समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Sunday, April 10, 2011

पंजाबी उपन्यास


''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।


साउथाल

हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

।। बाइस ॥

जितने दिन मेहमान आते रहते हैं, पाला सिंह का दिल लगा रहता है। सारी रस्में ख़त्म होने के बाद वह अकेला रह जाता है। हालांकि मरने से कई सप्ताह पहले नसीब कौर के अस्पताल में रहने के कारण वह अकेला रहा है, पर अब वह कुछ अधिक ही अकेला रह गया महसूस करता है। नसीब कौर का अस्पताल में पड़े रहने का भी आसरा था। फिर वह सोचता है कि वह फ़ौज़ी आदमी है और फ़ौज़ी को कैसा अकेलापन। वह सिर को झटकता है, जैसे ताज़ा हो गया हो। वह अपनी ट्राउज़र और कमीज़ प्रैस करता है और तैयार होने लगता है। हमेशा बनठन कर तैयार रहने की उसकी पहले दिन से ही आदत है। स्वयं अपना बिस्तर बिछाता है और इकट्ठा करता है। अपने कपड़े खुद प्रैस करता है। मशीन में भी आप ही डाल देता है। उसे घर के किसी काम में नसीब कौर की ज़रूरत नहीं है, बस सामने दीखती रहे, यही भूख है। नसीब कौर के लुप्त हो जाने पर यह भूख कभी-कभी ज्यादा तंग करने लगती है।

घर के सारे काम समाप्त करके वह सोच रहा है कि किधर जाए। अधिक देर घर में बैठना उसको अच्छा नहीं लग रहा। किसी के संग बातें करने का मन है उसका। पार्कों में कोई न कोई मिल जाता है। वह सोच रहा है कि वक्त से निपटने के लिए वह किधर जाए। कई बार वह वृद्धाश्रम भी चले जाया करता है, पर उसे लगता है कि यह उसकी मंज़िल नही। वह अभी इतना बूढ़ा नहीं हुआ है कि किसी सहारे की ज़रूरत पड़े। वह किसी ऐसी जगह जाना चाहता है, जहाँ ज़िन्दगी धड़कती है। वह पार्क में ही जाएगा पर सोच रहा है कि पार्क में जाए तो किस पार्क में। स्पाईक्स पार्क और साउथाल पार्क दोनों ही उसके घर से एक जैसी दूरी पर हैं। साउथाल पार्क उसे इसलिए अधिक पसन्द नहीं कि वहाँ शराबी अधिक होते हैं। शराबी उसे इतने बुरे नहीं लगते जितने डिप्रैशन के मरीज़। पूरे साउथाल में अब डिप्रैशन में ग्रसित लोगो की संख्या अब बढ़ रही है। साउथाल पार्क में अधिकतर ऐसे ही लोग होते हैं। फिर भी, वहाँ जाने पर कुछेक बूढ़े गप्पें मारने को मिल ही जाते हैं। वैसे स्पाईक्स पार्क में जाना उसे अच्छा लगता है। लेकिन वहाँ नौजवान तबका ही अधिक होता है जो आपस में बातें करते हुए खीं-खीं करके हँसता रहता है। कई बार उसकी तरह ही प्यारा सिंह, गुलज़ारा सिंह, फतेह मुहम्मद या तरसेम लाल आ जाते हैं। जब कभी भी इकट्ठे हो जाएँ तो अच्छी-खासी गप्प-शप्प हो जाती है। घर से बाहर निकलता है तो बारिश होने लगती है। पार्कों में तो कोई होगा ही नहीं। बर्न रोड से निकल वह लेडी माग्रेट रोड पर आ पड़ता है। यहाँ दुकानों की परेड है जिसमें सुक्खा सिंह का डाकखाना भी है, जहाँ से वह पेंशन लेता है। वहाँ भी सुक्खा सिंह के पास कई बार वह जा खड़ा होता है। डाकखाना तो उसके बहू-बेटा चलाते है। सुक्खा सिंह काउंटर पर बैठा स्वीट्स-चॉकलेट्स बेचता रहता है। पाला सिंह एक तरफ़ टेबल पर बैठा मूँछों को मरोड़े देता फ़ौज़ की बातें सुनाता रहता है। यदि वह सुक्खा सिंह के पास न जाए तो गुरदयाल सिंह के पास किंग मार्केट चला जाया करता है।

लेडी माग्रेट रोड पर पहुँचता है तो उसको एक सौ बीस नंबर बस आती दिखाई देती है। वह जेब में हाथ मारते हुए बस-पास टटोलने लगता है। बस-स्टॉप पर पहुँचता है तो साथ वाले घर का लड़का जो ऊँची-सी पगड़ी बाँधता है, फतेह बुलाता है। यह लड़का उसे रोज़ गुरुद्वारे में मिला करता है, पर वह ज्यादा ध्यान नहीं देता। वह सोच रहा है कि नसीब कौर के अस्पताल में होते समय उसको देखने जाने का ही एक बड़ा काम होता था।

गुरदयाल सिंह उसके गाँव का ही है, दोस्त। इज्ज़त और दुख-सुख का साझी भी। उसकी यह बहुत पुरानी ट्रैवल एजेंसी है। कोई समय था जब 'वास प्रवास' में पूरे पन्ने का उसकी एजेंसी का इश्तिहार आया करता था। अब तो उसका इतना नाम है कि किसी किस्म की मशहूरी की ज़रूरत नहीं। अब वह बॉस की तरह पीछे बैठा करता है, बड़े-से दफ्तर में। आगे उसका बेटा शिवराज और पुत्रवधु बैठते हैं, साथ तीन-चार और काम करने वाले लड़के-लड़कियाँ भी हैं। गुरदयाल सिंह के लड़के ने काम पूरी तरह संभाल रखा है। पढ़ाई में तो वह पिछड़ा हुआ ही था। जब पाला सिंह के लड़के बढ़िया ग्रेडों में अगली क्लासों में होते तो शिवराज बमुश्किल पास हुआ होता। हाई स्कूल के बाद आगे पढ़ने से उसने जवाब दे दिया। पाला सिंह और नसीब कौर उस पर हँसा करते थे, लेकिन शिवराज बिजनेस में होशियार निकला। गुरदयाल सिंह उसे गाँव लेकर गया और गाजे-बाजे के साथ उसका विवाह करके लौटा। बहू भी इतनी लायक मिली कि शिवराज के बराबर बैठ बिजनेस संभालती है। शिवराज पढ़ने में कमज़ोर चल रहा था पर जब शिवराज ने काम संभाल लिया तो सभी हैरान हो गए। शिवराज कितना भी कामयाब हो जाए परन्तु पढ़ाई के बगैर अधूरा है, यह बात पाला सिंह सदैव ही सोचता है। उसे गर्व है कि उसके लड़के बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ कर गए हैं।

वह बस में चढ़ जाता है। ड्राइवर को पास दिखा कर बैठ जाता है। बस में कई परिचित चेहरे हैं। बसों में सफ़र करने वालों की भी एक अलग दुनिया है। एक दूसरे के चेहरों से ही वाकिफ़ होते हैं। ये लोग आपस में कोई शब्द साझा न भी करें पर फिर भी एक दूसरे को अपना समझते हैं। उसे बस में सफ़र करना अच्छा लगता है। कार अभी भी घर में खड़ी है। वह बहुत कम इस्तेमाल करता है। वह पैदल चलकर भी खुश रहता है। वह समझता है कि पैदल चलना सेहत के लिए एक अच्छी बात है। कार कभी मनिंदर चला लेती है या अमरदेव। मोहनदेव के पास तो अपनी कार है। नसीब कौर जीवित थी तो वे टैक्सो आदि शॉपिंग के लिए जाया करते थे, पर अब तो वह सीरे वालों के यहाँ से ही आटा वगैरह ले लेता है। वे घर में ही छोड़ जाते हैं। शॉपिंग होती भी कितनी है ! वह अकेला ही है रोटी खाने वाला। बाकी सब तो बाहर ही खा-पी आते हैं। या फिर पीज़ा अथवा अन्य कोई जंक फूड मंगवा लेते हैं। यदि वह कार न भी रखे तो गुजारा हो सकता है लेकिन उसे घर के आगे खड़ी कार अच्छी लगती है। गुरुद्वारे जाना हो तो वह कई बार पैदल ही चला जाता है। मौसम ठीक हो तो बस लेने का क्या फायदा।

वह सीधा गुरदयाल सिंह के दफ्तर में पीछे ही चला जाता है। वह उसको देखकर खुश हो जाता है और कहता है-

''मैं सोचता था कि बैंक किसे भेजूँ, ले तू आ ही गया।''

''ला, बैंक हो आते हैं, यह साथ ही तो बैंक है।'' पाला सिंह कहता है।

गुरदयाल सिंह उसको एक लिफाफा देता है जिसमें पैसे जमा करवाने वाली बुक है और कुछ चैक हैं।

बैंक से फुर्सत पाकर पाला सिंह ढीला-सा होकर बैठ जाता है। गुरदयाल सिंह कहता है-

''बड़े का विवाह कर दे पाला सिंह।''

''अगर वह न मरती तो ब्याह ही देना था, अब तो यह साल ठहरना पड़ेगा।''

''साल भर ठहरने वाली कौन सी बात है, तुझे ज़रूरत तो आज है।''

''लोग क्या कहेंगे ?''

''लोगों को नहीं दीखता कि तुझे घर में एक बहू की ज़रूरत है जो घर संभाले।''

गुरदयाल सिंह कहता है और शीशे में से अपनी बहू को देखने लगता है। वह फिर कहता है-

''अगर लड़की इंडिया से मिल जाए तो क्या कहने हैं।''

''किस्मत की बातें हैं गुरदयाल सिंह। इंडिया वाली भी कम नहीं। पहले ही किसी के साथ सांठ-गांठ कर आती हैं कि पक्की हो जाने के बाद बुला लूँगी... बस किस्मत सही हो तो...।''

''खानदान की लड़की हो तो ऐसा क्यों हो... फिर मोहनदेव में कौन सा नुक्श है। सुन्दर है, जवान है, नौकरी पर है।''

''बात तो तेरी ठीक है, आज बात करूँगा उसके साथ अगर आ गया तो।''

''रोज़ नहीं आता ?''

''कई बार नहीं भी आता, इलफोर्ड से कैसे आए ?''

पाला सिंह कहता है और मन ही मन विवाह के बारे में सोच खुश होने लगता है। साथ ही उसके मन में यह विचार भी उठता है कि इलफोर्ड से आने के लिए बीच में कौन-सा दरिया पड़ता है। यदि आना चाहे तो आ ही सकता है, पर वह इस सोच को स्थगित करता हुआ लड़के के विवाह की योजनाएँ बनाने लगता है। वह इंडिया जाएगा, लड़के का विवाह करेगा। पैसे की मुट्ठियाँ भर भरकर लड़के के ऊपर से फेंकेगा। पूरे गाँव को बारात में ले जाएगा। रिश्तेदारों को बुलाएगा। उसकी बल्ले-बल्ले हो जाएगी। जल्दी ही वह बाबा बन जाएगा। पोते को खिलाएगा। वह मूंछों को मरोड़े देने लगता है। उसकी उम्र तो दादा बनने की कब की हो चुकी है।

वह बस में से उतरता है। ऊँची पगड़ी वाला लड़का उसे फिर मिलता है। उसे याद आता है कि वह सेमा है जो उसको सवेरे गुरुद्वारे में मिलता है। कई बार उसके संग पैदल चलकर भी जाया करता है। वह पूछता है-

''तू भई यंग मैन यहाँ रहता है ?''

''हाँ अंकल जी, काउंसल ने घर दे रखा है मुझे, मेरी मदर भी आ गई थी न।''

''चल, अच्छा हो गया। बस अब टिक कर काम करना। इस मुल्क में काम के बग़ैर कुछ नहीं।''

वह घर पहुँचता है। खाली घर काटने को दौड़ता है। वह मूंछों को मरोड़ा देने लगता है। रसोई में जाकर देखता है। दाल सवेर की बनी पड़ी है। आटा भी गूंधा पड़ा है। पीटा ब्रेड भी है जिसे वह अक्सर रोटियों के बदले खा लेता है। मनिंदर रोटी बना भी देती है पर पाला सिंह को फ़र्क़ नहीं पड़ता। रोटी हो या पीटा ब्रेड।

शाम को जब मनिंदर वापस घर आती है तो वह उसके संग सलाह करता है।

''पुत्त, अगर हम मोहनदेव का विवाह कर दें तो घर का काम संभाल लेगी उसकी वाइफ़।''

''मोहन से पूछो, मैं क्या बता सकती हूँ ?''

''आज आए तो बात करते हैं।''

''आज नहीं, वीकएंड पर आएगा वह।''

सुनकर पाला सिंह खीझ उठता है। सप्ताहांत की प्रतीक्षा करने लगता है। सप्ताहांत आता है। मोहनदेव की कार बाहर आकर रुकती है। वह सबसे 'हैलो' करता हुआ अपने कमरे में चला जाता है। पाला सिंह उसके संग जल्दी बात करना चाहता है। उसे पता है कि थोड़ी देर बाद वह दोस्तों के संग किसी तरफ़ निकल जाएगा। वह मनिंदर को भेजकर मोहनदेव को नीचे लाउंज में बुलाता है। कहता है-

''बेटा, मैं एक ड्रीम देख रहा हूँ।''

''डैड, मॉम की डैथ के बाद ड्रीम देखते हो, अच्छी बात नहीं।''

''ओ कंजर, मैं तो तेरे लिए देखता हूँ।''

''डैड, मेरे हिस्से की ड्रीम मुझे देखने दो।''

कहकर मोहनदेव हँसने लगता है। पाला सिंह भी हँसता है और कहता है-

''यह ड्रीम ज़रूर तेरा है, पर इसमें हिस्सा मेरा भी है।''

''सरप्राइज़ ! ऐसा कौन सा ड्रीम है ?''

''देख, अब तुझे जॉब मिल गई है। अब तू विवाह करवा ले।''

''अभी नहीं डैड, ज़रा ठहर कर। मैं प्रमोशन की वेट कर रहा हूँ।''

''वो वेट भी करता चला, विवाह कौन सा धरा पड़ा है कि कल को ही हो जाएगा। पहले लड़की तलाशेंगे, तू पसन्द करना फिर विवाह की तारीख़ रखेंगे, इंडिया चलेंगे। टाइम तो लग ही जाएगा।''

''इंडिया में विवाह करना है मेरा ?''

''और क्या ?''

''नो वे डैड, मुझे इंडिया नहीं जाना। वह भी विवाह करने। हाँ, छुट्टियों पर जाऊँगा कभी।''

''लड़की पसन्द करने तो जाएगा ही, चल विवाह इधर कर लेंगे।''

''डैड, नो शिटी गर्ल फ्रॉम इंडिया। नो फ्रैशी प्लीज़ !''

मोहनदेव कहता है। पाला सिंह को अपनी मूंछ नीचे सरकती हुई लगती है। वह फिर कहता है-

''न सही इंडिया से, यहाँ की ही ढूँढ़ लेते हैं। बता, किस तरह की लड़की चाहिए तुझे।''

''डैड, तू वरी न कर, मैंने विवाह करना है और लड़की भी मैं फाइंड कर लूँगा।''

(जारी…)

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