समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Saturday, June 4, 2011

आत्मकथा




एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-21 ( प्रथम भाग )

धक्का-दर-धक्का


जब मैंने सरकारी हाई स्कूल, धौला से मिडल स्कूल, महिता की बदली करवा ली तो मेरे भाई को इसकी कोई खुशी नहीं हुई थी। मुझे उस समय समझ में नहीं आया था कि भाई खुश क्यों नहीं है, पर धीरे धीरे सच उघड़ आया था।
महिता आ जाने पर मुझे अपनी रिहाइश तपा में रखनी थी, सो रख ली। हमारे पुश्तैनी मकान के छह कमरे थे और एक आँगन। बाज़ार की तरफ दो कमरे दुकान के तौर पर इस्तेमाल किए जा रहे थे और उनसे पीछे के तीन कमरे रिहाइशी थे, फिर एक आँगन और फिर एक ड्योढ़ी थी। ऊपर चौबारा था जो आने-जाने वालों के लिए बैठने-उठने का काम देता था और हम सबके लिए पढ़ने-लिखने का भी।
महिता आने पर मेरा सारा सामान धौला से तपा आ गया। सामान क्या था ?... दो बांस की बाही वाली चारपाइयाँ, एक चारपाई धौला जाकर और बना ली थी। चार-पाँच बिस्तरे थे। दो ट्रंक, पाँच-छह पीपे, गुजारे लायक बर्तन और तीन-चार बोरे पाथियाँ, बालण। यह सब ऊँठ रेहड़ी पर लादकर मैं बरास्ता महिता तपा पहुँच गया था। चौबारे में रहने के लिए भाई से आज्ञा मिल गई थी। सामान चौबारे में चढ़ा लिया था। भाई के चेहरे पर छाये गंभीरता के चिह्न मुझे आज तक याद हैं।
पाँच-सात दिन रोटी इकट्ठी ही पकती रही, पर भाभी की तल्ख़ी ने इस सांझ को अधिक दिन चलने न दिया। माँ की बेबसी का मुझे पहले ही पता था। पत्नी जब भी रात में चौबारे पर चढ़ती, अक्सर उदास हो जाती। मैं सोचता... इन सात कमरों में से क्या मेरे हिस्से एक कमरा भी नहीं आता ? दुर्व्यवहार की भी कोई हद होती है, पर यहाँ तो किसी बात की कोई हद ही नहीं थी। बच्चों से लेकर भाभी तक सबके लिए हम जैसे गैर हों, उन पर एक फालतू बोझ।
उन्हीं दिनों मेरी बड़ी भतीजी ऊषा एम.बी.बी.एस. में अमृतसर पढ़ रही थी। वह तब भी बहुत समझदार थी और अब भी। वह मेरे और अपनी चाची के दु:ख को समझती थी। शायद उसके कहने-कहलाने, मेरे और भाई के सलाह-मशवरे तथा माँ की बेबसी में से यह फ़ैसला हुआ कि हम चौबारे में अपना चूल्हा-चौका अलग कर लें।
वैसे हमारा कुछ भी बंटा हुआ नहीं था। तनख्वाह के अलावा हमारे पास पाँच पैसे भी अधिक नहीं थे। मैंने अपने भाई से चोरी कभी कुछ नहीं जोड़ा था। मुझसे चोरी मेरी पत्नी ने भी कभी कुछ नहीं रखा था। मैं समझता था कि जैसे हमारे पिता की कबीलदारी हमारे भाई ने चलाई है, वैसे ही भाई की कबीलदारी चलाने में मैं भाई का हाथ बंटाऊँगा। उस समय मेरी तनख्वाह दो सौ पन्द्रह रुपये थी। बमुश्किल पचास रुपये ही बचते, वे ऊषा की पढ़ाई के लिए भेज देता।
बड़ा दु:ख यह था कि कोई मेरे बेटे क्रांति को भी नहीं बुलाता था, उसे उठाना तो एक तरफ रहा। उस वक्त क्रांति सवा साल का था। मुझे यह बात चुभती और मेरी पत्नी अक्सर मुझसे गिला करती-
''लो, इस फूल भर बच्चे का क्या कसूर है ? माँ को छोड़कर कोई इसे ठीक से गोदी में भी नहीं उठाता।''
''तुझे यूँ ही वहम है। भाभी का स्वभाव तू जानती है। माँ देख न, सारा दिन उठाये फिरती है। यह जिद्दी भी है न, किसी के पास जाता ही नहीं।'' मैं सबकुछ जानते हुए भी सुदर्शना को तसल्ली देने के लिए झूठ बोलता।
''बाऊजी को तो कुछ सोचना चाहिए। बाई जी ने तो इन्हें आपका पिता समझा था। और फिर हमने कौन सा कुछ छिपा कर रखा है इनसे।'' तीसरे दिन ही रात को सुदर्शना बात करते-करते सुबकने लग पड़ी।
घर की बिगड़ी तानी गली में आ गई, अड़ोस-पड़ोस सच्चाई को जानता था। चुगली-निंदा का मुझे पर कोई असर नहीं था। हमारे दोनों भाइयों के संबंधों के बारे में गली-मुहल्ला अब भी तारीफ़ करता है। दोष सिर्फ़ औरतों के सिर पर आता। माँ की विवशता को सारा पड़ोस जानता था। भाभी के स्वभाव को भी कोई भूला नहीं था।
भाभी पड़ोस की औरतों में से कभी किसी को लाती और कभी किसी को। उसका सारा ज़ोर इस बात पर लगा हुआ था कि वह सुदर्शना को एक बुरी औरत साबित कर सके। ड्योढ़ी पर पड़ीं पाथियों और बालण से लेकर चौबारे में पानी के घड़े, अंगीठी, चारपाई-बिस्तरे और सारा छोटा-मोटा सामान वह कई औरतों को लाकर दिखा चुकी थी कि तरसेम की घरवाली को तो सामान ठीक तरह से रखना भी नहीं आता। भला बताओ कि बालण ड्योढ़ी के अलावा और कहाँ रखते? उनका अपना बालण भी तो ड्योढ़ी में ही पड़ा था। यह एक चौबारा ही हमारे दिन में उठने-बैठने और रात में सोने का कमरा था। यही हमारा स्टोर था और यही रसोई - चौदह बाई दस फुट के कमरे में भला और क्या टिक सकता था। भाभी ने अच्छी भली सच्ची औरत को मूर्ख और मोटी अक्ल वाली सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उसको तो मुझ पर भी दया नहीं आती थी। उन दिनों मेरी आँखों की रोशनी सिर्फ़ चलने-फिरने लायक ही रह गई थी और मैं सरकारी नौकरी में होने के कारण अपना यह पर्दा बनाये रखना चाहता था कि मेरी नज़र पढ़ने-लिखने के लिए ठीकठाक है, क्योंकि उन दिनों नेत्रहीनों के लिए रोज़गार का प्रबंध तो क्या होना था, किसी अच्छे-भले की नज़र चली जाती तो सरकार उसे अनफिट करके घर में बिठा देती थी। इसलिए मैं भाभी का हर अत्याचार झेल रहा था। घर की बात को बाहर नहीं निकालना चाहता था, यह मेरी मजबूरी थी। यदि यह कहूँ कि मैं भाभी को बड़ी समझ कर उसका सम्मान करता था और उसके सम्मुख कभी नहीं बोलता था, तो यह कोरा झूठ है।
हमें चौबारे में रहते हुए अभी तीनेक महीने ही गुजरे होंगे कि सल्हीणे से फतह चन्द जीजा जी और बहन शीला आ गए। मुझे उनके आने की पहले कोई ख़बर नहीं थी। भाई ने मुझे बताये बग़ैर उन्हें चिट्ठी लिख दी थी, जैसा उन्होंने बताया- दो शब्दों की चिट्ठी में सिर्फ़ यह लिखा था- ''घर में क्लेश रहता है, तुम आकर हमारा बँटवारा करा जाओ।'' पता नहीं, भाई ने कैसे भरे मन से यह चिट्ठी लिखी होगी, पर इसका असर इमरजेंसी लगने जैसा हुआ। बहन ने मुझे आने का कारण बताने के साथ-साथ बँटवारा करने की तजवीज़ स्पष्ट तौर पर बता दी। मेरे सिर पर मानो सौ घड़े पानी उंडल गया हो। मैंने तो अलग होने के विषय में कभी सोचा ही नहीं था। जीजा जी और बहन को समझाया कि इससे तपा मंडी में हमारी बदनामी होगी। मेरी भतीजियाँ ऊषा और सरोज के विवाह के उपरांत अलग होने की मेरी तजवीज़ भी रद्द कर दी गई। शायद भाई आने वाली मेरी विपदा से सचेत था अथवा घर में चल रहे झगड़े-क्लेश से दुखी था। उसका, जीजा जी को बस यही कहना था कि वे निपटारा करके ही जाएँ। उसका अर्थ स्पष्ट था कि ज़मीन-जायदाद से लेकर सुई तक का बँटवारा।
जीजा जी, मेरा भाई, बहन और मैं दुकान में बैठ गए। इस बैठक ने मेरी तकदीर का फ़ैसला करना था, पर मुझे यह नहीं पता था कि कुदरत की ओर से आँखें छीन लेने वाली की गई बेइंसाफी के बाद भाई का दिल भी पत्थर हो जाएगा।
जीजा जी बार-बार मुझसे मेरी इच्छा पूछते रहे। बहन भी कहती रही कि मैं क्या चाहता हूँ। मेरा मन करता था कि कह दूँ -सिर पैदा करने वाला का, मुझे क्या चाहना है। मैंने जब आज तक कुछ चाहा ही नहीं, अब मुझे क्या चाहना है। कभी भाई के आगे बोला नहीं, साँस नहीं निकाला। मैं अब भी नहीं बोलूँगा।'' लेकिन मुझे बोलने के लिए बार-बार वे ज़ोर देते रहे और मैंने तंग आकर कह ही दिया-
''मैं अलग नहीं होना चाहता। लड़कियाँ ब्याही जाएँ, उसके बाद ही अलग होऊँगा।''
''भाई-भाई अलग तो होते ही आए हैं। यह कोई नई बात नहीं। अभी लड़कियाँ पढ़ती हैं। कब बड़ी होंगी। कब ब्याह होंगे ?'' यह जीजा जी बोल रहे थे।
भाई बिलकुल चुप था। उसके हाथ में कुछ काग़ज़ थे और एक पेन। भाभी दो बार चक्कर लगा गई थी। उसका चक्कर लगाना मुझे चक्रव्यूह जैसा लगता था, क्योंकि मैं जानता था कि मुझे घर में से निकालने के लिए सारी साज़िश भाभी की ही रची हुई थी। जीजा जी और बहन की झेंप स्पष्ट नज़र आ रही थी। वे वही कुछ करना चाहते थे जो भाई और भाभी चाहते थे। भाई के प्रति मेरे अन्दर पहली बार नफ़रत का अहसास जागा। मैं तो उसे अपना पिता समझता था, पिता से भी बढ़कर। मैंने तो उसके विचारों और भावों को भी कभी चोट पहुँचाने की कोशिश नहीं की थी। हालांकि मेरे विचार मेरे भाई से बिलकुल नहीं मिलते थे, पर सिर्फ़ उसके बड़े होने और मेरा पालक होने के अहसान ने मुझे उसके आगे दब्बू बनाये रखा था। वैसे वह था आर.एस.एस. और जनसंघी और मुझ पर चढ़ा हुआ था कम्युनिस्ट पार्टी का रंग। हाँ, वह कट्टर जनसंघी भी नहीं था। मुझे वह मानववादी प्रतीत होता था। कभी मुझे रोका-टोका नहीं था। मेरी गतिविधियों को वह जानता था, पर फिर भी उसका चुप रहना मुझे यूँ लगता था कि मेरा भाई बड़ा अच्छा इंसान है। लेकिन आज उसकी चुप में से जो विस्फोट होना था, उसका मुझे पहले से ही अहसास हो रहा था।
आख़िर, बहन ने ही चुप तोड़ी। तपा वाली दुकान और गाँव वाली ज़मीन का कीमत लगाई गई। तपा में गली नंबर 8 के प्लाट के बारे में भाई का कहना था कि यह प्लाट उसने खुद खरीदा है और उसमें मेरा कुछ नहीं। इस बात पर मुझे बोलना ही पड़ गया। मैंने साफ़ कह दिया-
''गाँव वाली हवेली बेचने के बाद यह प्लाट लिया था। हवेली बेचकर गिरवी पड़ी यह दुकान छुड़वाई थी। बाकी बचे पन्द्रह सौ रुपये में हम दोनों ने कुछ और पैसे मिलाकर यह प्लाट खरीदा था।''
लेकिन भाई इस पर कुछ नहीं बोला था। उसने चुपचाप उसकी कीमत लगा दी। हैरानी की बात यह थी कि तपा मंडी वाले दुकान अहाते का मूल्य कम लगाया गया क्योंकि वह भाई के नाम रखा जाना था। गाँव वाली ज़मीन जो अभी भी हमारे चाचा-ताया के संग झगड़े की जड़ बनी हुई थी, उसका मूल्य पूरा डाल दिया गया। बस, गली नंबर 8 वाले प्लाट का मोल ही ठीक पड़ा था।
मुझे कोई भ्रम नहीं था कि क्या मिलना है। पर मैं मन ही मन डाले गए मूल्य के बावजूद अपने हिस्से संबंधी अभी सोच ही रहा था कि भाभी ने आकर मेरे पिता की मौत के बाद किए गए विवाहों के खर्च का सवाल खड़ा कर दिया। मेरे अन्दर का स्वाभिमान जाग उठा। मैंने सबकुछ छोड़ने के लिए अपने आप को तैयार कर लिया। माँ से सुनी बात ने मेरी दृढ़ता को और अधिक पक्का कर दिया कि 'कोई हाथ से छीन लेगा, पर माथे पर लिखा तो नहीं छीन सकता।' मार्क्सवादी होने के बावजूद माँ की कही बात मुझे रोक रही थी।
पिता की मृत्यु के बाद सीता का ब्याह हुआ। 1952 में बहन चन्द्रकांता का। 1958 में तारा बहन का और फिर 1966 में मेरा विवाह हुआ। सब पर किया गया खर्चा लिख लिया गया। लिखते समय भाई को एक अजीब-सी झेंप ज़रूर थी। मैं उस समय बहुत भावुक था। मैं यह भी नहीं कह सका कि तारा का विवाह दुकान गिरवी रखकर, सारी चाँदी तराजू से तोल कर और माँ के पास पड़ा बचा हुआ सोना बेचकर किया था और चढ़ा हुआ कर्ज़ा हम दोनों भाइयों ने मिलकर उतारा था। क्योंकि तारा की शादी के चार महीने बाद ही मैं मास्टर लग गया था, भाई भी मास्टर था। मुझे 60 रुपये मिलते थे और भाई को 100 रुपये। हम दोनों ट्यूशन्स खूब पढ़ाते थे। हमने अगले वर्ष ही तारा के विवाह का सारा कर्ज़ उतार दिया था। बस, सिर्फ़ गिरवी रखी दुकान ही छुड़ानी शेष थी। मैं इतना भावुक हो गया कि मेरी भावुकता हल्के गुस्से में बदल गई। बहन सीता की टी.बी. की बीमारी पर हुए खर्च को भी हिसाब-किताब में लिखने के लिए कह दिया। भाई ने पहले तो 'ना-ना' की, पर बाद में बहन की बीमारी पर खर्च हुए तीन हज़ार रुपये भी लिख लिए। यह लिखवा कर मैं जैसे सुर्खुरू हो गया होऊँ। उस वक्त तो मैं यह कहने के लिए भी तैयार हो गया था कि पिता की मृत्यु के बाद हम भाई-बहनों के पालन-पोषण पर जो खर्च हुआ है, वह भी लिख लो। परन्तु न जाने किस झेंप ने मुझे यह बात कहने से रोक दिया। संभव है कि मेरे अन्दर उस समय यह तर्क आया हो कि अगर भाई ने रोटी दी है तो गाँव की ज़मीन का अनाज भी आया है और दुकान का किराया भी। लेकिन ऐसा कहना न मेरे लिए उचित था और न ही यह शोभा देता था। भाई ने काले बैल की तरह कमाई की थी। कबीलदारी निभाई थी और हम बहन-भाइयों को भरपूर प्यार दिया था। उसके होते हमें जैसे पिता की याद ही नहीं आई थी। पर आज भाई से सिर्फ़ एक ही गिला था कि उसने उस हालत में मेरी बांह नहीं पकड़नी चाही थी, जब मेरी आँखों के दीये बुझने पर आ गए थे। मैं अन्दर ही अन्दर सोच रहा था कि यदि मेरे संग ऐसा ही करना था तो मेरा विवाह करने की क्या ज़रूरत थी। सोम नाथ का कौन सा विवाह हुआ है (ताया मथरा दास का नेत्रहीन पुत्र सोम नाथ था पर उसे ताया ने अपने सातों बेटों के हिस्से आती सारी ज़मीन, गाँव वाला बाग और घर आदि को यह कहकर संभाल रखा था कि इस सबकी आमदन जीते जी सोम नाथ इस्तेमाल करेगा)। बस, इस उधेड़बुन में ही काग़ज़ तैयार हो गया था। सिर्फ़ जीजा जी और बहन के हुक्म की प्रतीक्षा थी।
सारी संपत्ति का मूल्य जोड़ लिया गया। विवाहों और बहन सीता की बीमारी पर हुए खर्च को अलग जोड़ लिया गया। जायदाद के मूल्य का आधा करने के बाद और हुए खर्च को आधे में से घटाने के बाद मेरे हिस्से की जायदाद भाई के हिस्से से बिलकुल आधी रह गई थी। इसलिए दुकान अहाता भाई के हिस्से में डाल दिया गया और झगड़े की जड़ गाँव सहिणे की ज़मीन और तपा मंडी की गली नंबर 8 वाला प्लाट मेरे हिस्से में आ गया।
साफ़ काग़ज़ पर ही लिखत-पढ़त कर ली गई। बहन और जीजा मुझे यह जतलाने में लगे हुए थे कि मेरे संग कोई बेइंसाफी नहीं हुई, जब कि इस सारे बँटवारे में इंसाफ का तो नाम तक भी नहीं था।
घर का सारा सामान भी फटाफट बाँट दिया गया। उन दिनों भाई का बड़ा लड़का सुरेश हमारे वाली दुकान में ही बर्तनों की दुकान किया करता था। सो, दुकान के अन्दर का सारा पुश्तैनी सामान भाई के हिस्से कर दिया गया। दुकान में बिछी शतरंजी, पुराना बड़ा लोहे का गल्ला और अन्य छोटा-मोटा सब भाई के हिस्से। शतरंजी के स्थान पर मुझे एक गलीचा दिया गया जिसकी सारी ऊन चींटियों ने खा ली थी। ड्योढ़ी में रखी चक्की भाई के हिस्से और उसके बदले कपास बेलने वाली घुन खाई बेलनी मेरे हिस्से। तारा के विवाह के समय बेची चांदी में से दो चांदी के गिलास बचे थे, जब उनमें से एक गिलास मुझे देने के लिए माँ ने कहा तो भाभी के पूरे बदन में आग लग गई। पर बहन के कहने पर अन्त में एक चांदी का गिलास मुझे मिल ही गया। घर का बाकी सारा सामान भाई के हिस्से डाल दिया गया और मेरे हिस्से बर्तनों में से एक बड़ी परात, देगचा और पीतल का लौटा आया। पुरानी पड़ी पन्द्रह-बीस बहियों में भाई ने आधी मेरे हिस्से में रख दीं। भाई के विवाह पर पिता द्वारा बनाकर दिया हुआ सोना और उसके बाद चोरी-छिपे बनाया टूम-छल्ला, इनमें से हिस्सा मांगने पर क्लेश बढ़ने का डर था। मैं चुप रहा, पर जब मेरी पत्नी ने यह बात कही तो भाई ने कहा कि सारा सोना बाँटा जाएगा। मेरे ससुराल वालों ने पन्द्रह तौले सोना डाला था और भाई के ससुराल के सोने वाला खाना बिलकुल खाली था। इसलिए मेरे विवाह पर मेरे ससुराल वालों द्वारा शगुन पर दिए रुपये में से बनाया गया सात तौले सोना और मेरे ससुराल वालों द्वारा डाला गया पन्द्रह तौले सोना और भाभी के पास मेरे पिता और भाई द्वारा मिला सोना सब मिलाकर बराबर-बराबर तराजू पर तुल गया।
असल में, जीजा जी और बहन आए ही भाई के हक में खड़ा होने के लिए थे। मेरे ख़याल में उन पर भाई द्वारा किए गए अहसान का बदला चुकाने का इससे बढ़िया अवसर दूसरा कोई नहीं था। छह साल (1955-61) तक मेरा भान्जा विजय कुमार तपा रह कर ही पढ़ा था। उसके बाद दो साल तक कैलाश रहा और दसवीं करके गया। शायद इस अहसान के कारण वह भाई का पक्ष ले रहे थे, पर वे भूल गए थे कि जब विजय दसवीं में पढ़ता था, उस वक्त हरबंस लाल तो मोगा में बी.एड. करता था और मैं ही घर में अकेला कमाऊ व्यक्ति था। विजय कुमार को दसवीं पास करवाना ढीले गुड़ को खांड के भाव बेचने के बराबर था। फिर कैलाश को पढ़ाने के समय भी मैं अपनी सारी कमाई घर में ही देता था। छोटी लड़की राजी तो पाँच साल धौला में रह कर मेरे पास ही पढ़ी थी। इसलिए मेरे किए का बहन-बहनोई ने क्या फल दिया, मैं अभी तक नहीं समझ सका कि मेरा वह कौन सा कसूर था, जिसके बदले मेरे बहन-भाई ने मुझे यह सज़ा दी और दूसरी बहनें और बहनोई गूंगे बने रह गए। बँटवारे का दुखांत यहीं पर समाप्त नहीं हुआ। बहन-बहनोइये का हुक्म था कि हम जल्दी ही चौबारा खाली करके किसी किराये के मकान में चले जाएँ। इस काम के लिए हमें एक महीने की मोहलत मिली थी।
(जारी…)

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