समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Wednesday, February 15, 2012

आत्मकथा





एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-26

जेल यात्रा
यद्यपि नक्सली आंदोलन का हथियारबंद जोश तो मद्धम पड़ गया था, पर पंजाब के बेरोज़गार अध्यापकों में उनका अच्छा-खासा प्रभाव बन गया था। नक्सलियों के ग्रुप तो भारत स्तर पर मुख्य तौर पर तीन थे, पर पंजाब के अध्यापकों में रामपुराफूल वाले यशपाल और विद्यार्थियों में पिरथीपाल सिंह रंधावा का प्रभाव अधिक था। तीनों के अलग-अलग पैंतरे थे, पर 1978 में पंजाब के बेरोज़गार अध्यापकों में जो लहर चली, उसमें शीघ्र यह जान पाना कठिन था कि इनमें कौन अध्यापक किस धड़े के साथ है। उन्होंने रोज़गार के मसले को लेकर 'जेल भरो आंदोलन' शुरू कर दिया। राणा ग्रुप अर्थात् सी.पी.एम. ने समय की नब्ज़ को पहचानते हुए इस लहर में भी अपने पैर पसार लिए थे लेकिन नक्सलियों से कुछ कम। इस आंदोलन में ढिल्लों ग्रुप सबसे पीछे था। जब इस ग्रुप की नींद टूटी तो पूरा आंदोलन नक्सलियों और राणा धड़े की पकड़ में आ चुका था। अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए रणबीर ढिल्लों ने भी इस 'जेल भरो आंदोलन' में शामिल होने की घोषणा कर दी, पर समस्या यह थी कि ढिल्लों की छतरी पर बेरोज़गार कबूतर कोई कोई था। इसलिए बेरोज़गारों के साथ-साथ नौकरी पर स्थायी तौर पर लगे हुए ढिल्लों ग्रुप के समर्थकों को गिरफ्तारी देने के लिए हुक्म दे दिया गया। ज्ञान चंद शर्मा उन दिनों संगरूर ज़िले में ढिल्लों ग्रुप का लीडर था। छह अध्यापकों को गिरफ्तारी के लिए ले जाने का उसे हुक्म हुआ था। बरनाला से साधू राम बांसल और राम मूरत वर्मा, मालेरकोटला से कृष्ण कुमार शास्त्री और तपा मंडी से ज्ञानी रघवीर सिंह को उसने तैयार कर लिया था। पाँचवा वह स्वयं था। छठा व्यक्ति उसे नहीं मिल रहा था। ज्ञानी रघवीर सिंह की मेरे संग दोस्ती होने के कारण शर्मा जी को इस काम के लिए मेरे पास आना सहज हो गया। वैसे मेरी नेत्रहीनता के कारण वे मेरी गिरफ्तारी दिलाना नहीं चाहते थे। दफ़ा 144 तोड़ना, वारंटों की धमकियाँ, पुलिस और धाकड़ किस्म के सियासी लीडरों के साथ मैं पहले भी कई बार टकराव में आ चुका था। पता नहीं क्यों मैं अपनी आँखों की कमज़ोरी के बावजूद किसी से डरता-झेंपता नहीं था। असल में, मैं पूरे सिस्टम के ही ख़िलाफ़ था। लाल पार्टी, मुजारा लहर और प्रजा मंडल तहरीक, आज़ादी से पहले के आंदोलन और स्वतंत्रता संघर्ष में लड़ने वाले योद्धाओं के बारे में मैं बहुत कुछ पढ़ चुका था। वैसे भी, हर पक्ष से मैं वाम लहर से जुड़ा हुआ था। इसलिए में किसी भी संघर्ष में शामिल होते समय किसी असमंजसता का शिकार नहीं हुआ था। मेरे लिए यह भी बड़े हौसले वाली बात थी कि मेरी पत्नी सुदर्शना देवी ने मुझे विदा करते समय जिस तरह की बातें कीं, उससे मेरे अन्दर गिरफ्तारी देने का साहस और अधिक बढ़ गया।
चंडीगढ़ पहुँचने के बाद काफ़ी समय तक 'ज़िदाबाद-मुर्दाबाद' होती रही। जिस नेता की अगुवाई में गिरफ्तारी देनी थी, वह राणा ग्रुप का एक बेरोज़गार अध्यापक था। उसका नाम शायद मलकीत सिंह था। नक्सली और राणा ग्रुप के हाथ में बागडोर होने के कारण गिरफ्तारी देने वाले दल का नेता इनमें से ही कोई अध्यापक होता। आख़िर करीब चार बजे पुलिस हरकत में आ गई। हमसे कुछ दूर एक नक्सली अध्यापक ने किसी थानेदार की नाक में अपनी उंगुलियाँ चढ़ा दीं। फिर क्या था, लाठीचार्ज शुरू हो गया। जितने आसपास के अध्यापक गिरफ्तारी देने आए थे, वे नारे लगाते हुए पुलिस की लाई हुई बसों में दगड़-दगड़ करके चढ़ गए। ज्ञानी रघवीर सिंह ने पहले मुझे चढ़ाया और बाद में स्वयं चढ़ा। मेरे लिए तसल्ली वाली एक बात और थी कि बठिंडा वाले अध्यापकों का प्रिय नेता जगमोहन कौशल भी हमारे संग था। सी.पी.आई. का पक्का कार्ड-होल्डर बलबीर सिंह मंदरां भी हमारे साथ ही गिरफ्तार हुआ। इस प्रकार ढिल्लों ग्रुप के गिनती के करीब पन्द्रह नेता इस गिरफ्तारी में शामिल थे। हमारे ग्रुप में बहुत से अध्यापक संगरूर, बठिंडा और फ़रीदकोट ज़िलों में से आए थे और थे भी सब स्थायी अध्यापक।
बस 17 सेक्टर के थाने में पहुँच गई थी। इस थाने में पहले भी मैं दो बार आ चुका था, पर तब बात इस तरह हुई थी कि पुलिस दफ़ा 144 तोड़ने वालों को हिरासत में लेकर 17 सेक्टर के थाने में ले जाती और दिन छिपने के कुछ देर बाद छोड़ दिया करती। एक बार ट्रक में बिठाकर कहीं बाहर भी उतार आई थी। आसपास कोई गाँव भी नहीं था। अध्यापक तंग-परेशान होते हुए आख़िर अगले दिन अपने अपने घर पहुँच गए थे। पर इस बार तो पता था कि यह गिरफ्तारी पकड़कर दिन छिपने के बाद छोड़ने वाली नहीं है, क्योंकि पहले जितने भी दल गिरफ्तार हुए थे, सबको सींखचों के पीछे कर दिया गया था।
हमारी संख्या दो सौ के करीब थी। काग़ज़-पत्र तैयार करने में काफ़ी समय लग गया था। अभी तक यह भी पता नहीं चला था कि हमें किस जेल में भेजना है। काग़ज़-पत्र तैयार होने के बाद कहीं दस बजे जाकर हमें बसों में बैठने के लिए कहा गया। इस दल को संगरूर जेल में भेजने का हुक्म मिला था, तपा से 50-55 और मालेरकोटला से सिर्फ़ 35 किलोमीटर दूर। जेल में रहने के बावजूद घर की निकटता का अहसास-सा पता नहीं क्यों मन को तसल्ली दे रहा था।
गिरफ्तारी के बाद शायद कुछ भी खाने-पीने को नहीं दिया गया था। चाहिए तो यह था कि चंडीगढ़ से ही रोटी खिलाकर भेजा जाता, जिसके बारे में राम मूरत वर्मा कई बार कह चुका था। पर ज्ञानी रघवीर सिंह के यह कहने पर कि 'हम कौन सा ननिहाल आए हैं वर्मा जी' हम सब हँस पड़े थे। सच्ची बात तो यह है कि मुझे भूख तो लगी हुई थी पर भूखा-भूखा करना मुझे अच्छा नहीं लगता था। इसलिए मैं शांत होकर बैठा रहा। हमारे वाली बस राह में एक बार रोकी भी गई थी, अन्य बसें भी रुकी होंगी, पर संगरूर जेल के अन्दरवाले दरवाजे तक पहुँचने के बाद ही यह अहसास हुआ कि हम जेल में आ गए हैं। आधी रात हो चुकी थी और चंडीगढ़ से आई वायरलैस या फोन के कारण जेल मैनुअल के अनुसार हमें रोटी खिलानी ज़रूरी थी।
सर्दियों का मौसम था। गिरफ्तारी आधे अक्तूबर के बाद किसी तारीख़ को हुई थी। हालाँकि मैं ज़रूरत के अनुसार कपड़े ले आया था और एक लोई भी मेरे पास थी, पर ज़र्दा खाने वाले दो-तीन अध्यापक मेरे वाली बस में भी थे। ज़र्दा लगाने और थूक की पिचकारियाँ छोड़ने के कारण उन्होंने खिड़कियों के शीशे बन्द न करने दिए। मैं ऐसे मौसम में ठंडी हवा से बचकर रहना चाहता था, पर हवा की ज़र्दे की पुड़िया से दुश्मनी है। इसलिए गरम दिमाग ज़र्दे के शौकीनों की हरकतों के कारण पहले ही दिन उनसे भिड़ना मैं अच्छा नहीं समझता था। नतीजा यह निकला कि ठंडी हवा खिड़कियों के रास्ते फर्र-फर्र अन्दर आती रही और मुझे जुकाम हो गया। उन दिनों अक्सर ठंडी हवा लगने से मुझे जुकाम हो जाता था। जाड़े में जुकाम से बचने के लिए मेरी माँ और मेरी पत्नी सुदर्शना देवी मेरे लिए कोई न कोई देसी दवाई बनाकर रखती थीं- खसखस की पिन्नियाँ या सौंफ, बादाम, खसखस और मिसरी की फंकी। जुकाम के भय के कारण मैंने कई चीज़ें खाना छोड़ दी थीं। डॉक्टर इस बीमारी को एलर्जी कहते थे और इस एलर्जी का ज़ोर सितम्बर से शुरू होकर फरवरी माह तक चलता। एक तो उस एलर्जी की मार और दूसरा, ठंडी हवा के कारण मेरी नाक और आँखों में से पानी बहने लग पड़ा। कई बार तो चार-पाँच से लेकर सात-आठ छीकें एकसाथ आतीं और मैं बेहाल हो जाता। मेरी इन छींकों पर कई मनचले जवान 'ही-ही, हू-हू' भी करते। मुझे अन्दर ही अन्दर गुस्सा आता और मेरे अन्दर ट्रेड यूनियन लहर के कई नकारात्मक नुक्तों की झड़ी सी लग जाती। सोचता कि जिन लोगों के वास्ते जेल आया हूँ, उन्हें यह तमीज़ भी नहीं कि किसी के बीमार हो जाने पर यदि हमदर्दी प्रकट नहीं हो सकती तो उस पर हँसना भी नहीं चाहिए। मुझे उनके कम्युनिस्ट होने पर शक था। अब जब मैं उन बेरोज़गार अध्यापकों को नौकरी पर लगा हुआ देखता हूँ और उनमें से बहुत से वे सब गलत काम करते हैं जो समाज विरोधी तत्व किया करते हैं तो मुझे उस वक्त उनके लिए बनाई गई अपनी राय उचित लगती है। मैं यहाँ पर सभी को एक ही रस्सी से नहीं बाँधता। कुछ अध्यापक अभी भी वामपंथी लहर से उसी तरह वचनबद्ध हैं, ईमानदार हैं और किसी न किसी तरह लोकहित चेतना से जुड़े हुए हैं पर उस संघर्ष में शामिल वे अध्यापक भी मेरे सामने हैं जो इस संघर्ष में अपनी नौकरी निकाल कर शेर बने फिरते हैं। दस-दस रुपये सैकड़े पर ब्याज में पैसे देते हैं, नशे करते हैं और नौकरी को सिर्फ़ पेंशन समझते हैं। काम तो उन्होंने कोई दूसरा चला रखा है।
हाँ, मैं बात कर रहा था कि आधी रात के बाद हम संगरूर जेल में पहुँचने के बाद जेल की रोटी की प्रतीक्षा कर रहे थे। बैरकों में हमारे समाने के लिए जगह नहीं थी। एक एक बैरक में सीमेंट के थड़े-से बनाए हुए थे। बदबू मार रहे कम्बल जिनमें खटमल बादशाह भी साथ ही आ बिराजे थे, हमारे द्वारा ऊपर ओढ़ने और नीचे बिछाने के लिए आ रहे थे। कहीं पिछले पहर जाकर रोटी आई। पैरों से गूंधे गए आटे की छाबों जैसी बड़ी-बड़ी रोटियों का तो मुझे पहले ही पता था, पर जो सब्ज़ी संग में भेजी गई, उस तरह की सब्ज़ी के दर्शन पहले कभी नहीं किए थे। सब्ज़ी थी- तरी वाली भिंडियाँ। एक कटोरी सब्ज़ी में दो-तिहाई तरी और एक तिहाई भिंडियों के टुकड़े। भिंडियों के टुकड़ों का लेस इस तरह था मानो बच्चे के मुँह से रालें गिर रही हों। मैंने इसके विरुद्ध आवाज़ उठाई। सबने रोटी खानी बन्द कर दी। हमारे जत्थे का नेता भी हरकत में आ गया। अपने आप को नेता कहलाने वाली नौजवानों की टोली को शायद यह पूरा पता नहीं था कि जेल में आकर भी सरकारी जुल्म के विरुद्ध रोष प्रकट किया जा सकता है। नारेबाजी शुरू हो गई। जेल सुपरिटेंडेंट के कानों तक जब आवाज़ पहुँची, वह तुरन्त हरकत में आया। मुझे ज्ञानी गुरमुख सिंह की कहानी याद आ गई। कहानी का नाम था - 'सब अच्छा'। जेल सुपरिटेंडेंट की ड्यूटी है कि वह अपने ऊपर वाले सभी अफ़सरों को 'सब अच्छा' की रिपोर्ट दे। दो सौ से अधिक जेल में बन्द किए अध्यापक यदि रात में रोटी न खाएँ और वे जेल में ही विद्रोह पर उतर आएँ और जेल सुपरिटेंडेंट रिपोर्ट में भेज बैठे - सब अच्छा तो जेल प्रबंध की ढीली चूल का पता तो सरकार को लगना ही था और लोगों की आँखें पोंछने के लिए सरकार को कुछ न कुछ करने जैसा तो नाटक रचना ही होता है। अध्यापकों के रोष को जेल अधिकारी शांत करने में सफल हो गए। रोटी में देरी तो हो गई, पर सब्ज़ी बदलकर भेजी गई। मैंने आधी-पौनी रोटी ही खाई होगी। लगता था जैसे हल्का-सा बुखार भी हो। जब मुझे इस तरह का अचानक जुकाम हो जाता, मेरी देह भी तपने लग पड़ती। मैं अपनी दवाई संग लेकर आया था। रोटी के बाद दो अलग-अलग तरह की गोलियाँ पानी के संग ले लीं। इस दवाई से जुकाम में भी कुछ टिकाव आया और कुछ नींद-सी भी आ गई। दोनों गोलियों में से एक गोली का संबंध नींद से था। मैं यदि यह कहूँ कि मुझे वहाँ किसी ने पूछा ही नहीं, तो यह गलत होगा। सबको मेरी सेहत को लेकर फिक्र थी। सबसे अधिक ज्ञानी रघवीर सिंह चिंतित था। फिर ज्ञान चंद शर्मा। दरवेश साधू, राम बांसल शर्मा जी से इस बात पर बहस रहा था कि तरसेम को हमें अपने संग नहीं लाना चाहिए था। राम मूरत के शुगल की टोन लगभग आधी तो ठंडी पड़ चुकी थी लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं हुई थी। मुझे उसकी यह टोन कोई बुरी भी नहीं लगी थी। देशभक्तों की जेल यात्राओं की कठिनाइयाँ और उत्पीड़न मेरे जेहन को कायम रखने में मेरी मदद कर रहे थे। पता नहीं किस समय मुझे नींद आ गई थी। सुबह उठा तो मैं कुछ ठीक था।
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संगरूर जेल में लगभग दो महीने रहना पड़ा क्योंकि पंजाब सरकार से कोई कच्चा-पक्का समझौता होने के पश्चात ही रिहाई हो सकती थी और सरकार से बातचीत करने का काम नक्सली लीडरशिप के हाथ में था। यह लीडरशिप किसी सम्मानजनक समझौते से एजिटेशन वापस लेना चाहती थी। पंजाब के साथ-साथ अन्य प्रांतों और केन्द्र की सरकारों का यह व्यवहार रहता है कि वे आंदोलनकारियों को थका-उबा कर आंदोलन की पटरी से उतारने के लिए हर तजुर्बा इस्तेमाल किया करती हैं और अब भी वही हालत बनी हुई थी।
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जितने आंदोलनकारी संगरूर जेल में पहुँचे थे, बैरकों में उतने व्यक्तियों को खपाने लायक जगह नहीं थी। गरम विचारवाले कामरेडों ने अपनी मर्जी से या हो सकता है सुपरिंटेंडेंट से बात करके अपने लिए बैरकें अलॉट करवा ली थीं, जिसकी वजह से हमारे हिस्से तम्बू ही आए थे। हम संगरूर, बठिंडा और फ़रीदकोट के स्थायी अध्यापक एक ही सोच के थे और कइयों ने तो जेल का स्वाद पहले भी चखा हुआ था। इसलिए हमारे हिस्से जो तम्बू आए, हम संगरूर वाले सारे एक तम्बू में थे। नीचे दरियों के ऊपर गद्दे बिछ गए। कम्बलों के स्थान पर रजाइयाँ मिल गईं। ठंड दौड़े आ रही थी। इसलिए तम्बुओं में रजाइयाँ मिल जाने से कुछ राहत मिल गई थी।
हमारे संग गिरफ्तार हुए साथियों में ही एक कमेटी बन गई थी। यह कमेटी ही जेल अधिकारियों से बातचीत करती। कमेटी का कर्ताधर्ता वही नौजवान मलकीत सिंह था जिसे हमारे दल का नेता बनाया गया था और कमेटी भी शायद उसने अपनी मर्जी से ही बनाई थी। जिस तरह हम सहयोगी धड़े के तौर पर आंदोलन में शामिल हुए थे, उसी तरह जेल में हमारी इज्ज़त थी। जेल में राजनीतिक नेताओं या आंदोलनकारियों वाली सुविधाएँ कभी भी सरकार या जेल अधिकारी थाली में परोस कर नहीं देती। इसलिए रैलियों और ज़िन्दाबाद-मुर्दाबाद के कई दिनों के हो-हल्ले के बाद छतरी जैसी बड़ी बड़ी किरक वाली रोटियाँ और बेस्वाद घटिया-सी दाल-सब्ज़ी का सिलसिला बन्द करके जेल अधिकारियों ने हमारी कमेटी की देखरेख में सवेरे के नाश्ते से लेकर दोपहर बाद के भुने चनों की एक एक मुट्ठी तक और फिर शाम के समय की रोटी से लेकर रात के दूध तक का सारा प्रबंध कमेटी को सौंप दिया और सेवा के लिए कुछ सेवादार लगा दिए। सेवादार भी खुश थे और आंदोलनकारी भी। कुछ दिनों पश्चात हमारे में से काफ़ी साथियों को बी-क्लास मिल जाने के कारण दूध, अंडे और मीट आदि मिलने का भी प्रबंध हो गया। इस बी-क्लास वाले राशन को हम सब मिलकर ही उपयोग करते, पर इसके बावजूद विचारात्मक भिन्नता के कारण प्राय: गरमा-गरमी हो ही जाती। दूसरा यह कि इन नौजवानों में से कई बीड़ी-सिगरेट से लेकर ज़र्दे तक के शौकीन थे और एक मित्र तो नशे की गोलियाँ भी खाता था, था यह हमारे गरम धड़े के नेताओं और बेरोज़गार अध्यापकों में से। हम पन्द्रह साथी थे ढिल्लों ग्रुप अर्थात् सी.पी.आई. के, छह जने थे सी.पी.एम. के, एक था बी.जे.पी. का गुरदासपुर से और एक ओम प्रकाश करकरा अमलौह से था, पक्का गांधीवादी। बाकी सभी बन्दूक की नली में से इंकलाब लाने की बात को छोड़ते-छुड़ाते 1978 तक लोक चेतना के गरम राह पर चलने वाले। शुरू शुरू में हम दोहरे दबाव के अधीन जेल में विचर रहे थे- एक सरकार का दबाव और दूसरा, जेल के अन्दर की गरम लीडरशिप का।
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जहाँ तक मेरे निज का प्रश्न है, शायद मेरी नेत्रहीनता के कारण सब साथी मुझे बड़े आदर से मिलते। फ्लश और बाथरूम जाने से लेकर पूरी जेल में इधर-उधर जाने तक सब साथी मेरी सहायता के लिए तत्पर होते, यद्यपि असली जिम्मेदारी तो ज्ञानी रघवीर की थी और निभाता भी वही रहा था, पर शेष साथियों ने भी नेत्रहीनता की चुभन मुझे महसूस नहीं होने दी थी।
अव्वल तो शाम को या सवेरे रोज़ ही रैली होती, नहीं तो एक दिन छोड़कर रैली पक्की थी। बाहर से आने वाले सियासी और ट्रेड यूनियन नेताओं अथवा नाटक मंडलियों और कवियों के आने पर भी जमावड़ा कर लिया जाता। गुरशरण सिंह भाजी, संतराम उदासी और महिंदर पाल भट्ठल के आने पर नाटकों का भी मंचन हुआ और लोकगीतों का गायन भी। नक्सली लीडरों में से पी.एम.यू. का पिरथीपाल सिंह रंधावा, रणबीर ढिल्लों, बी.जे.पी. वाला पंगोतरा और कांग्रेस का एक मुलाजिम नेता भी आया। सी.पी.आई. का भान सिंह भौरा, मास्टर बाबू सिंह एम.एल.ए. और कम्युनिस्टों की कद्दावार शख्सियत सतपाल डांग भी पहुँचे। जितना प्रभावित गुरशरण सिंह भाजी ने किया, बौध्दिक स्तर पर उससे अधिक प्रभावशाली भाषण कामरेड डांग ने दिया। लेकिन जेल में नौजवान साथी दूध में उबाल की भाँति वक्ती तौर पर जोश में आ जाते और बाद में जब हमारे संग बातें करते, उनके हर शब्द में उदासी झलकती। एक तो वक्ता होने के कारण और दूसरा लेखक होने के नाते सभी साथियों में ढिल्लों ग्रुप के साथ संबंधित होने के बावजूद मेरा अच्छा-खासा मान-सम्मान बन गया था। मेरे इम्तिहान का दौर तो रैलियों के पहले एक-दो भाषणों में खत्म हो गया था। अब सैद्धान्तिक बहसों में भी स्पष्टीकरण के लिए हर धड़े के साथी मेरे पास ही आते। हमारे अपने धड़े के किसी साथी द्वारा डाले गए उलझाव को मैं अपनी तुच्छ-सी बुद्धि के अनुसार हल करता। उस समय मैंने कभी यह नहीं सोचा था कि मैं किस धड़े के संग हूँ। मैं तो मार्क्सवाद-लेनिनवाद के सीमित-से ज्ञान के सहारे गुंझल खोलने की कोशिश करता और प्राय: वह खुल भी जाती। मुझे लगता है कि अपार ज्ञान के स्थान पर पंजाबी भाषा पर पकड़ मेरे काम में अधिक सहायक होती होगी। रैलियों में ग़ज़लों और कविताओं के सुनाने के ढंग और जलसों में किस्म किस्म के भाषणों के अभ्यास के कारण ही मेरा साथियों के बीच अच्छा-खासा प्रभाव बन गया था। कुछ मांगों को मनवाने के लिए भूख-हड़ताल का भी सहारा लेना पड़ा, पर गलत मांगों को मनवाने के लिए तो जेल अधिकारियों के संग प्यार से ही बात की जा सकती थी। जेल में जो डिप्टी सुपरिंटेंडेंट अमरीक सिंह था, वह मेरी बड़ी बहन शीला के ससुराल वाले गाँव सल्हीणे(जी.टी. रोड पर मोगा से आठ-नौ किलोमीटर दूर) का था और था भी बिलकुल उनका पड़ोसी। मेरे गिरफ्तार होने के हफ्ते बाद ही सल्हीणे में यह बात पहुँच गई थी। जब मेरी बहन और मेरा भान्जा सुरिंदर मुझे मिलने आए तो उस दिन से अमरीक सिंह मेरा ज़रूरत से ज्यादा सम्मान करने लग पड़ा था।
बीड़ी-सिगरेट तो किसी न किसी तरह से जेल में आ ही जाती थी और ज़र्दा भी। एक साथी जो नशे की गोलियाँ खाने का आदी था, बड़ी समस्या तो उसकी थी। एक दिन उसकी पत्नी मुलाकात के लिए आई और वह अपने पति की समस्या को जानती थी। वह कपड़ों में गोलियों के कई पत्ते लपेट कर ले आई। द्वार पर तलाशी के समय ही गोलियाँ पकड़ी गईं। दो तीन नक्सली साथी मेरे पास दौड़े आए और बोले कि डिप्टी सुपरिंटेंडेंट को कहकर गोलियाँ दिलवा दो, क्योंकि इस दवाई के बग़ैर वह साथी रह नहीं सकता था। लेकिन मुझे उनकी इस बात ने कायल नहीं किया था। फिर भी, अपने मुँह-मुलाहजे के लिए मैं उनके संग चला गया। गोलियाँ न मिलनी थीं, न मिलीं। बस यह फायदा हो गया कि साथी की पत्नी और वो साथी जेल अधिकारियों के कोप से बच गए और मेरी विनती के कारण मियाँ-बीबी की मुलाकात भी हो गई।
मुझे यह घटना कुछ दिन पश्चात बहुत ही महत्वपूर्ण लगी जब किसी कैदी की अफीम लाने के बदले जेल के एक स्वीपर की हवलदार बेरहमी से कुटाई कर रहा था। इस घटना को देखने के लिए हमारे में से कई साथी गोल चक्कर का किसी न किसी बहाने से चक्कर लगा आए थे। शायद गोलियों वाला वह साथी और उसके साथ के साथी भी शाम को मेरे पास आए थे, मानो उस घटना में मेरी भूमिका के प्रति वे किसी न किसी तरह धन्यवाद करना चाहते हों।
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चूँकि हम ज़िला संगरूर के थे इसलिए सबसे अधिक मुलाकाती हमारे पास आते। मुलाकातियों में अध्यापक साथी, राजनीतिक नेता और अपने रिश्तेदार होते। उन दिनों में बड़ा बेटा क्रांति नौ वर्ष का था और छोटा बॉबी सात साल का। जब मेरी पत्नी मुलाकात के लिए आती, दोनों बच्चे भी संग आते। मेरी पत्नी सुदर्शना देवी के संग बरनाला से उसका कोई न कोई भाई अवश्य होता या ज्ञानी रघवीर सिंह की पत्नी दयावंती होती। पता नहीं कैसे प्रोग्राम बनता, कृष्ण शास्त्री की पत्नी राम मूरती भी साथ पहुँच जाती। जब वे आते, वे फल भी लाते और घर की रोटी भी। राम मूरती कढ़ी-चावल बनाकर लाती। हमें तो खाने के लिए थोड़ा-बहुत ही मिलता। हम दोनों टैंटों में आया सामान भोग की तरह बाँट देते। कई बार बैरकों वाला कोई साथी भी संग आ जाता। जिस दिन ज्ञानी रघवीर सिंह, कृष्ण शास्त्री और मेरे परिवार वाले आते, वह दिन विवाह जैसा व्यतीत होता। हमारी मुलाकात ड्यौढ़ी में नहीं होती थी, वे बिलकुल हमारे टैंट तक पहुँच जाते। मेरे बच्चों के लिए जेल की रोटियाँ खाना भी पिकनिक मनाने जैसा होता। एक दो बार राम मूरत की पत्नी भी आई थी और ज्ञान चंद शर्मा की पत्नी भी। मुझे अन्दर ही अन्दर बेहद गुस्सा था कि मालेरकोटला से मेरी बहन या मेरा भान्जा कोई भी मिलने नहीं आया था। तपा से न मेरा भाई आया और न ही उसके परिवार में से कोई अन्य। शायद सब मेरी गिरफ्तारी के विरुद्ध थे। मेरा भाई तो शायद इसलिए भी न आया हो कि प्राइवेट स्कूल अध्यापकों के आन्दोलन के समय अम्बाला जेल में मैं उससे मुलाकात करने नहीं गया था। मैं उन दिनों हाई स्कूल, धौला में था और दो बार आकर घर का सारा राशन अपनी भाभी को लेकर दे गया था। थोड़ी तनख्वाह में से एक महीने का राशन लेकर अपने भाई के परिवार को देना, मेरा उनके प्रति सत्कार और सद्भावना का ही सुबूत तो था। जब भाई रिहा होकर आया, तब मैंने उसके संग राशन देकर जाने वाली बात ही नहीं की थी। शायद भाभी ने भी न बताया हो। इसलिए संगरूर जेल में मुझसे न मिलने आने का कारण मेरा अम्बाला जेल में न जाना भी हो सकता है। चलो, यह तो छोटी बात है। रिश्ते-नाते सब लेन-देन से जुड़े हुए हैं। सब गरजों से बँधे हुए हैं। पर दुख की बात तो यह थी कि मेरी पत्नी के बहुत बीमार हो जाने के बावजूद मेरे भाई के घर से किसी के द्वारा दवा-बूटी दिलाना तो एक तरफ रहा, दो महीने किसी ने उस गली की ओर मुँह ही नहीं किया था। बेचारा रमेशर दास आकर पूछताछ कर जाता या बाबू पुरुषोत्तम दास।
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एक दिन मैंने अमरीक सिंह से चक्कियाँ, फांसी वाली कोठरियाँ और फांसी वाला तख्ता देखने की इच्छा प्रकट की। यह इच्छा अन्य साथियों की भी थी। जब मेरे जैसे व्यक्ति को जो देख नहीं सकता, उन चक्कियों की हुमस और बदबू परेशान कर सकती है तो नेत्रवान दर्शकों का क्या हाल होगा ? फांसी वाला तख्ता और फांसी चढ़ाने की प्रक्रिया की कहानी सुनकर कोई साथी डरा नहीं था। स्वतंत्रता आंदोलन के समय फांसी चढ़े शहीदों की कहानियाँ वहाँ जाते समय और वहाँ से लौटते समय सब एक-दूजे को आगे बढ़कर सुना रहे थे।
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राजनैतिक कैदियों और आन्दोलनकारियों और भाँति-भाँति के जरायम पेशा कैदियों की ज़िन्दगी में जितना फ़र्क़ देश की आज़ादी से पहले था, अब उससे भी कहीं अधिक था। उन दिनों राजनैतिक कैदियों और आन्दोलकारियों को कई बार उत्पीड़ित भी किया जाता और मशक्कत भी करवाई जाती। इख़लाकी कैदियों की तो ज़िन्दगी होती ही नर्क से बदतर थी। लेकिन अब हमारे जैसे आन्दोलनकारियों को उत्पीड़न तो एक तरफ, कोई अबे-तबे भी नहीं कह सकता था। पर इसके बावजूद नये लड़कों को महीनेभर बाद सचमुच बेआरामी महसूस होने लगी थी। मीठे स्वभाव वाला साधू राम बांसल और बड़े हौसले वाला जगमोहन कौशल अपने अपने ढंग से नौजवानों का दिल मज़बूत करते, पर ज्ञानी रघवीर सिंह इस गंभीरता को ऐसे तोड़ता कि बेआरामी महसूस करने वाले नौजवान न हँस सकते, न रो सकते। कइयों के लिए तो एक दिन भी पहाड़ जैसा था, पर जिन्होंने 'थैंक यू मि. ग्लैड' जैसा मराठी उपन्यास पढ़ा हुआ था, वे उपन्यास की कहानी में से दिल मजबूत करने वाले कुछ अंश सुनाते। यह तो पता नहीं, यह सुनकर उनका मन टिकता या नहीं, मुझे एक बात का बड़ी शिद्दत से अहसास हुआ कि जेल में यदि कोई तकलीफ़ न भी हो तो भी अकेलापन झेलना हर व्यक्ति के वश की बात नहीं।
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दो बार तो हम चण्डीगढ़ में पेशी भी भुगत आए थे। लेकिन आन्दोलन खत्म होने की कोई रूप-रेखा नहीं बन रही थी, अपितु अम्बाला वाले कुछ साथियों में से अधिकांश के दिल में, इस जेल में शिफ्ट होने के कारण यह बात घर कर गई थी कि पता नहीं रिहाई होगी भी कि नहीं। पता नहीं, मैं किस मिट्टी का बना हुआ था, मेरे लिए जेल में रहना कभी असुविधाजनक नहीं लगा था और मेरी तरह ही बहुत सारे वरिष्ठ साथियों का भी हाल था। अब जबकि जेल से रिहाई होने के पच्चीस साल बाद मित्र सेन मीत का उपन्यास 'सुधार घर' पढ़ा तो महसूस हुआ कि हम तो मानो हॉस्टल में दो महीने बिता कर आए हों। असली नरक जैसी ज़िन्दगी तो इख़लाकी या जरायम पेशा कैदी अभी भी भोग रहे हैं, जैसी अंग्रेजो के राज में कैदी भोगा करते थे। 'सुधार घर' में भिन्न-भिन्न बैरकों के दृश्यों के बारे में पढ़कर आम पाठक तो हिल जाता है। जैसा भ्रष्टाचार बाहर है, वैसा भ्रष्टाचार जेल के अन्दर भी है। पैसे से सब सुविधाएँ जेल में खरीदी जा सकती हैं।
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दिसम्बर के जिस दिन रिहाई के आदेश आए, उस दिन सभी एक-दूसरे को अपने पते देते घूम रहे थे। पतों की एक साझी सूची भी तैयार हुई थी। जेल सुपरिंटेंडेंट से रिहाई संबंधी पत्र लेकर धीरे-धीरे सब बाहर जा रहे थे। आज डयौढ़ी के बाहर पहली बार नौजवानों के हँसी-ठहाकों की खनक और खुशी की कूकें सुन रहा था और मेरे जैसे सब साथी चुपचाप बाहर जा रहे थे। सच बात तो यह है कि मेरे जैसे आन्दोलनकारियों के लिए तो यह जेल नहीं थी, एक हॉस्टल था। हाँ, एक घटिया-सा हॉस्टल, जैस तरह के मध्यम वर्ग से हम संबंध रखते हैं।
(जारी…)

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