एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा
धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-15(प्रथम भाग)
धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-15(प्रथम भाग)
नया महकमा, नये अनुभव
ब्लॉक एक्सटेंशन एजूकेटर की सेवाएँ पंजाब सरकार ने 1964 में विशुद्ध रूप से परिवार नियोजन के प्रचार और प्रसार के लिए आरंभ की थीं। पहले कुछ ब्लॉकों में अस्थायी तौर पर नियुक्तियाँ की गईं। उस समय प्राय: हर ब्लॉक में एक प्राइमरी हैल्थ सेंटर होता था। ब्लॉक एक्सटेंशन एजूकेटर की नियुक्ति हैल्थ सेंटर में हुआ करती थी और उसका कार्यक्षेत्र पूरे का पूरा ब्लॉक होता था जिसमें ग्रामीण क्षेत्र के साथ-साथ शहरी क्षेत्र भी शामिल होता था। उस समय प्राइमरी हैल्थ सेंटर अर्थात पी.एच.सी. में अक्सर एक डॉक्टर का पद होता था, जिसे मेडिकल अफसर कहते थे, जिसकी शैक्षिक योग्यता कम से कम एम.बी.बी.एस. होती थी। एक पी.एच.सी. में एक फार्मेसिस्ट होता था। पुराने फार्मेसिस्ट तो सिर्फ मैट्रिक पढ़कर ही लगे हुए थे और अनुभव ही उनकी व्यवसायिक योग्यता बन गई थी। फिर मैट्रिक के बाद एक वर्ष का डी. फार्मेसी का कोर्स करके फार्मेसिस्ट की भर्ती होने लगी। डॉक्टर अक्सर नज़दीक के गांवों से हैल्थ सेंटर में आए मरीजों को देखने का काम करते थे और फार्मेसिस्ट दवाई देने का। फार्मेसिस्ट कुछ तरल दवाइयाँ भी डिस्पेंसरी में तैयार किया करते थे जिन्हें डिस्पेंसरी में बड़ी-बड़ी बोतलों में रखा जाता था। जिन्हें बोतलों से बीकर में डालकर फिर उसे मरीजों की शीशियों में डाला जाता। फार्मेसिस्ट को आम लोग कम्पाउंडर या डिस्पेंसर भी कहते थे, पर कम्पाउंडर शब्द अधिक प्रचलित था। उसकी सहायता के लिए चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी मरहम-पट्टी और टीके आदि लगाने का काम किया करते। यद्यपि यह उनकी ड्यूटी का हिस्सा नहीं था लेकिन कुछ चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी इस काम को सीख लेते थे। इस प्रकार लोगों में उनकी भी अच्छी पैठ बन जाती थी। उनमें से कुछ तो करीब के किसी गांव में रिहाइश रख लेते और प्रैक्टिस भी करते। पी.एच.सी. में एक एल.एच.वी. अर्थात लेडी हैल्थ विजिटर की पोस्ट तब भी थी और अब भी है। एक या दो ए.एन.एम. अर्थात एक्ज़िलरी नर्स मिडवाइफ की पोस्टें होतीं और एक या दो दाइयों की। पी.एच.सी. के अधीन ब्लॉक में आबादी के अनुसार आठ या दस सब-सेंटर होते थे। हर सब-सेंटर में एक ए.एन.एम. और एक ट्रेंड दाई की पोस्ट थी। इन सब-सेंटरों की पड़ताल का काम मेडिकल आफीसर स्वयं भी करता और एल.एच.वी. भी।
उन दिनों भारत सरकार यह समझती थी कि मलेरिया पर नियंत्रण पा लिया गया है। इसलिए कौमी मलेरिया समाप्ति मुहिम आरंभ कर दी गई थी और हर घर के बाहर मलेरिया वर्कर जिन्हें उन दिनों सर्वेलैंस वर्कर कहा करते थे, काले ब्रश से दरवाजे पर एन.एम.ई.पी. लिख कर नीचे चार लम्बवत लकीरें खींच देते थे। एन.एम.ई.पी. का अर्थ है - नेशनल मलेरिया इरैडिकेशन प्रोग्राम अर्थात राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम। हर ब्लॉक में आठ से दस वर्कर होते थे जिनमें गांव को बांटने का काम पी.एच.सी. के मेडिकल आफीसर द्वारा किया जाता था। ये वर्कर घर घर जाकर खैर-खबर लेते। लोग समझने भी लगे थे कि ये बुखार की गोलियाँ देने वाले कर्मचारी हैं लेकिन गांवों में वर्करों को सभी डॉक्टर ही कहते। ये वर्कर बुखार वाले मरीज की प्राय: बीचवाली उंगली पर सुई चुभो कर काँच के एक टुकड़े पर खून का कतरा गिराते और बड़ी निपुणता से उस खून की बूँद को स्लाइड के बड़े हिस्में में बिछाकर मरीज का नंबर भी लिख देते। वही नंबर वे अपने रिकार्ड में मरीज के पूरे पते सहित दर्ज क़र देते। मरीज को क्लोरोपीन की चार गोलियाँ देते और साथ ही दूध आदि पीने की हिदायत भी करते। सब-सेंटर में काम करने वाली ए.एन.एम. अर्थात नर्स जहाँ औरतों और खासतौर पर जच्चा औरतों को आयरन और बी काम्पलैक्स की गोलियाँ देती, वहीं मलेरिये की स्लाइडें बनाने का काम भी करती। इन स्लाइडों को वह उस इलाके के मलेरिया वर्कर के हाथ पी.एच.सी. में पहुँचा देती। इन तीन दवाइयों के अलावा यह नर्स गांव में अपना प्रभाव बनाने के लिए या तो अपने पास से या फिर हैल्थ सेंटर में से दर्द, खांसी-जुकाम आदि के इलाज के लिए दवाइयाँ ले जाती, मरहम-पट्टी का काम भी करती। नर्से और दाइयाँ गर्भवती स्त्रियों के घर घर जाकर देखभाल की ड्यूटी भी निभातीं। बच्चे के जन्म से लेकर जच्चा के चलने-फिरने तक यह ड्यूटी नर्स और दाई की होती, खास तौर पर दाई की। जो नर्सें और दाइयाँ अच्छा काम करतीं, गांव वाले उन्हें सब्ज़ी-भाजी और दूध आदि तो दिया ही करते थे, कुछ नर्सें और दाइयाँ तो नगद-नारायण और सूट-साड़ी आदि भी लेने में सफल हो जातीं।
एक पोस्ट टी.बी. अर्थात तपेदिक वर्कर की भी आ गई थी। उसका काम सारे ब्लॉक में टी.बी. के केस खोजना होता था और उनके लिए दवाई का इंतज़ाम करवाना होता था। टी.बी. के मरीज को पूरे इलाज के लिए दवाई पी.एच.सी या सिविल अस्पताल में से मुफ्त प्रदान की जाती थी। यह टी.बी. वर्कर मैट्रिक के साथ-साथ दो साल की ट्रेनिंग के पश्चात् नियुक्त किया जाता था। थूक या बलगम के सैंपल लेना इस वर्कर की जिम्मेदारी थी। ये सैंपल भी मलेरिया की भांति काँच की स्लाइडों पर ही लिए जाते। पी.एच.सी. में एक एल.टी. अर्थात लैबॉटरी टेक्नीशियन होता था जिसका काम मलेरिया और टी.बी. की स्लाइडें देखना होता था। वह एक रसायन से इन स्लाइडों को स्टेन करता, फिर माइक्रो स्कोप से स्लाइड देखता। जिस स्लाइड में टी.बी. या मलेरिया के कीटाणु होते, उससे संबंधित रिकार्ड में वह 'पी' अर्थात पोज़ीटिव लिख देता। दूसरे शब्दों में 'पी' का अर्थ होता कि मरीज़ मलेरिया या टी.बी. के रोग का शिकार है। बहुत सी स्लाइडें 'एन' अर्थात नेगेटिव होतीं। दूसरे शब्दों में इस स्लाइड से संबंधित व्यक्ति को मलेरिया या तपेदिक नहीं है।
यदि किसी ब्लॉक में कोई बड़ा कस्बा या शहर पड़ता था तो वहाँ प्राय: एक सिविल अस्पताल भी होता था। पी.एच.सी. शतराणा ज़िला पटियाला के समाणा ब्लॉक में पड़ता था। समाणा एक बड़ा कस्बा है। यह वही समाणा है जो इतिहास में बंदा बहादुर की वीरता और शक्ति प्रदर्शन से भी संबंधित है और हीर-रांझा की लोक गाथा से भी।
मेरी पोस्ट को अक्सर पी.एच.सी. शतराणा और सिविल अस्पताल के सभी कर्मचारी ब्लॉक हैल्थ एजूकेटर कहते और मुझे इस पर एतराज़ भी क्या हो सकता था। मेरा काम गांव-गांव जाकर परिवार नियोजन और स्वास्थ्य सेवाओं के संबंध में लोगों को जाग्रत करना था। मुझे अपने पूरे महीने का टूर प्रोग्राम पहले ही बना कर एम.ओ., पी.एच.सी. को देना होता था और इसकी एक प्रति सी.एम.ओ. अथवा सिविल सर्जन पटियाला को भी भेजनी होती थी ताकि ज़िले या स्टेट का कोई भी स्वास्थ्य अधिकारी मेरे काम का निरीक्षण कर सके, अगवाई कर सके और मेरे साथ सम्पर्क रख सके। कभी कभी मैं अपना टूर डॉ.अवतार सिंह के साथ भी बना लेता क्योंकि एम.ओ. को सफ़ेद रंग की जीप मिली होती थी। ये जीपें यूनिसेफ की ओर से ब्लॉकों के लिए आई थीं। प्रसूता स्त्रियों और मलेरिये के इलाज के लिए भी सब दवाइयाँ यूनिसेफ की तरफ से मुहैया होती थीं, शायद अब भी होती हों।
नज़दीक के टूर के लिए मैंने नया साइकिल खरीद लिया था। खाने-पीने के प्रबंध के लिए माँ आ गई थी। एक क्लर्क के आ जाने से उसकी माँ भी उसके संग आ गई थी। क्लर्क था- दर्शन सिंह संधू। पोलियो के कारण उसका दायाँ हिस्सा पूरी तरह काम नहीं करता था। आवाज़ में भी कुछ फर्क़ था। इसलिए उसके लिए भी अपनी माँ को संग लाना ही बेहतर था। हमारे देखा देखी एल.टी. अर्थात लैबॉटरी टेक्नीशियन ठाकुर दास शुक्ला भी अपनी माँ को ले आया था। इस तरह दरियाई मल की चाय की दुकान के साथ बने कमरों में से अगले तीन कमरे भी एक एक करके हमने ले लिए थे। हम तीनों की आपस में बनती भी बहुत थी। दरियाई मल और बख्शी के साथ भी हम घुलमिल कर रहते।
ग्रेड के हिसाब से मेरी पोस्ट पी.एच.सी. में दूसरे नंबर पर थी। उसके बाद एल.एच.वी., फिर सेनेटरी इंस्पेक्टर और फिर फार्मेसिस्ट का ग्रेड था। ए.एन.एम. का ग्रेड उससे कुछ कम था, एल.टी. का ग्रेड शायद फार्मेसिस्ट के बराबर था। दाइयाँ चतुर्थ श्रेणी में आती थीं। सेनेटरी इंस्पेक्टर मलेरिया वर्करों का काम चैक करते, एल.एच.वी. सब-सेंटर और पी.एच.सी. में नर्सों और दाइयों के काम की देखभाल करती। डॉक्टर किसी को भी चैक कर सकता था। लेकिन मेरा काम किसी को चैक करना नहीं था। डॉक्टर साहब ने वर्करों और नर्सों में मेरा ऐसा प्रभाव बना दिया था कि मेरी ड्यूटी में निगरानी और निरीक्षण का काम भी जोड़ दिया गया था।
समाणा ब्लॉक शायद पंजाब के बड़े ब्लॉकों में से एक था। उस समय इसके अन्तर्गत 150 से भी अधिक गांव थे। खनौरी से आगे जाकर शेरगढ़ से लेकर यह ब्लॉक समाणे से आगे गांव ढैंठल और दूसरी तरफ कोई 22 किलोमीटर की दूरी पर गांव राजेवास तक फैला हुआ था। भाखड़ा नहर के दूसरी तरफ के बहुत सारे गांव भी इस ब्लॉक के अधीन थे। सिविल अस्पताल, समाणा, पी.एच.सी. शतराणा की अपेक्षा बिल्डिंग और मेडिकल सेवाओं के मामले में बेहतर था। यहाँ मरीज़ों को दाख़िल करने का पूरा प्रबंध था। मर्दों के नसबंदी और औरतों के नलबंदी के आपरेशन करने के लिए भी शतराणे की अपेक्षा सिविल अस्पताल, समाणा को ही तरजीह दी जाती थी। सिविल अस्पताल का डॉ. जैन उस समय की स्वास्थ्य मंत्री ओम प्रभा जैन का भाई था, पर था वह भला व्यक्ति। जब कभी मैं परिवार नियोजन के संबंध में सिविल अस्पताल जाता तो डॉ. जैन बड़े ही प्यार और सत्कार से मिलता। वहाँ का फार्मेसिस्ट देश राज था जो समाणा का रहने वाला था और अग्रवाल होने के कारण वह मुझे अधिक नज़दीक समझता था। मेडिकल लीगल केसों और प्रैक्टिस में से उसने लाखों रुपये कमाकर एक कारखाना भी लगा लिया था। एक दो बार तो वह मुझे अस्पताल की बजाय अपने कारखाने पर ही मिला था। पी.एच.सी., शतराणा वाला फार्मेसिस्ट वेद प्रकाश शर्मा भी समाणा का ही रहने वाला था। यहाँ उसका एक अपना पुश्तैनी घर था। प्रैक्टिस करने में वह देश राज का भी गुरू था। उसने गांव पैंद में उस समय बीस किल्ले से भी ज्यादा ज़मीन बना ली थी। लेकिन मैंने न तो डॉ. अवतार सिंह को और न ही डॉ. जैन को किसी से पैसा लेते देखा था, न ही सुना था।
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एक महीने में अभी स्वास्थ्य विभाग की थोड़ी-बहुत समझ आई थी। न परिवार नियोजन के बारे में, न स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में, न रोगों के बारे में ओर न ही दवाइयों के बारे में कोई खास ज्ञान था। शायद इसलिए नये भर्ती किए गए हैल्थ-एजूकेटरों को ट्रेनिंग देने के लिए चण्डीगढ़ बुला लिया गया। यह याद नहीं कि ट्रेनिंग दो सप्ताह चली या चार सप्ताह लेकिन ट्रेनिंग के दौरान सिर खुजलाने की फुर्सत भी नहीं मिलती थी। ट्रेनिंग का इंचार्ज डॉ. सोहन सिंह था। वह उस समय पंजाब की स्वास्थ्य सेवाओं का सहायक निदेशक था। यह वही डॉ. सोहन सिंह है जो काले दिनों में खाड़कुओं का नायक बनकर उभरा। यह बात समझ से बाहर है कि डॉ. सोहन सिंह पूरा गुरसिख और अगर खाड़कु विरोधी शब्दावली में कहा जाए तो वह कट्टर सिख और पक्का खालिस्तानी था। उसका बेटा उस समय पंजाब सरकार का आई.ए.एस. अफसर था जिसे बाद में पंजाबी यूनिवर्सिटी का उप-कुलपति बना दिया गया था। पंजाब सरकार के प्रिंसीपल सचिव के तौर पर तो वह बड़ा सज्जन प्रतीत होता था। मुझे एस.एस. रे के गवर्नरी राज के समय नेत्रहीनों की समस्याओं के संबंध में बोपाराय साहिब को कई बार मिलने का अवसर मिला था पर उप-कुलपति बनकर उसने जिस तरह की मनमर्जियाँ की, उसके कारण वह पंजाबी लेखकों और अच्छे शिक्षा शास्त्रियों के नज़र में गिर गया। लेकिन बाद में अपनी ईमानदारी और मेहनत के कारण यूनिवर्सिटी में भी और बाहर भी वह अपना प्रभाव बनाने में सफल हो गया था, क्योंकि उसे कांग्रेसी कैप्टन सरकार ने लगाया था जिस कारण अकाली-बी.जे.पी. सरकार उसे अपनी राह का कांटा समझती थी। आखिर उसने स्वयं इस्तीफा दे कर अपने स्वाभिमान को बचा लिया था।
चण्डीगढ़ के 16 सेक्टर की एक बिल्डिंग में हमारी क्लास लगा करती थी। रोज़ सुबह नौ बजे क्लास लगती, स्कूलों की भांति दोपहर को एक घंटे की छुट्टी होती और फिर शाम को पांच बजे तक क्लास। क्लास में हम 44 हैल्थ एजूकेटर थे, 42 मर्द और 2 औरतें। पहली क्लास डॉ. सोहन सिंह की ही होती थी। उसका मुख्य भाषण जनसंख्या और परिवार नियोजन के भिन्न-भिन्न विषयों से संबंधित होता। भारत और चीन की बढ़ रही आबादी के कारणों को लेकर हनुमान की पूंछ की तरह आबादी के बढ़ने के सब आंकड़े एक एक करके बताए गए। डॉ. सोहन सिंह के अलावा अन्य डॉक्टर भी क्लास लेने आते। आम बीमारियों के बारे में भी लेक्चर दिए गए और बीमारियों के इलाज के संबंध में भी। विशेषतौर पर तपेदिक, मलेरिया, चेचक, काली खांसी, चर्मरोग तथा अन्य छूत की बीमारियों के संबंध में बड़ी भरपूर जानकारी दी गई। संयुक्त राष्ट्र संघ और उसकी एजेंसी यूनीसेफ और विश्व स्वास्थ संघ द्वारा पुस्तकों, दवाइयों और मेडिकल से संबंधित औजारों और आवाजाही साधनों के संबंध में दी गई सहायता पर भी कुछ लेक्चर दिए गए। हाईजन,फिज़ियोलॉजी और अनाटोमी संबंधी भी कुछ लेक्चर हुए। हमारे परिवार में से मेरे भान्जे डॉ. सुरिंदर और मेरी बड़ी भतीजी ऊषा के डाक्टरी शिक्षा से जुड़े होने के कारण मुझे इन में से कुछ बातों का पहले ही पता था और कुछ बातें मैं विशेषतौर पर समझने की कोशिश कर रहा था। वैद संत हरिकिशन सिंह उग्गे वाले मेरी अच्छी मदद करते थे। उन्होंने मुझे आयुर्वैद की कुछ किताबें भी पढ़ने को दी थीं। 1959 में वह पैप्सू आयुर्वैदिक बोर्ड के सीनियर मेंबर थे और सरकारी आयुर्वैदिक मेडिकल कालेज, पटियाला के आचार्या अमर नाथ के बहुत करीबी थे। वह जानते थे कि मैं आगे कालेज पढ़ने योग्य नहीं हूँ, क्योंकि उन दिनों पचास-साठ रुपये प्रति महीना से कम कालेज की पढ़ाई का खर्च नहीं था। उन्होंने बहुत जोर लगाया कि मैं मैट्रिक करने के बाद आयुर्वैदिक कालेज में दाखिला ले लूँ। उस समय अब की बी.ए. एम.एस. को जी.ए. एम.एस. कहते थे और जी.ए.एम.एस. की परीक्षा आयुर्वैदिक बोर्ड लिया करता था। यह परीक्षा ऐसी ही थी जैसी एलोपैथी की एम.बी.बी.एस. की परीक्षा होती है। जी.ए.एम.एस करने के बाद तुरन्त रजिस्ट्रेशन हो जाती और अक्सर सरकारी आयुर्वैदिक डिस्पेंसरी में वैद के तौर पर नियुक्ति भी हो जाती। वैद का ग्रेड 80-5-120 था। वैद को 120 रुपये मिला करते। अब इस पोस्ट पर काम करने वाले का ग्रेड एम.बी.बी.एस. डॉक्टर के ग्रेड के लगभग बराबर है। एम.बी.बी.एस. डॉक्टर को सरकारी अस्पतालों या स्वास्थ्य केन्द्रों में मेडिकल अफसर कहा जाता है और जी.ए.एम.एस या बी.ए.एम.एस. शैक्षिक योग्यता वाले अब वैद नहीं, अपने आप को डॉक्टर लिखते हैं और इनकी पोस्ट को आयुर्वैदिक मेडिकल अफसर कहा जाता है। लेकिन उस समय यह पढ़ाई मुझे पसंद नहीं आई थी। हाँ, वैद जी जो संत भी थे, उनके प्रभाव के कारण कुछ आयुर्वैदिक पुस्तकें शौकिया पढ़ ली थीं और कुछ आयुर्वैदिक दवाइयों का ज्ञान भी हासिल कर लिया था। यह शौक और ज्ञान शतराणे की सेवा के दौरान मेरे बहुत काम आया।
ट्रेनिंग के तीसरे-चौथे दिन डॉ. सोहन सिंह ने एक आदेश जारी कर दिया कि सभी लोग कल परिवार नियोजन पर करीब दस पृष्ठों का लेख लिख कर लाएँ। अधिकांश हैल्थ एजूकेटर तो सरकारी हॉस्टल में रहते थे लेकिन मैं अपने निकटवर्ती अमर नाथ कोटले वाले के बड़े लड़के लाल चन्द के पास रहता था। वह उस दौरान पंजाब यूनिवर्सिटी में पी.एचडी. करने के बाद एम.फार्मा को पढ़ाता था और यूनिवर्सिटी में डॉ. एल.सी. गर्ग के नाम से प्रसिद्ध था। उसका पेशा भी एक प्रकार से स्वास्थ शिक्षा से संबंधित था। इसलिए जो कुछ हमें बताया जाता, मैं शाम के समय लाल चन्द को अवश्य बताता। वह कुछ और बताकर मेरे ज्ञान की वृद्धि करता। उस शाम भी मैं बातें करते हुए भूल ही गया कि दसेक पन्नों का लेख लिखना है। जब 16 सेक्टर में पहुँचा और डॉ. सोहन सिंह के दर्शन हुए तो तुरन्त याद आ गया। डॉ. सोहन सिंह से डर भी बहुत लगता था। वह तो हमें इस तरह डाँट देता था जैसे स्कूल के बच्चों को मास्टर। वह वहाँ हमारा अध्यापक ही नहीं था, हमारा अफ़सर भी था।
अच्छी बात यह हुई कि सिर्फ़ दो ही हैल्थ एजूकेटर लेख लिखकर लाए थे। पहले मैं सबसे आगे बैठता था, उस दिन मैं सबसे पीछे जा बैठा। अभी वे डॉक्टर साहब लेख चैक ही कर रहे थे कि मेरी खोपड़ी काम कर गई। मैंने पाँच-सात मिनट में ही परिवार नियोजन पर छह पंक्तियाँ लिख मारीं। छंदों का मुझे पहले ही अच्छा ज्ञान था और इस तरह की मैं सैकड़ों कविताएँ पहले लिख चुका था। जब मेरी बारी आई तो भय के बावजूद मैंने कहा कि मैंने तो एक छोटी-सी कविता लिखी है। डॉक्टर साहब ने कविता सुनाने के लिए कह दिया। मंच पर कविता सुनाने का तो मुझे अच्छा अभ्यास था। उस ज़माने के किसी मंचीय कवि से मैं कम नहीं था। मैंने कविता पढ़नी शुरू की-
जिवें मंजे उते वड़ियां टुकियां ने
ओडा वडडा तां साडा परिवार समझो
फुटबाल दी पूरी ही टीम समझो
छोटे वड्डियां दी वड्डी डार समझो।
मापे लग्गे बनाण जुआक ऐंदा
भांडे चक्क ते जिवें घुमियार समझो।
भज्जे फिरन जुआक इह इयुं दसण
हुंदे ऊठ जिवें बे-महार समझो।
कहि के ऐस नूं लीला भगवान वाली
ऐंवे रब विचारे नूं भंडदे ने
तिन साल विच हुंदे ने चार निआणे
होर दे दे भगवान तों मंगदे ने।
कविता सुनकर डॉ. सोहन सिंह ने कहा, ''इट् इज ए वैरी गुड कविता।'' मेरी साँस में साँस आई। मन की बेचैनी कम हो गई। डॉक्टर साहब ने पूछा, ''तुमने पहले भी कभी कविता लिखी है ?'' ''जी हाँ। मैंने सैकड़ों कविताएँ लिखी हैं। सैकड़ों ही छपी भी होंगी।'' मैं यह सब बताते समय और अधिक चौड़ा हो गया होऊँगा। मेरे बहुत से साथी मेरी इस प्राप्ति पर कुछ परेशान लग रहे थे। यह बात मुझे दोपहर की छुट्टी के समय पता चली। कुछ मुझे मिरासी कह रहे थे और कुछेक ने तो मुझे डॉ. सोहन सिंह का चमचा भी बना दिया था जबकि इसमें मिरासियों वाली कोई बात नहीं थी और न ही चमचागिरी वाली। मुझे तो चमचागिरी की कला सारी उम्र ही नहीं आ सकी। दरअसल, छह-छह फुट के कद वालों और दाढ़ी-मूंछें चढ़ा कर रखने वालों को इस कमजोर से लड़के की तारीफ़ उनके मन को भाई नहीं थी। उन दिनों मैं बहुत दुबला-पतला था। मेरे ऐनक लगी हुई थी। अगर बहुत बुरी नहीं लगती थीं तो मोटे शीशों वाली यह ऐनक अच्छी भी नहीं लगती थी। मुझे स्वयं इस ऐनक से अपने आप में हीनता महसूस होती और कुछ कमी भी प्रतीत होती। ट्रेनिंग पूरी हुई, बहुत कुछ नया सीखा। परिवार नियोजन, स्वास्थ्य शिक्षा, बीमारियों से संबंधित और कुछ अन्य किताबें लेकर मैं एक ट्रेंड हैल्थ एजूकेटर के तौर पर पुन: पी.एच.सी., शतराणा में आ उपस्थित हुआ था। हालांकि सरबजीत तो पहले भी कुछ नहीं कहता था, पर सैनेटरी इंस्पेक्टर सहगल अवश्य मुझे विभाग पर बोझ बताया करता था। मेरे सम्मुख वह टेढ़े-मेढ़े ढंग से कहता और मेरी पीठ पीछे वह खूब चुगली दरबार लगाया करता। किसी हद तक वह ठीक भी था। सारे हैल्थ एजूकेटर साधारण ग्रेज्यूट थे, स्वास्थ शिक्षा की उनके पास कोई ट्रेनिंग नहीं थी। यद्यपि कुछ सूबों में हैल्थ एजूकेटरों के एक एक साल के कोर्स थे, पर हम सब हैल्थ एजूकेटर तो बिना किसी ट्रेनिंग के ही भर्ती कर लिए गए थे। कुछ किताबों में से पढ़ा, कुछ ट्रेनिंग के दौरान के नोट्स काम आए। दवाइयों का ज्ञान कुछ तो मैंने वेदप्रकाश फार्मासिस्ट से ले लिया और कुछ डॉ. जगन नाथ से। डॉ. जगन नाथ तपा मंडी में पुराना आर.एम.पी. था। कम्पाउंडर की नौकरी छोड़कर उसने मेडिकल स्टोर खोला हुआ था। उसकी प्रैक्टिस बहुत बढ़िया चलती थी। मैंने उस पर एक अहसान भी किया हुआ था। जब एक इतवार मैं तपा पहुँचा और दवाइयों के विषय में डॉ. जगन नाथ से पूछा, उसने तीन-चार घंटों में ही मुझे मिक्सचर्ज में प्रयोग आने वाले सभी रसायन और उनकी मात्रा, आम बीमारियों में इस्तेमाल में आने वाली सभी दवाइयों और उनको देने का ढंग तथा मात्रा आदि सब कुछ लिख कर दे दिया। चण्डीगढ़ से मिले नोट्स और किताबें डॉ. जगन नाथ के बताये सब नुस्खे और दवाइयाँ और वैद संत हरिकिशन सिंह की आयुर्वैदिक शिक्षा से मैं इतना भर जानकार हो गया था कि सारे पैरा मेडिकल स्टाफ को आगे लगा सकता था और हुआ भी ऐसा ही।
पी.एच.सी. शतराणा में डॉक्टर के बाद इंचार्ज के तौर पर फार्मासिस्ट काम मैं करता। सहगल अक्सर मुझे छेड़ता कि डॉक्टर साहब अपनी गैर-हाज़िरी में तुम्हें इंचार्ज बना कर जाएँ। मैं इंचार्ज के चक्कर में इसलिए नहीं पड़ना चाहता था क्योंकि उस कारण बाकी सारे स्टाफ से किसी न किसी समय बिगड़ने की शंका रहती थी। मैं तो अपने काम से मतलब रखना चाहता था और रखा भी। यदि मेरा टूर किसी बड़े गाँव का होता जैसे घग्गा, ककराला, गाजेवास, मोमिया आदि का तो मैं पहले या तो गाँव के सरपंच को ख़त लिख देता या फिर स्कूल के हैड मास्टर को। बड़े गाँव के हाई स्कूल में अक्सर मैं सुबह की सभा से पाँच-सात मिनट पहले पहुँच जाता। वहाँ मैं अध्यापकों और विद्यार्थियों को स्वास्थ रक्षा, सफाई और आम रोगों से बचने के उपायों पर लेक्चर देता। प्राय: स्कूल का मुख्य अध्यापक या मुख्य अध्यापिका मुझे डॉक्टर साहब कहकर बुलाते। सरकारी कागजों में मेरा नाम तरसेम लाल गोयल था जिस कारण स्वास्थ विभाग के कर्मचारी मुझे गोयल साहब कहकर बुलाते। जिस स्कूल में मुझे लेक्चर देना होता, उस क्षेत्र का मलेरिया वर्कर वहाँ पहुँचा होता। सब-सेंटर होने की सूरत में मैं ए.एन.एम. को सन्देशा दे देता, वह महिला भी मेरे बताये गए स्थान पर पहुँच जाती। सीधा परिवार नियोजन पर भाषण अभी बहुत से लोगों पर असर नहीं करता था। इसलिए मैं अपने भाषण को वाया सेहत और सफाई के माध्यम से पेश करता। इस ढंग से लोगों पर प्रभाव भी अच्छा पड़ता था और मेरी योग्यता का सिक्का भी जम जाता था। मैंने परिवार नियोजन के शतराणे और समाणे में लगने वाले सभी कैम्पों में पहले यही गुर प्रयोग किए थे। शतराणे में लगने वाले कैम्प के दौरान मैं शतराणे के आसपास के गाँवों का दौरा करता और समाणे में लगने वाले कैम्प के समय समाणे के गाँवों में घूमता। कैम्प के दिनों में कुछ दिन पी.एच.सी. की जीप भी मिल जाती। जब डॉक्टर साहब का किसी सब-सेंटर का दौरा होता तो वह खुद मुझे अपने संग ले जाते। मैंने स्वास्थ विभाग की नौकरी के दौरान इतनी अक्ल अवश्य बरती कि अपना लम्बा और दूर का दौरा उस गाँव का रखता, जहाँ बस जाया करती थी। नज़दीक के दौरे के लिए मैं साइकिल का प्रयोग करता। इससे एक लाभ यह था कि मेरे सफ़र खर्च का बिल अच्छा-खासा बन जाता। साढ़े तीन रुपये उस समय दिहाड़ी भत्ता मिलता था। किलोमीटर के हिसाब से आने-जाने के पैसे अलग मिलते। पूरी दिहाड़ी तभी मिलती यदि टूर 12 घंटों से अधिक का होता या रात बाहर बितानी होती। रात बाहर गुजारने से डेढ़ दिहाड़ी का भत्ता मिल सकता था। इस मामले में मैं कोई दूध का धुला नहीं था। हालांकि टूर पर जाते समय मुझे हैल्थ सेंटर में हाज़िरी लगाकर जाना पड़ता लेकिन हाज़िरी लगाने में मुझे कोई कठिनाई नहीं थी। क्लर्क दर्शन संधू का रिहायशी कमरा मेरे कमरे के बिलकुल साथ था। शाम को लौटते समय वह रजिस्टर संग ले आता था। मैं वहीं हाज़िरी लगाकर टूर पर चला जाता था। टूर से लौटते समय मुझे किसी से हाज़िरी सर्टिफिकेट लेने की ज़रूरत नहीं थी। इसलिए टूर पर जाने और लौटने का जो समय मैं लिख देता था, डॉक्टर साहब उसे ही सही मान लेते थे। मुझसे पहले जो महिला अस्थायी तौर पर काम करती थी, सुना था कि वह टूर पर कम ही जाती थी लेकिन मैं टूर इतनी आसानी से मिस नहीं करता था। हाँ, कहीं नाइट स्टे दिखा देता, कहीं आने का समय बढ़ा कर लिख देता। इस तरह यात्रा भत्ते के 40-50 रुपये अधिक बन जाते थे। बस पर मेरा खर्च अक्सर 20-30 रुपये ही होता, क्योंकि मैंने महीने के महीने कभी बिल नहीं बनाया था। इसलिए 20-30 रुपये मेरी जेब से खर्च होते। बिल बनाने का मुझे हिसाब तो आता था पर सी.एम.ओ. पटियाला के दफ्तर का बिल बाबू और खजाने वाला बाबू या चपरासी तब तक बिल पास नहीं करते थे, जब तक उनकी जेब गरम न कर दी जाती। मुझे अभी ऐसा काम करना नहीं आया था।
(जारी…)
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1 comment:
Bhai Subhash
Aswsthata ke bavjud tum ye sab kar rahe ho jo tumbhare jeevatpan ko udghatit karata hai. Bahut achha anuvad hai. Computer samasya ke karan kai ansh chhut gaye jinhe pustak roop mein aane par padhunga.
Chandel
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