''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत
अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल''
इंग्लैंड में एक
शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी
परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से
रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि
इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और
अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ
रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।
साउथाल
हरजीत
अटवाल
हिंदी
अनुवाद : सुभाष नीरव
॥ चवालीस ॥
पाला सिंह की मूंछें अभी भी खड़ी हैं। वह
टेलीविज़न के सामने बैठा सोच रहा है कि कोई बात नहीं यदि मोहनदेव धोखा दे गया। यह
छोटा अमरदेव तो शरीफ़ है। इसका विवाह भी अपनी मर्ज़ी का करेगा। मोहनदेव तो पहले ही
उछलता फिरता था। ऐसा व्यवहार करता था कि ऐसा लगता कि यह हाथ नहीं आएगा, पर अमरदेव उसका सुशील बेटा है।
उसको गुरदयाल सिंह की सलाह भी अच्छी लगती
है कि ज़रूरी तो नहीं कि लड़कों को इंडिया में ही ब्याहा जाए। यहाँ भी तो लड़कियाँ
मिल जाती हैं। इतनी बड़ी अपनी जात-बिरादरी है यहाँ। ये बच्चे यहाँ पैदा हुए हैं और
इंडिया में विवाह करवाने से डरते विवाह से ही इन्कार कर देते हैं। वह बैठा बैठा
दूर तक निगाह दौड़ाता है कि किस परिचित की लड़की विवाह योग्य है और अमरदेव के बराबर
पढ़ी लिखी है। परंतु उसको ऐसी कोई लड़की नज़र नहीं आती। वह सोचता है, क्यों न ‘वास-प्रवास’ में विज्ञापन दे
दे। बहुत सारे रिश्ते आजकल अख़बारों के माध्यम से ही होते हैं। बल्कि आजकल तो
अख़बारें ही एक बड़े बिचौले का काम कर रही है। वह एक दिन अमरदेव से पूछता है-
“क्यों,
विवाह के बारे में
तेरा क्या ख़याल है ? तू
तो कहीं बड़े वाले की राह पर नहीं जाएगा।“
“डैड,
तुम्हारे पास विवाह
के अलावा और कुछ थिंक करने के लिए नहीं ?“
“तुम्हारी माँ अब रही नहीं और तुम दोनों
ब्याह लायक हो, ऐसी हालत में तो तुम्हारे विवाह बहुत पहले
हो जाने चाहिए थे।“
“क्यों ?“
“क्योंकि घर संभालने के लिए औरत की ज़रूरत
होती है। औरत तो अब तुम ही ला सकते हो। मोहन देव तो गया, अब मेरी आस तेरे पर ही है।“
“अपना घर चल नहीं रहा क्या ?“
“चलने को तो चल रहा है, पर इसकी मालकिन नहीं है।“
अमरदेव अपने पिता की बात समझ नहीं पा रहा।
पाला सिंह विस्तार से बताने लगता है-
“इस घर का अब तू मालिक है। बड़ा गया अपनी
राह पर और मनिंदर को ब्याहक़र हम उसके घर भेज देंगे और फिर तू ही रह गया न अकेला।
तेरी वाइफ़ होगी इस घर की मालकिन। सो बेटा, तू जल्दी विवाह करा ले ताकि घर की मालकिन
घर आए।“
“ओ नो डैड, नॉट येट।“
“क्यों ? तेरी उम्र हो गई है
विवाह की और फिर डिग्री भी हो गई।“
“नहीं डैड, मैं मास्टर करुँगा।“
“वो तो तेरी मर्ज़ी है, मास्टर कर या डॉक्टरेट कर, पर किसी छोटी जाति में विवाह नहीं करवाना।
हम इंडिया से नहीं, यहीं लड़की तलाशेंगे।“ पाला सिंह कहता है।
बेटा चुप रहता है। पाला सिंह फिर कहता है-
“लड़की तेरी मर्ज़ी की ही होगी। देखना, ऐसी लड़की खोजूँगा कि सारी उम्र देख देखकर ही भूख उतर जाया करेगी।“
“ब्लडी सेम ओल्ड स्टोरी !“ कहक़हर अमरदेव हँसने लगता है।
पाला सिंह को उसकी हँसी अच्छी लगती है। इस
हँसी में उसे ‘हाँ’
दिखाई देती है। वह
अपनी बेटी मनिंदर के साथ सलाह करने लगता है-
“अब हम अमरदेव का विवाह कर दें।“
“डैड,
जल्दी क्या है ?“
“अब उम्र हो गई उसकी।“
“काम पर लगने दो डैड।“
मनिंदर सयानों की तरह कहती है। उसकी ओर
देखकर उसे नसीब कौर की याद आ जाती है। वह यदि जीवित होती तो बात कुछ और थी। सारे
फिक्र वह खुद करती।
वह जब पब जाता है तो अपने दोस्तों से लड़के
के लिए लड़की तलाशने को कहता है। गुरदयाल सिंह के साथ भी यही परामर्श लेने लगता है।
वह अपनी कल्पना में लाल जोड़ा पहने रसोई में काम करती फिरती एक सुन्दर-सी लड़की
देखने लग जाता है। फिर स्वयं ही हँसता है कि जिसने विवाह करवाना है, उसको शायद कुछ ख़बर भी न हो।
एक दिन अमरदेव आकर बताता है-
“डैड,
मुझे जॉब मिल गई।“
“नाइस ! कहाँ मिली है ?“
“लूटन।“
“वैरी बैड!“
“क्यों ?“
“लूटन तो दूर है। और फिर तेरी पढ़ाई का क्या
बना ?... तू तो कहता था कि मास्टर करनी है।“
“डैड,
साथ साथ किए
जाऊँगा।“
“तू छोड़ इस जॉब को, मास्टर कर पहले। अगर जॉब ही करनी है तो कोई नज़दीक ढूँढ़ ताकि रोज़ घर आ
सके।“
“डैड,
यह जॉब नाइस है। प्रमोशन
के चांस हैं, वेजज़ फॉर्टी-के तक हो जाएगी।“
अमरदेव पूरे उत्साह में बता रहा है। पाला
सिंह का कुछ कहने का मन नहीं होता। वह पूछता है-
“विवाह के लिए ‘वास-प्रवास’ में एड दे दूँ ?“
“नॉट यट डैड, मैं बताऊँगा।“
“तू कब बताएगा ?... जब बाल सफ़ेद हो जाएँगे तब !“
“सून डैड, सून। वैरी सून।
मुझे डिगरी करने दे।“
अमरदेव लूटन में ही रहने लग जाता है। वीक
एंड पर घर आता है। फिर पंद्रह दिन के बाद आने लगता है। वह मनिंदर से कहता है-
“मुझे तो इस लड़के के चाल-चलन ठीक नहीं
लगते।“
“क्या हो गया डैड ?“
“देख,
कितने हफ़्ते हो गए
घर नहीं आया।“
“बिज़ी होगा।“
“फोन कर सकता था।“
“डैड,
मैंने फोन किया था।
ही इज़ ओ के।“
“उसे बोल कि जॉब छोड़ दे, नहीं तो मैं भी लूटन ही आ जाऊँगा।“
कहक़र पाला सिंह
हँसने लगता है। मनिंदर भी हँसती है। वह फिर कहती है-
“डैड,
देख मैं तेरे पास
हूँ न।“
“तुझे तो वैस्ट मनिस्टर यूनिवर्सिटी में
जगह मिल गई, तभी यहाँ है। नहीं तो तूने भी बाहर ही
रहना था और मुझ अकेले को दीवारों से बातें करनी थीं।“
कहने को तो पाला सिंह कह जाता है, पर बाद में पछताता है कि यह बात उसको नहीं कहनी चाहिए थी। वह किसी का
मोहताज नहीं है। वह फिर मूंछ को मरोड़ा देते हुए कहता है-
“बच्चो,
जैसा चाहे करो। ये
बूढ़ा बड़ी कड़ी हड्डी का बना हुआ है।“
वह अमरदेव के बारे में गुरदयाल सिंह से
बात करता है। प्रत्युत्तर में वह कहता है-
“पाला सिंह, तू तो यूँ ही लोहे
का बना घूमता है। लड़के ही हैं साले, जब तक चाहें बाहर रहें, जहाँ मर्ज़ी जाएँ। तू शुक्र मना कि तेरी लड़की अच्छी है।“
“लड़की तो निरी शरीफ़ है बेचारी, घर संभाले फिरती है।“
कहते हुए उसको मनिंदर पर प्यार आने लगता
है। फिर एक दिन वही ख़बर मिल जाती है जिसका उसको डर है, जिसका वह अनमने मन से इंतज़ार कर रहा है। अमरदेव किसी गोरी लड़की के संग
रहने लग पड़ा है। इसलिए घर नहीं आ रहा। उसने लूटन में ही घर ले लिया है। मनिंदर
बताती है-
“डैड,
अमर मारे डर के घर
नहीं आता। उसने गोरी से विवाह करवाना है अब। कल फोन किया था मेरे मोबाइल पर।“
मोबाइल फोन मनिंदर के पास अब भी है। पाला
सिंह क्रोध में मुट्ठियाँ भींचते हुए कहता है-
“उसको कह, मुझे मिले तो सही
एक बार।“
“डैड,
वह डर की वजह से ही
घर नहीं आता।“
उसका दिल करता है कि लड़के को जी भरकर
गालियाँ दे, पर मनिंदर पास में बैठी है। वह चुप रहता
है और टेलीविज़न देखते हुए मूंछों को मरोड़ा देने लगता है।
(जारी…)
No comments:
Post a Comment