“अनुवाद घर” में हम पंजाबी के प्रख्यात लेखक-कवि डॉ. एस. तरसेम की स्व-जीवनी(आत्मकथा) ‘धृतराष्ट्र’ का धारावाहिक प्रकाशन आरंभ कर रहे है। इस कृति का पंजाबी में प्रकाशन ‘युनिस्टार बुक्स प्रा. लि., चण्डीगढ़ द्वारा वर्ष 2009 में किया गया है और इसका हिन्दी में अनुवाद हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार-कवि एवं जाने-माने हिन्दी अनुवादक सुभाष नीरव द्वारा किया जा रहा है। एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा का “अनुवाद घर” में धारावाहिक प्रकाशन करके हमें अपार हर्ष हो रहा है। हम पाठकों से अपेक्षा करते हैं कि वे ‘अनुवाद घर’ में प्रकाशित होने वाले इस आत्मकथा के धारावाहिक चैप्टरों पर अपनी बेबाक राय हमें प्रेषित करेंगे।
-अनुज
व्यवस्थापक –‘अनुवाद घर’
धृतराष्ट्र
- डॉ. एस. तरसेम
चैप्टर-1
आत्म कथन
यह मेरी आत्मकथा का दूसरा भाग है। इसमें मेरे बचपन के बाद की घटनाएं हैं। सूत्र जोड़ने के लिए कहीं कोई घटना बचपन की किसी घटना के साथ भी जा जुड़ती है।
वेद व्यास जी ने धृतराष्ट्र की नेत्रहीनता के बावजूद उसकी समझ और संवेदनशीलता की अनेक घटनाएं महाभारत में दी हैं। लेकिन लोगों के मन में धृतराष्ट्र का जो एक बिम्ब है वह एक खलनायक का है जबकि मेरी समझ के अनुसार महाभारत का कोई भी पात्र न तो निरा गुणों की पोटली है, न ही वह अवगुणों की गठरी। धृतराष्ट्र जन्मजात अंधा अवश्य है पर वह अक्ल का अंधा नहीं। जन्मजात अंग-भंग होने में किसी व्यक्ति का अपना कोई दोष नहीं होता - धृतराष्ट्र का भी नहीं है और मेरा भी नहीं। मैंने कभी नहीं चाहा था कि मैं अपनी इस स्व-जीवनी में धृतराष्ट्र का इस तरह उल्लेख करूँ। परन्तु, एक घटना ही ऐसी घटित हुई जिसने मुझे विवश कर दिया कि मुझे धृतराष्ट्र का जिक्र अपनी इस आत्मकथा में करना पड़ रहा है।
बात कुछ इस तरह हुई कि सन् 2001 में कुछ मित्रों और समर्थकों ने मुझे 'केन्द्रीय पंजाबी लेखक सभा(रजि.)' के प्रधान पद के लिए खड़ा कर दिया। पहले भी मैं इस सभा का तीन बार उप-प्रधान, दो बार महासचिव बना। उस समय भी सबको पता था कि मैं स्वयं लिख-पढ़ नहीं सकता। महासचिव का काम लिखने-पढ़ने से लेकर कई प्रकार के छोटे-बड़े समारोहों में मंच-संचालन का होता है। मैंने जुलाई 1991 से लेकर अक्तूबर 1993 तक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस लेखक सभा के महासचिव के पद को जिस सफलता से निभाया था, उस संबंध में मुझे स्वयं कुछ बताने की आवश्यकता नहीं। केन्द्रीय सभा के सबसे अधिक प्रभावशाली इस पद पर दूसरी बार मुझे सर्वसम्मति से चुना गया था। इस पद की पहली समय-सीमा के बाद भी मुझे सभी प्रमुख लेखक महासचिव के रूप में काम करने के लिए कहते रहे थे। लेकिन, इससे मेरे रचनात्मक कार्य का नुकसान होता था जिसके कारण मैं मना कर देता था। परन्तु इस पद के लिए सर्वसम्मति के लिया गया फैसला मुझे मानना ही पड़ा। इसके पश्चात मुझे प्रधान बनाने के लिए मेरे मित्र और समर्थक जिद्द करने लगे। मैंने कागज भर दिए। मेरे मुकाबले पर गुरशरण सिंह भाजी के कागज भरवा दिए गए। पंजाबी नाटक और रंगमंच में उनकी देन को देश-विदेश में भी मान प्राप्त है, मैं उस योगदान और शोहरत तक आज तक नहीं पहुँच सका।
कागज भरने के बाद केन्द्रीय सभा के लेखक पूरी तरह से दो दलों में विभक्त हो गए और थे भी दोनों धड़ों के अग्रणीय प्रगतिशील लेखक। मैं चाहता था कि भाजी को सर्वसम्मति से प्रधान मान लिया जाए, पर धड़ों के लड़ाई-झगड़े के कारण ऐसा न हो सका। एक प्रगतिशील जो शायद भाजी को बड़ा मज़बूत उम्मीदवार समझता था और पिछले एक वर्ष से मेरे से सहमत नहीं था, उसने हमारे एक नौजवान आलोचक को फोन पर यह कहा- ''यह धृतराष्ट्र तुम लोग हमारे ऊपर मढ़ने लगे हो, तुम्हें और कोई लेखक नहीं मिला।'' यह वो शायर था जो मुझे कभी केन्द्रीय सभा का बहुत सफल महासचिव समझा करता था। प्रधान का पद सबसे ऊँचा पद तो होता है, पर केन्द्रीय लेखक सभा में संगठन की कार्यकारी शक्ति महासचिव को ही समझा जाता है। उस शायर ने टिप्पणी के रूप में मुझे धृतराष्ट्र का प्रतीक बनाया था, जो इस स्व-जीवनी की अंतिका का कारण बनी।
इसके बावजूद कि धृतराष्ट्र की सारी जीवनलीला के संबंध में मैं बहुत कुछ जानता था, मैंने वेद व्यास जी के महाभारत के वे सभी सर्ग और भगवत गीता के उस भाग का धैर्य से अध्ययन किया जो धृतराष्ट्र की समझ और उसकी संवेदना का निष्पक्ष प्रमाण बनता है।
धृतराष्ट्र के किरदार का बिम्ब आम लोगों में जिस तरह का बना हुआ है, उसके समाधान के लिए मैंने दोनों ग्रंथों को जिस तरह पढ़ा है, वह मेरी आत्मकथा की कार्यकारी शक्ति है। नौजवान कथालेखक देश राज काली मेरे धन्यवाद का पात्र है, जिसने भगवत गीता और महाभारत के भाषा विभाग, पंजाब द्वारा प्रकाशित पंजाबी अनुवाद के चुनिंदा भाग मुझे पढ़ने के लिए भेजे। स्व-जीवनी 'छांग्या-रुक्ख' वाले अपने छोटे भाई बलबीर माधोपुरी का भी मैं शुक्रगुजार हूँ जो समय-समय पर मेरी इस आत्मकथा और इसके नामकरण पर मुझे सुझाव देता रहा है।
एस. तरसेम(डा.)
प्राक्कथन/तब से अब
छठी कक्षा में ज्ञानी सुरिंदर सिंह बेदी हमें पंजाबी पढ़ाया करता था। एक दिन उसने मुहावरे लिखवाते समय एक साथ दो मुहावरे लिखवाए - 'उन्नीस इक्कीस का फ़र्क' और 'ज़मीन आसमान का फ़र्क'। उन्नीस इक्कीस का फ़र्क - यह मुहावरा तो हम सबको जल्दी ही समझ में आ गया था। इसका अर्थ लिखवाया गया था- बहुत थोड़ा फ़र्क। ठीक उन्नीस और इक्कीस में सिर्फ़ दो का ही तो फ़र्क होता है। यह फ़र्क बहुत थोड़ा है। लेकिन ज़मीन आसमान का फ़र्क बहुत अधिक है, शायद हिसाब से भी बाहर। कुछ इस तरह के ही अर्थ ज्ञानी जी ने इस मुहावरे के लिखवाए थे।
अब जब कि मैं अपने बचपन की कुछ ऐसी घटनाएं यहाँ अंकित कर रहा हूँ, मुझे 'ज़मीन आसमान के फ़र्क' वाला मुहावरा स्मरण हो आ रहा है। आधी सदी में इतना कुछ बदल जाएगा, मैंने तो क्या पढ़े-लिखे किसी आम व्यक्ति ने भी सोचा तक न होगा। अपने बचपन की कुछ घटनाएं मैं इसलिए दे रहा हूँ ताकि मेरी सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि पाठकों को और स्पष्ट हो जाए और अब जिस परिवर्तन के कारण मैं अकल्पित ज़िन्दगी भोग रहा हूँ, कुछ उससे भी परिचय हो जाए। दस-बारह वर्ष के तरसेम और छिहासठ साल के तरसेम की ज़िन्दगी में क्या फ़र्क है, केवल यह बताना ही मेरा मकसद नहीं। यह फ़र्क मेरे जैसे अगर करोड़ों नहीं तो लाखों भारतीयों की ज़िन्दगी तो ज़रूर देख या अनुभव कर रही होगी। फ़र्क भी कोई आर्थिक या सामाजिक समानता के कारण नहीं घटित हुआ। पूंजीवादी विकास मार्ग में कई निचले वर्गों के लोग या निम्न मध्यमवर्गीय जमात भारतीय विकास मार्ग का यह लाभ ले गई है। उनमें से एक मैं भी हूँ जो उन सुविधाओं का आनन्द ले रहा हूँ जो वैज्ञानिक उन्नति, कारोबार और नौकरी में लगने के कारण मुझे प्राप्त हो गई थीं।
बचपन की अप्राप्तियों और आज की प्राप्तियों में मुझे ज़मीन आसमान का फ़र्क ही लगता है।
मैं दस-ग्यारह साल का होऊँगा। ये वे दिन थे जब बड़े-बड़े घरों में ही साइकिल हुआ करता था। कभी एक-आध राजदूत मोटरसाइकिल धूल उड़ाता और फटफट की आवाज़ करता भी दिखाई दे जाता। स्कूटर उस समय होता ही नहीं था। कभी-कभार ही कोई कार नज़र आती। आज जिस तपा मंडी में एक से बढ़कर एक और रंग-बिरंगी अगर हज़ार नहीं तो कम से कम सैकड़ों कारें अवश्य हैं, मेरे बचपन के दिनों में ऐसा कुछ नहीं था। हमारे जैसे निम्न मध्यवर्गीय (जो असल में निम्न वर्ग ही था) के परिवारों में भी कम ही किसी के पास साइकिल होता था। मुझे और मेरे अन्य मित्रों को साइकिल सीखने का बड़ा चाव था। अत: साइकिल सीखने के लिए हम साइकिलों वाले प्रकाश जोगे की दुकान से साइकिल किराये पर लिया करते। एक घंटे का वह एक आना लिया करता था। हम वह अधिया-सी साइकिल सीखने के लिए उसकी काठी पर बैठ कर रेलवे स्टेशन के एक ओर खाली पड़े ग्राउंड में चले जाया करते। शाम के वक्त यहाँ फुटबाल या हॉकी खेलने के लिए बड़े लड़के आया करते थे। दोपहर में ग्राउंड खाली होता था। यहाँ किसी हादसे का भी खतरा न होता। मेरे संग कभी मेरा दोस्त श्याम हुआ करता और कभी हरी घड़ैलीवाला। हम ग्राउंड के कई कई चक्कर लगाते। अगर साइकिल लड़खड़ाता तो मैं धरती पर पैर टिका लेता। साइकिल रुक जाता। फिर ठीक से हैंडिल को नियंत्रित कर पैडल मारता। पीछे से श्याम या हरी धक्का लगाता। साइकिल के आगे खिसकने के बाद साइकिल को अधिक से अधिक तेज चलाने की कोशिश करता। पहले एक-दो बार चोटें भी खाई थीं, पर बाद में ग्राउंड में साइकिल चलाते समय बिलकुल भी डर नहीं लगता था। एक घंटा जैसे आँख के फेर में गुजर जाता। मैं घंटा पूरा होने से कुछ समय पहले ही साइकिल वाले प्रकाश जोगे को साइकिल लौटा आता।
साइकिल मैंने पाँच-सात बार ही लिया होगा। दो-तीन बार साइकिल पंक्चर भी हुआ था। पंक्चर का वह एक आना और मांगता। मेरे पास तो मुश्किल से जोड़-जाड़ कर रखा एक आना ही होता। दो चार दिन के बाद एक आने का प्रबंध करके साइकिल वाले को पंक्चर के पैसे दे आता। अकेला मैं ही नहीं, मेरे जैसे अन्य लड़के भी उससे साइकिल किराये पर लेकर जाते थे।
आज जब कि मैं छियासठ साल का होकर सरकारी सेवा से मुक्त हो अपने शयन-कक्ष में बैठा ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ तो मुझे गैरज में खड़ी मेरी सैंट्रो कार का अहसास होता है। ब्याज रहित लोन के लालच में यह कार ली थी। अब यह और निम्न मध्यवर्ग के मुलाज़िमों की तरह एक आवश्यकता प्रतीत होती है, दूसरों से भी अधिक- मेरी नेत्रहीनता के कारण। मेरे सात वर्षीय पोते और साढ़े आठ साल की पोती के पास अब एक साइकिल है। यह साइकिल उस अधिया साइकिल से कहीं बढ़िया है, जिसे मैं बचपन में किराये पर लेकर चलाया करता था।
नेत्रहीन होने के कारण मेरे पास दो बोलने वाली घड़ियाँ हैं। ये दोनों जापानी घड़ियाँ हैं। एक पच्चीस सौ रुपये की है जो सिंगापुर जाने वाले किसी व्यापारी से मंगवाई थी। दूसरी बिलकुल इसी तरह की घड़ी नेत्रहीनों के एक संस्थान की तरफ से सम्मान में मिली थी। मेरे दोनों बेटों और दोनों बहुओं के पास भी बहुत-सी बहुमूल्य घड़ियाँ हैं। लेकिन जब मैं दूसरी-तीसरी जमात में था तो मेरे जमातियों में से किसी के पास भी घड़ी नहीं थी। अध्यापकों में भी सिर्फ़ ज्ञानचन्द अध्यापक के पास एक जेबी घड़ी थी। हैड मास्टर आसू राम और लक्ष्मण दास के पास भी जेबी घड़ियाँ थीं। इन हैड मास्टरों की जेबी घड़ियों को मैंने उस समय देखा था जब मैं छठी-सातवीं कक्षा में तपा मंडी के आर्य हाई स्कूल में पढ़ा करता था। शहर के अन्य अच्छे घरों अथवा पढे-लिखे सियाने लोगों में से दस-बीस के पास ही घंड़ियाँ होंगी।
दसवीं के दौरान ग्रुप फोटो खिंचवाने के समय लड़के इधर-उधर से घड़ी मांगकर कलाई पर बांधते थे और अपनी बांह फोटो खिंचवाते समय इस तरह कर लेते थे कि फोटो में घड़ी भी आ जाए। पर अब हर किसी के पास घड़ी है, या जो लोग घड़ियाँ नहीं बांधते, उनके पास मोबाइल फोन हैं। अब तो हर रिक्शावाले और सफाई कर्मचारी के पास मोबाइल फोन है। मेरे बचपन के दिनों में तो मैं घड़ी को उस वक्त ही हाथ लगाकर देखा करता था जब भाई नहाने के लिए गुसलखाने में घुसा होता या एक से ज्यादा घड़ियाँ मेरी कलाई पर उस वक्त होतीं जब ग्राउंड में मेरा भाई, प्रकाश वकील, बाबू राम क्लर्क और क्लब के अन्य खिलाड़ी वॉलीबाल खेल रहे होते और घड़ियाँ मुझे थमा देते।
आज ट्रांजिस्टर और टेप रिकार्ड घरों में तो क्या चरवाहों और भेड़-बकरियाँ चराने वालो के पास भी अक्सर देखने को मिलता है। पंजाब में घर-घर में टी.वी. है। दो-चार नहीं, सौ-पचास चैनल हैं। घर घर में सी.डी या डी.वी.डी प्लेयर हैं। कम्प्यूटर आम हो गए हैं। ई मेल और इंटरनेट से सारी दुनिया से सम्पर्क रखा जा सकता है। जिस तपा मंडी में मैं जन्मा-पला था, वहाँ ये सुविधाएं आम हैं। लेकिन जब मैं सातवीं कक्षा में आया था, तब भी तपा मंडी में तीन-चार रेडियो थे। दूसरी-तीसरी क्लास तक तो सिर्फ रेडियो ही थे। बिजली तब थी ही नहीं। रेडियो के साथ रेडियो जितनी ही बैटरी से रेडियो चलता था। मेरे नाना के भाई जगीरी मल्ल के पोते अर्थात मेरे मामा के बेटे बंत मोड़ां वाले के घर में भी रेडियो था। मुझे मेरा भाई शाम के समय बंत मोड़ां वाले के घर लेकर जाता। वह खबरें सुनने के लालच में ही वहाँ जाता था। अब बड़े बेटे के कमरे में टी.वी. है। मेरे कमरे में इंटरनेट सहित कंप्यूटर है। खबरों के लिए रेडियो है।
बचपन में सुना करते थे कि ऐसे रेडियो भी चल पड़ेंगे जिनमें तस्वीरें भी आया करेंगी। लोग इसे गप्प समझते थे। पर अब यह सिर्फ़ सच ही नहीं, उससे भी कहीं ऊपर की बात प्रतीत होती है। कल को पता नहीं क्या हो जाए! किसी के घर में जाकर रेडियो सुनने वाला तरसेम कहाँ का कहाँ पहुँच गया है, वही नहीं सारी ज़िन्दगी ही बदलती जा रही है। तरसेम तो क्या है, उसने तो अभी हवाई अड्डा देखा ही है। उड़ने का सपना कभी पूरा होगा या नहीं- वह कुछ नहीं कह सकता। लेकिन उसका बड़ा बेटा तो बीस बार हवाई जहाज की सवारी कर चुका है। नेत्रहीन तरसेम को उसके हवाई सफ़र से ही तसल्ली है।
जब मैं दूसरी-तीसरी कक्षा में पढ़ता था, उस समय सिर्फ़ पाँच-सात पक्के आढ़तियों या बंसी रौणक के कारखाने में ही टेलीफोन लगे थे। हमारा बोरिया मल अमर नाथ के यहाँ आम आना-जाना था। वे पक्की आढ़त की दुकान करते थे। उनके यहाँ टेलीफोन भी लगा हुआ था। जब मैं दुकान पर जाता तो किसी न किसी बहाने टेलीफोन को हाथ लगाकर ज़रूर देखता। बहुत बड़ी करामात प्रतीत होती थी उस समय टेलीफोन। पर अब टेलीफोन सिरहाने पड़ा है और परिवार के हर सदस्य के पास मोबाइल फोन भी है।
जिस घर के हर कमरे को महीने-डेढ़ महीने बाद मरम्मत की ज़रूरत पड़ती, टीप और कहगिल(गारे) वाली दीवारों पर दीवाली से पहले कली किया करते थे, उस घर की तो अब वाली यह तीसरी बिल्डिंग(पहिले तपा मंडी की 8 नंबर गली में कर्जा उठाकर बनाया घर और दूसरे इस घर को बेचकर मालेरकोटला की गुरू नानक कालोनी में दो सौ गज में बनाई छोटी-सी कोठी) तीन मंजिला है। लाखों रुपये के बैंक लोन, मेरे बहू-बेटे और स्वयं मेरी जोड़ी सारी कमाई और सेवानिवृत्त होने पर मिले पैसों की आधी से अधिक रकम इस बिल्डिंग के पेट में पड़ गई है। भारत की संसद और न्यायपालिका से लेकर शेष सारी मशीनरी की लापरवाही और कुछ संसद सदस्यों के भाई-भतीजावादी व्यवहार के कारण बड़े पुत्र का जो कॅरिअर किसी अच्छी नौकरी के लेखे लगना था, ओवरएज हो जाने के कारण उसके अस्पताल चलाने के लिए यह बिल्डिंग बनाई गई थी। लेकिन मेडिकल पेशे में चली बड़े स्तर की ठगी-चोरी के कारण एक शरीफ डॉक्टर पुत्र के लिए ही नहीं, उसके परिवार और मेरे लिए भी यह बिल्डिंग अब सूली बन गई है। सोचता हूँ, यह तरक्की किस काम की। जीवन मूल्यों में इतना पतन हुआ है कि ईमानदार और मेहनती आदमी को चाहे वह किसी भी वर्ग का क्यों न हो, हक-सच की ज़िन्दगी जीने का अधिकार नहीं है।
कभी कभी अपना अंधापन इतना बड़ा श्राप प्रतीत होता है कि ज़िन्दगी पर्वत से भी भारी प्रतीत होती है, पर मेरी कलम का सफ़र जहाँ पहुँच चुका है, वहाँ से आगे और चलना किसी बड़े वरदान की ओर संकेत करता है। इसी संकेत के सिर पर ही कमर बांध कर जीने का फैसला किया हुआ है। वैसे भी अंधेरे में ज़िन्दगी गुजारने की आदत बन चुकी है। यह आदत भी एक वरदान ही समझो। लेकिन भारत के ही नहीं, संसार के तीन अरब से अधिक लोगों की गुरबत, बेबसी और मजबूरी के सामने मेरी प्राप्ति मुझे कई बार लाहनतें देती है, क्योंकि यह प्राप्तियाँ निरी व्यक्तिगत हैं। करोड़ों नहीं, अरबों लोग आज रोटी, कपड़े और मकान से वंचित हैं। इस अहसास के साथ मैं कभी इस तो कभी उस संघर्ष के बारे में सोचता हूँ। पर करता कुछ नहीं। बचपन की अभावों भरी ज़िन्दगी में एक पैसे से ली गई पानी की मीठी रंगदार कुलफी जिसे मुँह में अधिक देर तक इसलिए टिकाये रखता था कि कहीं यह जल्दी ही न पिघल जाए, अब कीमती आइसक्रीमों के खाने में मेरी निम्न मध्यमवर्गीय खुदगर्ज सोच के कारण कहीं बर्बाद तो नहीं हो गई- यह सोच कर मेरे शब्द उन सब कमियों-अभावों भरी ज़िन्दगी का जायज़ा लेने लग पड़ते हैं। यह हमारे मध्य वर्गीय बुद्धिजीवी का दुखांत है, कठोर से कठोर यथार्थ। लेकिन यह सब कुछ लिखते समय मुझे मेरा अपना अस्तित्व बहुत निम्न और घटिया महसूस होने लग पड़ता है।
मेरी मेहनत का अंदाजा तो विद्वान और पाठक लगाएंगे, पर एक बात स्पष्ट कर दूँ कि यदि नौकरियों की सीढ़ी चढ़ते समय मेरे दांव न लगते तो शायद मैं आज डॉ. एस. तरसेम न होता। दांव शब्द का प्रयोग मैं इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि पहली सरकारी नौकरी, फिर छंटनी, फिर नौकरी आदि ये सब दांव ही समझो। 1982 में जो एस. तरसेम लेक्चरर के लिए 192 उम्मीदवारों में से न तीन में आया, न तेरह में, वही उम्मीदवार अगले वर्ष 200 के लगभग उम्मीदवारों में से पहले स्थान पर था। इसे अगर दांव न कहूँ तो क्या कहूँ।
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6 comments:
बहुत अच्छी शुरुआत है ।ब्लॉग का काला परिवेश कुछ खटकता है ।
बहुत अच्छी आत्मकथा, उतना ही अच्छा अनुवाद। टैम्पलेट में आधार का रंग वाकई बहुत अधिक गहरा है।
Anj ji, Anuvadghar ek bahut hi achha aur sarahniya kaam hai. Blogs ki bharmar mein ziyadatar log apni apni rachnaon ko hi prakashit karte rahte hain. Aap punjabi ki sampurn kriti (on) ka apne blog- Anuvadghar mein prakashan kiya karenge, yeh hum hindi ke pathakon ke liye bahut hi achha uphar hai. Pahle ank mein aapne Dr.S. Tarsem ji ki aatamkatha ka pahla chapter diya hai, use padhkar puri kitab padhne ko man kar raha hai. Khair aap to ise Anuvadghar par dharavahik chhap hi rahe hain. Subhash Neerav ji ka anuvad bahut badhiya hai. Aapko aur subhash ji ko badhayee.
-Amandeep
हिमांशु जी और बलराम जी, अनुवाद घर ब्लॉग की पृष्ठभूमि का काला रंग हटा दिया गया है। अब जो पृष्ठभूमि में रंग दिया गया है, वह शायद आँखों में न चुभ रहा होगा और अच्छा भी लग रहा होगा।
-अनुज
i have seen the blog first time
biography is worth reading
अनुवाद घर के लिए बधाई. भाई सुबाश नीरव, रूप सिंह चंदेल जी व् बलराम अग्रवालजी के ब्लोग्स से भी अनुवादित साहित्य का आनंद लेते रहते हैं. भाषाई हदों से परे अब सरहदों की ओर जाना है. हर प्रान्त की अपनी भाषा है और उनकी अपनी महत्वता औत सुगंध है. हर भाषाई साहित्य के लिए एक मंच प्रदान हो तो कुछ बात बने. एक खास बात और हमारी सिन्धी प्रान्त न होने की वजह से ज्यादा पीछे रह गई है. आजकल सिन्धी लेखकों की पहचान बनाये रखने के लिए अनुवाद जोर शोर से हो रहा है. अनेकता में एकता का प्रधान परचम ही भारत की पहचान है. इस दिशा में में सक्रियता आणि चाहिए.
शुरुवाती कदम के लिए बहुत मुबारकवाद हो
देवी नागरानी
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