समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

Thursday, December 30, 2010

पंजाबी उपन्यास



''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

।। अट्ठारह ॥
जैसा कि शाम भारद्वाज सोचता है, फ्री लीगल सर्विस का काम चल पड़ता है। लोगों को उनके बारे में पता चल जाता है। उन्होंने ब्राड वे पर खड़े होकर लीफ़लेट्स बाँटे हैं। वे लोकल प्रैस में और देसी प्रैस में भी इश्तहार देना चाहते हैं, पर ऐसे इश्तहार के लिए पैसे चाहिएँ और उनके पास पैसे नहीं हैं। गुरचरन सलाह देता है कि जो लोग अपनी इच्छा से फीस देना चाहें, वह ले लिया करें ताकि उनके पास कुछ फंड जमा हो जाए। पर इसके लिए शाम राजी नहीं। वह लोगों में मुफ्त में काम करके हरमन प्यारा होना चाहता है।
पहले कुछ दिनों में ही बारह केस उनके पास आ जाते हैं। सलाह लेने वाले तो पन्द्रह-बीस आदमी रोज़ना के हो जाते हैं। दिलजीत की हिम्मत से 'नये अक्स' में शाम भारद्वाज की पूरी इंटरव्यू लग जाती है जिसके कारण वह बहुत खुश है। वह काम करवाने आए लोगों से उत्साह में हाथ मिलाता है। एक मुस्कराहट सी हर वक्त चेहरे पर जमाए रखता है। गुरचरन और जगमोहन तो बारी बारी ही रेड हाउस आते हैं पर शाम भारद्वाज लगभग हर रोज़ ही आ जाता है। एक दिन वह सोचता है कि सलाह लेने वालों का या काम करवाने वालों का पता डायरी में नोट कर लिया जाए ताकि भविष्य में काम आ सके। हफ्ते के आख़िर में वह देखता है कि आधे से अधिक लोग तो साउथाल से बाहर के आते हैं। कई तो ईलिंग के भी नहीं होते। वह गुरचरन को कहता है -
''यह यार बढ़िया तरीका नहीं लगता लोगों में जाने का।''
''क्यों ?''
''क्योंकि यह लोग मेरी वोट नहीं बनने वाले। ये तो भाँत भाँत की लकड़ी इकट्ठी होकर पहुँच रही है मेरे पास।''
''पर मुझे तो काम करने में मजा आ रहा है। कोई मकसद सा बना हुआ है। एक उद्यम है, पब में टाइम खराब करने से तो ठीक प्रतीत होता है।''
शाम भारद्वाज उसकी बात सुनकर चुप रहता है। वह सोच रहा है कि उस का मकसद सिर्फ़ उद्यम बनाने से नहीं, वोटें बनाने से हैं। ईलिंग काउंसल के कितने ही कांउसलर है। कोई धर्म के नाम पर वोट ले रहा है, कोई इलाके के नाम पर। जिन लोगों तक यह कांउसलर पहुँच करते हैं, कम से कम वे स्थानीय तो होते हैं जिन्हें उनका वोटर बनना होता है। पर वह तो जैसे बगैर सोचे-समझे हाथ मारता जा रहा है। कितना कुछ सोचता हुआ वह ग्लौस्टर में फिर मीटिंग रख लेता है। सभी पहुँच जाते हैं। जगमोहन पूछता है-
''हाँ भई, दो महीनों में ही ऊब गया। सियासत तो लम्बी जद्दोजहद होती है।''
''मैं देख रहा हूँ कि जिन लोगों तक हम पहुँच रहे हैं, ये अपने काम के नहीं। ये तो दूर-दराज से आ जाते हैं।'' शाम जवाब देता है।
सोहन पाल उसकी बात पर ज़रा गुस्से में आकर कहता है-
''जैसे जग्गा कहता है, यह एक लम्बी रेस है, ज़िन्दगी भर की रेस। सबसे पहले तेरा पब्लिक फिगर बनना ज़रूरी है, फिर तू जिस वार्ड का मेंबर बनना चाहे, वहाँ जाकर काम करना पड़ेगा। असल में काम तो समूची कम्युनिटी के लिए करके ही तेरा नाम होगा।''
''पर ये जो मंदिरों, गुरूद्वारों, मस्जिदों के सिरों पर काउंसलर बने फिरते हैं, ये कैसे ?''
''शाम, तू सियासत से बाहर खड़ा होकर बयान दिए जाता है, ज़रा और इन्वोल्व हो, इसके और अन्दर जा, यह जो तुझे बाहर से दिखता है, बात ऐसी नहीं। यह ठीक है कि पंजाब के बदले हालातों के कारण लोग अपने अपने धर्म से ज्यादा जुड़ गए हैं, पर चुनाव जीतने का आधार अभी भी ये बातें नहीं बनीं।''
''ये जो हिंदू लीडरों के घर सिक्खों के ग्रंथ से पाठ करवाते आ रहे हैं, ये क्या है ?''
''सिक्ख भी तो हिंदुओं की मंतर पूजा करवाते हैं, सियासत में ऐसा ही करना पड़ता है। यह सियासत की ही चाल है, पर तू तो दो महीने में ही भाग खड़ा हुआ।''
जगमोहन कहता है। शाम भारद्वाज की सोहन पाल या जगमोहन की किसी बात से तसल्ली नहीं होती, पर वह चुप रहता है। गुरचरन और दिलजीत कुछ नहीं बोल रहे। जगमोहन फिर कहता है-
''कम्युनिटी में काम किए बगैर तेरे पैर नहीं लगने वाले, यह तो तू खुशकिस्मत है कि एक तरीका तेरे हाथ लग गया, लीगल सर्विस तुझे बहुत कुछ दे सकती है शाम।''
''तू ऐसा कर जग्गे, इसे प्रोफेसन के तौर पर एडोप्ट कर ले। मैं तेरी बीच बीच में हैल्प करता रहूँगा।
''शाम, अगर ऐसा करना होता तो संधू अंकल के साथ ही काम करते रहना था। असल में बात तो यह है कि मेरे से टेढ़े और गलत केस नहीं किए जाएँगे, ये जो तूने खालिस्तानी बना कर पक्के करवाने वाले केस पकड़ लिए, मैं तो कभी न पकड़ूँ।''
''जग्गे यूँ ही धर्म पुत्र न बन।''
गुरबचन ताना मारता है। जगमोहन उत्तर देता है-
''हमें कामरेड इकबाल ने मुफ्त में यह जगह दी है और उसका फोन भी फ्री फण्ड का है। कम से कम हमें कामरेड की सुहृयता का तो ख़याल रखना चाहिए। हम मकसद भी यही लेकर चले हैं कि सीधे काम करेंगे, जिन लोगों को टेढ़ी खीर खानी है, उनके लिए संधू जैसे बहुत हैं, वो ठोक बजा कर पैसा लेते हैं।''
वे पब में दो घंटे बैठे रहते हैं। बात किसी किनारे नहीं लगती। शाम भारद्वाज को गिला है कि उसके दोस्त कहने के अनुसार नहीं चल रहे।
पिछले कुछ सालों में पंजाब के हालातों ने यहाँ की सियासत को भी बदलकर रख दिया है। खालिस्तान की चढ़ाई से यहाँ के लोगों के मूड भी बदले हैं। अधिकांश को लगता है कि खालिस्तान कुछ दिनों में बना ही बना। बहुस सारे लोग केश रखकर सिक्ख सज गए हैं। लोग पीली पगड़ियाँ पहनते हैं। अब खालिस्तान की लहर में उतराव आ रहा है और लोग भी एकदम मुख मोड़ने लग पड़े हैं। जहाँ गुरुद्वारों में गरमदल वालों के कब्जे हो गए थे, वे अब टूटने लगे हैं। गुरुद्वारों में संगत की गिनती एक बार फिर बढ़ने लगी है।
(जारी…)
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Tuesday, December 28, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-16( दूसरा भाग)


जाए नदौण, आए कौन

मुझे नदौण गए अभी पूरा महीना भी नहीं हुआ था कि मेरा मन हुआ कि मैं जुआर होकर आऊँ। एक रविवार सुबह ही बस पकड़ ली। स्कूल के सामने बस खड़ी होती थी। वहाँ परचून की दुकानवाले और हलवाई ने मुझे पहचान लिया था। स्कूल में सिर्फ़ परसा ही रह गया था। वह वहाँ चौकीदार था। उससे पता चला कि हैड मास्टर हेमराज शर्मा सहित सभी अध्यापकों का यहाँ से तबादला हो गया था, क्लर्क रामनाथ शर्मा का भी। परसे ने चायपानी के लिए ज़ोर डाला और जौंडूमल ने भी। लेकिन मैं राम सिंह के घर 'लाड़' जाने के लिए उतावला था। पता चला कि दौलतराम का अगले हफ्ते विवाह है। दौलतराम, राम सिंह का बड़ा लड़का था, गुरबख्श जिसे मैं बंता कहा करता था, वह फौज में भर्ती हो गया था। लक्ष्मी का अभी तक ब्याह नहीं हुआ था। वह कम से कम 26-27 वर्ष की हो गई होगी। लक्ष्मी सहित सभी ने मुझे गले लगाया मानो दौलत के विवाह की रौनक मेरे पहुँचने से और बढ़ गई हो। मैं जिस कमरे में रहता था, उसमें खड़ा होकर कितनी देर दीवारों, छत और फर्श को निहारता रहा। उस कमरे में भी गया जहाँ मेरी माँ रोटी पकाया करती थी।
वहाँ जुआर में आए-गए के लिए चाय बनाने का रिवाज़ नहीं था। मैं इस बात को जानता था। सो, मैं पानी पीकर काके को साथ लेकर उस चश्मे तक गया जहाँ से हम अक्सर पानी भरा करते थे और आते-जाते उसका पानी पीते थे। पर वापस लौटते हुए जब काके ने मुझे बताया कि हमीरा को टी.बी. हो गई है, मेरे मन को बहुत धक्का लगा। अगले हफ्ते विवाह में भी शामिल हुआ। इस बहाने इस परिवार के सभी रिश्तेदारों से मिल लिया था। सबसे अधिक खुश थे- बंता और हमीरा, पर हमीरा से अधिक खुलकर बात नहीं हो सकी थी। वैसे, पिछली कुछ बातें अवश्य कीं।
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छुट्टियों के बाद लौटे हुए अभी दूसरा ही दिन हुआ था कि उर्मिला आ टपकी। मेरे बताने से पहले ही माँ जी(कुंती की माँ) ने बता दिया था कि तरसेम की मंगनी हो गई है। उस समय तो वह कुछ न बोली, चुप रही मानो पत्थर हो गई हो। मैं सोच रहा था कि इसे क्या हो गया। तीसरे दिन वह ऊपर मेरे कमरे में पहुँच गई और मेरी मंगनी की बात छेड़ दी। मैंने उसे बता दिया कि मेरी मंगनी भी हो गई है और बदली भी शीघ्र हो जाएगी। उसने दो बार अपने माथे पर हाथ मारा और फिर उसकी आँखों से आँसू टपक पड़े। ''बस, ऐसे ही धोखा हुए जाता है।'' वह रो भी रही थी और कुछ न कुछ बोले भी जा रही थी मानो उसका कोई हसीन सपना टूट गया हो। मैं हैरान था कि जब मैंने उसके संग कोई रिश्ता जोड़ा ही नहीं था, वह पागलों की तरह ऐसा क्यों किए जा रही है। मैंने पहले से भी अधिक प्यार और दिलचस्पी से उसे बहलाया और समझाने का यत्न किया कि ये रिश्ते इस तरह नहीं बनते, पर उसके चेहरे पर मैंने वो खुशी कभी न देखी जो छुट्टियों से पहले देखा करता था।
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अब तो बस बदली के आदेश की प्रतीक्षा थी। सितम्बर के महीने के अन्दर-अन्दर आदेश अवश्य आ जाने चाहिए थे, पर पता नहीं क्या बाधा थी कि ये आदेश सितम्बर के अन्तिम सप्ताह में हुए। भाई स्वयं आर्डर लेकर आया क्योंकि मैंने पत्र में लिख दिया था कि आर्डर वह खुद लेकर आए ताकि प्रिंसीपल मुझे रिलीव करने में कोई दिक्कत पैदा न करे। मेरा अन्दाजा बिलकुल ठीक था। यदि भाई स्वयं न आता तो प्रिंसीपल ने न जाने क्या-क्या बहाना बनाना था। मेरे भाई के आने के बावजूद प्रिंसीपल ने मुझे 29 सितम्बर को दोपहर के बाद रिलीव तो कर दिया, पर रिलीविंग चिट पूरे 12 बजे मेरे हाथ में दी।
मैं सामान पहले ही बांध आया था। स्कूल में से केवल कृष्ण और फ़िरोजपुर वाला रमेश शर्मा, माँ जी और मेरा सामान उठाने के लिए सुरिंदर और यशपाल आ गए थे। ठीक चलने के वक्त उर्मिला भी पहुँच गई। वह मेरे साथ शायद कोई बात करना चाहती थी, पर कोई भी बात करना अब संभव नहीं था। फिर भी, उसने मुझसे मेरा पता मांग लिया। बस अड्डे तक मुझे छोड़ने भी आई। इसके बाद वह कभी नहीं मिली। उसके अन्दर मेरे प्रति जो प्यार जागा, वह तो अब समय की धूल में दब चुका होगा, पर वह जहा भी हो, सुखी हो, यही मेरी कामना है।
जुक़ाम तो मुझे पहले ही कई दिनों से चल रहा था। सितम्बर के महीने में मौसम में नमी होने के कारण मुझे अक्सर जुक़ाम हो जाता था। कांगड़ा की नौकरी भी मैंने लगातार जुक़ाम रहने के कारण ही छोड़ी थी। उस दिन जब हम पौने एक बजे वाली बस में बैठे तो बस के बड़ी तेज चलने के बावजूद हमें लुधियाना वाली बस बड़ी मुश्किल से मिली। अगर ड्राइवर परिचित न होता तो शायद वह बस न रोकता। लुधियाना से हम रेल द्वारा सात बजे तपा पहुँच गए थे। 'जाए नदौण, आए कौन ?' इस कहावत को मैंने झूठा साबित कर दिया था।
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सतवीं कक्षा में नदौण के समीप वाली रिआसत के राजा का बेटा मेरे पास पढ़ता था। सचमुच ही वह राजकुमार था। बेहद सुन्दर-सुशील। वह मुझे कई बार महल देखने के लिए कह चुका था। नदौण से महल तीनेक किलोमीटर दूर था। उस जगह को 'अमतर' कहते थे। एक शाम मैं लड़के के संग महल देखने चला गया। बड़ी आवभगत की उन्होंने मेरी। चाँदी के गिलास में दूध पिलाया, पर चाँदी के गिलास मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। चाँदी के बर्तन तो हमारे घर भी बहुत थे- गिलास, लौटा, थाल, कटोरियाँ, चाँदी का हुक्का और घोड़ी का साज़। इसलिए महल की सजावट ने तो मुझे प्रभावित किया पर चाँदी के बर्तनों ने बिलकुल नहीं। हाँ, उस राजकुमार और उसके परिवार की ओर से मिले सत्कार और उनकी विनम्रता ने मुझे बहुत कायल किया, ख़ास तौर पर पहाड़ी राजाओं की सादगी का रंग मैंने पहली बार ही देखा था।
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मैं पंजाबी पाठय-पुस्तक पढ़ाने के लिए प्राय: अच्छे विद्यार्थियों का चयन कर लेता था। यही फार्मूला मैंने नदौण में अपनाया। कॉपी पर काम कलम या जैड़ की निब से करने की आदत भी मैंने कुछ ही दिनों में विद्यार्थियों को डाल दी थी। सामाजिक शिक्षा का पाठ पहले किताब में से पढ़ाकर, उसमें से बनने वाले प्रश्न मैं स्वयं लिखवाता था। पंजाबी और सामाजिक शिक्षा की कॉपियों पर मैं सिर्फ़ हस्ताक्षर ही करता था। एक टिक मारा और हस्ताक्षर कर दिए। हालांकि भाषा अध्यापक के लिए विद्यार्थियों के शब्द-संयोजन को देखना आवश्यक समझा जाता था और यह नियम पंजाबी पर भी लागू होता था, पर यहाँ तो मेरे जैसी पंजाबी पढ़ाने और विशेष रूप से कविताओं के अर्थ करवाने वाला अध्यापक मुझसे पहले कभी कोई आया ही नहीं था। इसलिए कॉपियों को जाँचने के विषय में प्रिंसीपल ने कभी कुछ नहीं पूछा था। अन्य अध्यापकों को भी प्रिंसीपल द्वारा अंग्रेजी की कॉपियों की जाँच के अलावा कभी कुछ कहते नहीं सुना था। रही बात सातवीं कक्षा की अंग्रेजी की, इस काम के लिए मुझे एक होशियार लड़का जिसका नाम यशपाल था, मिल गया था। जी की निब से विद्यार्थियों को अंग्रेजी लिखने के लिए कहता। यशपाल की कॉपी लाल पेन से चैक कर देता, कभी कभार एक दो और होशियार लड़कों की कॉपियाँ भी चैक कर देता। वे आगे बाकी के विद्यार्थियों की कॉपियाँ चैक कर देते और मैं सबकी कॉपियों पर इनीशियल मार कर तारीख़ डाल देता। लब्बोलुआब यह कि यहाँ भी मेरे पढ़ाने का तरीका वही था जसे मैं मोड़ मंडी और बठिंडा के प्राइवेट स्कूलों में पहले पूरी तरह आजमा चुका था। इस प्रकार मुझे अधिक निगाह नहीं लगानी पड़ती थी। वैसे भी मैं विद्यार्थियों की कॉपियों पर दस्तख़त करते समय दरवाजे में कुर्सी डालकर बैठता, जहाँ प्रकाश पूरा होता। इस प्रकार किसी को भी मेरी कमज़ोर निगाह के बारे में पता नहीं लगा था।
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सुबह के समय ब्यास दरिया का लकड़ी का पुल पार करके जंगल-पानी के लिए जाता। गरमी के मौसम के कारण पाँच-साढ़े पाँच बजे तक दिन चढ़ जाता और मुझे अकेले आने-जाने में कोई कठिनाई न होती। नहाने-धोने का काम भी वहीं कर आता। चाय पानी खुद बनाता। पीतल का स्टोव मेरे पास था इसलिए चाय बनाने और रात में दूध गरम करने तक का सारा काम मैं अपने चौबारे में ही कर लेता। आवश्यकतानुसार बिस्कुट, ब्रेड और कुछ नमकीन लाकर रखता। दोपहर की रोटी उसी ढाबे पर ही खाता जिस पर एक-दो अन्य अध्यापक खाते थे। दोपहर की रोटी खाने के लिए हम इकट्ठा ही जाया करते पर शाम की रोटी के लिए मैं पहले चला जाता। अगर मैं टॉर्च लेकर भी रात में जाता तब भी वहाँ यह बात अजीब लगने वाली नहीं थी क्योंकि अंधेरा होने पर कभी कभार ही रोटी खाने मैं निकलता था। ज्यादा अंधेरे में थोड़ी बहुत मुश्किल भी आती, पर रास्ते का अभ्यस्त हो जाने के कारण मैं वापस अपनी मंजिल पर पहुँच ही जाता। कई बार तो अधिक रात हो जाने पर माँ जी मुझे ढाबे पर रोटी खाने के लिए नहीं जाने देती थी। कम से कम दस-पंद्रह बार तो मैंने रात की रोटी माँ जी के हाथ की पकी हुई ही खाई होगी। कुंती भी मुझे भाइयों वाला मोह-प्यार करती। कुछ दिन में ही हम इतने घुल-मिल गए थे कि कुछ भी पराया नहीं लगता था। शायद, माँ जी अपने बेटे वाला सत्कार मुझसे खोजती हों और मैं अपनी माँ वाला प्यार उसमें। हम कितनी कितनी देर स्कूलों में पढ़ाई के प्रबंध और अध्यापकों के किरदार के संबंध में बातें करते रहते। कुंती बेचारी ज्यादा बोलती नहीं थी। उसकी उदासी देखकर मैं कई बार उदास हुआ होऊँगा। कभी-कभी माँ जी कुंती को झिड़कती, कभी पीछे ही पड़ जाती। मुझे माँ जी की यह बात बिलकुल अच्छी नहीं लगती थी। सोचता, यदि कुंती का पति न मरता, बेचारी मायके में क्यों ठोकरें खाती। दूसरे विवाह का रिवाज़ वहाँ भी कम ही था और मेरे अपने इलाके मालवे में भी अक्सर विधवा स्त्रियों को रंडेपा भोगना पड़ता। अधिकांश विधवा स्त्रियाँ भले ही मायके में रहतीं या ससुराल में, उन्हें सिर झुका कर दिन व्यतीत करने पड़ते। ऐसी स्त्रियों के साथ या तो हद से ज्यादा हमदर्दी प्रकट की जाती या फिर उनसे एक दूरी रखी जाती। सुहागिनें विधवाओं के साये से भी दूर रहने का यत्न करतीं। उन दिनों तो ब्याह-शादी में कई शगुनों के अवसर पर किसी विधवा की उपस्थिति को अपशगुन समझा जाता। नव जन्मा बालक विधवा की झोली में तो क्या उसकी परछाईं से भी दूर रखा जाता। विधवा के लिए हार-श्रृंगार वर्जित होता। मांग में सिंदूर, माथे पर बिंदी और अधरों पर सुरखी अगर कोई विधवा लगा लेती तो उसे कंजरी, बेहया और लुच्ची तक कह दिया जाता। कुंती को देखकर मुझे ज्ञानी गुरमुख सिंह मुसाफ़िर (पंजाबी के प्रतिष्ठित अग्रज कथा लेखक) की एक कविता की ये सतरें अक्सर याद आ जातीं -
''होरां लई जहान 'ते लक्ख खुशियाँ, ऐपर मैं तत्ती लई कक्ख नाहीं।
खाणा पीणा, हंडाउंणा वी छड्ड दितै, ऐपर छड्डे जमाने की अक्ख नाहीं।
(दूसरों के लिए दुनिया में लाख खुशियाँ हैं परन्तु मुझ दुखियारी के लिए कुछ नहीं है। खाना, पीना, पहनना भी छोड़ दिया है, पर जमाने की आँख नहीं छोड़ती।)
उपर्युक्त पंक्तियाँ मैंने ज्ञानी करते समय पाठय-क्रम में लगी पुस्तक 'कावि-सुनेहे' में से याद की थीं। कुंती दूसरा हार-श्रृंगार नहीं करती थी पर आँखों में काजल बहुत लगाती थी। उसका रंग गेहुँआ था, दांत अर्धपीले और आँखें मोटी जो काजल से और मोटी दिखाई देतीं। कद में वह नाटी थी। माँ जी के सामने मैंने उसे कभी बोलते नहीं देखा था। माँ जी की अनुपस्थिति में उसके साथ बहुत हमदर्दी प्रकट करता। उसे बहुत समझाता पर मेरे पास उसके बढ़िया जीवन-यापन का कोई हल नहीं था। हाँ, मैंने उसे सगी बहनों से भी अधिक प्यार और सम्मान दिया। अभी मुझे माँ जी के घर रहते हुए हफ्ता भी नहीं हुआ था कि एक लड़की पढ़ने के लिए आ गई। वह माँ जी की सगी भतीजी थी। वह दसवीं में फेल हो चुकी थी। माँ जी की भाभी स्कूल टीचर थी, बहुत सुन्दर, हट्टी-कट्टी। वह भी संग आई थी। माँ जी ने पुरजोर सिफ़ारिश की। मैं इन्कार न कर सका। अगले दिन शाम चार बजे का समय दे दिया। जब वे माँ-बेटी चली गईं, माँ जी ने उलटा रिकार्ड बजाना शुरू कर दिया, '' है तो यह मेरी भतीजी, पर इसके लछण ठीक नहीं। तुम चार-पाँच दिन तो पढ़ाओ, बाद में जैसे भी पीछा छुड़ाना चाहो, छुड़ा लेना।'' माँ जी के इन दो-तीन वाक्यों से मैं सारी बात समझ गया था।
लड़की का नाम उर्मिला था और माँ जी उसे बिमला कहकर बुलाती थीं। अगले दिन वह चार बजे से पाँच-सात मिनट पहले ही आ गई। कुंती ने मुझे नीचे से आवाज़ लगाई। मैं नीचे उतर कर माँ जी के सोने वाले कमरे में चला गया और चारपाई पर पैर लटकाकर बैठ गया। माँ जी बाहर बरामदे में अपने काम में लगी रहीं, कुंती कभी अन्दर तो कभी बाहर। बिमला नीचे फर्श पर बोरी बिछा कर बैठी थी। पहले दिन जो कुछ मैंने उसे लिखवाया और हिसाब के जो सवाल करवाये, उससे लगा, वह पास तो हो सकती है लेकिन वह पढ़ने में अधिक रूचि नहीं ले रही थी। मैंने अगले दिन का उसे काम देकर एक घंटे से भी पहले वापस भेज दिया। इसका कारण यह था कि माँ जी ने अपनी सिफ़ारिश पर खुद काटा मार दिया था, दूसरा मेरी यह एक बेगार थी, तीसरे उस लड़की के मुझे लक्षण ठीक नहीं लगे थे।
दूसरे दिन उसके आने पर फिर मुझे हांक लगाई गई। माँ जी और कुंती बाहर काम कर रही थीं। चारपाई से मेरे पैर नीचे थे, फर्श पर। बिमला ने मेरे पैरों को एक बार नहीं, तीन-चार बार पाँच-सात मिनट के अन्तराल में स्पर्श किया, बिमला नंबर दो की तरह। मुझे उसकी नीयत का का पता चल गया था। जब भी वह मेरे पैर को छूती, पहले वह बाहर देख लेती। कुंती भी दो बार अन्दर का चक्कर लगा चुकी थी। आखिर, उसने मेरे पैर पर हल्की-सी च्यूंटी काटी। अब तो उसकी नीयत पर कोई संदेह ही नहीं रहा था। मैंने पैर ऊपर कर लिए। उसके चले जाने के बाद मैंने माँ जी को बताया कि लड़की की पढ़ने में अधिक दिलचस्पी नहीं है।
उस समय मैं उम्र के तेइसवें साल में था। मैं कोई देवता भी नहीं था। इन्सानों की तरह एक इन्सान था। उन दिनों जवान होने के कारण मेरे अन्दर भी तरंगे उठा करती थीं। जब नदी स्वयं ही प्यासे के पास आए, प्यासे का नदी में से घूंट भरना कितना अस्वाभाविक हो सकता है। पर मैं डरपोक बहुत था। ऐसे मामलों में तो सिरे का डरपोक हूँ। इसलिए मैंने उसकी पहल का कोई जवाब नहीं दिया था। जवाब तो क्या, पैर चारपाई के ऊपर रखकर मैंने उसे निराश ही किया होगा। यह निराशा मैंने उसके चेहरे पर पढ़ भी ली थी। एक हफ्ता लगभग चार-पाँच दिन मैं उसे इसी तरह पढ़ाता रहा। उसे कोई भी ऐसा मौका न मिला कि वह मुझे छू सके।
दूसरे हफ्ते उसने चार नहीं बजने दिए थे कि दबे पांव ऊपर चौबारे में चढ़ आई थी। कोई मेरे पैरों की उंगलियाँ मरोड़ रहा था। देखा, वह तो उर्मिला थी, माँ जी की बिमला। मैं घबराकर चारपाई पर बैठ गया और उससे ऊपर आने के बारे में पूछा।
''बुआ जी हमारे पड़ोसियों के यहाँ बैठे हैं और कुंती नीचे सो रही है।'' वह जैसे सीधे ऊपर आ जाने को लेकर मुझे बेखौफ कर देना चाहती हो। मेरे दो तीन बार कहने पर भी वह नीचे नहीं गई और वहीं चारपाई पर बैठ गई। चारपाई पर बैठने से पहले उसने खिड़की बन्द कर दी। उस खिड़की से केवल कृष्ण की खिड़की साफ दिखाई देती थी और उसकी खिड़की से मेरी खिड़की भी। मुझे यह इसलिए भी मालूम था क्योंकि मैं केवल कृष्ण के घर की इस खिड़की के पास खड़े होकर अपने घर की खिड़की को देख चुका था। जब मुझे यहाँ से उसकी खिड़की दिख सकती थी तो इस खिड़की को वहाँ से कोई भी आसानी से देख सकता था। बिमला को इस बात की पूरी समझ थी। इस काम में मुझे वह बहुत अनुभवी लगी।
मैंने बड़ी मुश्किल से उसे नीचे भेजा, पर जाते-जाते वह कुछ छेड़छाड़ कर ही गई। जब मैं नीचे गया तो उसने मुझे इस तरह 'नमस्ते' की मानो वह मुझे अभी मिली हो। अब मुझे उसका इस क्षेत्र की खिलाड़ी होने में कोई संदेह नहीं रहा था और मैंने अन्दाजा लगा लिया था कि लड़की है तो दिमागवाली, पर इसका दिमाग पढ़ाई-लिखाई की जगह इस तरफ अधिक काम करता है। पाँच-सात दिन बाद उसने मुझे एक पत्र पकड़ाया। वह पत्र किसी ज्ञानचन्द का था। उसने यह पत्र किसे लिखा था, कुछ पता नहीं चलता था, पर था एक आशिक का ख़त और वह आशिक शायद बिमला का ही था। बाद में उसने ज्ञान चन्द से अपने संबंधों की सारी कहानी सुना भी दी थी। अब वह स्थानांतरित होकर अपने इलाके में फगवाड़ा के आसपास कहीं चला गया था।
बिमला कुछ दिन बाद फिर सीधे ऊपर आ धमकी। उस दिन भी माँ जी बाहर थीं और भोली कुंती नीचे सोई पड़ी थी। मैं खुद जाग रहा था, पर उसका ऊपर चले आना आज मुझे अजीब नहीं लगा था। वह अपने आप ही सामने पड़े डिब्बे में से बिस्कुट निकाल कर खाने लगी। मैं उसके इस अपनत्व को क्या कहूँ। बड़ी मुश्किल से कह-सुनकर उसे नीचे भेजा। माँ जी भी आ गईं और उसकी भाभी भी। भाभी ने जब उसकी पढ़ाई के विषय में पूछा तो मैंने बताया कि पास तो यह आसानी से हो सकती है पर पढ़ाई की तरफ ध्यान कम देती है। भाभी का घरवाला अबोहर में कहीं क्लर्क लगा हुआ था। भाभी ने बताया कि अगर यह दसवीं पास कर ले तो इसे जे.बी.टी. में कहीं दाख़िला मिल सकता है। मैंने उसे तो कुछ नहीं कहा, पर मन ही मन बोला कि इसके जे.बी.टी. करने वाले लक्षण दिखाई नहीं देते। यह कैसा रिश्ता था कि न तो मैं उसके जाल से बाहर था, न अन्दर। हाँ, अगर मैं चाहता तो वह सबकुछ कर सकता था, जिसके लिए वह दोनों हाथों से तैयार थी।
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नदौण में रहते हुए मेरा एक और घर में आना-जाना हो गया था। यह वहाँ एकमात्र आर्य समाजी परिवार था। यशपाल मुझे अपने घर ले गया था। इसका कारण यह था कि इस बच्चे को मैंने सातवीं कक्षा का मॉनीटर बना रखा था और हर कक्षा में ही मैं अपने संबंध में जानकारी देते समय यह बताया करता था कि मैंने अधिकांश नौकरी प्राइवेट आर्य स्कूलों में की है और इनमें से एक स्कूल - आर्य स्कूल गुरूदत्त ऐंगले वैदिक हॉयर सेकेंडरी स्कूल, कांगड़ा भी था। उसका भाई सुरिंदर भी नौंवी कक्षा में पढ़ता था और मैं उस कक्षा को पंजाबी पढ़ाता था। उनके कहने पर मैं एक इतवार को सवेरे ही यशपाल के संग हवन पर उनके घर चला गया था। वे आर्य समाजी विधि से हर इतवार हवन किया करते थे। मैं तपा मंडी के आर्य स्कूल के हैड मास्टर यशपाल भाटिया का तो मन से विरोधी था ही, आर्य प्रतिनिधि सभा के इस विचार का भी विरोधी था कि हम सब की मातृभाषा हिंदी है। इस बारे में जो कुछ तपा मंडी के स्कूल में मेरे संग हुआ था, वह मैं पीछे बयान कर चुका हूँ। पर नदौण में उनके घर अपनी इस कड़वाहट के विषय में मैंने कुछ नहीं बताया था। यशपाल और सुरिंदर दोनों का स्कूल में मुझे बहुत सहारा था। इतवार के दिन मैं बिलकुल खाली भी होता था। हवन के विधि-विधान से भी मैं परिचित था और बहुत से मंत्र भी मुझे कंठस्थ थे। हर इतवार यशपाल मुझे ले जाता। इस अवसर पर इन दोनों लड़कों के अलावा उनकी स्कूल में पढ़ती बहनें और माता-पिता भी होते और एक मैं। अन्य कोई नहीं होता था। हवन के पश्चात अच्छा बढ़िया नाश्ता करता और अपने ठिकाने पर पहुँच जाता। यह सिलसिला तब तक चला, जब तक मैंने वहाँ नौकरी की।
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एक लड़का रमेश था। वह किसी गाँव से आता था और पढ़ता था नौंवी कक्षा में। वह मुझे कई बार अपने गाँव ले चलने के लिए कह चुका था, पर कभी जाने का सबब ही नहीं बना था। एक दिन वह चूसने वाले चार आम ले आया। इतना बड़ा चूसने वाला आम मैंने पहले कभी नहीं देखा था। कलमी आमों से भी बड़े-बड़े आम थे, लंगड़े बनारसी आमों जैसे। एक आम चूसकर ही तृप्ति हो जाती थी। मैंने चार दिन में वे चार आम चूसे यानि एक आम रोज़। स्कूल जाने से पहले मैं एक आम को पानी भरे लौटे में रख देता, पानी में वह अक्सर ठंडा भी रहता था। पूरी छुट्टी के बाद मैं वह आम चूसता। ऐसे आम मैंने अपनी ज़िन्दगी में कभी नहीं चूसे। इन आमों में मानो शहद भरा हो। पहले तो मैंने ढीले से आम देखकर नाक अवश्य सिकोड़ा होगा, पर बाद में वे आम मेरी यादों की पिटारी में स्थायी तौर पर अंकित हो गए। अब मैं कह नहीं सकता कि रमेश मुझे आमों के कारण याद है कि आम रमेश के कारण। ऐसा आदर-सम्मान करने वाले बच्चे आजकल कहाँ मिलते हैं।
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Sunday, December 12, 2010

पंजाबी उपन्यास

''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ सत्रह ॥
शाम को प्रदुमण रेड हाउस में जाता है। सामने अजनबी-सा व्यक्ति बैठा मिलता है। उसे पहचानते हुए वह कहता है-
''तुमने आई.डब्ल्यू.ए. में भी काम किया है ?''
''हाँ, लीगल एडवाइज़र रहा हूँ शर्मा के बाद।''
''मैं भी कहूँ, तुम्हें देखा है कहीं।''
''अब हमने यहाँ इमीग्रेशन के मसलों के लिए सलाह देनी शुरू की है।''
''मुझे पता चला है, जगमोहन हमारा रिश्तेदार है। कहाँ गया वो ?''
''आज नहीं मिलेगा वो आपको। घर में होगा आज तो। फ्राइडे होगा यहाँ पर। हमने कुछ ऐसा ही एडजस्ट किया हुआ है। पर बताओ क्या काम है, मैं भी कर सकता हूँ।''
''एक केस है, परिचित लड़की है, ससुराल वाले पक्का नहीं होने दे रहे। इंडिया से ब्याह कर लाए थे। अब कहते हैं पसन्द नहीं।''
''होम ऑफिस से लैटर आ गई।''
''लैटर मिल गया है, अपील के लिए तीस दिन दिए हैं।''
''बस, आप ले आओ लैटर, अपील कर देते हैं।''
''ठीक है।'' कहते हुए प्रदुमण सिंह वहाँ से चल देता है। वह कार को एक सुनसान-सी सड़क पर ले आता है और एक तरफ करके रोक लेता है।
''तू मुझे इतनी अच्छी लगने लगी है कि मैं तेरे लिए कुछ भी कर सकता हूँ।''
''थैंक्यू अंकल जी।''
''फिर अंकल... आज तो मैं देख कैसा तैयार होकर आया हूँ।''
''बिलकुल, आप भी बहुत सुन्दर लग रहे हो।''
कुलजीत बात करके तिरछी नज़र से उसकी ओर देखती है। प्रदुमण सिंह एकदम उसका हाथ पकड़ लेता है। कुलजीत कहने लगती है-
''बड़े आशिक मिजाज हो अंकल जी।''
''तेरी जैसी सोहणी औरत सामने हो तो मर्द आशिक न हो जाए तो फिट्टे मुँह उसके मर्द होने पर।''
''क्या खासियत है मेरे में ! मैं तो वक्त की मारी हुई हूँ।''
''तुझे कहा न, ये बात भूल जा।''
''याद क्या रक्खूँ ?''
''एक तू है और एक मैं हूँ।'' कहता हुआ प्रदुमण उसकी ठोड़ी पकड़कर उसके अधरों को चूम लेता है। कुलजीत कोई उज्र नहीं करती। फिर वह कुलजीत को उसके घर पर उतार देता है।
अब वह सातवें आसमान पर है। अजीब-से खुमार से भरा हुआ। उसने एक जवान लड़की को जीत लिया है। उसे आसपास से वही खुशबू आने लगती है जो नीरू से मिलने पर आया करती थी। अब वह सोच रहा है कि जैसे भी हो, कुलजीत का काम करे। वह जगमोहन से सारी बात करना चाहता है। जगमोहन से वह दिल की बात कर सकता है। यद्यपि वह उसके भाई हरकेवल सिंह का दामाद है पर उससे वह दोस्तों की तरह व्यवहार करता है। वह उसे कुलजीत के संग बने अपने संबंधों का राज़दार बनाना चाहता है। अब मसला यह है कि वह जगमोहन को मिले कैसे। शुक्रवार अभी दूर है। घर वह जाना नहीं चाहता। उसे है कि हरकेवल सिंह यह न सोचे कि वह उससे अलग होकर उसके दामाद से रिश्तेदारी गहरी करता घूम रहा है। और फिर, घर जाने पर खुलकर बात भी नहीं हो सकती। वह चाहता है कि जगमोहन कुलजीत को यह विश्वास दिलाता रहे कि वह स्थायी तो हर हाल में हो जाएगी, पर ऐसा होगा अंकल के जरिये ही। उसे मालूम है कि वह कोई न कोई बहाना गढ़कर दिन में ही कुलजीत को कहीं ले जाया करेगा। बच्चों के स्कूल चले जाने के बाद घर खाली ही होता है। राजविंदर भी घर में नहीं होता। वह फैक्ट्री में न हो तो दोस्तों के संग किसी तरफ निकल जाता है। घर में न भी सही 'बैड एंड ब्रेकफास्ट' भी मंहगा नहीं पड़ता। उसे यकीन नहीं हो रहा कि कुलजीत इतनी जल्दी मान जाएगी। कुलजीत को भी यहाँ स्थायी होने के बदले यह सौदा मंहगा नहीं लगता।
प्रदुमण सिंह अपने घर पहुँचकर ज्ञान कौर से जगमोहन के घर फोन करवाता है। मनदीप फोन उठाती है। वह जगमोहन को आवाज़ लगाती है और ज्ञान कौर प्रदुमण सिंह को फोन थमा देती है। वह कहता है-
''यंग मैन, किधर छिपा फिरता है भई ?''
''छिपना कहाँ है, कठिन समय में अपने आप को संभालता फिर रहा हूँ।''
''भई, बड़े फिल्मी डायलॉग मार रहा है।''
''अंकल जी, डायलॉग मैं क्या मारूँगा। आप बताओ क्या हाल है ?''
''काम है तेरे से इमीग्रेशन का।''
''हुक्म करो।''
''कहीं मिले तो बात करूँ, आज मैं रेड हाउस गया था पर तू था नहीं।''
''पर वहाँ शाम भारद्वाज तो होगा ही।''
''हाँ, पर हमारा वकील तो तू ही है, बता कब मिलेगा ?''
''आप बताओ, अभी आ जाओ।''
''अब ! आठ बजे हैं, पब में आ सकता है ?''
''पब में !... चलो आ जाता हूँ। कौन से पब में ?''
''द ग्लौस्टर में ही।''
''नहीं अंकल जी, वहाँ मेरे कई परिचित मिल जाएँगे। कोई बात नहीं हो पाएगी। आप लेडी मैगी में आ जाओ। वहीं मिलते हैं।'' कहकर जगमोहन फोन रख देता है। वह इस वक्त बाहर जाने के मूड में बिलकुल नहीं है। भोजन कर चुका है पर प्रदुमण सिंह ने कहा है, रिश्तेदारी है, जाना ही पड़ेगा। वह तैयार होने लगता है। उसकी अपने ससुर से तो अधिक नहीं बनती, पर प्रदुमण सिंह से संबंध बहुत ही दोस्ताना हैं। वह उसके सामने सिगरेट तक पी लेता है, नहीं तो उसने अपनी स्मोक करने की आदत काफ़ी छिपा कर रखी हुई है। वह बीसेक मिनट में लेडी मैगी में पहुँच जाता है। साउथाल के पबों में यह रिवायती-सा पब है जो अधिक भरता भी नहीं और खाली-सा भी नहीं होता। आम तौर पर लोकल गोरे ही यहाँ होते हैं और इसीलिए खुलकर बातचीत करने के अवसर यहाँ अधिक होते हैं। प्रदुमण सिंह उससे पहले ही आया बैठा है। उसने बियर के गिलास भी भरवाकर रखे हुए हैं। जगमोहन हाथ मिलाकर बैठते हुए कहता है-
''अंकल, मैं आप में कोई बहुत बड़ी चेंज महसूस कर रहा हूँ, पर क्या, समझ में नहीं आ रहा।''
''कई बातें ऐसी होती हैं कि न समझो तो अच्छीं। तू अपना गिलास उठा।''
अनमना-सा जगमोहन गिलास उठाते हुए कहता है-
''मैं तो रोटी खा चुका था।''
''इतनी जल्दी ?''
''बच्चों के संग ही खा लेता हूँ। पब भी मैं वीक एंड पर ही आता हूँ, बियर भी थोड़ी-बहुत ही।''
''अच्छी बात है। मैं तो जब तक गिलास पी न लूँ, नींद नहीं आती। लेकिन मैं पीता एक या अधिक से अधिक दो ही हूँ।''
''बताओ, अपना क्या केस है।''
''केस वही। लड़की आई विवाह करवाकर, बसी नही। ससुराल वाले पक्का नहीं करवाते।''
''रिफ्यूजल लैटर आ गई ?''
''हाँ, बस अपील करनी है।''
''लड़की है कौन ?''
''यह तो सीक्रेट है।''
''पर डॉक्टर के सामने तो नंगा होना ही पड़ेगा।''
उसके कहने पर प्रदुमण सिंह हँसने लगता है। उसकी हँसी में झलकते अल्हड़पन से जगमोहन समझ जाता है कि बात कुछ और है। वह पूछता है-
''हमारी आंटी तो सेफ है न ?''
''तुम्हारी आंटी तो ऐसा खम्भा है जिस पर न किसी तूफ़ान का असर, न भूचाल का। यह तो कोई पार्ट टाइम सा जोश है।''
''फिर ले आओ किसी वक्त।''
''लाने के बिना बात नहीं बनती ?''
''अपील के लिए ग्राउंड तो खोजनी ही पड़ती है और अपील उसकी कहानी में पड़ी है और कहानी उसके पास ही है फर्स्ट हैंड। जो आप बताओगे वो तो सेकेंड हैंड है।''
''यह तो भई सौदा घाटे का लगता है।''
''कैसे ?''
''कहीं कुछ पाने के चक्कर में कुछ गवां ही न बैठूँ।''
''आप फिक्र न करो अंकल जी, आपकी चीज़ आपकी रहेगी।''
''प्रॉमिज़ ?''
''प्रॉमिज़।'' कहकर जगमोहन अपनी ओर बढ़े प्रदुमण सिंह के हाथ से हाथ मिलाता है। अपना गिलास खत्म करते हुए प्रदुमण सिंह कहता है-
''मैं तुझे बात बताते हुए डर भी रहा था कि तू वूमेन लिबरेशन की कुछ ज्यादा ही बात करने लगता है।''
''नहीं, ऐसी भी कोई बात नहीं।''
''मैंने तो सुना था कि साधू सिंह ने लड़की का क़त्ल किया था तो तू बहुत दुखी था।''
''वह तो उसने गलत किया था, पर उसे सज़ा मिल गई। अब सारी उम्र अन्दर ही रहेगा। यह ऑनर किलिंग तो बहुत गलत है।''
''पर क्या तू भारतीय या पंजाबी कल्चर में नहीं जन्मा ? लड़की जब गलत कदम उठाती है तो उसका यही नतीजा होता है। यही होना चाहिए।''
''यहाँ मैं आपके साथ एग्री नहीं करता। देखो, जिस समाज को हमने अपनाया है, उसमें यह मामूली बात है। इस समाज को अपनाने की हमारी कोई मजबूरी तो नहीं थी, हमारी अपनी मर्जी थी। अब देखो, क्या हो रहा है। हमें कुछ सब्र से काम लेने की ज़रूरत है। लड़कियों को मारने से कोई समस्या हल नहीं होगी।''
''जगिया...हम मर्द लोग हैं। हम नहीं सह सकते। हमारा खून अभी सफेद नहीं हुआ। पर साधू सिंह की लड़की तुझे इतना हांट क्यों करती रही ? कोई चक्कर तो नहीं?''
''मैंने वो लड़की देखी थी, रोज़ देखता था।''
''और तू देखता भी स्विमिंग-पूल में था।''
''हाँ, पर कोई इस तरह की बात नहीं थी।''
''चल मान लेते हैं, अब ध्यान रखना कुलजीत न तुझे हांट करने लग पड़े। तुझे सिर्फ़ मदद करनी है।''
जगमोहन ज़रा-सा हँसता है और कहता है-
''आप फिक्र न करो, हम पहले अपील करते हैं, अपील का टाइम न गुजार दें। आप मुझे उसके पेपर, पासपोर्ट दो या फिर वहीं रेड हाउस ही दे आओ।''
''रेड हाउस के बजाय तो मैं संधू के पास जाता हूँ, पुराना परिचित है पर मुझे तो तेरे पर ही भरोसा है।''
''संधू अंकल भी बोतल पीकर टेढ़ा हुआ पड़ा होगा। इतना टेलेंटिड आदमी है और टेलेंट को भंग के भाड़े खराब कर रहा है।''
''छोड़ उसे, तू बता, तुझे कुलजीत कहाँ और कब मिलवाऊँ ?''
''जहाँ चाहो, पर घर में न लाना।''
''मैं इतना मूर्ख भी नहीं। तुझे कार में ही मिलवा दूँगा कल।''
''इतनी भी चोरी क्या कही।''
''चल, जहाँ कहेगा, मिलवा दूँगा, पर मेरा एक इम्पोर्टेंट काम है।''
''वो भी बता दो।''
''देख, सीधी-सी बात है कि कुलजीत भी अपनी ज़रूरत को मेरे संग जुड़ी है, जिस दिन पक्की हो गई वो पत्तरा बांच देगी। सो, हमें काम स्लौली-स्लौली करना है।''
''अंकल जी, इतने खुदगर्ज भी न बनो। वह बेचारी पक्की होती है तो होने दो। ये सारा साउथाल ही कुलजीतों से भरा पड़ा है। आप चिंता क्यों करते हो, कोई और मिल जाएगी।''
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Sunday, December 5, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-16( प्रथम भाग)


जाए नदौण, आए कौन


जब मैं जालंधर से नदौण के लिए चला, सीधी बस कोई नहीं थी। होशियारपुर होकर ही जाना था। होशियारपुर का अड्डा मेरा जाना-पहचाना था। बस का रूट बिलकुल जुआर वाला ही था। फ़र्क़ बस इतना था कि अब जुआर की ओर एक नहीं, अनेक बसें जाती थीं। गगरेट, मुबारकपुर चौकी, अम्ब, नहिरी और जुआर - सात बस-अड्डे मेरे जाने-पहचाने थे। मैं बस में बायीं ओर बैठा था। दूध-चाय वाला जौंढू बस रुकते ही मुझे दिखाई दे गया था, पर बस वहाँ अधिक देर नहीं रुकी थी। उससे आगे का सारा रास्ता बेशक मेरे लिए नया नहीं था, पर बहुत-सा हिस्सा नया था। अड्डे पर मैं बारह बजे से पहले पहुँच गया था, शायद ग्यारह बजे से भी पहले। बस कुछ हलवाइयों की दुकानों और ढाबों के सामने खड़ी होती थी। स्कूल को जाने के लिए रास्ता पूछना ही पड़ा। बाजार में से होता हुआ मैं जहाँ पहुँचा, वहाँ एक बड़ा ग्राउंड था और कुछ लड़के भी ग्राउंड में घूम रहे थे। गेट पर लोहे का एक बोर्ड लगा हुआ था। बोर्ड हिंदी में था - राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय। मैं आगे बढ़ गया। मैंने समझा है तो यह कोई स्कूल ही पर यह सरकारी हायर सेकेंडरी स्कूल नहीं है। अभी दसेक कदम ही बढ़ा होऊँगा, मैंने आते हुए एक लड़के से एक तिहाई पहाड़ी और ज्यादातर मलवई पंजाबी में पूछ ही लिया, ''मुन्नू, हायर सेकेंडरी स्कूल कुथू है ?'' उसने गेट की तरफ इशारा कर दिया जिसे मैं पीछे छोड़ आया था। गेट के अन्दर सीधा जाकर एक बरामदा था और उस गेट के बिलकुल सामने प्रिंसीपल के दफ्तर का दरवाजा था। बाहर नेम-प्लेट लगी हुई थी- चानण राम, प्रिंसीपल। आज्ञा लेकर अन्दर गया और दुआ-सलाम के बाद अपना नियुक्ति पत्र प्रिंसीपल के सामने रख दिया। प्रिंसीपल ने घंटी बजाई, पहले चपरासी आया, फिर क्लर्क। फिर एक और सज्जन आ गए। बातचीत में ज्ञात हुआ कि वह मैथ का लेक्चरार है और सबसे वरिष्ठ होने के कारण वाइस-प्रिंसीपल भी। जब मैंने उपस्थिति रिपोर्ट लिखने के बारे में विनती की तो प्रिंसीपल ने कहा कि यहाँ पोस्ट खाली नहीं है। ''इसका मतलब यह है प्रिंसीपल साहब कि सी.ई.ओ. साहब ने गलत आर्डर कर दिए हैं ?'' मैंने नम्रता के साथ एक प्रश्नकर्ता की भांति पूछा। ''नहीं, आर्डर गलत नहीं है, जिस मास्टर की बदली हुई है, वह जाना नहीं चाहता।'' प्रिंसीपल ने सही बात बता दी। ''क्या उसने खुद अर्जी देकर बदली करवाई है या सरकार ने स्वयं बदली की है ?'' अन्दर से दुखी होने के बावजूद मैंने अपना लहजा नम्र रखा। ''नहीं, उसने स्वयं एप्लीकेशन दी है।'' प्रिंसीपल के स्थान पर क्लर्क बोला। ''फिर तो उसे रिलीव हो जाना चाहिए।'' मैंने विनम्रता का पल्ला अभी भी नहीं छोड़ा था। ''यह देखना प्रिंसीपल का काम है कि उसे रिलीव करना है या नहीं।'' अब वाइस-प्रिंसीपल बोला था। ''फिर मुझे क्या हुक्म है ?'' मैं प्रिंसीपल को मुखातिब होकर बोला। ''जल्दी न करो, कोई न कोई हल निकालते हैं।'' प्रिंसीपल दुविधा में लग रहा था।
पूरी छुट्टी होने में सिर्फ़ एक घंटा रहता था। चाय हालांकि प्रिंसीपल ने मंगवा कर पिला दी थी, पर मैं बहुत उदास था। मैं आते ही प्रिंसीपल के साथ बहस में नहीं पड़ना चाहता था क्योंकि ज़िला कांगड़ा के सभी कस्बों के बारे में मैं परिचित था। नदौण, हमीरपुर, कांगड़ा, परागपुर और धर्मशाला से बढ़िया इस ज़िले में कोई स्टेशन नहीं था। मैं मन ही मन में सोच रहा था कि यदि यहाँ से जवाब मिल गया तो संभव है कि किसी ग्रामीण पहाड़ी स्कूल के आर्डर कर दिए जाएँ, जहाँ बस भी न जाती हो। कांगड़ा ज़िले में ही ऐसे ग्रामीण हाई स्कूलों की मुझे जानकारी थी जहाँ 5-7 किलोमीटर से लेकर 15 किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता था।
पूरी छुट्टी होने से पहले प्रिंसीपल ने मुझे यह कहकर वाइस-प्रिंसीपल के साथ भेज दिया कि कल कोई फैसला कर लेंगे। मेरे अन्दर हौसले वाली बात तो पहले ही नहीं थी। छंटनी के कुल्हाड़े के कारण पहले ही मन पूरी तरह ज़ख्मी था, अब इस नौकरी के लिए भी ज़रूरत से अधिक दबना पड़ रहा था। यह सोचकर मैं अन्दर ही अन्दर जल-भुन रहा था।
डी.पी.आई. के दफ्तर में से सी.ई.ओ., जालंधर को आर्डर करने में मेरी एक सुपरिंटेंडेंट ने मदद की थी। यह सुपरिंटेंडेंट था- धर्म पाल गुप्ता। गुप्ता जी का पूरा उल्लेख तो मैं आगे जाकर करूँगा पर यहाँ उनका जिक्र इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि उनके नाम लेने भर से ही मेरा बेड़ा पार हो गया था। मैं अपना बिस्तरा और अटैचीकेस बस-अड्डे पर एक ढाबे वाले के पास रख आया था। दोपहर का खाना खाने वाइस प्रिंसीपल को जाना था। हम दोनों जिस होटल पर पहुँचे, वह मेरे सामान वाले ढाबे से कुछ पहले पड़ता था। खाना खाते समय मैंने डी.पी.आई. दफ्तर में अपने संबंधों की बात कर दी और साथ ही, सी.ई.ओ. दफ्तर के ई.ओ. बंता सिंह की भी। वाइस प्रिंसीपल जिसें मैं अब तक वाइस प्रिंसीपल साहब कह कर बुला रहा था, उसने बताया कि उसका नाम केवल कृष्ण है और हम दोनों हम उम्र हैं, इसलिए मैंने उसे 'केवल कृष्ण जी' कहकर ही बुलाना आरंभ कर दिया। केवल कृष्ण ने गुप्ता जी और बंता सिंह के बारे में मुझसे कुछ और बातें पूछीं, जो मैंने जानबूझ कर बढ़ा-चढ़ाकर बता दीं। केवल कृष्ण ने ढाबे पर रोटी बांध रखी थी जिस कारण उसने रजिस्टर पर एक के स्थान पर दो उपस्थितियाँ दिखला दीं और मुझे पेमेंट करने से रोक दिया। उसके कहने पर ही मैं अपना बिस्तरा और अटैचीकेस उठवा कर उसके कमरे में पहुँच गया।
केवल कृष्ण हमीरपुर का रहने वाला था और मेरे नदौण के थोड़े समय के निवास के दौरान मेरा मित्र बन गया था। नदौण के अध्यापकों में से फ़िरोजपुर का रमेश शर्मा भी बाद में मेरे सबसे करीब रहा। बात बात में मैंने अपने परिवार की सारी पृष्ठभूमि बता दी। धर्म पाल गुप्ता और बंता सिंह से संबंधों की कहानी पहले ही बताने के कारण केवल कृष्ण मेरे साथ कुछ ही घंटों में घुलमिल गया था, जैसे काफी अरसे से परिचित हो। मेरे भाई का मुख्य अध्यापक होना, मेरी भतीजी ऊषा का मैट्रिक की परीक्षा में पंजाब यूनिवर्सिटी में प्रथम आना और मेडिकल की पढ़ाई वज़ीफे से करना और मेरा स्वयं एक लेखक होना आदि सब बातों से केवल कृष्ण जैसे सम्मोहित हो गया हो। ज्ञानी में यूनिवर्सिटी में मेरी तीसरी पोजीशन, एस.डी. सीनियर सेकेंडरी और जे.बी.टी. स्कूल, बठिंडा का हॉस्टल वार्डन और पहले भी जुआर और कांगड़े में नौकरी करने के कारण मेरा अच्छी खासी पहाड़ी बोल लेना और पहाड़ी समझ लेना आदि कुछ और नुक्ते थे, जिनके कारण केवल कृष्ण को मैंने पूरी तरह अपने हक में खड़ा होने के लिए तैयार कर लिया। मैंने तो पहले ही प्रिंसीपल से कोई बहस नहीं की थी। केवल कृष्ण ने मुझे और अधिक सचेत कर दिया कि प्रिंसीपल साहब के साथ बात करते समय मैं नम्रता का पल्ला न छोड़ूँ। मरता क्या न करता, मेरे जैसे बागी स्वभाव के बन्दे को भी मोम बनना पड़ गया था और यह रवैया मैंने तब तक कायम रखा जब तक अगले दिन बदली हुए मास्टर को रिलीव करके मुझसे ज्वाइन नहीं करवा लिया गया। फिर भी इतना लिहाज प्रिंसीपल ने उस मास्टर का रख लिया कि उसे दोपहर बाद रिलीव किया और मुझसे 14 अप्रैल को दोपहर बाद उपस्थिति दर्ज करवाई। इससे मेरे पहले दिन की तनख्वाह तो मर ही गई थी, दूसरे दिन की तनख्वाह पर भी लकीर फिर गई। लेकिन केवल कृष्ण का शुक्रिया अदा करना न मैं उस वक्त भूला था और न भविष्य में भूल सकता हूँ, जिसने मुझे ज्वाइनिंग देने के लिए प्रिंसीपल के सामने मेरी तारीफ़ के पुल बांध दिए थे। प्रिंसीपल पर बड़ा असर यह पड़ा कि मेरा भाई भी मुख्य अध्यापक है और डी.पी.आई. दफ्तर तक मेरी पूरी पहुँच है। ज्ञानी पास होने के कारण मैं विद्यार्थियों को ग्यारहवीं तक पंजाबी पढ़ा सकता हूँ, इस बात ने भी मेरी इस स्कूल में उपस्थिति के लिए राह को आसान किया क्योंकि ज़िला कांगड़ा में अभी भी पंजाबी अध्यापकों की बड़ी कमी थी।
रात को मैं रोटी खाने नहीं गया था। केवल कृष्ण ने बहुत ज़ोर डाला पर मैं सिर दुखने का बहाना लगाकर पड़ा रहा। एक और चारपाई उसने पहले ही मंगा ली थी। मैंने अपना बिस्तरा खोला और बिछा कर पड़ गया। यह बात नहीं कि मुझे रोटी की भूख नहीं थी, पर रात के समय बाज़ार में से गुजरते हुए मेरे अंधराते के बारे में केवल कृष्ण को पता चल जाने का अंदेशा था और यह बात मेरे इस स्कूल में नौकरी करने में विघ्न बन सकती थी। इसलिए मुझे रात में केवल कृष्ण के साथ किसी ढाबे पर रोटी खाने जाने की अपेक्षा भूखा रहकर रात काटने को अधिक तरज़ीह देनी पड़ी। इस तरह पहले भी मैं कई बार अन्य जगहों पर नौकरी के दौरान रात में भूखा सो चुका था। मजबूरी आदमी से क्या कुछ नहीं करवा देती, इस बात का मुझे सदैव अहसास रहा है। लेकिन यह केवल कृष्ण की सुहृदयता और समझदारी थी कि लौटते हुए वह मेरे लिए पेड़े ले आया था। ये पेड़े हम दोनों ने मिलकर खाये। इससे मुझे दो फायदे हुए। एक तो भूख से छुटकारा मिल गया, दूसरा रात में दूध पीने के बाद नींद न आने की गुंजाइश खत्म हो गई। लेकिन पेड़े मैंने हिसाब से ही खाये। मुझे डर था कि कहीं ये पेड़े मुझे दिन चढ़ने से पहले ही रात में जंगल-पानी के लिए उठने को विवश न कर दें। पर ये समझो कि रात भी बढ़िया कट गई और कोई समस्या भी नहीं आई थी। सवेरे दिन चढ़े ब्यास दरिया की तरफ हम जंगल-पानी भी हो आए और नहाने-धोने का काम भी निबट गया।
पहले दिन की मेहमाननवाज़ी के बाद अगले दिन छुट्टी के उपरांत कमरे की तलाश में मेरे साथ रमेश शर्मा भी था और केवल कृष्ण भी। केवल कृष्ण के कमरे से सिर्फ़ पचास गज की दूरी पर मुझे कमरा मिल गया। केवल कृष्ण की सिफारिश के कारण एक सेवा-मुक्त पहाड़ी अध्यापिका ने मुझे अपना एक कमरा दे दिया, सिर्फ़ दस रुपये महीने पर। चारपाई मुझे मकान मालिकन माता जी ने ही दे दी थी। नीचेवाले दो कमरे उस माता जी और उसकी बेटी के पास थे, ऊपरवाला एक बड़ा कमरा मुझे दे दिया गया और उसके साथ वाला कमरा बिलकुल खाली था। अपने कमरे में आकर मैंने राहत की सांस ली।
माँ खुद अध्यापिका रही होने के कारण दूर-दराज नौकरी करने वाले अध्यापकों की मुश्किलों को समझती थी। वह विधवा थी और 28-30 वर्ष की उसकी लड़की, जिसे वह कुंती कहा करती थी, वह भी विधवा थी। माँ का एक ही बेटा था जिसका नाम शायद विजय कुमार विज था। वह विवाहित था और दिल्ली में नौकरी करता था। सो, मुझे किराये पर रखना माँ-बेटी दोनों को किसी भी तरह से मुश्किल नहीं लगा था। पहाड़ी में बातचीत करने के कारण भी मैं माँ-बेटी दोनों को शायद विजय कुमार का रूप ही लगता होऊँगा। अगले रोज़ मैंने घर चिट्ठी भेजकर सारी स्थिति भाई को बता दी। भाई मेरा बहुत जुगाड़ी था। उसने प्रिंसीपल चानण राम को अपने लैटर पैड पर धन्यवाद की ऐसी चिट्ठी लिखी कि चिट्ठी मिलते ही प्रिंसीपल को लगा मानो उसे कुछ मिल गया हो। जब स्टॉफ मीटिंग हुई, प्रिंसीपल ने मेरा और मेरे परिवार का जिक्र किया और बताया कि अब चंडीगढ़ दफ्तर में इस स्कूल का काम इतनी आसानी से रुकने वाला नहीं। टाइम-टेबल तो पहले ही मुझे मेरी मर्जी का दे दिया गया था- नौवीं से ग्यारहवीं कक्षा तक की पंजाबी, आठवीं से सातवीं कक्षा की सामाजिक शिक्षा और सिर्फ़ सातवीं कक्षा की अंग्रेजी। भाई का ख़त आने पर प्रिंसीपल ने और रियायत की भी पेशकश की, पर सबकुछ मेरे मन मुताबिक ही हुआ था। इसलिए मीटिंग में जिन शब्दों में मैंने धन्यवाद किया, उससे मेरे अच्छे वक्ता होने का ऐसा प्रभाव पड़ा कि जल्द ही स्कूल में लिटरेरी क्लब बनाने की योजना बन गई और मुझे उसका प्रोग्राम इंचार्ज बना दिया गया। यह योजना एक अध्यापक आर.एल. भाटिया साहब ने रखी थी जो स्वयं क्लब का कन्वीनर बना। इसलिए मैंने सब कुछ उसकी निगरानी में करने का मन बना लिया था। बाद में, इस क्लब को बनाने के पीछे का असली मकसद भी उजागर हो गया था।
भाटिया साहब की लम्बी छुट्टी लेकर इंग्लैंड जाने की योजना थी। जाने से पहले वह चाहता था कि स्कूल की तरफ से कोई अच्छी विदाई पार्टी हो और ग्रुप फोटो भी खींची जाए। उसकी योजना फलीभूत भी हुई थी। विदायगी पार्टी की जिम्मेदारी एक वरिष्ठ अध्यापक द्वारका दास और मुझे सौंपी गई। बढ़िया विदाई पार्टी भी हुई और ग्रुप फोटो भी खींची गईं। तकरीरों में भाटिया साहब की प्रशंसा के पुल बांधे गए। यही वह चाहता था।
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ग्रीष्मावकाश में मैं घर आ गया था। कुशल-क्षेम का चिट्ठी-पत्र चलते रहने के कारण मुझे घर की हर बात और नदौण में मेरी रिहाइश से लेकर रोटी-पानी और स्कूल में एडजेस्टमेंट के बारे में बहुत कुछ बताने की ज़रूरत नहीं थी। भाई उतावला था कि मेरा विवाह हो जाए। हैल्थ-एजूकेटर की नौकरी के दौरान बड़े अच्छे घरों के रिश्ते आए, पर कोई परवान नहीं चढ़ा। कारण न दान-दहेज का लालच था और न ही लड़की के बहुत ही सुन्दर-सुशील होने की मांग। पता नहीं क्यों बात बनते-बनते टूट जाती थी। संभव है कि कोई पीठ पीछे मेरी कम नज़र की चुगली भी कर देता हो। मेरी निगाह कमजोर अवश्य थी पर आम लोगों में इस प्रकार का प्रचार नहीं हुआ था कि रिश्ते की राह में रुकावट बने। दिन के समय ऐनक लगी होने के कारण ही मेरी नज़र के कम होने का पता लग सकता था। वैसे मैं किसी को इतनी जल्दी सच्चाई का पता नहीं लगने देता था।
मेरी माँ और मेरा भाई ही नहीं, मैं भी चाहता था कि विवाह हो जाए। नज़र लगातार कम हो रही थी। मई 1959 से दोनों तरफ माइनस ढाई के शीशे लगे थे जो अब बढ़कर एक तरफ साढ़े चार और दूसरी ओर साढ़े पाँच हो गए थे। इस स्फेरिकल नंबर के साथ-साथ एक से डेढ़ का सिलेंड्रीकल नंबर भी दोनों ओर जुड़ गया था। इसलिए ये शीशे फ्रेम के साथ-साथ मोटे और बीच में पतले थे। शीशे की मोटाई से शायद कुछ लोग अंदाजा लगा लेते हों कि मेरी नज़र कुछ ज्यादा ही कमजोर है, पर असली बीमारी का तो मुझे भी पिछले वर्ष ही पता चला था। हमारे पड़ोसी किशने जिसकी घरवाली संती को हम सब मामी कहते थे, के छोटे लड़के मोहनलाल ने जोधपुरियों के बरनाला में रहते परिवार को मेरे बारे में बताया था। मोहन की दीवार से हमारी दीवार लगी हुई थी। मोहन के स्वयं भी ऐनक लगी हुई थी। इसलिए मेरा ऐनक लगाना उसे अजीब नहीं लगता होगा। लड़की का पिता लाला कर्ता राम सवेरे सात वाली पहली गाड़ी से ही मुझे देखने आ गया। मैं नहाकर आँगन में सिर में कंघी कर रहा था। वह बाहर से ही नज़र मार कर चला गया और मोहन से बात आगे चलाने के लिए कह गया। साथ ही, यह भी कह गया कि नदौण से तबादला करवाने की जिम्मेदारी उनकी है। तबादला हमारे लिए सबसे बड़ा लालच था क्योंकि पंजाबी प्रान्त बन जाने की घोषणा के कारण 1 अक्तूबर 1966 से नदौण हिमाचल प्रदेश में चला जाना था। अफ़वाह यह थी कि जो कर्मचारी जहाँ हैं, उनका उसी प्रान्त में आबंटन हो जाएगा।
जब यह मालूम किया गया कि जोधपुरियों का वह कौन-सा किला है जिसके सिर पर वह मेरी बदली नदौण से तपा मंडी के आसपास करवाने की गारंटी ले रहे हैं तो शाम को ही पता चल गया कि डी.पी.आई. दफ्तर का सुपरिटेंडेंट धर्मपाल गुप्ता करता राम का सगा बहनोई है। सो, बग़ैर किसी लम्बी-चौड़ी सौदेबाजी के मेरी मंगनी सुदर्शना देवी के साथ बरनाले में हो गई और साथ ही यह बात पक्की की गई कि विवाह बदली होने के पश्चात ही होगा। यह समझ लो कि मेरे दहेज में नदौण से धौले की बदली मिली थी और यह जो कुछ हुआ, अच्छा ही हुआ। शेष मंगनी और विवाह की कहानी अगले किसी अध्याय में पढ़ लेना।
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छुट्टियों में दुविधा का शिकार रहा। कभी मैं खुश हो जाता, कभी दुखी। मैं प्रिंसीपल के सम्मुख जैसे इस स्कूल में हाज़िर होते समय झेंपा था, बदली की गारंटी के कारण उस झेंप के खत्म होने की मुझे खुशी थी। उसने मुझे यूँ ही ज्वाइनिंग के समय भटकाये रखा था। बेडोल से कपड़ों वाला यह प्रिंसीपल न अधिक योग्य था और न ही इन्सानियत के बुनियादी तकाज़ों के प्रति संवेदनशील। जब मैं वापस नदौण पहुँचा, मैं चढ़ती कला में था। अब मैं गुप्ता जी के साथ अपनी रिश्तेदारी की बात छाती तान कर कह सकता था। वहाँ एक मास्टर था, जिसे सभी चौधरी साहब कहते थे। बी.डी.ओ. के पद से वह किसी तरह हटा दिया गया था। इसलिए दुबारा अफ़सर बनने की लालसा उसे तंग करती रहती थी। गुप्ता जी के साथ मेरी रिश्तेदारी की बात जब उसे पता चली, वह मेरे करीब होने का यत्न करने लगा। मेरी बहुत बढ़ा-चढ़ा कर प्रशंसा करने लगा। दरअसल वह चाहता था कि मैं किसी न किसी तरह उसकी विकास विभाग की बी.डी.ओ. की नौकरी के आधार पर उसे डी.पी.आई. के दफ्तर से मुख्य अध्यापक का नियुक्ति पत्र दिला दूँ। मैंने उसे भरोसा दिलाया कि मैं अपने तबादले के बाद उसके लिए यत्न करूँगा।
मकान मालकिन और उसकी बेटी कुंती यह सुनकर बहुत निराश हुईं कि बहुत जल्द मेरी बदली हो जाने वाली है। मैं तो उसके बेटे का हर फर्ज़ पूरा कर रहा था। मेरे कारण उसे अपने बेटे विजय की कमी महसूस नहीं होती थी। कुंती सगी बहनों से भी बढ़ कर सत्कार करती। राखी का त्यौहार आया, कुंती ने सवेरे ही नहाने-धोने के बाद माँ से कहकर मीठे चावल बनवा लिए और राखी बांधने के लिए मुझे नीचे बुला लिया। राखी बांधते समय वह बेहद खुश थी। मैंने बीस रुपये उसे देने चाहे पर उसने नोट नहीं पकडे। मैंने उसकी माँ से कहा कि वह कुंती से कह दे कि बहन-भाई के इस रिश्ते में मेरी ओर से कभी पीठ नहीं दिखाई जाएगी। बीस का नोट तो यूँ ही एक चिह्न है, असली तो बहन-भाई का प्यार ही इस त्यौहार की पवित्रता को बनाता है। 1966 की राखी के उस त्यौहार के बाद भी कुंती हर साल राखी भेजती रही। मैं मनीऑडर से उसे कुछ न कुछ अवश्य भेजता। पत्र भी लिखता, पर पत्र मैं उसकी माँ को लिखता था। हमारा यह सिलसिला 1975-76 तक चलता रहा। इसके बाद कुंती की कभी राखी नहीं आई। जब 1973 के नवरात्रों में मैं और मेरी पत्नी, क्रांति और बॉवी के साथ स्नान के लिए ज्वालामुखी गए, हम नदौण भी गए। मेरे दोनों गंजे बेटों को देखकर माँ और कुंती खुश हो गईं। जब मेरी पत्नी सुदर्शना ने दोनों के चरण छुए, उन्होंने आशीषों से मेरी पत्नी और बच्चों को लाद दिया। हमें कहाँ बिठायें, यह चिन्ता उनके चेहरे पर थी। बढ़िया भोजन तैयार किया गया। हमारी सेवा में कोई कसर शेष नहीं रही थी।
हम आर्य समाजी साबुन वाले मित्र के घर भी गए। उन्हें भी हमें देखकर जैसे बेहद खुशी हुई हो। बेटियाँ दोनों ब्याही गई थीं। छोटी बेटी तो जालंधर के एक बहुत बड़े व्यापारी के घर ब्याही गई थी। सुरिंदर घर पर नहीं था। यशपाल ही अब दुकान का काम संभालता था। अब वह पूरा जवान हो गया था और पहचान में नहीं आता था। वापस लौटने की जल्दी के कारण हम वहाँ करीब घंटाभर ही रुके, पर मुझे इन दोनों परिवारों से मिलकर जो खुशी हुई, वह शब्दों में बयान नहीं की जा सकती।
जब मैं नदौण में पढ़ाया करता था, तब भी मैं दो बार ज्वालामुखी गया था। एक बार पैदल चलकर ही ज्वालामुखी पहुँच गया था, वापस बस पर आया था। ये कैसे संस्कार थे कि मार्क्सवाद का अच्छा-खासा प्रभाव होने के बावजूद मैं ज्वालामुखी मंदिर में गया और शीश निवाया।
(जारी…)