एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा
धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-23
बुध कि बुद्धू
इतिहास बताता है कि ईसवी से 563 साल पहले कपिलवस्तु के राजा सुधोदन के घर एक पुत्र ने जन्म लिया जिसका नाम सिद्धार्थ रखा गया। वैसे उसका पारिवारिक नाम गौतम था। होश संभालने पर उसने शहर में पहले एक रोगी और बाद मे एक वृद्ध को देखा। तीसरे फेरे में उसने एक अर्थी देखी।
राज कुमार ये सब दृश्य देखकर उदास रहने लगा और आख़िर एक रात अपनी सोई हुई पत्नी यशोधरा और फूल भर के बेटे राहुल को छोड़कर जीवन के सही अर्थों को समझने के लिए महलों में से निकल कर जंगल की तरफ चल पड़ा। तपस्या की, भूख से सूखकर पिंजर बन गया। आख़िर सहज जीवन का राह सिद्धार्थ ने खोज लिया और वह बुध बन गया।
कुछ इस तरह के ही ख़याल लेकर एक सुबह मैंने घर छोड़ दिया था। उन दिनों मैं सरकारी मिडल स्कूल, महिता में मुख्य अध्यापक था। सन् 1972 की बात है और दिन थे गर्मियों के। कुछ गिले-शिकवे पत्नी से थे। परन्तु असल में मैं परेशान अपनी आर्थिक मंदहाली के कारण था। तनख्वाह के अलावा अन्य कोई आमदनी नहीं थी। बेहद तंगी-तुर्शी के पश्चात भी तपा मंडी की 8 नंबर गली में बनाये मकान का कर्ज़ा नहीं उतर रहा था। लोहे और लक्कड़ वाले के पैसे ज्यों-के-त्यों खड़े थे। ईश्वर में विश्वास न होने के कारण मेरी उदासीनता मुझे घर छोड़कर बुद्ध की राह चलने के लिए मजबूर कर रही थी। जब करीब नौ बजे बस में चढ़ा तो यह पता नहीं था कि कहाँ जाना है ? बस, दिल में भूत सवार था कि भगवे वस्त्र पहन कर लोगों में समानता का प्रचार करना है। साधू-संतों की बात लोग मानते भी अधिक हैं और मेरे भगवे वस्त्रों को देखकर मेरी सिक्खी-सेवकी बढ़ जाएगी और मैं जल्दी ही जिस इलाके में भी रहूँगा, वहाँ का पथ-प्रदर्शक बन जाऊँगा और लोगों के विचारों को बदलकर रख दूँगा। परन्तु, क्रोध और जोश मनुष्य को सही सोचने नहीं देते। मेरी स्थिति भी कुछ इसी तरह की थी। क्रोध का मारा मैं घर से चला था और जोश में शेखचिल्ली की भाँति किले बनाये जा रहा था। इस जोश में पता नहीं कब मैं पटियाला पहुँच गया, फिर अम्बाला और फिर कालका। अभी चार बजे थे। मेरे लिए चार का समय छह के बराबर था। उस समय मेरी नज़र धूप-छांव से कुछ बेहतर थी। पर शाम होने पर मैं कहीं भी चलने-फिरने के योग्य नहीं रहता था। कालका में मुझे कोई उपयुक्त धर्मशाला नहीं मिली। आधा-पौना घंटा रिक्शा पर धक्के खाता वापस बस-अड्डे पर आ गया, जहाँ से मुझे सीधी चंडीगढ़ की बस मिल गई।
दिन छिप चुका था। बस से उतरते जिस रिक्शावाले ने भी बांह पकड़ी, उसी के संग चल दिया। पाँच रुपये लेकर वह मुझे एक गेस्ट हाउस में छोड़ गया। मेरे लिए वह इसलिए सस्ता था कि ऐसे कठिन समय में वह मुझे मात्र पाँच रुपये में ही ठिकाने पर पहुँचा गया था। शायद उसे फायदा यह हुआ होगा कि उसने गेस्ट हाउस के मालिक से भी पाँच-दस रुपये ले लिए होंगे। गेस्ट हाउस के कमरे में बैठकर मुझे सुख का साँस आया। लेकिन साथ ही चिंता और घबराहट की कोई लहर-सी अन्दर दौड़ जाती क्योंकि अब तक मेरे घर न पहुँचने के कारण सबको यह पता तो चल ही गया होगा कि मैं या तो घर से चला गया हूँ या किसी हादसे का शिकार हो गया हूँ। पत्नी सुदर्शना देवी तो यह सोच रही होगी कि मैं गुस्से के कारण चला गया हूँ पर अन्य रिश्तेदार और यार-दोस्त मेरे किसी हादसे में गंभीर रूप से घायल होने या मेरी मौत तक के कयास लगा रहे होंगे। इस सबकुछ के बावजूद मैंने घर वापस लौट जाने के विषय में उस रात बिलकुल ही नहीं सोचा था। सुबह से पानी तक नहीं पिया था। इसलिए पहले चाय और उसके तुरन्त बाद रोटी का आर्डर दे दिया। मैं सोच रहा था कि आदमी कितना अजीब है। मैंने बड़े स्वाद से चाय पी और फिर रोटी भी बहुत अच्छी लगी। मैंने शायद यह सोचा ही न हो कि आज की शाम मेरे घर में रोटी पकी होगी। क्रांति ज़रूर रो रहा होगा। बॉबी अभी गोद में ही था। उनके बारे में सोचकर भी दिमाग पर कोई बोझ न पड़ा। दिल जैसे पत्थर बन गया हो। उस समय तो यह बात मेरे दिमाग में नहीं आई थी पर आज सोचता हूँ कि आख़िर मनुष्य सिर्फ़ अपने और अपने अस्तित्व के लिए ही दौड़-भाग करता है। न माँ-बाप और न बच्चे, गुस्से और खतरे में उसे अपने लगते हैं और न पत्नी और प्रेमिका। दूसरा, मैं उस समय भी सोचता था और अब भी सोचता हूँ कि मनुष्य अपने आप को ही सही समझता है, दूसरा व्यक्ति उसे गलत लगता है। उस समय मैं अपने आप को बिलकुल ठीक समझता था। तब मुझे लगता था कि सुदर्शना देवी मेरी कुछ नहीं लगती। घर की खराब आर्थिक हालत के बावजूद वह मुझसे पैसों की आस रखती है। भाई, बँटवारा करवाने वाली सल्हीणे वाली बहन और जीजा जी के विषय में सोचकर मेरा मन नफ़रत से भर रहा था जिन्होंने न मेरे अंधेपन के बारे में सोचा और न मेरे बीवी-बच्चों के बारे में। दूध में से मक्खी की तरह निकाल कर बाहर फेंक दिया। घर से बाहर निकालने और बँटवारे की उस कुटिल नीति के विषय में सोचकर मुझे अपना कोई भी रिश्तेदार अपना नहीं लगता था।
शायद मैं नहाया नहीं था। सिर्फ़ मुँह-हाथ ही धोया था, पर नाश्ता ज़रूर किया था। जब पैसे पूछे, गेस्ट हाउस के मालिक ने सिर्फ़ सत्तर रुपये मांगे। रात की रिहाइश, चाय-पानी, खाना और सुबह का नाश्ता और रिक्शेवाले की कमीशन आदि के बारे में मैंने मन ही मन हिसाब लगाया। मुझे यह रकम कतई लूट नहीं लगी थी। लेकिन इस बात से अवश्य चिंतातुर था कि मेरे पास अब मात्र 125 रुपये ही रह गए थे। गेस्ट हाउस के मालिक ने एक मेहरबानी यह की कि रिक्शा पर बस-अड्डे जाने वाली सवारी के साथ मुझे बिठा दिया और उसने यह भी कह दिया कि बाबूजी से पैसे न लेना। शायद उसे मेरी कम निगाह के बारे में पता चल गया था। उपकार आख़िर उपकार होता है, छोटा हो या बड़ा। सयाना मनुष्य कभी उपकार भूलता नहीं है। गेस्ट हाउस से चलने के समय मैं सोच रहा था कि अब मैं जुआर (अब ज़िला- ऊना, हिमाचल प्रदेश में) या नादौण(अब ज़िला-हमीरपुर में) जाऊँगा। जुआर के जनता हाई स्कूल में मैं 1961-62 में करीब आठ महीने रहा था और 1966 में नादौण के सरकारी हॉयर सेकेंडरी स्कूल में सिर्फ़ साढ़े पाँच महीने। लेकिन यह इलाका मुझे घरवालों से लुक छिप कर रहने के लिए उपयुक्त ठिकाना लगा। वैसे भी, मैं इस इलाके से परिचित होने के कारण इधर ही अपना गुप्त ठिकाना बनाना चाहता था।
चंडीगढ़ के बस-अड्डे पर पहुँचते ही संयोग से मुझे ऊना की बस मिल गई। बस में बैठने के बाद मैं जैसे सारा गुस्सा-गिला भूल गया था। मेरे पर बस यही धुन सवार थी कि भगवे वस्त्र पहनकर मैं लोगों में मनुष्यता की समानता का प्रचार करूँगा। महात्मा बुद्ध के अष्ट मार्ग के कई नुक्ते मेरे दिमाग में आ रहे थे। पर बोध धर्म को मैं वर्तमान हालात के अनुसार ढालकर ही प्रचार करना चाहता था। बुद्ध से लेकर बीसवीं सदी के तीन चौथाई सफ़र तक पहुँचकर दुनिया बहुत बदल गई है। वैसे भी, माक्र्सवाद भगवे वस्त्र पहनने के बावजूद मेरे दिलो-दिमाग से बाहर जाने के लिए तैयार नहीं था। यह आर्थिक असमानता ही थी जिसके कारण मुझे घर छोड़ना पड़ा था। वैसे भी, इस प्रकार के भगवे वस्त्रों में आर्थिक, सामाजिक समानता के प्रचार करने वाले एक साधू आनन्द स्वामी का माडल मेरे सामने था। वर्ष 1970-71 में चार-पाँच बार वह संत मेरे घर में आया ही होगा।
दो घंटे से कुछ अधिक समय में बस ऊना पहुँच गई। मैं पहले कभी जुआर, कांगड़ा या नादौण जाने के लिए इस रूट से होकर नहीं गुजरा था। यूँ भी मैं बस में चुपचाप बैठा था। धूप चढ़ आने के कारण बस के करीब रेहड़ियों और लोगों के दिखाई देने तथा बस के अन्दर टोपियों वाले पहाड़ियों और पहाड़िनों की बोली के कारण मुझे इस वक्त कल घर में घटित हुई घटना का कसैलापन कुछ कम होता महसूस हुआ। ऊना में कुछ देर खड़ा रहने के बाद मुझे अम्ब की बस मिल गई, जिसे आगे जिस तरफ जाना था, उस इलाके की मुझे अधिक जानकारी नहीं थी। इसलिए मैं अम्ब में ही उतर गया। इसे एक संयोग ही समझो कि यहाँ खडूर साहिब से आई एक बूढ़ी औरत मिल गई, जिसे डेरा बाबा वडभाग सिंह जाने से पहले मैडी (यहीं डेरा वडभाग सिंह का गुरुद्वारा है) गाँव के साथ लगते बढ़ई के एक घर में जाना था। ये बढ़ई मैडी में लगने वाले मेले में हर साल अपना लकड़ी का सामान बेचने आया करते थे। उनकी इस जान-पहचान के कारण ही उस बूढ़ी स्त्री का उनसे संबंध परिवारवाला बन गया था। बुढ़िया का नाम था- नामो (शायद पूरा नाम हरनाम कौर हो) क्योंकि इस बढ़ई परिवार का एक लड़का जुआर में 1961-62 में मेरे पास पढ़ा था, इसलिए नामो के कहने पर मैंने उसके संग जाना स्वीकार कर लिया। वैसे भी, मेरे पास ठिकाने का कोई स्पष्ट नक्शा नहीं था और उदासीनता के कारण मुझे कोई भी कहीं भी ले जा सकता था। मैं नामो के संग चल पड़ा। उसे अम्ब से कुछ आगे जाकर उस गाँव का पैदल रास्ता मालूम था। हम दोनों का रिश्ता जैसे पल छिन में ही माँ-बेटे वाला बन गया हो। वह मुझे बेटा कहकर बुलाती थी और मैं उसे माँ कहकर। हालांकि दिन के समय मुझे चलने में कोई कठिनाई नहीं थी, पर ज्यों-ज्यों अंधेरा बढ़ता, त्यों-त्यों मेरे लिए चलना कठिन होने वाला था। इसलिए माँ को मैंने सारी बात पहले ही सच सच बता दी। पर सच सच वो बात बताई जो मेरी नज़र की कमज़ोरी से संबंध रखती थी। उसने मुझे भरोसा दिलाया कि दिन छिपने पर वह मेरी बांह पकड़कर मुझे ले जाएगी। मैं चिंता न करूँ। समझो, हम दोनों को एक-दूसरे का आसरा मिल गया था। वह एक अपने बुढ़ापे के कारण और दूसरा- औरत जात होने के कारण किसी सज्जन बच्चे का आसरा चाहती थी और मैं रात बिताने के लिए उसके संग चल दिया था। रात तो मैं अम्ब में भी काट सकता था। वहाँ मेरे ठहरने का प्रबंध भी आसानी से हो सकता था। पर पता नहीं, यह कैसी भटकन थी जो मुझे किसी पुख्ता फ़ैसले पर पहुँचने नहीं दे रही थी। जब हम सड़क पर चले जा रहे थे तो मैं आगे था और माँ पीछे। नहिरी से कुछ पहले कोई पहाड़ी राह था जो उस गाँव को जाता था, जहाँ हमको पहुँचना था।
दिन छिपने के कारण मैंने माँ की बांह पकड़ ली और इस तरह मैं अपने डर को छिपा कर माँ को हौसला देते हुए चले जा रहा था। अन्दर ही अन्दर अपने आप को कोस रहा था कि अगर इस तरह घर से जाना ही था तो किसी अच्छी सी जगह पहुँचता। किसी धार्मिक ठिकाने पर चला जाता जहाँ न रोटी की मुश्किल आती और न सवेर-शाम बाहर-अन्दर जाने की।
जब हम आगे बढ़ चले तो माँ ने अपनी औलाद की उपेक्षा का राग अलापना आरंभ कर दिया। मैं सोच रहा था कि इस माई के नैण-प्राण कायम हैं, चार पैसे भी पल्ले हैं, तभी अकेली चल पड़ी है। इस तरह मेरी बेबसी और मेरी अपनी माँ की मजबूरी जब इस माई के हालात के साथ मेरे अन्दर गुत्थम-गुत्था हो रही थी तो मेरे चलने की रफ्तार पहले से अवश्य ही कुछ कम हो गई थी। जब कुछ रोशनियाँ दिखाई देने लग पड़ीं तो मैंने अंदाजा लगाया कि जहाँ माँ को जाना है, वह ठिकाना अब नज़दीक ही है, और वह नज़दीक था भी। जब हम मिस्त्रियों की छन्न में दाख़िल हुए, सभी को जैसे चाव चढ़ गया हो। दोनों कमरों में रोशनी थी, एक कमरे में ग्लोब लैम्प जल रहा था और दूसरे कमरे में सरसों के तेल का दीया। बजाय इसके कि वे मेरे बारे में पूछ-पड़ताल करें, मैंने अपनी सफाई आप ही देना प्रारंभ कर दिया। सचमुच उनका वह लड़का मेरे से पढ़ा हुआ था जिसके बारे में मैंने राह में अंदाजा लगाया था। मैंने उन्हें बताया कि मुझे जाना तो जुआर था, पर माता को आप तक पहुँचाने के लिए मैं इधर आया हूँ। असल में, यह सारी मेरी अपनी घड़ी हुई कहानी थी जो उन्हें जंच गई।
चाय पीने का वहाँ उन दिनों अधिक रिवाज नहीं था। उनके यहाँ लवेरा (दूध देने वाला पशु) था। वे गरम दूध ले आए। मैंने सिर्फ़ आधे गिलास के करीब दूध पिया। रोटी बिलकुल नहीं खाई थी। मुझे डर था कि कहीं रात में रोटी खाने के कारण बाहर न जाना पड़े। उनके बार बार ज़ोर दिए जाने पर मैंने सिर्फ़ यही कहा कि मुझे भूख नहीं है। जबकि मैं चाहता तो रोटी खा सकता था। यह अलग बात है कि अन्दर ही अन्दर मैं घर के खराब हालात और अपनी कम निगाह के कारण बहुत दुखी था, बहुत ही उदास। उन्होंने गरम पानी से मेरे पैर धुला दिए थे। हाथ-मुँह भी धो लिया था और यह कहकर मैं लेट गया था कि मुझे सुबह कोई जुआर तक छोड़ आए, क्योंकि वहाँ से पहाड़ी रास्ते का मुझे पता नहीं था और वैसे भी, जुआर स्कूल की नौकरी के समय वाली मेरी दृष्टि से अब वाली दृष्टि बहुत कम हो गई थी। नींद पूरी नहीं आई थी। अधिकांश समय भविष्य के लिए कोई ठिकाना खोजने और अपनी किस्म का जीवन बिताने की उधेड़बुन में ही बीत गया। सवेर का उजाला कमरे में आने के साथ ही मैं उठकर बैठ गया। वह लड़का जिसका उल्लेख मैं पहले कर चुका हूँ, वही मेरी खातिरदारी के लिए मेरे पास आया। अब वह पूरा आदमी बन चुका था। हम दोनों बाहर गए। जंगल-पानी के बाद जैसे मन को शान्ति मिल गई हो। वहीं बहते पानी में मैंने मुँह धो लिया था और आते ही मैंने कहा था कि वह मुझे जुआर तक छोड़ आए। उसने रस्मीतौर पर एक दो बार रहने के लिए कहा। रास्ते कितनी ही देर हम स्कूल की बातें करते रहे, उसके सहपाठियों की बातें, अन्य विद्यार्थियों की बातें और अध्यापकों की बातें।
माँ और उस परिवार के बुजुर्ग़ को दुआ-सलाम करने के पश्चात हम जुआर के लिए चल पड़े। उन्होंने मुझे राह के लिए एक छड़ी भी दी। शायद, बड़े मिस्त्री को मेरी मुश्किल का अंदाजा हो गया था। अम्ब से आते समय भी जब चढ़ाई-उतराई आती तो पैर फिसलने का डर रहता। मेरी गुरगाबी की ऐड़ी के कारण मैं फिसलने से कई बार बच गया था। जब मैं जुआर स्कूल में मास्टर हुआ करता था, उस समय भी मैं घर से स्कूल आने तक और किसी अन्य चढ़ाई-उतराई के लिए छड़ी रखा करता था। अब तो इस किस्म की छड़ी की मुझे और ज्यादा ज़रूरत थी। पिछले अनुभव के कारण मुझे जुआर पहुँचने तक कोई खास मुश्किल नहीं आई थी। लेकिन इस रास्ते में जो भी खाइयाँ आईं या चढ़ाई-उतराई आई, वे कल शाम वाली से कठिन होने के बावजूद आसान लगी थीं। कारण यह था कि दिन के उजाले के कारण मुझे चलने और किसी का चेहरा-मोहरा देखने में कोई अधिक कठिनाई नहीं आ रही थी।
ऊँचे चबूतरे वाला दुकानदार जो कपड़ा भी बेचता था और किरयाने का सामान भी, उसमें कोई तब्दीली नहीं आई थी। वहीं से मैंने छह मीटर भगवा वस्त्र लिया और एक लुंगी भी। कपड़े की दुकान से खरीद-फरोख्त से पहले मैंने उस लड़के का धन्यवाद करके उसे लौटा दिया था। मैं नहीं चाहता था कि किसी को भी मेरी भविष्य की योजना का कुछ पता चले। साथ वाली नाई की दुकान से मैंने सिर के बाल कटवाये। मशीन या उस्तरा नहीं फिरवाया था। कैंची से बाल इतने छोटे करवा लिए थे कि देखने में मैं कोई संत-महात्मा लगूँ। शेव भी करवाई और मूंछें भी बिलकुल साफ़ करवा दीं। सिर मुंडवाने का मेरा यह पहला अवसर था और मूंछे साफ़ करवाने का दूसरा। हाँ, सच कपड़े वाली दुकान से एक बनियान भी ले ली थी।
अब मैं एक एक पैसा खींच खींच कर इस्तेमाल करने के बारे में सोच रहा था, क्योंकि मेरे पास सिर्फ़ 80 रुपये ही रह गए थे। लेकिन जल्द ही 'हीर दमोदर' की एक तुक मुझे याद आ गई - 'पल्ले रिज़क ना बन्हदे पंछी ते दरवेश...'। बस, इस सोच से ही मानो मैं सारी चिंता से मुक्त हो गया था। बस मेरे जाने-पहचाने रास्तों और अड्डों से गुजरती हुई आख़िर नदौण पहुँच गई और वहाँ उतर कर मैं बाज़ार के रास्ते होता हुआ उस चौंक में पहुँच गया, जहाँ से एक रास्ता मेरे आर्य समाजी परिवार के विद्यार्थियों के घर को जाता था और दूसरा रास्ता नदौण वाली मेरी उस माँ के घर को जाता था, जिसका नदौण में स्कूल की नौकरी के समय मैं किरायेदार रहा था। फिर, माँ का घर आ गया। वहाँ एक मिनट रुका, पर सिर्फ 15 फ़ुट की दूरी से ही मैं सीधा ब्यास दरिया के लकड़ी के पुल की तरफ हो गया। एक तो गरमी का मौसम था, दूसरा मैं सुबह से नहाया नहीं था, तीसरे मैंने भगवे वस्त्र पहन कर अपना जीवन-मार्ग बदलना था, जिस कारण लकड़ी का पुल पार करने के बाद मैं बायें हाथ ब्यास दरिया के किनारे-किनारे चला गया। यहीं किसी वक्त नदौण में नौकरी के समय मैं सवेरे-सवेरे नहाने के लिए आया करता था। किनारे और इसके करीब पानी की गहराई के बारे में मुझे अच्छा अंदाजा था। मैंने जूती उतारी, पैंट-शर्ट और बनियान उतार कर दरिया के किनारे बूटों पर रख दी। लुंगी के नीचे भगवे वस्त्र का बड़ा टुकड़ा रखा और छोटे टुकड़े को कमर में बांध लिया। कच्छा उतार कर लुंगी के नीचे रख दिया। ऑंखों पर पानी के छींटें मारे, फिर सिर पर हथेलियों का चुल्लू बनाकर पानी डाला, कुल्ला किया और पानी में उतर गया। पानी में उतरते समय मेरे अन्दर के विचार परस्पर टकरा रहे थे - बुद्ध बनकर प्रकाश बांटने के विचार या अपनी जीवन-लीला समाप्त करने के। संयोग ही कुछ ऐसा बना कि जीवन लीला की समाप्ति से पहले ही दो और नौजवान वहाँ नहाने के लिए आ गए। उन्होंने मुझको ऐसी बातों में लगाया कि मैंने नहा कर कच्छा पहन लिया, गीले भगवे वस्त्र को अच्छी तरह निचोड़ा और फिर हवा में फटक कर उसी से बदन को अच्छी तरह पोंछा। दूसरे भगवे वस्त्र का टुकड़ा मैंने गर्दन से नीचे तक इस तरह लपेट लिया जैसे आनन्द स्वामी पहना करता था। गीला कपड़ा भगवे वस्त्र के ऊपर रख लिया और पैंट-शर्ट और पुरानी बनियान को तहा कर लुंगी में लपेट लिया।
ज्वालामुखी वाली सड़क का मुझे पता था। दायें हाथ में छड़ी और बायीं बगल में लुंगी लेकर मैं उस सड़क की ओर हो लिया। जब मैं नदौण स्कूल में काम करता था, उस समय शौक-शौक में ही दो बार मैं पैदल चलकर ज्वालामुखी गया था। राह में डंगर चराते लड़के और गागरों में पानी ढोतीं स्त्रियाँ मिलीं। मन कभी बेचैन हो जाता और कभी फिर सामान्य हो जाता। किसी द्वारे जाकर अलख जगाने का ढंग अभी मुझे नहीं आता था। पर जब इस राह पर चल ही पड़ा था तो यह ढंग सीखना भी ज़रूरी था। कुछ समय के उपरांत सेवक अपने आप राशन-पानी डेरे में पहुँचा देंगे, पर हाल की घड़ी तो मांगकर खाना पड़ेगा। वारिस के किस्से में बाल नाथ की जोग लेने के समय दी गई शिक्षा की एक एक पंक्ति दिमाग में बिजली की भाँति कौंध गई। काम, क्रोध, मोह, लोभ, अंहकार से मुक्त होने के संबंध में सभी धर्मों में साझी शिक्षा मन में बसा रहा था। बुद्ध का अष्ठ मार्ग और बुध्द और जैन दोनों धर्मों के अहिंसा संबंधी सिध्दांत मेरी जीवनधारा के अंग बनने थे। लेकिन इनसे भी कुछ नया यदि मैंने न किया तो मेरे नये मार्ग का क्या अर्थ होगा ? सामाजिक-आर्थिक समानता मेरे प्रचार के मुख्य सूत्र होंगे। पर मैं किसी अदृश्य शक्ति और देवी-देवताओं की आराधना के बारे में अपने शिष्यों को बिलकुल उपदेश नहीं दूँगा। इस ताने-बाने में उलझा पता नहीं कब मैं सड़क के साथ एक बउली के पास पहुँच गया। वहाँ कुछ लड़के शरारतें कर रहे थे। मुझे आता देखकर वे एकदम चुप हो गए और बउली से कुछ दूर चले गए। मैंने दो चुल्लू पानी पिया और फिर उसी सीधी काली सड़क पर चलने लगा।
एक तो कुछ भूख लग आई थी और दूसरे किसी द्वारे जाकर मांगने का अभी पहला सबक सीखना था। इसलिए सड़क के दोनों तरफ दृष्टि दौड़ता कि कोई छन्न या टप्परू नज़र पड़ जाए। पहाड़ों में स्लेटों या खपरैल से बने घरों को छन्न या टप्परू कहते हैं और इनके विषय में मुझे पहाड़ों पर तीन अलग अलग स्कूलों में नौकरी करते समय पता चला था। शायद, ज्वालामुखी की राह तो अभी तीन किलोमीटर रहती थी। सड़क के दायीं तरफ एक अच्छी खासी छन्न नज़र आई। मैं कुछ झिझकते हुए उधर हो चला। दर पर खड़ा देखकर एक पच्चीस-तीस साल की युवती आई। 'जल, देवी!' मेरे इन दो शब्दों को पवित्र आदेश समझकर वह अन्दर गई। मैं पैरों के बल वहाँ बैठ गया। कुछ समय पश्चात ही वह दूध की पतली सी लस्सी बना लाई। लौटे के साथ साथ उसके हाथ में एक गिलास भी था। जब उसने मुझे गिलास भर का पकड़ाया, सचमुच वह मुझे देवी का रूप ही लगी। फिर, दूसरा गिलास और फिर बस। खड़े होकर आशीर्वाद देने के लहजे में कहा, ''सुखी रहो देवी !'' अन्दर से जो दो आवाज़ें मुझे सुनाई दीं, वह थीं - ''कौन था ?'' ''महात्मा था कोई ।'' देवी के शब्दों ने मेरे अन्दर जैसे महात्मा के आधे गुण भर दिए हों। दिन छिपने से कुछ पहले ही मैं ज्वालामुखी पहुँच गया। धर्मशाला का मुझे पता था। मैं माता के मंदिर में जाने की बजाय पहले धर्मशाला में पहुँचा। मैनेजर ने महात्मा समझ कर मेरे लिए अपने आप ही एक कमरा खोल दिया। जब वह मेरा नाम, पता पूछने लगा, मैंने अपना नाम प्रेमा नंद बताया और ठिकाने के संबंध में इतना ही कहा कि दरवेशों का कोई ठिकाना नहीं होता। मैनेजर जैसे मुझसे बहुत प्रभावित हो गया हो। थकावट के कारण मंदिर जाने की मेरे अन्दर शक्ति ही नहीं थी। बिछी हुई दरी पर लेटने के बाद मानो मैं निढाल-सा हो गया था, बहुत उदास और बहुत ही निराश।
महात्मा अभी मैं बना नहीं था। वैसे महात्मा का अभिनय करना कुछ-कुछ सीख गया था। दिल में अभी भी एक धुकधुक थी कि मुझे खोजने में मेरे परिवार या रिश्तेदारों को अधिक समय नहीं लगेगा। इसका सीधा कारण मेरी ऑंखों की कम रोशनी था। यदि ऐसा न होता तो शायद यह सब कुछ भी न घटित होता। लेकिन अब जब सब कुछ घटित हो चुका था, यह सोचना व्यर्थ था।
दिन छिप गया था और धर्मशाला का एक सेवक मुझे बाथरूम के बारे में सब कुछ बता गया था। पर उसको क्या मालूम था कि मैं रात में अकेला कहीं भी जाने योग्य नहीं हूँ। कुछ यात्रियों के आने से धर्मशाला में अच्छा रौनक मेला तो हो गया था, पर मेरा मन अशान्त था और दुविधा का शिकार भी। घर से निकले को तो यह तीसरा दिन ही हुआ था। लेकिन इतनी जल्दी दुविधा का शिकार हो जाऊँगा, यह मैंने सोचा नहीं था। ज़िन्दगी में कभी भी कोई किया गया फ़ैसला मैंने पूरी तरह नहीं बदला था। यह तो बड़ा अहम मसला था, महात्मा बुद्ध बनकर दुनिया को सामाजिक-आर्थिक अन्याय से मुक्त करवाने का मसला। परन्तु इतनी जल्दी मेरी फूंक निकल जाएगी, यह सोच सोचकर मैं बहुत शर्मिन्दा हो रहा था।
पता नहीं कौन था, शायद लाटों वाली माता के द्वार पर माथा टेकने वाला कोई भगत हो, मेरे चरण स्पर्श कर रहा था और मैंने भी 'जय हो' कहकर उसकी श्रद्धाभक्ति को नमस्कार कर दिया। वह रोटी रखकर चला गया, फिर और रोटी पूछने के लिए आया। मैंने न में सिर हिला दिया। मेरे लिए तो ये दो रोटियाँ ही बहुत थीं। मन भर भर आ रहा था। उस भगत के बाद दो और सज्जन भी आए। मेरे ठौर-ठिकाने के बारे में भी पूछा। मैंने केवल यही कहा, ''दरवेशों का कोई घर-दर नहीं होता।'' शायद, मेरे इस जवाब ने ही उन्हें संतुष्ट कर दिया हो। लेकिन एक बात साफ़ थी कि इन यात्रियों में से कोई बरनाला इलाके का नहीं था। यह उनकी बातचीत से पता चलता था। सवेरे जब उठा, कोई भगत चाय पूछने आ गया। मैंने इन्कार में सिर हिलाया और साथ ही यह भी कहा, ''स्नान के बाद।'' शायद मेरे ऐसा कहने पर उसके अन्दर मेरे प्रति सत्कार और बढ़ गया हो, क्योंकि जंगल-पानी और नहाने के बाद वह चाय के साथ पत्तल पर दो पूरियाँ भी रख लाया था। पूरियों पर आलुओं की सूखी सब्जी थी। भगत गिलास लेने आया, मैं 'जय हो, जय हो' कहकर अपने महात्मा होने के प्रभाव को जैसे और पक्का कर रहा था। शायद अब यह सब कुछ मेरी ड्रामेबाजी से बढ़कर कुछ नहीं था, क्योंकि मैंने तो रात में ही घर वापस लौटने का फ़ैसला कर लिया था।
माता के मंदिर के बिलकुल करीब एक हलवाई से 21 रुपये का प्रसाद तैयार करवाया, जिसे हिंदुओं की धार्मिक भाषा में 'कड़ाही करवाना' कहते हैं। उसने पत्तल पर गरम गरम प्रसाद डाल कर मुझे दे दिया। मैं बायें हाथ में पत्तल और दायें हाथ में छड़ी लेकर मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ गया और सीधा ज्वालामुखी के मुख्य मंदिर में दाख़िल हो गया, जहाँ लाटें जलती हैं। हिंदू इन लाटों को माता की करामात कहते हैं पर साइंस में विश्वास रखने वाले और नास्तिक इन लाटों के जलने को मंदिर के नीचे किसी गैस के जख़ीरे का होना बताते हैं। परन्तु इस समय जब कि मैं एक कुराही ही था, मुझे इन लाटों के जलने के संबंध में कोई भी वैज्ञानिक टिप्पणी करने का अधिकार नहीं था। उस समय तो मैं यह सोचता था कि शायद दोनों बेटों के पिछले नवरात्रों में केश उतारने के समय मेरा मंदिर में प्रवेश न करना ही इसका कारण बना है, जिस कारण मैं लाटां वाली के आगे नतमस्तक होने आया हूँ। शायद मेरे भगवे वस्त्र देख कर मंदिर में प्रवेश करते समय मंदिर के किसी भी पंडे या भोजकी ने मुझसे कुछ नहीं पूछा, वरन मुझे देखकर वह सत्कार की मुद्रा में आ गए। डोना पकड़ा, माता के चरणों में भोग लगाने के पश्चात डोने में कुछ और भोग डालकर मुझे पकड़ा दिया और साथ ही मुझे चरण-वंदना भी की। मंदिर से बाहर आते ही डोने को एक बकरा पड़ गया। शायद कोई भगत यह बकरा मंदिर में चढ़ाकर गया हो। इस घटना ने भी मुझे न तो निराश किया और न ही मुझे क्रोध आया।
अब जबकि मेरा सारा गुस्सा ही पूरी तरह काफूर हो चुका था, मैं सीधा बस-स्टैंड की तरफ़ चल दिया। होशियारपुर बस-अड्डे पर आकर किसी ओट में खड़ा हो गया। नई बनियान पहनी और पैंट-शर्ट भी। भगवे वस्त्र और मैली बनियान, लुंगी में लपेट कर मैं लुधियाना वाली बस में बैठ गया। लेकिन तपा जाने के लिए मेरा अभी भी मन नहीं कर रहा था। आख़िर, लुधियाना से रेल द्वारा मैंने अपनी बहन और अपने सबसे अधिक हमदर्द गूजर लाल जीजा जी के पास जाने का फ़ैसला कर लिया। स्टेशन से तांगा लिया और मालेरकोटला के पटेल मुहल्ले के पास जा उतरा। चन्द्रकांता बहन मेरी जैसे प्रतीक्षा ही कर रही हो। उसके लिए मानो चाँद बादलों में से निकल आया हो। शायद जीजा जी ने कुछेक पलों में ही तपा और अन्य रिश्तेदारों को फोन कर दिया। भाई और मेरी पत्नी दोनों बच्चों को लेकर दिन छिपे बहन के घर पहुँच गए। मुझे यूँ लगता था जैसे मैं अभी इन सबके लिए पराया होऊँ और ये सब मेरे लिए। बॉबी को गोद में लेकर मैं खूब रोया था। कुछ दिन मैं मालेरकोटला में ही रहा, सुदर्शना देवी भी और बच्चे भी। भाई वापस तपा मंडी लौट गया था। शायद जीजा जी और भाई ने सबको सख्त हिदायत कर रखी थी कि मालेरकोटला कोई न जाए। मुझे यह बात अच्छी लग रही थी क्योंकि मैं किसी के सामने किसी दया, किसी हमदर्दी और किसी मजाक का पात्र नहीं बनना चाहता था। मुझे बच्चों की भाँति प्यार से रखा जा रहा था। दोनों बच्चे रात में मेरे संग ही सोते थे। सुदर्शना देवी की सेवा बिलकुल वैसी ही थी, जैसी विवाह के बाद के दिनों की। तब तक मैं तपा नहीं गया था जब तक सिर के बाल पूरी तरह नहीं उग आए थे। जीजा जी के रोज़ रात को दिए गए उपदेश से मेरे अन्दर गृहस्थ जीवन और समाज सेवा की एक नई जलधारा संगम बनकर बहने लगी थी। बहुत कुछ समझा-बुझा कर जीजा जी हमें गाड़ी चढ़ा गए थे। बुध्द या नानक की उदासी जैसा मेरे पास कोई आधार ही नहीं था। बुध्द कहाँ बनता ? समझो, बुध्दू लौटकर वापस आ गया था।
यह मेरे सरकारी मिडल स्कूल, महिता में नौकरी के समय का वाकया है, जिसे मैं अपनी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी मूर्खता समझता हूँ।
(जारी…)
No comments:
Post a Comment