समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Sunday, January 16, 2011

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-17

पुन: अपने घर
मेरा तबादला सरकारी हॉयर सेकेंडरी स्कूल, धौला का हो गया था जिस कारण मुझे जिला शिक्षा अधिकारी, संगरूर के पास उपस्थित होकर स्टेशन लेने की विनती करने की आवश्यकता नहीं थी। इसलिए मैं बड़े आराम से तैयार हुआ, क्योंकि मैं 29 सितम्बर 1966 को बारह बजे से पहले किसी समय भी अपनी ड्यूटी पर उपस्थित हो सकता था। तपा से यदि पैदल अथवा साइकिल से जाना हो तो धौला आठ-दस किलोमीटर से अधिक नहीं। पर उस समय तपा से धौला के लिए कोई पक्की सड़क नहीं बनी थी। तपा से पाँचेक किलोमीटर के फ़ासले पर गाँव घुन्नस है जो तपा-बरनाला सड़क पर स्थित है और दायें हाथ पर कच्चा रास्ता है जो सीधा धौला को जाता है। अगर आधा-पौना किलोमीटर और आगे चले जाएँ तो सेम का नाला पड़ता है जिसकी पटरी पर से होकर एक किलोमीटर का रास्ता तय करके फिर वही कच्चा राह आ जाता है। लेकिन यदि आराम से जाना हो तो तपा से हंडिआए जाकर मानसा वाली सड़क से दायीं तरफ जो बड़ा गाँव आता है, वह धौला ही है। इस तरह बस से धौला और तपा जाने के लिए पंद्रह-सोलह किलोमीटर का सफ़र तय करना पड़ता था। (अब तपा से धौला को सीधी बस भी जाती है)। बेशक इससे पहले मैं कभी धौला नहीं गया था पर धौला मेरे लिए पराया-अनजान नहीं था। पैप्सू के पूर्व पुनर्वास मंत्री सम्पूर्ण सिंह धौला गाँव के होने के कारण धौला, तपा के किसी व्यक्ति के लिए पराया बिलकुल ही नहीं था क्योंकि इस हलके से ही चुनाव लड़कर धौला साहिब दो बार एम.एल.ए. बने थे। वैसे भी यदि धौला या तपा में से किसी गाँव की पहचान बाहरी व्यक्ति को करवानी हो तो तपा-धौला बताकर करवाई जाती थी और अब भी तपा-धौला एक दूसरे से जुदा करके नहीं बताये जा सकते। सन् 1957 तक तो धौला के बहुत से लड़के भी दसवीं करने के लिए तपा मंडी के आर्य हाई स्कूल में ही दाख़िला लिया करते थे। सम्पूर्ण सिंह धौला का छोटा भाई तेजा सिंह दसवीं करने के लिए आर्य स्कूल में ही दाख़िल हुआ था। उस समय मैं छठी या सातवीं कक्षा में था।
शतराणे में खरीदा साइकिल अब पुन: काम आ सकता था पर पिछले दिन के सफ़र की थकावट और कुछ जुक़ाम के कारण मैंने बस से ही जाना उचित समझा। हालांकि चला आराम से ही था, पर फिर भी पूरा रास्ता पौने घंटे का होने के कारण मैं धौला बस अड्डे पर दस बजे पहुँच गया था - तपा से हंडिआए और फिर हंडिआए में क्रॉसिंग पर उतरकर वहाँ से मानसा वाली बस पकड़ ली थी। स्कूल को जाने वाली सड़क यद्यपि पूरी पक्की नहीं थी, पर जाती बिलकुल सीधी थी- स्कूल के गेट तक। सवा दस बजे मैंने प्रिंसीपल को जा सलाम किया।
उन दिनों वहाँ दुर्गा प्रसाद प्रिंसीपल था। जाति का बनिया और मात्र चालीस-पैंतालीस किलो वज़न होने के कारण उसके लिए कुर्सी जैसे बहुत बड़ी हो और वह बहुत छोटा। मेरी तरह वह भी ऐनक पहने था, पर मेरे से बढ़कर यह था कि उसकी बत्तीसी भी नकली थी जिसका पता मुझे उससे हुई पहली मुलाकात में ही लग गया था। वह मेरे भाई को बहुत अच्छी तरह जानता था क्योंकि दोनों, स्कूल के मुख्य अध्यापकों की साल में होने वाली तीन-चार बैठकों में अक्सर मिलते रहते थे। शायद जात-बिरादरी के कारण भी वह मेरे साथ कुछ अधिक ही प्यार दिखा रहा हो। पहली मुलाकात पर मैंने उससे यही प्रभाव ग्रहण किया था। लेकिन मुझे आज तक ज़िन्दगी में कभी किसी अफ़सर या प्रधान की बैसाखियों की ज़रूरत नहीं पड़ी थी। इसलिए धौला साहिब, ज्ञानी जी और वरिष्ठ अध्यापकों के विषय में उसने मुझे जो कुछ बताया, मैं शान्त होकर सुनता रहा था।
तपा-धौला का नाम एक साथ क्यों आता है ? इस बारे में मुझे उस समय कुछ भी पता नहीं था, अब भी पता नहीं, क्योंकि यह बात मेरी समझ से बाहर थी और अब भी है कि इस इलाके में 1947 से पहले जब कभी रिआसती राज था, तब तपा पटियाला रिआसत में था और धौला नाभा रिआसत में। तपा, बरनाला के नाज़िम के अधीन था और धौला धनौले के नाज़िम के अधीन। वैसे मैंने इस तरफ कभी अधिक सोचा नहीं, क्योंकि मेरी समझ के अनुसार फ़रीदकोट के पास एक अन्य तपा गाँव होने के कारण, शायद उससे भिन्न पहचान बनाने के लिए यह तपा-धौला वाली रिवायत प्रचलित हो गई हो। हाँ, तपा-धौला एक ही गिने जाने के कारण मुझे यूँ लगता था मानो मैं अपने घर आ गया होऊँ। था भी यह घर ही। बोली, पहनावा, खान-पान, आबोहवा, यानि कुछ भी तो भिन्न नहीं था। इस गाँव के बहुत सारे चेहरे मेरे जाने-पहचाने थे। धौला वाले कई बनियों की तपा में आढ़त की दुकानें थीं। इसलिए इस स्कूल में आकर मुझे कुछ भी पराया नहीं लग रहा था।
क्योंकि यह एक हॉयर सेकेंडरी स्कूल था, जिस कारण यहाँ ग्यारहवीं कक्षा भी थी, पर कुछ लेक्चरर के पद खाली थे। ग्यारहवीं कक्षा को नागरिक शास्त्र पढ़ाने का काम पहले किसी एडहॉक पर काम करने वाले अध्यापक के पास था क्योंकि राजनीति शास्त्र के लेक्चरर की पोस्ट खाली थी, इसलिए मुझे नागरिक शास्त्र, दसवीं की सामाजिक शिक्षा और इसी प्रकार सातवीं से नौंवी तक के सामाजिक शिक्षा और अंग्रेजी के टाइम टेबल की जो स्लिप मुझे दी गई, उससे मैं संतुष्ट था। अंग्रेजी शायद सातवीं कक्षा की दी गई थी।
पढ़ाने का काम तो मैंने अपने पिछले विधि-विधान के अनुसार ही चलाया, पर स्कूल की राजनीति और उसके प्रबंध को समझने के लिए जो कठिनाई पेश आई, उसका संबंध मेरे अंदरूनी कशमकश से था। प्रिंसीपल के समझाने के अनुसार मुझे ज्ञानी गुरचरन सिंह से बना कर रखनी थी क्योंकि वह वज़ीर साहिब की मूंछ का बाल था। सभी मास्टर सम्पूर्ण सिंह धौला को वज़ीर साहिब कहकर बुलाते थे। इनमें से आधे से अधिक मास्टर इस इलाके के नहीं थे इसलिए वे ज्ञानी जी के कारण धौला साहिब को वज़ीर साहिब कहते। मुझे यह बात कतई अच्छी नहीं लगती थी। यह ठीक है कि धौला साहिब ने यह स्कूल बनवाया था। वह रोज़ आता था और घंटा भर सवेरे अख़बार पढ़कर और मास्टरों से बातें करके चला जाता था।
बरनाला से आने वाले मास्टर स्कूल के दो अख़बारों के साथ साथ एक उर्दू का अख़बार 'हिंद समाचार' भी लाते। यह अख़बार सम्पूर्ण सिंह धौला के लिए होता। दफ्तर के बाहर और गेट के बिलकुल सामने (जहाँ सुबह की धूप बहुत चुभनेवाली नहीं थी और जो अगले महीने और भी सुहावनी लग पड़ी थी) जिस मास्टर का भी पहला या दूसरा पीरियड खाली होता, वह धौला साहिब को वज़ीर साहिब कहकर नमस्ते करता और उसके पास बैठ जाता। कई मास्टर आधा पीरियड छोड़कर भी वज़ीर साहिब की चौकी भरते। चौकी भरते समय प्रिंसीपल का भी कोई डर न होता। वैसे भी प्रिंसीपल का स्कूल में अधिक आदर-सम्मान नहीं था। गाँव में भी और स्कूल में भी धौला साहिब की चलती। ज्ञानी गुरचरन सिंह की स्कूल में हैसियत धौला साहिब के नुमाइंदे वाली थी जिसके कारण बहुत से मास्टर ज्ञानी जी को ही सुपर प्रिंसीपल समझते। प्रिंसीपल स्वयं ज्ञानी जी के बग़ैर एक कदम भी नहीं उठाता था। ऐसे वातावरण में मैं मानसिक तौर पर कुछ दिन परेशान रहा। दुआ-सलाम तो मैं सम्पूर्ण सिंह धौला से कर लेता, पर 'वज़ीर साहिब' कहकर नहीं, 'धौला साहिब' कहकर। वह भी शायद मेरे इस सम्बोधन का बुरा न मनाता हो क्योंकि धौला गाँव के स्कूल को छोड़कर बाकी सारा इलाका उसे धौला साहिब कहकर ही बुलाता था। वह धीरे धीरे चमचाखोर मास्टरों की अपेक्षा मुझे अधिक चाहने लग पड़ा था। उन दिनों वह पंजाब विधान सभा का मेंबर था और शासन भी कांग्रेस का था। इसलिए इलाके में उसका पूरा दबदबा था। मेरे विषय में वह इतना जानता था कि मेरा भाई जनसंघी है, पर है इलाके का बड़ा ईमानदार हैड मास्टर। मेरे बारे में वह यह भी जानता था कि मैं कम्युनिस्ट पार्टी के जलसों पर तथा उनकी अन्य गतिविधियों में बड़ी दिलचस्पी रखता हूँ। उस समय उसका भी झुकाव कम्युनिस्टों की तरफ होना शुरू हो गया था क्योंकि इस संबंध में मुझे कुछ-कुछ जानकारी मास्टर बाबू सिंह के माध्यम से मिलती रहती थी।
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विद्यार्थियों को पढ़ाने में मुझे यहाँ भी कोई खास कठिनाई पेश नहीं आई। ख़ास क्या, बिलकुल भी नहीं। नागरिक शास्त्र और सामाजिक शिक्षा के अधिकांश पाठों में निहित सामग्री आम-सी थी। इन कक्षाओं को मोड़ मंडी, बठिंडा और नदौण में पढ़ाने के कारण इन पाठों के सार-तत्व को मुझे पहले से पढ़ने की ज़रूरत नहीं थी। बच्चों से अध्याय का शीर्षक पूछता और दसेक मिनट में उस अध्याय में दर्ज़ सामग्री का खुलासा कर देता। फिर, बाकी अध्यापकों की तरह 'तू पढ़' वाला उपाय अपनाता। पंजाब के अधिकांश स्कूलों में उस समय सामाजिक अध्ययन या अन्य सामाजिक विषय पढ़ाने के लिए इसी विधि का प्रयोग किया जाता था। भाषाएँ पढ़ाने के लिए भी अध्यापक यही विधि प्रयोग में लाते। अंग्रेजी पढ़ाने के लिए बहुत से अध्यापक पहले स्वयं पैरा पढ़ते या एक-एक करके वाक्य पढ़ते, कठिन शब्दों के अर्थ बताते और फिर पूरे वाक्य का पंजाबी में अनुवाद करते। लेकिन मैंने यहाँ भी सातवीं कक्षा की अंग्रेजी पढ़ाने के लिए पहले हफ्ते ही कुछ होशियर विद्यार्थियों का चयन कर लिया था, उन्हीं से मैं किताब का पाठ पढ़वाता। जहाँ जहाँ वे शब्दों का सही उच्चारण न कर पाते, वहाँ पढ़ने वाले विद्यार्थी को शब्द के हिज्जे(Spellings) बोलने के लिए कहता। विद्यार्थी शब्द के हिज्जे पढ़ता तो मैं शब्द का सही उच्चारण बता देता, साथ ही उसका अर्थ भी। वाक्य पूरा होने पर वाक्य को पंजाबी में रूपान्तरित कर देता। नदोण में भी मैं सातवीं कक्षा को ही अंग्रेजी पढ़ाता था। यही पाठ्य-पुस्तक वहाँ भी लगी हुई थी। इससे पहले भी प्राइवेट स्कूलों में छह साल सातवीं-आठवीं की अंग्रेजी और कुछ साल नौंवी-दसवीं की अंग्रेजी पढ़ाने का अनुभव मेरे लिए यहाँ भी बहुत लाभदायक सिद्ध हुआ। सातवीं-आठवीं की अंग्रेजी की पाठ्य-पुस्तक के अधिकांश पाठ तो बार-बार पढ़ाये जाने के कारण मुझे मौखिक रूप से याद हो चुके थे। यह गुण मेरी कमजोरी पर पर्दा डालने में बहुत सहायक सिद्ध हुआ। अंग्रेजी व्याकरण और पंजाबी से अंग्रेजी वाक्य संरचना सिखाने के लिए भी पिछला अनुभव मेरे लिए कारगर साबित हुआ। यहाँ मुझे अपने आप को एक अच्छा अध्यापक सिद्ध करना बहुत ज़रूरी था। इसका कारण यह था कि यह एक पुराना सियासी गाँव था। सम्पूर्ण सिंह धौला के अलावा सुरजीत सिंह बरनाला भी इसी गाँव से संबंधित हैं। सो, यहाँ या तो इन राजनीतिज्ञों में से पहले धौला साहिब और फिर बरनाला साहिब की कृपादृष्टि ज़रूरी थी या फिर स्वयं ही बहुत ही बढ़िया और मेहनती अध्यापक होना ज़रूरी था। अंग्रेजी का लेक्चरर यशपाल शर्मा और साइंस के महारथी के.के. कपूर मेरे आने से पहले धौला साहिब की नज़रों में बहुत बड़ा रुतबा रखते थे। इसका कारण उनकी धौला साहिब से अच्छी दुआ-सलाम होना भी था और उनका स्वयं का बढ़िया अध्यापक होना भी। मेरे पास दूसरा गुण तो था पर मेरे पहले गुण का अहसास धौला साहिब को तब हुआ जब पंजाब में जनसंघी-अकाली राज्य के मालिक बनें और कांग्रेस से सत्ता छिन गई।
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पहले कुछ दिन तो मैं बरास्ता हंडिआए के क्रॉसिंग से बस पकड़कर धौला जाता रहा, फिर साइकिल पर घुन्नस होकर कच्चे रास्ते से धौला जाना आरंभ कर दिया। सेम के नाले की पटरी से आगे कच्चे राह से भी कई दिन धौला जाता रहा। इस राह की पगडंडी के दोनों तरफ झाड़ियाँ थी, रेता कम था, साइकिल चलाना आसान था, पर सेम के नाले की पटरी छोटी थी। मुझे सदैव यह खतरा बना रहता था कि कहीं साइकिल बायीं ओर न हो जाए, ऐसा होने पर सीधा सेम के नाले में जा गिरता। नाले में जगह जगह घास-बूटे और कांटेदार झाड़ियाँ भी थीं और अन्य भी बहुत कुछ, जिस कारण गिरने की स्थिति में तगड़ी चोटें लगने अथवा कुछ भी बड़ा हादसा होने का खतरा था। इसलिए मैंने उस राह को छोड़कर कच्चे रास्ते को ही अधिक तरजीह दी। इस राह के दोनों तरफ दूर तक सरकंडा था। अगर साइकिल डोल जाता तो हाथों को सरकंडे की एक-आधी रगड़ लग ही जाती। आगे जाकर रेता ही रेता था। जब कभी साइकिल चलाने योग्य पगडंडी आती तो चार पैडिल अच्छे लग जाते, नहीं तो सर्दियों के मौसम में भी स्कूल पहुँचते-पहुँचते पसीना-पसीना हो जाता। ऐसे रेतीले राह में मैंने पहले कभी साइकिल नहीं चलाया था। गाँव में प्रवेश करते ही करीब दस फुट चौड़ी गली में से होकर दो तीन मोड़ काटता हुआ मैं स्कूल पहुँच जाता। कई बार मैं गली में साइकिल पर से उतर जाता। गली में प्राय: छाया होती और एकाएक धूप में से छाया में आने पर मुझे कुछ धुंधला-सा दिखाई देने लगता। मुझे डर रहता कि मैं साइकिल किसी से टकरा न दूँ। यह सिलसिला मेरे विवाह से पहले भी चलता रहा और विवाह के बाद भी। हाँ, विवाह से कुछ दिन बाद बस से धौला जाता रहा था।
(जारी…)
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