समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Saturday, March 31, 2012

आत्मकथा




एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-27(प्रथम भाग)


एक नया मोड़
मैं जेल में से मानो कोई नई शक्ति लेकर लौटा था। मैं स्वयं को भरा-भरा समझता था। शायद इसका कारण यह भी था कि जेल में सब अध्यापक साथियों ने धड़ेबंदी से ऊपर उठकर मुझे मान-सम्मान दिया था। मेरे पास ज्ञान पता नहीं कम था या अधिक, परन्तु जेल में मेरे ज्ञान और भाषणों के कारण मेरा जो प्रभाव बना था, वह मेरी मानसिक ऊर्जा की नींव थी। यद्यपि हमें जेल पीरियड की तनख्वाह नहीं मिली थी और आर्थिक तौर पर मैं कुछ कर्ज़ाई भी हो गया था, पर इसके बावजूद मेरे अन्दर एक अजीब-सी उमंग और उत्साह था। मैं पहले से भी अधिक मस्ती में रहता। सरकारी जबर और स्थानीय गुंडागर्दी के विरुद्ध लड़ने के लिए मैं अपने आप को पहले से अधिक तगड़ा महसूस करने लग पड़ा था। मेरी काफी समय से खत्म हुई आशा को भी बौर लगता महसूस हो रहा था। लगता था मानो जिस इच्छा को मैं कभी का दफ़न कर चुका था, उस इच्छा की पूर्ति साकार रूप में मेरे सामने पड़ी हो। जेल में अक्सर जो भी रैली होती, उसमें मैं साहित्य को लेकर बोलता। विचारधारा की साहित्य-सृजन में भूमिका मेरे भाषण का मुख्य मुद्दा होती। मेरे पहले दो-तीन लेक्चरों का परिणाम यह निकला कि दो एम.ए. पास नौजवान अक्सर ही हमारे वाले टेंट में आ जाया करते। एक ने एम.ए. पंजाबी 58-59 प्रतिशत नंबर लेकर पास की थी और दूसरे की शायद एम.ए. पंजाबी में फर्स्ट डिवीज़न थी। हमारे साथ एक हिंदी का एम.ए. भी था, पर पंजाबी एम.ए. पास साथी जब कभी मेरे पास आते, उनके पास कई सवाल होते। यह शायद मेरी हीनभावना थी कि मैं शुरू में यह समझता था कि नक्सली लड़के मेरी परीक्षा लेने आते हैं, पर धीरे-धीरे मेरा भ्रम दूर हो गया। वे तो बड़े ही अदब से मेरे पास आते और हम काफ़ी समय साहित्य और ख़ास तौर पर पंजाबी साहित्य के बारे में बातें किया करते। इनमें से एक साथी था- बलबीर सिंह मुकेरियाँ।
मेरी उन दिनों सिर्फ़ दो किताबें छपी थीं - 'कणक दा बुक' और 'अज्ज दे मसीहे’। इनमें से बहुत-सी कहानियाँ अख़बारों और पत्रिकाओं में भी छप चुकी थीं। कुछ किताबों की समीक्षा और कुछ खोज निबंध छपे थे और छपे भी अधिकतर उन अख़बारों और पत्रिकाओं में जो या तो कम्युनिस्ट पार्टियों से संबंधित थे या फिर उनका विशुद्ध संबंध नक्सली आन्दोलन से था। मेरी पुस्तकों पर भी और मेरे विषय में भी कुछ पत्रिकाओं, अख़बारों में काफ़ी कुछ छप चुका था। विशेष तौर पर 'कणक दा बुक' किताब तो हर नौजवान, प्रगतिशील पाठक और लेखक ने पढ़ी हुई थी। इसलिए मैं जेल में से यह प्रभाव लेकर लौटा था कि मेरे द्वारा काले किए गए काग़ज़ व्यर्थ नहीं गए। ज्ञानी रघवीर सिंह जेल में मेरा सबसे करीबी दोस्त होने के कारण घरेलू बातों से लेकर अन्य हर किस्म की बातें किया करता। मेरे भविष्य को लेकर चिंतातुर तो ज़िला संगरूर की जेल वाले सारे साथी थे ही, पर ज्ञानी रघवीर तो इस तरह था मानो मेरी नेत्रहीनता उसकी ही कोई अपनी समस्या हो।
जेल में रहकर जो योजना हमने बनाई, वह थी एम.ए. पंजाबी करने की। मेरी यह एम.ए. सन् 1963 में पूरी हो जानी थी, यदि मैं यूँ ही लम्बे चक्कर में न पड़ जाता। 1961-62 में जितना पंजाबी साहित्य मैंने पढ़ा, उतना शायद ज़िन्दगी में इतने कम समय में कभी नहीं पढ़ा था। और पढ़ा भी एम.ए. पंजाबी के पाठ्यक्रम से संबंधित और विस्तारपूर्वक। इस अधिक पढ़ने ने और एम.ए. में यूनिवर्सिटी में पहले या दूसरे स्थान पर रहने के सपने ने मुझे इम्तिहान नहीं देने दिया। अगले वर्ष बी.एड. में दाख़िला ले लिया और उसके पश्चात् स्वयं पढ़ने की समस्या सामने आ गई। बी.एड. की परीक्षा से ही स्पष्ट हो गया था कि मेरी निगाह बहुत कम हो गई है और मैं निरंतर घंटा, दो-घंटा किताब नहीं पढ़ सकता। इस भय से कि आगे नज़र और कम न हो जाए, मैंने पढ़ने का काम बहुत कम कर दिया था, समझो बन्द ही कर दिया था। मैं पढ़ने-लिखने के लिए एक तरह से दूसरे पर निर्भर हो गया था। यह मेरा शक ही नहीं था, एक सच्चाई थी कि मैं तीन घंटे बैठकर पढ-लिख नहीं सकता था। अब तो चिंता ही यह थी कि जितनी निगाह रह गई है, उसे ही कैसे बचाया जाए। रात में तो मैं अँधेरे में स्वयं चल कर जा ही नहीं सकता था।
जेल में रघवीर ने और मैंने एम.ए. पंजाबी करने का जो फ़ैसला लिया था, उसे मैं रद्द नहीं करना चाहता था। दिसम्बर में जेल से रिहा होने के बाद पहला काम जो मैंने किया, वह था पटियाला जाकर एम.ए. पंजाबी, भाग-प्रथम की पुस्तकें खरीदना। रघवीर ने यह वायदा किया था कि स्कूल टाइम के बाद वह मेरे घर आया करेगा। हम दोनों मिलकर पढ़ा करेंगे। वह पढ़कर सुनाएगा, मैं सुनूँगा। जो बात समझ में नहीं आएगी, उस संबंध में बहस किया करेंगे।
रघवीर ने शायद अभी दाख़िला नहीं भरा था। मेरे दाख़िला भरने में भी एक समस्या थी। मेरे दाख़िला फॉर्म को अटेस्ट करवाने और परीक्षा में बैठने वाला काम मुझे ब्लैक में अफीम बेचने जैसा लगता था। लेकिन, मेरा फ़ैसला और मेरा शौक मुझे हर खतरा मोल लेने से रोकता नहीं था, बल्कि उसे उभारता था। मेरे पास ऐसा काम करवाने के लिए जो व्यक्ति था, वह था बाबू पुरुषोत्तम दास सिंगला। मेरे अपने स्कूल का बाबू, स्कूल में मेरा सबसे बड़ा हमदर्द और इन्सानियत की खूबियों से लबरेज़ मनुष्य। फॉर्म अटेस्ट करवाने से लेकर इम्तिहान देने तक उसका दिया हौसला, हमदर्दी और मदद ही मेरी कामयाबी की नींव भी थी और निर्माण भी।
रघबीर रोज़ चार बजे आ जाता। पहले हम चाय पीते। फिर वह मुझे रोज़ाना 'नवां ज़माना' पढ़कर सुनाता। बीच बीच में हम बातें भी करते। स्कूलों की राजनीति से लेकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को खंगाल डालते। अँधेरा होने पर वह चला जाता। इस प्रकार फरवरी का महीना भी बीत गया था, पर अभी तक सिलेबस की किताब मैंने पढ़कर नहीं देखी थी। यह समझ लो, मैंने एक प्रतिशत भी काम नहीं किया था। रघवीर तो यह कहकर अलग हो गया कि गोयल साहब, अगले साल पूरी तैयारी करके परीक्षा देंगे। पर मैं किसको उलाहना देता। लेट फीस के साथ इम्तिहान की दाख़िला-फीस भी मैंने भरी थी। जेल के समय की तनख्वाह मिलने के भी कोई आसार नहीं थे। जेल के दौरान पत्नी की बीमारी पर जो दवाई का खर्चा हुआ था, उसका मैं अभी देनदार था, पर रघवीर से मैं सिर्फ़ यह कह सका, ''ज्ञानी जी, यार अगर इम्तिहान देना ही नहीं था तो मुझे पंगा क्यों दिलाया था।''
''फिक्र न करो गोयल साहब, अगले साल फट्टे चक्क देंगे।'' उसकी बात सुनकर न मैं हँस सकता था, न रो सकता था।
पिछले कमरे में बैठी मेरी पत्नी सुदर्शना देवी ने सारी बात सुन ली थी और हम दोनों को वह 'गपोड़ी' का खिताब देकर रसोई में चली गई थी। मेरे लिए ऐसा था मानो पैदा हुई आस की किरन भी बिलकुल मिट गई हो।
बैठक में बिस्तर पर पड़ा मैं सोच रहा था कि अब क्या किया जाए ? पता नहीं वो कौन-सी अच्छी घड़ी थी कि मेरे सोचते-सोचते रमेशर दास आ गया। रमेशर दास को हम दोनों के इम्तिहान देने का तो पता था, पर उसको यह नहीं पता था कि हमने कितना सिलेबस खत्म कर लिया है। वह तो समझता था कि हमने एक बार तो सिलेबस पढ़ ही लिया होगा। मेरे बताने पर वह भी अवाक् रह गया। मैंने उसको यह भी बताया कि वक्त-बेवक्त सुदर्शना देवी पढ़कर सुनाती है, लेकिन वह भी चार-पाँच घंटे नहीं पढ़ सकती। न उसके पास समय है और न ही उसकी आँखें उसे चार-पाँच घंटे लगातार पढ़ने की अनुमति देती हैं। उसकी भी ऐनक का एक शीशा आठ नंबर का था और दूसरा दस नंबर का। अन्तर केवल यह था कि उसे मेरी वाली बीमारी नहीं थी। डॉक्टरों के बताये अनुसार उसकी ऐनक के इस ऊँचे नंबर के कारण वह ‘हाई माइयोपिया’ की शिकार थी। नंबर और भी बढ़ने की संभावना थी। इसके बावजूद वह मुझे कविता की किताब के दस-बीस पृष्ठ पढ़कर सुना ही देती थी, कभी घंटा, कभी आध घंटा। इस प्रकार वह ढेड़-दो घंटे पढ़ती। कविता की जो पुस्तकें सिलेबस में लगी थीं, वे किताबें मैंने पहले पढ़ रखी थीं। यदि पूरी नहीं तो बीच-बीच में से कुछ कविताएँ अवश्य पढ़ी हुई थीं। इसलिए जब भी वह पढ़ती, मुझे समझने में कोई कठिनाई पेश न आती।
रमेशर दास को मैंने यह समस्या इसलिए बताई थी ताकि कोई हल खोजा जा सके। किसी आम व्यक्ति के समक्ष मैं यह बात कतई नहीं कर सकता था क्योंकि मैं तो सरकार और स्कूल के सब अध्यापकों से छिपकर इम्तिहान दे रहा था। रमेशर दास को स्वयं पढ़ने में बहुत रुचि नहीं थी। इसलिए मैं उसको किसी इम्तिहान में डालना नहीं चाहता था। मैं कभी भी दोस्ती की परख किसी के शौक या दिमागी रुझान को सामने रखकर ही किया करता था और अभी तक मेरी यही आदत बनी हुई है।
रमेशर दास की बड़ी बेटी सलोचना दसवीं की परीक्षा दे रही थी। परीक्षा मार्च के तीसरे हफ्ते में खत्म होनी थी। इसलिए मैं सलोचना के आख़िरी पर्चे के बारे में पूछकर रमेशर दास के साथ यह कार्यक्रम बनाना चाहता था कि वह अपनी लड़की को मेरे इम्तिहानों तक या तो मेरे पास छोड़ दे या वह सवेरे आकर शाम को चली जाया करे। रमेशर मेरी कही बात को अक्सर फरमान ही समझा करता था। कभी कभी वह गीला पीसने भी बैठ जाया करता था और वह भी किसी यूनियन के मसले पर या किसी अध्यापक के किरदार पर। लेकिन घरेलू मामलों पर हमने एक दूसरे की बात कभी नहीं लौटाई थी।
सलोचना के आने से मानो मेरी साँस में साँस आई हो। रहती तो वह लगभग सारा दिन ही थी, पर सारा दिन पढ़कर सुनाना कहाँ आसान काम था। बड़ी मुश्किल से तो बेचारी ने दसवीं के इम्तिहानों से फुर्सत पाई थी। ये दिन उसके अपनी माँ के संग काम में हाथ बँटाने के थे या सहेलियों में बैठकर गप-शप मारने के। मुझे पता था कि वह अपने गंभीर स्वभाव के कारण किसी सहेली के घर नहीं जाती और न ही उसे गप्पें मारने का शौक है, पर अपनी माँ के काम में तो वह सहायक हो ही सकती थी। परन्तु, मैंने यह स्वयं ही सोच लिया था कि अब नीलम और सुनीता भी इम्तिहानों से खाली हो गई हैं, जिस कारण सलोचना के मेरे घर आने से उन्हें कोई कठिनाई नहीं हो सकती। रमेशर दास के मेरे परिवार के संग बने संबंधों के कारण घर में सलोचना की गैर-हाज़िरी से कोई मुश्किल नहीं आने वाली थी और न ही आई। हाँ, सलोचना चार-पाँच घंटे पढ़कर थक जाती, मैं ज़रूरत से ज्यादा उस पर बोझ नहीं डालना चाहता था। अप्रैल के तीसरे सप्ताह मेरे इम्तिहान शुरू हुए थे। इस तरह मुझे पच्चीसेक दिन तैयारी के लिए मिल गए थे।
लगातार ज्ञानी के विद्यार्थियों को पढ़ाने के कारण मुझे कविता की सैकड़ों नहीं हज़ारों तुकें याद थीं - मध्यकालीन काव्य में से भी और आधुनिक कविता में से भी। अंग्रेजी, संस्कृत, हिंदी और पंजाबी के विद्वानों की सैकड़ों कुटेशन्स भी मेरी उंगलियों पर थीं। कविता और गद्य की पाठ्य-पुस्तकों में से आधी से अधिक मेरी पहले ही पढ़ी हुई थीं। एक पेपर पंजाबी साहित्य के इतिहास का था और एक पेपर था भारतीय और पश्चिमी आलोचना का। पंजाबी साहित्य का इतिहास तो मुझे कतई पढ़ने की ज़रूरत नहीं थी। ज्ञानी का पाँचवा पेपर पंजाबी साहित्य के इतिहास का ही होता था और शायद अब भी हो। पश्चिमी और भारतीय आलोचना के सिद्धान्तों में से आधे से अधिक यदि मैं न भी पढ़ता, तब भी काम चल सकता था। इतिहस में से बगैर पढ़े 60 प्रतिशत से अधिक नंबर ला सकता था और आलोचना के पेपर में 50-55 प्रतिशत। इसलिए मैंने इतिहास को छोड़कर बाकी तीनों पेपरों की तैयारी की। इस सच्ची होनहार बेटी के सहारे मैं परीक्षा में बैठने योग्य हो गया था।
बाबू पुरुषोत्तम दास है हालांकि सिर्फ़ मैट्रिक पास, पर उसकी लिखावट मोतियों जैसी है और लिखने की गति भी हवाई जहाज की उड़ान को मात देती है। वह स्वयं ही मेरा 'लिखारी' बना था। दरअसल, मेरी इस एम.ए. का सारा सेहरा ही उसके सिर पर बंधता है। सरकारी रजिंदरा कालेज, बठिंडा में मेरा सेंटर था। पेपर सुबह नौ बजे आरंभ होना होता था। बाबू पुरुषोत्तम दास स्वयं मुझे घर से ले जाता। बस अड्डा बिलकुल स्कूल के साथ था। घर से सिर्फ़ दो मिनट का रास्ता। हम पेपर शुरू होने से पन्द्रह-बीस मिनट पहले ही पहुँच जाते। प्रो. आर.के. कक्कड़ (एस.डी. कालेज, बरनाला) के पर्यवेक्षक के रूप में वहाँ नियुक्त होने के कारण मुझे किसी अच्छी जगह पर बिठाने का प्रबंध भी हो गया था। बिठाया हालांकि बरामदे में ही जाता था, शायद इसलिए कि बिठाने के लिए अतिरिक्त कमरा वहाँ नहीं था। मुझे बोलकर पेपर लिखवाना होता था। इसलिए मेरी सीट अन्य परीक्षार्थियों के संग नहीं लगाई जा सकती थी। हालांकि सुपरिंटेंडेंट ने कुछ उल्टे-सीधे सवाल पूछकर मेरा मूड खराब कर दिया था, पर प्रश्न पत्र पढ़ने पर मैं सोच रहा था कि कौन-सा प्रश्न मैं करूँ और कौन-सा छोड़ूँ। मुझे तो सभी प्रश्न एक जैसे आते थे। सभी दस प्रश्नों में से पाँच प्रश्न करने थे, पर शर्त यह भी थी कि उपन्यास और कहानी भाग में से कम से कम दो-दो प्रश्न अवश्य करने थे। प्रश्नों के जवाब इस तरह थे जैसे कोई शोधपत्र लिखना हो।
मैंने पहले दो घंटे में उपन्यास 'पिउ-पुत्तर' के विषय में दो प्रश्न किए। बाबू हवा की रफ्तार से लिखे जा रहा था और उसने मुझे बताया कि अब सिर्फ़ एक घंटा शेष बचा है और प्रश्न हैं तीन। मैंने उसे बताया कि अपने पास डेढ़ घंटा है। नेत्रहीन होने के कारण आधा घंटा अधिक मिलने से हमें पेपर करने के लिए साढ़े तीन घंटे मिलने थे। 38 पन्ने भर चुके थे। बार बार शीट माँगने के कारण प्रो. कक्कड़ तीन शीटें एकसाथ ही दे गया था। और हम साढ़े बारह बजे तक पर्चा पूरा करके पूरी तरह संतुष्ट थे, दोनों अन्दर से खुशी से भरे हुए। 73 पृष्ठ भरने के कारण मुझे अदभुत खुशी महसूस हो रही थी। यदि कुछ उदासी भी थी, वह थी सुपरिंटेंडेंट के व्यवहार को लेकर। मेरे जैसे एक नेत्रहीन के कारण उसे सेंटर बन्द करने में आधे घंटे का विलम्ब होना था और मैथ के प्रोफेसर के लिए आधा घंटा बहुत कीमती होता है। इस बात का अहसास मुझे पहले स्कूल में भी था और बाद में कालेज में आकर भी हुआ। मैथ, अंग्रेजी और साइंस की ट्यूशन करने वाले प्रोफेसर समय को नोटों में बदलकर देखते थे। आदमी से शायद उन्हें हमदर्दी न हो। मेरे अन्दर इन व्यापारी अध्यापकों के प्रति दिली आदर का अभाव तब भी था और अब भी है। इसमें मेरा कोई कसूर नहीं है। प्रो. कक्कड़ एम.ए. अंग्रेजी गोल्ड-मैडलिस्ट थे। मैंने अपने पेपर में अंग्रेजी की अनेक कुटेशन्स प्रयोग की थीं। हिंदी और पंजाबी के आलोचकों के हवाले भी दिए थे। टैक्स्ट में से भी उदाहरण दिए थे। वह एम.ए. पंजाबी फर्स्ट-क्लास भी था। जब पेपर करके हम बरामदे में से बाहर जा रहे थे, प्रो. कक्कड़ ने मुझे अपनी बांहों में कसकर सीने से लगा लिया था और फिर बाबू जी को भी। वह हमें पहले भी जानता था। उसकी यह टिप्पणी थी कि ज़िन्दगी में ऐसा बढ़िया पेपर वह कभी नहीं कर सका। मेरा हौसला और अधिक बढ़ गया था।
हर पेपर के बाद दो-तीन छुट्टियाँ अवश्य होतीं। सलोचना आती और मुझे पढ़कर सुनाती। अब हम चार घंटों की बजाय छह-सात घंटे भी पढ़ लेते थे। पंजाबी साहित्य का इतिहास तो सिर्फ़ इन दिनों में ही पढ़ा था। पहले पढ़ने का समय ही नहीं मिला था। चारों पेपर बहुत बढ़िया हो गए थे। मैं अपने ज्ञान और परफोर्मेंस तथा बाबू जी की लिखावट की सुंदरता के कारण बहुत आस लगाए बैठा था। फर्स्ट डिवीजन तो समझता था कि जैसे सामने ही पड़ी है, लेकिन सिर्फ़ 57 प्रतिशत नंबर ही आए। सबसे कम नंबर गल्प (फिक्शन) के पेपर में आए केवल 53 और साहित्य के इतिहास वाले पेपर में सिर्फ़ 55। मेरे साथ इस अन्याय के होने का रहस्य दस साल बाद जाकर खुला था। पर मैं निराश नहीं था। मेरे लिए तो बन्द द्वार मुश्किल से खुले थे।
तपा मंडी में और हमारे स्कूल में मेरे पेपर देने के बारे में किसी को मालूम नहीं था। हालांकि बाबू पुरुषोत्तम दास का खुशी की बात करते समय हाज़मा कुछ कमज़ोर होता था, पर उनका भी मैंने पूरी तरह मुँह बाँध दिया था और इस संबंध में सरकारी कठिनाइयों से परिचित होने के कारण बाबू जी अपनी खुशी का आनन्द अन्दर ही अन्दर लेते रहे होंगे।
एक बात जो मेरी पोल खोल सकती थी, वह थी सरकारी मिडल स्कूल, महिता में पढ़ाते साइंस मास्टर गुरचरन सिंह ढिल्लों का मेरे साथ पंजाबी एम.ए. के पेपर देना। गुरचरन को मैंने ही सरकारी मिडल स्कूल, महिता में ज्वाइन करवाया था। तब मैं वहाँ हैड मास्टर था। बरामदे में बैठने के कारण हर परीक्षार्थी, पर्यवेक्षक और अन्य परीक्षा-स्टाफ मुझे पेपर लिखवाते हुए देखने में दिलचस्पी रखता था। कइयों के लिए मेरा पेपर देना एक नया अनुभव था। गुरचरन ने मुझे देख लिया था और पुरुषोत्तम ने गुरचरन को। मैं उसे पक्का कर दिया था कि वह मेरे इम्तिहान देने के बारे में किसी को न बताए और बाबू पुरुषोत्तम ने भी कक्कड़ साहिब का मुँह बाँध दिया था।
(जारी…)

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