुमार। दविंदर और त्रलोक चंद की आपस में गहरी दोस्ती थी। दविंदर जब जे.बी.टी. की किसी लड़की के साथ रोमांस के सिलसिले में उलझ गया और लड़के और लड़की की चिट्ठियाँ मेरे हाथ लग गईं, तब सेठ साहब और त्रलोक चंद के कारण ही छुटकारा हुआ था। वैसे भी इस मामले में मैं खुले दिल वाला था, पर जो इस रोमांस का कोई नोटिस ना लेते तो समूची क्लास के बिगड़ने का डर था और स्कूल की बदनामी का भी। जिम्मेदार या तो मुझे माना जाना था या दोषी होना था प्रिंसीपल ने। इसलिए हॉस्टल से बाहर वाले विद्यार्थियों सहित दस लड़कियाँ भी कैम्प लगाने के लिए सहमत हो गईं। अगले दिन हम चारों की मीटिंग में मेरी योजना पूरी होने में कठिनाई तो क्या आनी थी, प्रिंसीपल तो बागोबाग हो गया। कमेटी के पास नंबर बनाने का उसके लिए यह सुनहरी अवसर था। सेठ कहता रहा कि भई हमानूं तो ये बातें नहीं सूझतीं (सेठ पीछे से हरियाणा का था, शायद कैथल का जिस कारण वह अक्सर 'हमानूं- तमानूं बोल कर बातचीत में बांगरू रंग चढ़ा जाता था)। गुप्ता की छाती पहले से कहीं अधिक चौड़ी लगती थी क्योंकि मैं इस स्कूल में गुप्ता की ही देन था। ''ओए, तुम्हें हीरा लेकर दिया है 130 रुपये में। पी.सी. गुप्ता और तुम दोनों मिलकर भी एक तरसेम नहीं बन सकते।'' वह मेज पर मुक्का मार मार कर एस.पी. गुप्ता कह रहा था।

तीन समय की रोटी तो हॉस्टल में भी बननी थी और कैम्प में भी। अन्य चाय पानी का प्रबंध स्कूल की ओर से करवा दिया गया। मुझे कैम्प कमांडेंट बना दिया गया था। 1965 की 2 मार्च को बड़ी सजधज के साथ कमेटी के प्रधान पंडित पुशपति नाथ ने कैम्प का उदघाटन किया। लड़के सुबह नौ बजे से दोपहर दो बजे तक ग्राउंड को समतल करने का काम करते। काम बांट दिया गया था। कुछ दल बना दिए गए थे। देशभक्तों के नाम पर उन दलों का नामकरण भी कर दिया गया था। एक दल लड़कियों का था। शायद इस दल का नाम 'लक्ष्मीबाई दल' था। दोपहर के बाद रोज़ सांस्कृतिक कार्यक्रम होता, खूब मौजें लगतीं। लड़कों को लड़कियों के और लड़कियों को लड़कों के और निकट होने का अवसर मिला। जवानी-मस्तानी और क्या चाहा करती है। प्रिंसीपल गुप्ता, सेठ, एस.पी. गुप्ता, साइंस मास्टर कपूर से लेकर कुंदन लाल शास्त्री और ज्ञानी लाल चंद जैसे बुजुर्ग़ अध्यापक भी कैम्प में चक्कर लगाते और काम करते विद्यार्थियों को देखकर अश-अश कर उठते। जिस सजधज के साथ कैम्प का उदघाटन हुआ था, उससे बढ़कर शोभा और समझदारी से 12 मार्च को कैम्प का समापन समारोह सम्पन्न हुआ। कुछ ईनाम बांटे गए। सोशल सर्टिफिकेट तो सभी को ही दिए गए। करनैल सिंह एन.डी.एस.आई जो स्कूल में शारीरिक शिक्षा अध्यापक था, उसने मेरा दाहिना हाथ बनकर काम किया।
डॉ. राम सरूप बांसल, पंडित पुशपति नाथ, कुलवंत राय अग्रवाल और कमेटी के कुछ अन्य गणमान्य सदस्य भी समारोह में शामिल हुए। यहाँ मैं अपनी प्रशंसा करता कुछ अच्छा नहीं लगता, पर सच मानना, सभी के भाषण में प्रशंसा का केन्द्र बिन्दु मैं ही था। मैंने अपने भाषण में सारा सेहरा शिक्षार्थियों के सिर बांधा। यह था भी सच। विद्यार्थियों ने जिस मेहनत से काम किया और अनूठे अनुशासन का सबूत दिया, उनकी इस देन को याद करके आज भी मैं सोचता हूँ कि अगर जवानी को सही राह डाला जाए तो कोई वजह नहीं कि देश तरक्की के वे शिखर सर न कर सके, जिन्हें सर करने का दावा कई पश्चिमी देश करते हैं। आज जब मेरी आँखों की ज्योति पिछले पैंतीस साल से पूरी तरह जवाब दे चुकी है, मेरे सामने मेरे विद्यार्थियों द्वारा समतल किया ग्राउंड मुझे दिखाई दे रहा है और ऐसा सोच कर मैं अपने आप को भाग्यशाली समझता हूँ।
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कभी वे दिन भी थे जब मैं सरकारी नौकरी बिलकुल नहीं करना चाहता था। सरकारी नौकरी को मैं अपनी प्रगतिशील विचारधारा के राह का रोड़ा समझता था। इसलिए अक्सर सरकारी नौकरी के लिए अप्लाई करने के बावजूद इंटरव्यू पर जाना या तो टाल देता या फिर कोई अन्य ढंग इस्तेमाल करके नौकरी पर उपस्थित होने के लिए बहाना घड़ लेता। वैसे ढंग की नौकरी कभी मिली भी नहीं थी। 1963 के बाद मैंने स्कूल मास्टर से लेकर एक्साइज और टेक्सेशन इंस्पेक्टर, इनकम टैक्स इंस्पेक्टर और अन्य कई पदों के लिए अप्लाई किया। 1964 में टेलीफोन ओपरेटर की पोस्ट के लिए यह सोच कर अप्लाई कर दिया था कि वहाँ आँखों की तेज रोशनी की अधिक ज़रूरत नहीं। 1965 के शुरू में परिवार नियोजन के प्रचार के लिए स्वास्थ्य विभाग के अधीन सेवा चयन बोर्ड अर्थात एस.एस.एस. बोर्ड द्वारा ब्लॉक एक्सटेंशन एजूकेटर की 44 पोस्टों का विज्ञापन ट्रिब्यून में दिया गया। शैक्षिक योग्यता थी बी.ए. और ग्रेड था - 150-10-250 का। उस समय बी.एड. मास्टर का ग्रेड 110-250 का था। ग्रेड भी अच्छा था और पोस्ट भी मेरी मनपसंद की, सेहत सेवाओं का प्रचार जिस कारण लोगों से सीधा वास्ता पड़ना था, पर चयन होना सरल नहीं था। फिर भी भाई की सलाह से अप्लाई कर दिया। पहले टैस्ट दिया। कुल 44 पद थे और सुना था कि अर्जियाँ 800 पहुँची थीं। इसीलिए बोर्ड ने टैस्ट रखा था। टैस्ट के बाद 88 उम्मीदवारों को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। उन दिनों में पदों को भरने के लिए रिश्वत नहीं चलती थी जैसा कि आजकल मास्टरों के लिए दो-ढाई लाख, लेक्चरर के लिए चार-पाँच लाख और अन्य कमाई वाली गजेटिड पोस्टों के लिए पच्चीस-पच्चीस, तीस-तीस लाख रुपया चलता है। सिफारिश ज़रूर मानी जाती थी। कुछ पोस्टें मैरिट के आधार पर भी भरी जाती थीं। सरदार प्रताप सिंह कैरों का जमाना था और बोर्ड का चेयरमैन था - भूतपूर्व डी.एस.पी. उजागर सिंह। वह मोगे का रहने वाला था और था भी मेरे बड़े ताया चमन लाल के दामाद लाला साधू राम सिंगला का गहरा यार। हमें पता था कि किसी समय साधू राम ने उजागर सिंह का एक बड़ा काम किया था। इंटरव्यू आया तो मैं मोगे पहुँच गया। अप्रैल के दूसरे हफ्ते में इंटरव्यू था। उजागर सिंह ने 13 अप्रैल वैसाखी वाले दिन मोगे में आना था। लाला साधू राम ने मुझे यह कह कर भेज दिया कि 'बेफिक्र होकर चला जा, मैं खुद कर दूंगा। मेरा नाम लेकर उसे चण्डीगढ़ में मिल भी लेना।' मैं और मेरा भाई मिले तो वह भी अपनों की भांति मिला। हमारे पास एक चिट्ठी एक अन्य डी.एस.पी. की भी थी जो डरते डरते हमने उजागर सिंह को पकड़ा दी। उसने इंटरव्यू के बाद शाम के वक्त फिर मिलने के लिए कहा। बड़ा कमाल का आदमी था सरदार उजागर सिंह। अगले दिन मैं अकेला मिला। उसने बताया कि मेरा टैस्ट में तीसरा नंबर है और सेलेक्ट तो मैं हो ही जाऊँगा, पर हँसते हुए कहने लगा, ''लाला साधू राम को यह बात कह न देना, मुझे भी लाला से काम लेने हैं, जा दौड़ जा अब।'' मेरा धरती पर पैर नहीं लग रहा था। मुझे प्राइवेट स्कूल के 130 रुपये की जगह सरकारी नौकरी में 215 रुपये मिलने थे और डाक्टर की तनख्वाह उस समय शायद 275 रुपये थी।
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मार्च 30 थी या 31, यह याद नहीं। जब मैं शाम को दफ्तर के पास से गुजर रहा था तो स्कूल का माली बैठा रो रहा था। वह बेचारा कोई पुरबिया था। उसकी पत्नी और बच्चे स्कूल में ही कहीं रहते थे। वह स्कूल का चपरासी भी था और चौकीदार भी। वैसे सभी उसे माली ही कहकर बुलाते थे। जब मैंने उससे रोने का कारण पूछा, वह ज़ोर ज़ोर से रोने लग पड़ा। मैंने उसे हौंसला दिया। वह रोते रोते बताये जा रहा था कि उसका मोतिये का आपरेशन ठीक न होने के कारण उसकी नज़र नाममात्र ही रह गई है और स्कूल वालों ने उसे नौकरी से जवाब दे दिया है। मैं उसके काम से पूरी तरह वाकिफ़ था। वह अपने बेटे को साथ लेकर स्कूल के सारे कमरे बन्द करता, दफ्तर, स्टाफ रूम और अन्य ज़रूरी कमरों को ताले लगाता। सुबह कमरे खोलने का काम भी वही करता था। स्टाफ रूम के मेज और कुर्सियों की साफ-सफाई की जिम्मेदारी भी उसी की थी। मैंने प्रिंसीपल के मुँह से उसके काम के बारे में कोई शिकायत नहीं सुनी थी। मैंने माली को धीरज दिया, उसके मन को टिकाया और उसकी सहायता करने का वचन दिया। मैं सोच रहा था कि यह अनहोनी बात तो किसी के संग भी हो सकती है। किसी के साथ क्या, मेरे साथ तो हर हालत में घटित हो सकती है क्योंकि मेरी दृष्टि कम होते होते बहुत कम हो गई थी और जब मैंने ताया मथरा दास की बड़ी लड़की सोमावंती और तीसरे नंबर के बेटे सोम नाथ के बारे में सोचा तो मैं काँप-सा गया। तुरन्त मैं प्रिंसीपल पी.सी. गुप्ता जी के घर गया। उसने मुझे समझाया कि मैं इस काम में दख़ल न दूँ, यह कमेटी का फैसला है।
मैं नया नया सोशल सर्विस कैम्प लगा कर हटा था और पंडित पुशपति नाथ की वाह-वाह ले चुका था। इसलिए मैं पंडित जी के पास भी जाकर उपस्थित हो गया। मेरे काम की वजह से ही वह मुझे रखे हुए थे। वैसे मेरे कम्युनिस्ट होने की सारी कहानी उन्हें भी पता थी और कमेटी के बाकी मेंबरों को भी। ''मास्टर जी, तुमने टिक कर नौकरी करनी है तो करो, हम किसी की कामरेडी नहीं झेलते। तुम्हें भी चलता कर देंगे।'' पंडित जी के आग जैसे शब्द सुनकर मेरे मानो सात कपड़ों में आग लग गई। लेकिन मैं गुस्से में भरा वापस लौट आया। अगले दिन प्रिंसीपल गुप्ता से स्पष्ट कह दिया कि मैं इस स्कूल में नौकरी नहीं करूँगा। मेरी दिलेरी के दो कारण हो सकते हैं। एक तो यह कि ब्लॉक एक्सटेंशन एजूकेटर की नौकरी के लिए मुझे इंटरव्यू लैटर मिल चुका था और दूसरा यह कि नया सैशन आरंभ होने के कारण इतनी भर तनख्वाह पर तो मुझे कहीं भी नौकरी मिल सकती थी।
चार या पाँच अप्रैल की बात है। प्रिंसीपल ने मुझे कह दिया कि कमेटी मुझे दिल से नहीं रखना चाहती। ''गुप्ता जी, अगर कमेटी मुझे रखना नहीं चाहती तो मैं भी यहाँ रहना नहीं चाहता।'' मैंने पता नहीं क्यों यह बात कह दी थी। भाई और माँ के बारे में सोच कर अन्दर ही अन्दर मैं बहुत ही घबरा गया था। एक साल में यह मेरा तीसरा स्कूल था। सभी स्कूलों की कमेटियाँ एक जैसी हैं, सब हैड मास्टर और प्रिंसीपल एक जैसे हैं - यह सोचकर मैं अपने किए पर पछता रहा था। पर सिर झुकाकर जीना भी जैसे मेरी अंतरात्मा को स्वीकार नहीं हो। तब भी और अब भी, मैं कभी भी अपनी कमजोरी के बावजूद झुककर काम नहीं कर सका था।
एस.पी. गुप्ता जैसा कि मैं पहले भी बार बार उल्लेख कर चुका हूँ, इस स्कूल में मेरा सबसे करीबी दोस्त बन चुका था। मैंने उसके संग अपना दिल खंगाला। उसने चार-पाँच गरम गरम गालियाँ पहले तो पुशपति नाथ को निकालीं और फिर सात-आठ प्रिंसीपल पी.सी. गुप्ता को। ''तू परवाह न कर। अगर तू यहाँ रहना चाहता है तो कोई कंजर तेरी ओर झांक भी नहीं सकता। मैं भी यहाँ ऐसे ही लाठी के बल पर नौकरी करता हूँ। तूने देखा नहीं, लाला की कैसे रगड़ाई किया करता हूँ।'' गुप्ता के पास आकर मानो मेरा सेर भर खून बढ़ गया हो। प्रिंसीपल गुप्ता को लाला वह अक्सर तब कहा करता था जब कभी उसने प्रिंसीपल के खिलाफ़ बात करनी होती थी। तब वह यारी-दोस्ती के सारे रिश्ते तोड़ दिया करता था। मैं अभी कुछ भी नहीं बोला था कि गुप्ता फिर बोल पड़ा, ''यह जो बाहमण है न, पुड़पुड़ी नाथ, यह बघियाड़ है बहन... और लाला गीदड़ है... साले के फच्च फच्च गोबर की धार पड़ती नहीं देखी कभी।'' गुप्ता की बकीं गालियों और सुनाए गए श्लोकों से मेरी घबराहट तो खत्म होनी ही थी, मेरी हँसी भी बन्द होने का नाम नहीं ले रही थी। मैंने गुप्ता को सारी अन्दरूनी बात बता दी और अगले दिन गुप्ता ने प्रिंसीपल से बात कर ली। निर्णय यह हुआ कि यदि तरसेम गोयल जाना चाहता है तो किसी भी समय 24 घंटे का नोटिस देकर जा सकता है। वैसे मेरे नियुक्ति पत्र में एक महीने के नोटिस की शर्त लिखी हुई थी। बढ़िया हुए इंटरव्यू के बाद मेरा हौसला और बढ़ गया। मई के पहले हफ्ते नियुक्ति पत्र आ गया। मैंने गुप्ता जी को नियुक्ति पत्र दिखाया। उसने फिर प्रिंसीपल को गाली निकाली और कहा, ''दें इनकी माँ की....'' मैंने गुप्ता जी से यह कहा, ''अब हमें डर तो कोई नहीं रहा, पर प्रिंसीपल से बिगाड़ कर जाने की भी कोई ज़रूरत नहीं।'' इसलिए हम दोनों ने दफ्तर में जाकर अपना फैसला सुना दिया। जब मेरे इस फैसले की भनक कुलवंत राय अग्रवाल को पड़ी तो वह स्वयं स्कूल में आया और प्रिंसीपल से कहने लगा, ''हम इस योग्य लड़के को किसी कीमत पर नहीं छोड़ेंगे... तू तो यूँ पंडित का चमचा है... चौथे दरजे का बणिया, हम बरनाले वाले तेरे जैसे कायर नहीं।'' जब मुझे दफ्तर में बुलाया गया, मैंने स्पष्ट कर दिया, ''चाचा जी, मुझे इससे दुगनी तनख्वाह की सरकारी नौकरी मिल गई है और 44 बंदों में से मेरा तेरह नंबर है।''
''फिर ठीक है। मैं तो समझा था कि बाहमण और इस बनिये ने मिलकर एक और गऊ पर कुल्हाड़ा न चला दिया हो।'' अग्रवाल साहिब का इशारा उस माली की तरफ था, जिसको मार्च के अन्तिम दिन आपरेशन के बाद उसकी निगाह ठीक न बनने के कारण हटा दिया गया था। वह उसकी दृष्टि में पहली गऊ थी और मैं दूसरी, पर चाचा जी को पता नहीं था कि मैं तीखे सींगों वाली गाय हूँ और इन सींगों से बाह्मण का बेड़ा बहा सकती हूँ। वह गले लगाकर चले गए और कह गए कि जाते हुए उनसे मिलकर जाऊँ।
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17 मई की रात मेरे लिए बड़ी हसीन रात थी। जे.बी.टी. के शिक्षार्थियों ने मेरी विदायगी में शानदार डिनर का इन्तज़ाम किया। स्कूल का बड़ा आँगन खूब सजाया गया। रोशनी की गई, स्टेज सजाया गया, सांस्कृतिक कार्यक्रम का प्रबंध भी किया गया। लाउड स्पीकर भी लगाया गया। जे.बी.टी. को पढ़ाने वाले सभी अध्यापकों को भी बुलाया गया। प्रिंसीपल दिल से मेरे इस विदायगी प्रोग्राम से खुश नहीं था, पर वह एस.पी. गुप्ता से बहुत डरता था और मुझसे भी। उसे डर था कि दफ्तर की ओर से इन्कार करने पर कहीं विद्यार्थी बगावत ही न कर बैठें। उसे विद्यार्थियों के संग मेरे सम्बन्धों की अच्छी जानकारी थी। इसलिए वह विदायगी समारोह में शामिल हुआ। उसे मेरी तारीफ़ भी करनी पड़ी। वाइस प्रिंसीपल सेठ ने मेरी तारीफ़ के पुल बांध दिए। एस.पी. गुप्ता को स्टेज पर बोलने का अभ्यास नहीं था, इसलिए वह कुछ नहीं बोला था। लेकिन उसके प्यार की पवित्रता का मैं सदैव ऋणी रहूँगा। बावरे ने मेरी तारीफ़ में कसीदानुमा गीत गाया। और जो भी प्रोग्राम पेश हुआ, हर आइटम में मेरा गुणगाण किया गया था। अपनी इतनी बड़ी कमजोरी के बावजूद विद्यार्थियों की ओर से मेरा यह सम्मान मेरी ज़िन्दगी का अमूल्य खजाना है, बिलकुल वैसे जैसे मौड़ मंडी के विद्यार्थियों ने हैड मास्टर खुंगर के विरोध के बावजूद स्कूल से बाहर मुझे शानदार विदायी पार्टी दी थी। मौड़ मंडी और बठिंडे के मेरे प्यारे विद्यार्थियो ! तुम जहाँ भी हो, खुश रहो। मेरी शुभकामनाएँ तुम्हारे साथ हैं।
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18 मई 1965 को मैं हमेशा हमेशा के लिए प्राइवेट स्कूलों की ज़ालिमाना हुकूमत से मुक्त हो गया था। उन दिनों अभी प्राइवेट स्कूलों में न तो सेवा सुरक्षा के पक्के नियम बने थे और न ही सरकारी स्कूलों के बराबर ग्रेड थे। यहाँ मैं यह लिख दूँ तो इसे अप्रासंगिक न समझना कि 1967 के प्राइवेट स्कूल अध्यापक संघर्ष और जेल भरो आन्दोलन के बाद ही प्राइवेट स्कूलों को पंजाब सरकार ने सरकारी स्कूलों के बराबर ग्रेड और 95 प्रतिशत ग्रांट देने का फैसला किया था।
(जारी…)
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1 comment:

Sanjeet Tripathi said...

kahani kya se kya mod leti hai, vaise yah sach hai ki apna dukh aur jyada bhari ho jata hai jab vaisa hi dukh sahan karne wala aur koi dikh jaaye jaise is kisht me master sahab ko vo maali dikh gayaa, chaliye ab agle kisht me dekhte hai, kuchh nai si kahani kya mod leti hai, shukriya...