हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
।। अट्ठारह ॥
जैसा कि शाम भारद्वाज सोचता है, फ्री लीगल सर्विस का काम चल पड़ता है। लोगों को उनके बारे में पता चल जाता है। उन्होंने ब्राड वे पर खड़े होकर लीफ़लेट्स बाँटे हैं। वे लोकल प्रैस में और देसी प्रैस में भी इश्तहार देना चाहते हैं, पर ऐसे इश्तहार के लिए पैसे चाहिएँ और उनके पास पैसे नहीं हैं। गुरचरन सलाह देता है कि जो लोग अपनी इच्छा से फीस देना चाहें, वह ले लिया करें ताकि उनके पास कुछ फंड जमा हो जाए। पर इसके लिए शाम राजी नहीं। वह लोगों में मुफ्त में काम करके हरमन प्यारा होना चाहता है।
पहले कुछ दिनों में ही बारह केस उनके पास आ जाते हैं। सलाह लेने वाले तो पन्द्रह-बीस आदमी रोज़ना के हो जाते हैं। दिलजीत की हिम्मत से 'नये अक्स' में शाम भारद्वाज की पूरी इंटरव्यू लग जाती है जिसके कारण वह बहुत खुश है। वह काम करवाने आए लोगों से उत्साह में हाथ मिलाता है। एक मुस्कराहट सी हर वक्त चेहरे पर जमाए रखता है। गुरचरन और जगमोहन तो बारी बारी ही रेड हाउस आते हैं पर शाम भारद्वाज लगभग हर रोज़ ही आ जाता है। एक दिन वह सोचता है कि सलाह लेने वालों का या काम करवाने वालों का पता डायरी में नोट कर लिया जाए ताकि भविष्य में काम आ सके। हफ्ते के आख़िर में वह देखता है कि आधे से अधिक लोग तो साउथाल से बाहर के आते हैं। कई तो ईलिंग के भी नहीं होते। वह गुरचरन को कहता है -
''यह यार बढ़िया तरीका नहीं लगता लोगों में जाने का।''
''क्यों ?''
''क्योंकि यह लोग मेरी वोट नहीं बनने वाले। ये तो भाँत भाँत की लकड़ी इकट्ठी होकर पहुँच रही है मेरे पास।''
''पर मुझे तो काम करने में मजा आ रहा है। कोई मकसद सा बना हुआ है। एक उद्यम है, पब में टाइम खराब करने से तो ठीक प्रतीत होता है।''
शाम भारद्वाज उसकी बात सुनकर चुप रहता है। वह सोच रहा है कि उस का मकसद सिर्फ़ उद्यम बनाने से नहीं, वोटें बनाने से हैं। ईलिंग काउंसल के कितने ही कांउसलर है। कोई धर्म के नाम पर वोट ले रहा है, कोई इलाके के नाम पर। जिन लोगों तक यह कांउसलर पहुँच करते हैं, कम से कम वे स्थानीय तो होते हैं जिन्हें उनका वोटर बनना होता है। पर वह तो जैसे बगैर सोचे-समझे हाथ मारता जा रहा है। कितना कुछ सोचता हुआ वह ग्लौस्टर में फिर मीटिंग रख लेता है। सभी पहुँच जाते हैं। जगमोहन पूछता है-
''हाँ भई, दो महीनों में ही ऊब गया। सियासत तो लम्बी जद्दोजहद होती है।''
''मैं देख रहा हूँ कि जिन लोगों तक हम पहुँच रहे हैं, ये अपने काम के नहीं। ये तो दूर-दराज से आ जाते हैं।'' शाम जवाब देता है।
सोहन पाल उसकी बात पर ज़रा गुस्से में आकर कहता है-
''जैसे जग्गा कहता है, यह एक लम्बी रेस है, ज़िन्दगी भर की रेस। सबसे पहले तेरा पब्लिक फिगर बनना ज़रूरी है, फिर तू जिस वार्ड का मेंबर बनना चाहे, वहाँ जाकर काम करना पड़ेगा। असल में काम तो समूची कम्युनिटी के लिए करके ही तेरा नाम होगा।''
''पर ये जो मंदिरों, गुरूद्वारों, मस्जिदों के सिरों पर काउंसलर बने फिरते हैं, ये कैसे ?''
''शाम, तू सियासत से बाहर खड़ा होकर बयान दिए जाता है, ज़रा और इन्वोल्व हो, इसके और अन्दर जा, यह जो तुझे बाहर से दिखता है, बात ऐसी नहीं। यह ठीक है कि पंजाब के बदले हालातों के कारण लोग अपने अपने धर्म से ज्यादा जुड़ गए हैं, पर चुनाव जीतने का आधार अभी भी ये बातें नहीं बनीं।''
''ये जो हिंदू लीडरों के घर सिक्खों के ग्रंथ से पाठ करवाते आ रहे हैं, ये क्या है ?''
''सिक्ख भी तो हिंदुओं की मंतर पूजा करवाते हैं, सियासत में ऐसा ही करना पड़ता है। यह सियासत की ही चाल है, पर तू तो दो महीने में ही भाग खड़ा हुआ।''
जगमोहन कहता है। शाम भारद्वाज की सोहन पाल या जगमोहन की किसी बात से तसल्ली नहीं होती, पर वह चुप रहता है। गुरचरन और दिलजीत कुछ नहीं बोल रहे। जगमोहन फिर कहता है-
''कम्युनिटी में काम किए बगैर तेरे पैर नहीं लगने वाले, यह तो तू खुशकिस्मत है कि एक तरीका तेरे हाथ लग गया, लीगल सर्विस तुझे बहुत कुछ दे सकती है शाम।''
''तू ऐसा कर जग्गे, इसे प्रोफेसन के तौर पर एडोप्ट कर ले। मैं तेरी बीच बीच में हैल्प करता रहूँगा।
''शाम, अगर ऐसा करना होता तो संधू अंकल के साथ ही काम करते रहना था। असल में बात तो यह है कि मेरे से टेढ़े और गलत केस नहीं किए जाएँगे, ये जो तूने खालिस्तानी बना कर पक्के करवाने वाले केस पकड़ लिए, मैं तो कभी न पकड़ूँ।''
''जग्गे यूँ ही धर्म पुत्र न बन।''
गुरबचन ताना मारता है। जगमोहन उत्तर देता है-
''हमें कामरेड इकबाल ने मुफ्त में यह जगह दी है और उसका फोन भी फ्री फण्ड का है। कम से कम हमें कामरेड की सुहृयता का तो ख़याल रखना चाहिए। हम मकसद भी यही लेकर चले हैं कि सीधे काम करेंगे, जिन लोगों को टेढ़ी खीर खानी है, उनके लिए संधू जैसे बहुत हैं, वो ठोक बजा कर पैसा लेते हैं।''
वे पब में दो घंटे बैठे रहते हैं। बात किसी किनारे नहीं लगती। शाम भारद्वाज को गिला है कि उसके दोस्त कहने के अनुसार नहीं चल रहे।
पिछले कुछ सालों में पंजाब के हालातों ने यहाँ की सियासत को भी बदलकर रख दिया है। खालिस्तान की चढ़ाई से यहाँ के लोगों के मूड भी बदले हैं। अधिकांश को लगता है कि खालिस्तान कुछ दिनों में बना ही बना। बहुस सारे लोग केश रखकर सिक्ख सज गए हैं। लोग पीली पगड़ियाँ पहनते हैं। अब खालिस्तान की लहर में उतराव आ रहा है और लोग भी एकदम मुख मोड़ने लग पड़े हैं। जहाँ गुरुद्वारों में गरमदल वालों के कब्जे हो गए थे, वे अब टूटने लगे हैं। गुरुद्वारों में संगत की गिनती एक बार फिर बढ़ने लगी है।
(जारी…)
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