एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा
धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-2
मैट्रिक के बाद
1958 के मार्च महीने में दसवीं की परीक्षा देकर मैं बिलकुल खाली था। भाई द्वारा 'गोयल माडर्न कालेज' बन्द करने और आर्य स्कूल का पंजाबी अध्यापक बन जाने के कारण हमारे पास अब और कोई काम था भी नहीं। आर्य स्कूल से भाई को सिर्फ़ सौ रुपया मिलता। शेष खर्चे पूरे करने के लिए वह ट्यूशनें करता। इसलिए मुझे आगे कॉलेज में पढ़ाने के बारे में विचार तक भी नहीं किया गया था। यहाँ तक कि तपा से केवल 10-12 मील दूर एस.डी. कालेज, बरनाला में भी मुझे दाखिला दिलाने के लिए घर में कभी कोई बात नहीं चली थी। मैं समझ गया था कि अब मुझे कोई छोटी-मोटी नौकरी करनी पडेग़ी और साथ ही भाई की तरह अगर चाहूँ तो प्राइवेट पढ़ाई भी जारी रख सकता हूँ।
उस समय मैं अभी सोलह साल का ही हुआ था। इतनी छोटी उम्र में हमारे इलाके में किसी ने मैट्रिक पास नहीं की थी। इसलिए तपा मंडी में मुझे बड़ा ज़हीन लड़का समझा जाता था। नतीजा आने से लोगों में यह बात और पक्की हो गई कि सचमुच मैं ज़हीन हूँ। सातवीं कक्षा से हटकर अगले वर्ष सीधे मैट्रिक की परीक्षा देना और फिर स्थानीय आर्य स्कूल में फर्स्ट आने वाले लड़कों से भी अधिक नंबर लेने के कारण, भाई के मित्रों और हमारे सभी रिश्तेदारों में मेरी प्रशंसा के झंडे गड़ गए। पर आर्थिक तंगी मेरी योग्यता के सामने जिस तरह पहाड़ बनकर आ खड़ी हुई, उसके चलते भाई ने मुझे प्राइवेट तौर पर ज्ञानी करने के लिए कह दिया।
ट्यूशन करने का सिलसिला तो मैंने मैट्रिक की परीक्षा देने के बाद ही आरंभ कर दिया था। पहली ट्यूशन एक दसवीं के विद्यार्थी की थी। यह ट्यूशन मुझे मेरे मित्र जगदीश गुप्ता ने दिलाई थी। गुप्ता भी उन दिनों में आर्थिक तंगी का शिकार था। छोटी-सी स्टॉल में बसाती की दुकान करता था। मैथ उसका बहुत अच्छा था, पर अंग्रेजी में ढीला था। मेरा उसके पास बैठना-उठना था। क़द में मध्यम होने के कारण सभी उसे पीठ पीछे गिट्टू कहा करते थे। पीठ पीछे मैं भी उसे गिट्टू कह देता था पर सामने मैं उसे बड़े प्यार और सत्कार के साथ बुलाता और वह मुझे। यह पहली ट्यूशन चाओके वाले बिरज लाल के बड़े लड़के वेद की थी। मैं उसे उसके घर जाकर पढ़ाता था। उसका मैथ भी ढीला था और अंग्रेजी भी। कई-कई बार समझाने के बाद भी उसके कुछ पल्ले न पड़ता। समझा-समझा कर मैं थक जाता। सोचता कि यह ट्यूशन छोड़ दूँ। पर महीने में दस रुपये के लालच के कारण मैं दो महीने तक उसके साथ माथापच्ची करता रहा था।
00
26 जून का बहन तारा का विवाह तय हो गया। रिश्ता रामपुरे वाली बहन सीता ने करवाया था। उसका श्वसुर और मेरा मौसा ज्वाला प्रसाद यह रिश्ता करवा कर यूँ समझता था जैसे उसने कोई बहुत बड़ी जंग जीत ली हो। हाँ, बात थी तो जंग जीतने वाली ही। मिड्डू मल, दारी मल बालियांवाली वाले रामपुराफूल के जाने-माने साहूकार थे। बालियांवाली में उनकी झोटे के सिर जैसी अच्छी खासी ज़मीन, रामपुराफूल में आढ़त की दुकान और हमारे होने वाले बहनोई मदनलाल का डी.ए.वी. कॉलेज, जालंधर से ग्रेज्यूएट होना - ये तीन बातें ही हमारे लिए बहुत बड़ी थीं। हमारा तो यूँ ही पर्दा-सा बना हुआ था, अन्दर से हम बिलकुल थोथे थे। इतने बड़े घर से माथा लगाना हमारे वश की बात नहीं थी। पता नहीं, यह मेरी बहन सीता की नम्रता थी या मौसा ज्वाला प्रसाद की मेरे द्वारा की गई सेवा का फल, या फिर कह लो बहन तारा के संजोग, पल्ले कौड़ी न होने के बावजूद विवाह तय हो गया। मदन लाल पढ़ी-लिखी सुन्दर लड़की चाहता था। उसकी मांग के आगे उसके माँ-बाप को झुकना पड़ा। 40-50 हज़ार रुपया लगाने वाले रिश्ते छोड़ कर हमारी बात दस हज़ार में बन गई।
माँ और भाई को तो चिंतातुर होना ही था, मेरी चिंता भी उनसे कोई कम नहीं थी। मैं तब तक कबीलदारी के सारे जंजाल से परिचित भी हो चुका था। करना तो सब कुछ भाई ने ही था। सो, दस हज़ार में से पहली बड़ी रकम तपे वाली दुकान पाँच हज़ार में बाबू राम सुनार के पास गिरवी रख कर हासिल की। कुछ और रकम घर में पड़ी चांदी को तराजू से तौल कर भाई ने अपने सर्राफ साले चमन लाल से प्राप्त की। घोड़ी का चांदी का साज, चांदी का हुक्का, चांदी का बड़ा गड़वा, चांदी के गिलास, थालियाँ, कटोरियाँ, चम्मच - सब विवाह के लेखे लग गए। यह बात मेरी माँ को पता थी, भाई को भी और मुझे भी कि तपे के बड़े-बड़े साहूकार जो लड़के की घोड़ी के समय चांदी का साज और चांदी का हुक्का हमसे मांगने आते थे, उन्हें अब जवाब देते समय हमें कितनी शर्मिन्दगी उठानी पड़ेगी। लेकिन मजबूरी थी। मजबूरी में ही तो माँ को अपने कानों के सोने के दो-ढाई तौले के तुंगल(कर्णफूल) भी उतार कर देने पड़े थे। अब उसके कानों में घर की इज्ज़त को बनाए रखने के लिए तुंगल डाल तो दिए गए, पर वे चांदी के थे, सोने का पानी चढ़े। इतना सब कुछ करने के बावजूद दस हज़ार रुपया पूरा नहीं हुआ था। मौसा ज्वाला प्रसाद ने बगैर मांगे स्वयं ही दो हज़ार रुपये मेरे बहनोई मोहन लाल के हाथ भेज दिए थे।
बी.ए. पढ़ी, सुन्दर-शालीन तारा की शादी में की गई सेवा को बालियाँवाली के लोग मान गए। सत्रह तौले सोना, बढ़िया घड़ी, रेडियो, साइकिल, बाल्टी सैट, कपड़ों के इक्कीस जोड़े लड़की के और सत्रह सास के, और बहुत से छोटे-मोटे तोहफों की कोई कमी नहीं थी। खट(विवाह के समय एक रस्म) पर जब मदन लाल की कलाई पर सोने की चेन वाली घड़ी ताया मथरा दास ने बांधी और भाई ने पार्कर का पैन उसकी जेब में लगाया तो लड़के का बाप देस राज बड़ा खुश था।
26 जून का बहन तारा का विवाह तय हो गया। रिश्ता रामपुरे वाली बहन सीता ने करवाया था। उसका श्वसुर और मेरा मौसा ज्वाला प्रसाद यह रिश्ता करवा कर यूँ समझता था जैसे उसने कोई बहुत बड़ी जंग जीत ली हो। हाँ, बात थी तो जंग जीतने वाली ही। मिड्डू मल, दारी मल बालियांवाली वाले रामपुराफूल के जाने-माने साहूकार थे। बालियांवाली में उनकी झोटे के सिर जैसी अच्छी खासी ज़मीन, रामपुराफूल में आढ़त की दुकान और हमारे होने वाले बहनोई मदनलाल का डी.ए.वी. कॉलेज, जालंधर से ग्रेज्यूएट होना - ये तीन बातें ही हमारे लिए बहुत बड़ी थीं। हमारा तो यूँ ही पर्दा-सा बना हुआ था, अन्दर से हम बिलकुल थोथे थे। इतने बड़े घर से माथा लगाना हमारे वश की बात नहीं थी। पता नहीं, यह मेरी बहन सीता की नम्रता थी या मौसा ज्वाला प्रसाद की मेरे द्वारा की गई सेवा का फल, या फिर कह लो बहन तारा के संजोग, पल्ले कौड़ी न होने के बावजूद विवाह तय हो गया। मदन लाल पढ़ी-लिखी सुन्दर लड़की चाहता था। उसकी मांग के आगे उसके माँ-बाप को झुकना पड़ा। 40-50 हज़ार रुपया लगाने वाले रिश्ते छोड़ कर हमारी बात दस हज़ार में बन गई।
माँ और भाई को तो चिंतातुर होना ही था, मेरी चिंता भी उनसे कोई कम नहीं थी। मैं तब तक कबीलदारी के सारे जंजाल से परिचित भी हो चुका था। करना तो सब कुछ भाई ने ही था। सो, दस हज़ार में से पहली बड़ी रकम तपे वाली दुकान पाँच हज़ार में बाबू राम सुनार के पास गिरवी रख कर हासिल की। कुछ और रकम घर में पड़ी चांदी को तराजू से तौल कर भाई ने अपने सर्राफ साले चमन लाल से प्राप्त की। घोड़ी का चांदी का साज, चांदी का हुक्का, चांदी का बड़ा गड़वा, चांदी के गिलास, थालियाँ, कटोरियाँ, चम्मच - सब विवाह के लेखे लग गए। यह बात मेरी माँ को पता थी, भाई को भी और मुझे भी कि तपे के बड़े-बड़े साहूकार जो लड़के की घोड़ी के समय चांदी का साज और चांदी का हुक्का हमसे मांगने आते थे, उन्हें अब जवाब देते समय हमें कितनी शर्मिन्दगी उठानी पड़ेगी। लेकिन मजबूरी थी। मजबूरी में ही तो माँ को अपने कानों के सोने के दो-ढाई तौले के तुंगल(कर्णफूल) भी उतार कर देने पड़े थे। अब उसके कानों में घर की इज्ज़त को बनाए रखने के लिए तुंगल डाल तो दिए गए, पर वे चांदी के थे, सोने का पानी चढ़े। इतना सब कुछ करने के बावजूद दस हज़ार रुपया पूरा नहीं हुआ था। मौसा ज्वाला प्रसाद ने बगैर मांगे स्वयं ही दो हज़ार रुपये मेरे बहनोई मोहन लाल के हाथ भेज दिए थे।
बी.ए. पढ़ी, सुन्दर-शालीन तारा की शादी में की गई सेवा को बालियाँवाली के लोग मान गए। सत्रह तौले सोना, बढ़िया घड़ी, रेडियो, साइकिल, बाल्टी सैट, कपड़ों के इक्कीस जोड़े लड़की के और सत्रह सास के, और बहुत से छोटे-मोटे तोहफों की कोई कमी नहीं थी। खट(विवाह के समय एक रस्म) पर जब मदन लाल की कलाई पर सोने की चेन वाली घड़ी ताया मथरा दास ने बांधी और भाई ने पार्कर का पैन उसकी जेब में लगाया तो लड़के का बाप देस राज बड़ा खुश था।
''पढ़े-लिखे हैं भाई, सब पढ़े-लिखों वाले काम कर रहे हैं।'' लाला देस राज कह रहे थे।
खट पर झोली में दात डलवा कर दामाद का दादा दारीमल फूला नहीं समा रहा था। उनके बेटों का पहले मोल तो बहुत मिला होगा पर जिस खूबसूरती के साथ बारात की सेवा हुई और विवाह में जो शगन हुए, इस सबने लड़के वालों के दिल में हमारी इज्ज़त दुगनी-चौगुनी कर दी थी। विवाह की सारी योजना भाई के हाथ में थी और बाहर का सारा काम मेरे हाथ में था। घर का सारा काम माँ, भाभी और बहन सीता, कांता और तारा के हाथ में था। उन दिनों सब कुछ रेडीमेड नहीं मिला करता था। आटा, बेसन से लेकर नमक, मिर्च, मसाले तक सब घर में बीन-बानकर पिसाये जाते। कोयले की भट्ठियाँ होतीं। लड़की के ब्याह के लिए एक हफ्ता पहले हलवाई बिठाया जाता। रिश्तेदारों के अलावा जिनका भी विवाह में शगन आता, सबके घर सेर-सेर पक्की मिठाई पहुँचाई जाती।
लड़कियों के विवाह में स्त्रियाँ प्राय: दोहे गातीं- ''नंगे नंगे पैरी साडा......'' जहाँ मैंने बिन्दी लगाकर खाली स्थान छोड़ा है, वहाँ उस आदमी का नाम बोल दिया जाता जो रिश्ते में लड़की का चाचा, ताया, मामा या भाई लगता। मुझे लेकर किसी ने इस तरह का दोहा गाया हो, यह तो याद नहीं पर सचमुच ही मैं 15 दिनों तक नंगे पैर घूमता रहा था। जेठ की धूप में बाजार के 10-15 चक्कर लगते। जूती डालनी मैं जैसे भूल ही गया होऊँ। कहते हैं, जेठ की धूप से डर कर सारे जट्ट साधु बन जाते हैं, पर बनियों का यह कमजोर-सा लड़का अपने बाप की कबीलदारी निभाने के लिए बड़े भाई के साथ जितना भर हाथ बंटा सकता था, उसमें उसने न धूप देखी, न छांव।
लड़कियों के विवाह में स्त्रियाँ प्राय: दोहे गातीं- ''नंगे नंगे पैरी साडा......'' जहाँ मैंने बिन्दी लगाकर खाली स्थान छोड़ा है, वहाँ उस आदमी का नाम बोल दिया जाता जो रिश्ते में लड़की का चाचा, ताया, मामा या भाई लगता। मुझे लेकर किसी ने इस तरह का दोहा गाया हो, यह तो याद नहीं पर सचमुच ही मैं 15 दिनों तक नंगे पैर घूमता रहा था। जेठ की धूप में बाजार के 10-15 चक्कर लगते। जूती डालनी मैं जैसे भूल ही गया होऊँ। कहते हैं, जेठ की धूप से डर कर सारे जट्ट साधु बन जाते हैं, पर बनियों का यह कमजोर-सा लड़का अपने बाप की कबीलदारी निभाने के लिए बड़े भाई के साथ जितना भर हाथ बंटा सकता था, उसमें उसने न धूप देखी, न छांव।
रामपुराफूल वाले मौसा ज्वाला प्रसाद की बिचौलगी में तारा के ब्याहे जाने का हमें एक अल्पकालिक लाभ हुआ था। बहन सीता का पति मोहन लाल जो 1952 में बहन कांता के विवाह के समय मिन्नतें करके लाया गया था और बहन सीता को भेजी गई मिठाई का बड़ा टोकरा ज्वाला प्रसाद के परिवार ने मेरे चाचा कुलवंत राय और हमारे अति नज़दीकी अमरनाथ कोटलेवाले की खुशामदों के बावजूद नहीं रखा था, अब तारा के विवाह में उनके समस्त परिवार का रोल बहुत खुशगवार था। बहन सीता का तपेदिक का रोग हालांकि अन्दर ही अन्दर बढ़ रहा था, पर तारा के विवाह के कारण वह बड़े हौसले में थी। विवाह के लेन-देन में और उससे पीछे अन्य कामकाजों में जुलाई का महीना भी गुजर गया। जब मेरी पढ़ाई की बात चलती तो सुई ज्ञानी करने पर ही आकर अटक जाती। शायद मोहन लाल ने ही गुरबचन सिंह तांघी के साथ मेरे दाख़िले की बात की थी। परीक्षा में मुश्किल से ढाई महीने रहते थे। उन दिनों में तांघी का रामपुराफूल में 'मालवा ज्ञानी कालेज' खूब चलता था। मैट्रिक में आए मेरे नंबरों का पता चलने पर तांघी ने स्वयं मेरे भाई को मोहन लाल के माध्यम से दाख़िला लेने का सन्देशा भेजा था। वह उन दिनों में छह महीनों की फीस 60 रुपये लिया करता था और 3 रुपये यूनिवर्सिटी परीक्षा से पूर्व लेने वाले अपने टेस्ट के। मेरे भाई को और मुझे उम्मीद थी कि मोहन लाल की किताबों की दुकान के कारण तांघी के साथ पड़े लिहाज और मेरे पढ़ाई-लिखाई में योग्य होने को देखते हुए वह हमसे फीस नहीं लेगा। तपा मंडी से रामपुराफूल को उन दिनों कोई बस तो जाती नहीं थी, रेल गाड़ी जाती थी लेकिन ज्ञानी की क्लास लगने से एक घंटा पहले दोपहर वाली गाडी पहुँच जाया करती थी। वापसी वाली गाड़ी जिसे हम उन दिनों चार बजे वाली गाड़ी कहा करते थे, मुझे दौड़कर पकड़नी पड़ती थी। गाड़ी का तीन महीनों का पास शायद 15 रुपये में बन गया था। मैं अपनी दोनों बहनों में से किसी के भी घर में जाकर राजी नहीं था। तारा के घर तो इसलिए नहीं जाता था क्योंकि यह नई-नई रिश्तेदारी थी और मेरे पास ढंग के कपड़े नहीं थे। तीन बार बहन सीता के और दो बार बहन तारा के घर यद्यपि मैं हो आया था। मोहन लाल की दुकान पर कम से कम पाँच-सात चक्कर तो लग ही गए होंगे। पर परीक्षा से पहले दो ऐसी घटनाएं हो गईं जो मेरे लिए बड़ी थीं। पहली यह कि तांघी पता नहीं कब मेरी फीस के 63 रुपये मोहन लाल से ले गया था। दूसरी बात इससे बड़ी थी। मोहन लाल ने तारा के विवाह में दिए पैसे देने के लिए जैसे मुझे धमकी ही दे डाली-
''तब भी दोगे जब लाला फटकार लगाएगा। मेरा नाम तो लेना नहीं, पर गोयल साहब को कह देना, पैसे भेज दे।'' मेरा ख़याल है, यह बात मोहन लाल ने अपने बापू से किए बग़ैर ही मुझे कह दी थी। मौसा का व्यवहार तो मेरे साथ बहुत ही अच्छा था। रामपुराफूल के लोग और नाते-रिश्तेदार लाख उसे सख्त आदमी कहते थे, पर उसने कभी भी मुझे ऊँची आवाज़ में कोई बात नहीं कही थी। वह तो मुझे बड़े प्यार से बुलाता था। जब मैं उनके घर जाता तो कई बार मौसा के सिर की मालिश करता था। वह मेरी बड़ी तारीफ करता। इस सब कुछ के बावजूद तांघी की चालाकी और मोहन लाल की धमकी ने मुझे इतना परेशान किया कि मन करता था कि रेल के नीचे सिर दे कर मर जाऊँ। एक बार इस तरह का मन बना भी लिया था, पर फिर तांघी की कही यह बात स्मरण हो आई -
''फर्स्ट आएगा, देख लेना फर्स्ट !'' इस बात ने मुझे खुदकशी करने से तो रोक लिया, पर तांघी के प्रति मेरे अन्दर गुरू वाले सत्कार का कोई खाना न खुल सका। पढ़ाता वह अच्छा था। अक्सर लेक्चर नहीं देता था, डिक्टेशन दिया करता था। इससे मुझे यह लाभ हुआ कि मेरी लिखने की गति बढ़ गई।
हालांकि आधा सिलेबस मेरे दाखिला लेने से पूर्व तांघी साहब ने पूरा करवा दिया था, पर मुझे इससे कोई बहुत अन्तर नहीं पड़ा था। मैंने स्वयं किताबों के पाठ तथा गाईड पढ़कर सारा सिलेबस पूरा कर लिया था। कुछ नोट्स मैंने पहले से पढ़ रहे छात्रों से लेकर लिख लिए थे। 'बारां वारां' के अलावा मोहन सिंह की 'पंज पाणी', बावा बलवंत की 'बंदरगाह' और ज्ञानी गुरमुख सिंह मुसाफ़िर की 'कावि-सुनेहे', नानक सिंह का 'संगम', सुरिंदर सिंह नरूले का 'पिओ-पुत्तर', नवतेज सिंह की कहानियों की किताब 'देश वापसी' के अतिरिक्त चुनिंदा कहानियों के संग्रह में सुजान सिंह की कहानी 'कुलफी' और डा. गुरचरन सिंह की कहानी 'डुडा', गुरबख्स सिंह की कहानी 'पहुता पांधी' और पन्द्रह के करीब अन्य कहानियाँ और इनके लेखकों के जीवन-वृत्त और कलापक्ष के बारे में मोटी-सी जानकारी मुझे ज्ञानी के समय ही हो गई थी। गार्गी का 'सैल पत्थर', गुरदयाल सिंह फुल्ल का नाटक 'बैंक', सेखों का एंकागी संग्रह 'नाट सुनेहे', तेरा सिंह चन्न का ओपेरा 'लक्कड़ दी लत्त', खोसले का एंकागी 'बेघरे' मुझे यूँ लगता था जैसे कल पढ़े हों। एक पूरा परचा गद्य का था। प्रेम सिंह होती का 'महाराजा रणजीत सिंह', डा. गंडा सिंह का 'पंजाब उते अंग्रेजां दा कब्जा', गुरबख्स सिंह का निबंध संग्रह 'खुल्ला दर' चौथे पेपर में थे। एक किताब और भी थी जो मुझे याद नहीं आ रही। चौथे पेपर का अधिकांश काम आलोचनात्मक नहीं था। अधिकतर प्रश्न पुस्तकों के भीतरी मैटर के सारांश से संबंधित थे। पांचवा परचा 'पंजाबी साहित्य के इतिहास' का था। इसके लिए सिर्फ़ एक ही पुस्तक थी - प्रो. किरपाल सिंह कसेल की 'पंजाबी साहित्य की उत्पत्ति और विकास'। छठा परचा लेख रचना और आम जानकारी का और सातवां परचा संस्कृत का था। अन्तिम दोनों परचे समझो बिना पढ़े ही दिए थे। लेख लिखने का मेरा पहले ही अच्छा अभ्यास था। आम जानकारी के जिस तरह के सवाल थे, उनका ज्ञान मुझे पहले ही समझ लो, ज़रूरत से अधिक था। सातवीं कक्षा में संस्कृत पढ़ने के कारण ज्ञानी में लगी पुस्तक संस्कृत प्रबोध में दिए गए श्लोक और कहानियाँ दो ही दिनों में अमर नाथ शास्त्री ने करवा दिए थे।
ज्ञानी में लगी पुस्तकें जब अब कभी मुझे याद आती हैं तो मुझे अजीब-सा आनन्द आता है। जिन लेखकों के बारे में मैं यह सोचता था कि ये लोग कैसे होंगे, किस प्रकार रहते होंगे और कैसे खाते-पीते होंगे, अब उनमें से अधिकांश को मैंने बहुत करीब से देखा है। बहुतों के संग घर वाला वास्ता है। मुझे यह सब अब एक बड़ी प्राप्ति प्रतीत होती है।
''फर्स्ट आएगा, देख लेना फर्स्ट !'' इस बात ने मुझे खुदकशी करने से तो रोक लिया, पर तांघी के प्रति मेरे अन्दर गुरू वाले सत्कार का कोई खाना न खुल सका। पढ़ाता वह अच्छा था। अक्सर लेक्चर नहीं देता था, डिक्टेशन दिया करता था। इससे मुझे यह लाभ हुआ कि मेरी लिखने की गति बढ़ गई।
हालांकि आधा सिलेबस मेरे दाखिला लेने से पूर्व तांघी साहब ने पूरा करवा दिया था, पर मुझे इससे कोई बहुत अन्तर नहीं पड़ा था। मैंने स्वयं किताबों के पाठ तथा गाईड पढ़कर सारा सिलेबस पूरा कर लिया था। कुछ नोट्स मैंने पहले से पढ़ रहे छात्रों से लेकर लिख लिए थे। 'बारां वारां' के अलावा मोहन सिंह की 'पंज पाणी', बावा बलवंत की 'बंदरगाह' और ज्ञानी गुरमुख सिंह मुसाफ़िर की 'कावि-सुनेहे', नानक सिंह का 'संगम', सुरिंदर सिंह नरूले का 'पिओ-पुत्तर', नवतेज सिंह की कहानियों की किताब 'देश वापसी' के अतिरिक्त चुनिंदा कहानियों के संग्रह में सुजान सिंह की कहानी 'कुलफी' और डा. गुरचरन सिंह की कहानी 'डुडा', गुरबख्स सिंह की कहानी 'पहुता पांधी' और पन्द्रह के करीब अन्य कहानियाँ और इनके लेखकों के जीवन-वृत्त और कलापक्ष के बारे में मोटी-सी जानकारी मुझे ज्ञानी के समय ही हो गई थी। गार्गी का 'सैल पत्थर', गुरदयाल सिंह फुल्ल का नाटक 'बैंक', सेखों का एंकागी संग्रह 'नाट सुनेहे', तेरा सिंह चन्न का ओपेरा 'लक्कड़ दी लत्त', खोसले का एंकागी 'बेघरे' मुझे यूँ लगता था जैसे कल पढ़े हों। एक पूरा परचा गद्य का था। प्रेम सिंह होती का 'महाराजा रणजीत सिंह', डा. गंडा सिंह का 'पंजाब उते अंग्रेजां दा कब्जा', गुरबख्स सिंह का निबंध संग्रह 'खुल्ला दर' चौथे पेपर में थे। एक किताब और भी थी जो मुझे याद नहीं आ रही। चौथे पेपर का अधिकांश काम आलोचनात्मक नहीं था। अधिकतर प्रश्न पुस्तकों के भीतरी मैटर के सारांश से संबंधित थे। पांचवा परचा 'पंजाबी साहित्य के इतिहास' का था। इसके लिए सिर्फ़ एक ही पुस्तक थी - प्रो. किरपाल सिंह कसेल की 'पंजाबी साहित्य की उत्पत्ति और विकास'। छठा परचा लेख रचना और आम जानकारी का और सातवां परचा संस्कृत का था। अन्तिम दोनों परचे समझो बिना पढ़े ही दिए थे। लेख लिखने का मेरा पहले ही अच्छा अभ्यास था। आम जानकारी के जिस तरह के सवाल थे, उनका ज्ञान मुझे पहले ही समझ लो, ज़रूरत से अधिक था। सातवीं कक्षा में संस्कृत पढ़ने के कारण ज्ञानी में लगी पुस्तक संस्कृत प्रबोध में दिए गए श्लोक और कहानियाँ दो ही दिनों में अमर नाथ शास्त्री ने करवा दिए थे।
ज्ञानी में लगी पुस्तकें जब अब कभी मुझे याद आती हैं तो मुझे अजीब-सा आनन्द आता है। जिन लेखकों के बारे में मैं यह सोचता था कि ये लोग कैसे होंगे, किस प्रकार रहते होंगे और कैसे खाते-पीते होंगे, अब उनमें से अधिकांश को मैंने बहुत करीब से देखा है। बहुतों के संग घर वाला वास्ता है। मुझे यह सब अब एक बड़ी प्राप्ति प्रतीत होती है।
ज्ञानी की परीक्षा के लिए सेंटर एस.डी. हाई स्कूल, बठिंडा था। लगभग दो सप्ताह में पेपर खत्म हो गए थे। मालेरकोटले वाले जीजा जी गुज्जर लाल की मौसी की दो बेटियाँ वहाँ रहती थीं। एक हमारे जैसे मध्यम तबके में और दूसरी भोज राज को ब्याही हुई थी। भोज राज थोक कपड़े का व्यापारी था। मेरी बहन कांता के कहने के अनुसार मैं शांती सरूप के घर चला गया। उनका एक बेटा मुझसे बड़ा था और दूसरा छोटा था-रमेश। रमेश की बीवी ही जीजा जी की बहन थी। उसने अपने बेटों समान रखा। पढ़ने के लिए मुझे एक चौबारा दे दिया। पहले दिन जब परचा देने गया तो शगुन के तौर पर मेरे लिए दही-चावल बनाए गए। पहला परचा बहुत बढ़िया हो गया था। पर मेरे पढ़ने के समय जो बात मुझे अन्दर ही अन्दर तंग करती, वह थी मोहन लाल की डांट-फिटकार या फिर तांघी साहब द्वारा मोहन लाल से मेरी फीस के 63 रुपये लेने की बात। जब भी इनमें से कोई एक बात मेरे दिमाग में आ बैठती, मैं किताबें-कापियाँ बन्द करके रख देता। मोहन लाल के स्वभाव से तो मैं पहले ही परिचित था। इसलिए वह बात मुझे कम चुभती थी, पर तांघी साहब का व्यवहार मेरे दिल दिमाग पर जब छा जाता तो मैं बड़ा दुखी होता। कारण यह था कि तांघी ने खुद अप्रैल में एफ.ए. अंग्रेजी का इम्तिहान देना था। अंग्रेजी उसकी बहुत कमजोर थी। मेरी अंग्रेजी के विषय में मेरे भाई ने उसे सब कुछ बता रखा था, जिस कारण वह मुझसे इस बात का फायदा उठाना चाहता था। गाड़ी एक घंटा पहले पहुँच जाने के कारण मैं तांघी के कालेज में पहले पहुँच जाता था। तांघी पहले से वहाँ उपस्थित होता। वह एफ.ए. अंग्रेजी की गाईड खोल लेता। मैं उसे पंजाबी बना बनाकर बताता रहता। बहुत सारे कठिन शब्दों के अर्थ हर प्रश्न के उत्तर के बाद नीचे दिए होते। मैं भी कुछ अर्थ तो वहीं से देखता, पर तांघी साहब की समस्या तो यह थी कि उसका अंग्रेजी का उच्चारण ही गया-गुजरा था। उस बेचारे ने तो सारी पढ़ाई ही प्राइवेट की थी – ‘बुद्धिमान’ और ‘ज्ञानी’, निहाल सिंह रस के 'पंजाब ज्ञानी कालेज' से की थी और अंग्रेजी की मैट्रिक भी खुद ही टक्करें मार-मार कर की होगी। जितना समय मैं वहाँ पढ़ा, तांघी साहब की एफ.ए. की अंग्रेजी पढ़ने में मदद की। इसलिए मुझे आस थी कि वह मुझसे ज्ञानी की फीस नहीं लेगा। चलो, फीस ले भी लेता, पर जिस चालाकी से वह मोहन लाल से 63 रुपये पकड़ लाया था, उसकी वह हरकत मुझे बेहद चुभती रहती थी।
शायद, इन दोनों बातों के कारण मैं दूसरे परचे से पहले अच्छी तरह पढ़ नहीं सका था। दूसरा परचा नाटक का था। बाकी सब कुछ तो ठीक हो गया, प्रसंग सहित व्याख्या के चारों प्रसंग गलत हो गए। बाद वाले पेपरों में मैं सब कुछ भूल भुला कर पढ़ाई में जुट गया। वैसे तो सारे परचे ही बहुत बढ़िया हुए थे, पर संस्कृत का परचा तो मेरी उम्मीद से भी ज्यादा अच्छा हुआ था।
जब कभी भी ज्ञानी पढ़ने और पेपर देने की बात याद आती है तो मैं सोचता हूँ कि अगर मोहल लाल अपमानित करने वाली बात परीक्षा के बाद कह देता और तांघी साहब भी मोहन लाल से फीस लेने की बात न करते तो मेरा दूसरा पेपर कभी खराब न होता। ये दो बड़े-बड़े जख्म हैं जो अभी भी चसकते हैं, पर साथ ही बठिंडे वाली बहन के उस मोह और व्यवहार के लिए सदैव शुक्रगुजार होऊँगा जिसने अपनो की तरह दो हफ्ते अपने घर में रखा। मेरे अच्छे पेपर होने में इस परिवार की निभायी भूमिका हमेशा ताज़ा रहेगी।
दो बातें और जो यहाँ करनी आवश्यक हैं, उनमें से एक बात के संबंध में तो संकेत मैं पहले भी कर चुका हूँ। यहाँ उस बात की गांठ खोल रहा हूँ। अक्सर वापसी के समय मेरी गाड़ी छूट जाती थी। ऐसी स्थिति में बहनों में से किसी एक के घर ठहरने की बजाय मैं रेलवे लाइन के साथ-साथ चल पड़ता था और डेढ़-एक घंटे में मैं घर पहुँच जाता। उस समय दिन के समय 10-15 मील पैदल चलना मुझे कोई कठिन नहीं लगता था। दूसरी बात मास्टर बाबू सिंह और तांघी के अंदरूनी बिगाड़ से संबंधित है। चाहते हुए भी मैं मास्टर बाबू सिंह को मिलने नहीं जाता था। तांघी को यह तो पता था कि मेरा कम्युनिस्टों के साथ मेलजोल है, पर यह नहीं पता था कि मास्टर बाबू सिंह से मेरे अच्छे संबंध है। मुझे भय था कि कहीं मास्टर जी से मेलजोल का तांघी बुरा न मान जाए। इसे यद्यपि मेरी कोई कमीनी हरकत माने, पर यह सब कुछ हो गया था।
ज्ञानी के मेरे दो सहपाठियों के जिक्र के बग़ैर यह अध्याय अधूरा रहेगा। एक था- हेम राज गोयल। वह महिंद्रा कालेज, पटियाला से पढ़ाई छोड़कर ज्ञानी करने लगा था। वह प्रो. प्रीतम सिंह का श्रद्धालू था। प्रो. प्रीतम सिंह की पांडुलिपियाँ एकत्र करने के शौक के बारे में उसने ही हमें क्लास में बताया था। उसे अपने योग्य होने पर भी बड़ा गर्व था। दूसरा था मेरा सहपाठी मदन लाल। वह फूल से आया करता था। बहुत पढ़ता था। वह बताया करता था कि वह सारी-सारी रात ही पढ़ता रहता है। हालांकि तांघी साहब मेरे फर्स्ट आने वाली बात कई बार दुहरा चुके थे, पर मुझे लगता था कि हेम राज फर्स्ट आएगा और मदन लाल सेकेंड। वे दोनों पूरा सैशन तांघी साहब से पढ़े थे। लेकिन जब नतीजा आया तो 'मालवा ज्ञानी कालेज' रामपुराफूल में से फर्स्ट मैं ही था। पंजाब यूनिवर्सिटी में से फर्स्ट आने वाले विद्यार्थी से मेरे सिर्फ़ 10 नंबर ही कम थे और मैं यूनिवर्सिटी में से तीसरे स्थान पर रहा था। मदन लाल पास तो हो गया था पर जो विजय वह प्राप्त करना चाहता था, उसके तो वह आसपास भी नहीं था। हेम राज फेल हो गया था।
अब सोचता हूँ कि अगर दूसरा परचा खराब न होता और आँखें पूरा काम करती होतीं तो शायद मैं फर्स्ट ही आता। प्रसंग सहित व्याख्या वाला प्रश्न ही तो सबसे अधिक दस नंबर दिलाता है।
00
एक बात और। इस बात का अहसास मुझे उस वक्त नहीं हुआ था, कई वर्ष बाद हुआ था। वह यह कि रात के समय पूरा न दिखाई देने का सिलसिला मुझे 10-11 साल की आयु में ही आरंभ हो गया था। उस समय ही मुझे मालूम हुआ कि इस बीमारी को अंधराता कहते हैं। इसलिए मैं रात के समय दीवार पर ऊँचे लगी टयूब की रोशनी में अधिक समय तक पढ़ नहीं सकता था, इसलिए पढ़ने की कमी को मैं दिन के समय ही पूरा कर लेता था। अपनी मंडी में चौथी-पाँचवी कक्षा में पढ़ते समय ही जब मुझे बाहर जाना होता तो चलते चलते मेरी चाल स्वयंमेव मद्धम पड़ जाती। रात में मैं कम ही अकेला बाहर जाता। अगर रात में बाहर जाता भी तो मेरा भाई मेरे संग होता या फिर मेरी माँ। वे मुझे पीछे रह जाने के बारे में अक्सर टोकते रहते। उन दिनों तपा मंडी में आज की तरह बिजली नहीं थी, इसलिए गलियों-बाजारों में टयूब या बल्ब नहीं लगे होते थे। हाँ, हर गली या बाजार के मोड़ पर लकड़ी का एक खम्भा गड़ा होता था, उसके साथ मैटल वाला गैस जला कर रस्सी से बांध कर लटका रखा होता था। उस खम्भे के करीब आकर गैस की रोशनी में मेरी रफ्तार कुछ तेज हो जाती थी।
दसवीं में मैथ का बी पेपर विशुद्ध ज्योमैटरी का होता था। 75 या 76 नंबर के ज्योमैटरी के वे सवाल होते जिन्हें उस समय थीअरम(प्रमेय) कहा जाता था। ऐसे सवालों में अधिकांश काम स्याही से करना होता था। स्याही से लिखना या लिखा हुआ पढ़ना उस समय मुझे बिलकुल भी कठिन नहीं लगता था, पर दो-ढाई घंटे के बाद आँखों के आगे भम्बूतारे(कमजोरी के कारण आँखों के आगे रंग-बिरंगे तारों सा प्रकाश का आना) आने लग जाते। हिसाब के बी पेपर में गलती यह हुई कि मैंने पैंसिल से जो भी चित्र बनाने थे, उन्हें आखिर में बनाने के लिए छोड़ दिया। आँखों के आगे रंग-बिरंगे तारों सा प्रकाश आ जाने के कारण पैंसिल से फीकी लकीरें खींचने और देखने में मेरे सामने अवरोध पैदा हो गया, पर मैं फिर भी समझता था कि ये चित्र ठीक ही बने होंगे। इन दोनों के नंबर शायद 24 या 25 थे। जब अंक तालिका मिली तो पता चला कि हिसाब में मेरे 175 अंक थे। उसी समय मेरा माथा ठनका कि जो ये 24-25 नंबर कट गए हैं, वे पैंसिल से बनाए गए चित्रों के कारण ही कटे होंगे।
जब मालवा ज्ञानी कालेज में हमें विदायगी पार्टी दी गई, उस समय फैसला यह हुआ कि विद्यार्थियों की ओर से प्रिसिंपल गुरबचन सिंह तांघी को मानपत्र भेंट किया जाए। मानपत्र लिखने, शीशे में मढ़वाने और फिर स्टेज पर उसे पढ़ने का कार्य मुझे ही सौंपा गया। मानपत्र पढ़ने के समय दिन छिप चुका था। कमरे में हालांकि 60 या 100 वॉट का बल्ब जल रहा था, पर जब मैं मानपत्र पढ़ने लगा तो नीली स्याही में लिखे मोटे-मोटे अक्षर भी मुझसे पढ़े नहीं जा रहे थे। अगर मानपत्र मैंने स्वयं न लिखा होता तो मेरा जुलूस निकल जाता। लिखते-लिखते वह मानपत्र मुझे जुबानी याद हो गया था, जिसकी वजह से मैंने सारा मानपत्र अंदाजे से ही पढ़ डाला था। किसी को महसूस ही नहीं हुआ कि मानपत्र मैंने अपनी याददाश्त के आधार पर पढ़ा है या लिखे हुए को देखकर।
ज्ञानी के सभी पेपरों में अगर मेरी सीट खिड़की के साथ लग जाती तो मेरे लिए परचा करना आसान रहता। वैसे भी मैं हमेशा मोटा निब और गहरी स्याही पेन में भर कर ले जाता था और पेन में भरने के लिए अपने संग दवात भी। मुझे याद है, दूसरे परचे के समय मैं बीच वाली पंक्ति में बैठा था और आखिरी सवाल के समय भम्बूतारे दिखने के कारण ही मेरे प्रसंग साहित्य की व्याख्या वाले सभी प्रसंग गलत हो गए थे। वैसे भी आँखों की रोशनी की कमी ने दसवीं और ज्ञानी के सभी परचों में मुझे कुछ न कुछ घाटा तो दिया ही होगा जिसका पूरा विस्तार देकर मैं पाठकों की दया का भागी नहीं बनना चाहता।
00
एक बात और। इस बात का अहसास मुझे उस वक्त नहीं हुआ था, कई वर्ष बाद हुआ था। वह यह कि रात के समय पूरा न दिखाई देने का सिलसिला मुझे 10-11 साल की आयु में ही आरंभ हो गया था। उस समय ही मुझे मालूम हुआ कि इस बीमारी को अंधराता कहते हैं। इसलिए मैं रात के समय दीवार पर ऊँचे लगी टयूब की रोशनी में अधिक समय तक पढ़ नहीं सकता था, इसलिए पढ़ने की कमी को मैं दिन के समय ही पूरा कर लेता था। अपनी मंडी में चौथी-पाँचवी कक्षा में पढ़ते समय ही जब मुझे बाहर जाना होता तो चलते चलते मेरी चाल स्वयंमेव मद्धम पड़ जाती। रात में मैं कम ही अकेला बाहर जाता। अगर रात में बाहर जाता भी तो मेरा भाई मेरे संग होता या फिर मेरी माँ। वे मुझे पीछे रह जाने के बारे में अक्सर टोकते रहते। उन दिनों तपा मंडी में आज की तरह बिजली नहीं थी, इसलिए गलियों-बाजारों में टयूब या बल्ब नहीं लगे होते थे। हाँ, हर गली या बाजार के मोड़ पर लकड़ी का एक खम्भा गड़ा होता था, उसके साथ मैटल वाला गैस जला कर रस्सी से बांध कर लटका रखा होता था। उस खम्भे के करीब आकर गैस की रोशनी में मेरी रफ्तार कुछ तेज हो जाती थी।
दसवीं में मैथ का बी पेपर विशुद्ध ज्योमैटरी का होता था। 75 या 76 नंबर के ज्योमैटरी के वे सवाल होते जिन्हें उस समय थीअरम(प्रमेय) कहा जाता था। ऐसे सवालों में अधिकांश काम स्याही से करना होता था। स्याही से लिखना या लिखा हुआ पढ़ना उस समय मुझे बिलकुल भी कठिन नहीं लगता था, पर दो-ढाई घंटे के बाद आँखों के आगे भम्बूतारे(कमजोरी के कारण आँखों के आगे रंग-बिरंगे तारों सा प्रकाश का आना) आने लग जाते। हिसाब के बी पेपर में गलती यह हुई कि मैंने पैंसिल से जो भी चित्र बनाने थे, उन्हें आखिर में बनाने के लिए छोड़ दिया। आँखों के आगे रंग-बिरंगे तारों सा प्रकाश आ जाने के कारण पैंसिल से फीकी लकीरें खींचने और देखने में मेरे सामने अवरोध पैदा हो गया, पर मैं फिर भी समझता था कि ये चित्र ठीक ही बने होंगे। इन दोनों के नंबर शायद 24 या 25 थे। जब अंक तालिका मिली तो पता चला कि हिसाब में मेरे 175 अंक थे। उसी समय मेरा माथा ठनका कि जो ये 24-25 नंबर कट गए हैं, वे पैंसिल से बनाए गए चित्रों के कारण ही कटे होंगे।
जब मालवा ज्ञानी कालेज में हमें विदायगी पार्टी दी गई, उस समय फैसला यह हुआ कि विद्यार्थियों की ओर से प्रिसिंपल गुरबचन सिंह तांघी को मानपत्र भेंट किया जाए। मानपत्र लिखने, शीशे में मढ़वाने और फिर स्टेज पर उसे पढ़ने का कार्य मुझे ही सौंपा गया। मानपत्र पढ़ने के समय दिन छिप चुका था। कमरे में हालांकि 60 या 100 वॉट का बल्ब जल रहा था, पर जब मैं मानपत्र पढ़ने लगा तो नीली स्याही में लिखे मोटे-मोटे अक्षर भी मुझसे पढ़े नहीं जा रहे थे। अगर मानपत्र मैंने स्वयं न लिखा होता तो मेरा जुलूस निकल जाता। लिखते-लिखते वह मानपत्र मुझे जुबानी याद हो गया था, जिसकी वजह से मैंने सारा मानपत्र अंदाजे से ही पढ़ डाला था। किसी को महसूस ही नहीं हुआ कि मानपत्र मैंने अपनी याददाश्त के आधार पर पढ़ा है या लिखे हुए को देखकर।
ज्ञानी के सभी पेपरों में अगर मेरी सीट खिड़की के साथ लग जाती तो मेरे लिए परचा करना आसान रहता। वैसे भी मैं हमेशा मोटा निब और गहरी स्याही पेन में भर कर ले जाता था और पेन में भरने के लिए अपने संग दवात भी। मुझे याद है, दूसरे परचे के समय मैं बीच वाली पंक्ति में बैठा था और आखिरी सवाल के समय भम्बूतारे दिखने के कारण ही मेरे प्रसंग साहित्य की व्याख्या वाले सभी प्रसंग गलत हो गए थे। वैसे भी आँखों की रोशनी की कमी ने दसवीं और ज्ञानी के सभी परचों में मुझे कुछ न कुछ घाटा तो दिया ही होगा जिसका पूरा विस्तार देकर मैं पाठकों की दया का भागी नहीं बनना चाहता।
(क्रमश: जारी…)
00
00
10 comments:
अच्छा प्रयास है। इसे जारी रखें।
-नीता
एक महत्वपूर्ण आत्मकथा . लेकिन इतना लंबा अंश न देकर यदि इसका तिहाई हिस्सा दें तो पाठकों को पढ़ लेने की सुविधा होगी. बेशक इस सिलसिला को जल्दी प्रस्तुत करें. नेट पर इतना लंबा मैटर पढ़ना कठिन होता है. इसके अतिरिक्त सबसे ऊपर ’स्व-जीवनी’ लिखना अनुपयुक्त है जबकि आप इसे आत्मकथा घोषित कर रहे है.
साहित्य में स्व-जीवनी प्रचलित नहीं है. प्रचलित ही का प्रयोग उचित है.
चन्देल
'मुझे याद है, दूसरे परचे के समय मैं बीच वाली पंक्ति में बैठा था और आखिरी सवाल के समय भम्बूतारे दिखने के कारण ही मेरे प्रसंग साहित्य की व्याख्या वाले सभी प्रसंग गलत हो गए थे।'
इसमें--आखिरी सवाल(को हल करते समय अथवा पढ़ते समय जोड़ा जाना चाहिए)के समय भम्बूतारे(इस शब्द को हिन्दी-पट्टी के अनुरूप करें तो कैसा रहे?)दिखने के कारण ही 'मेरे प्रसंग'(ये दोनों शब्द हटने चाहिएँ)साहित्य की व्याख्या वाले ('मेरे' शब्द यहाँ जुड़ना चाहिए)सभी प्रसंग गलत हो गए थे।
यह पैरा मैं मात्र बताने के लिए उद्धृत कर रहा हूँ कि पुस्तक में इस तरह की चीजें ठीक जा सकें तो अच्छा रहेगा। दूसरे, अनुवाद क्योंकि हिन्दी में आ रहा है और हिन्दी में 'आत्मकथा' पूरी तरह प्रचलित,स्वीकृत और उपयुक्त शब्द है तब एक नया उपशीर्षक 'स्व-जीवनी' देने की तुक चन्देलजी की तरह मेरी भी समझ से बाहर है, वह भी 'एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा' के एकदम ऊपर।
प्रिय भाई सुभाष,
'अनुवाद घर' के लिए हार्दिक बधाई. अच्छा लगा. लेकिन बन्धु, इसे केवल पंजाबी से हिंदी तक ही क्यों सीमित रखा है..? इसके इतने अच्छे नाम को यथोचित विस्तार पाने दो, ऐसा मेरा सोच है...
जो भी है, यह यश अर्जित करे, इस कामना के साथ..
अशोक गुप्ता
अनुवाद घर देखा है। बहुत अच्छा लगा है। विस्तृत प्रतिक्रिया बाद में दूँगा। इस महत् कार्य के लिये भी हार्दिक बधाई।
आपका
राजेन्द्र
rajendra gautam
b-226, rajnagar palam, new delhi-110077
ph. +91+11+25362321 mob: +91+9868140469
भाई चन्देल और बलराम जी के सुझाव को स्वीकार करते हुए 'स्वजीवनी' के स्थान पर 'आत्मकथा' शब्द कर दिया गया है। पंजाबी में यह 'स्व-जीवनी' ही है। जहाँ तक बलराम भाई के अनुवाद में कुछ परिवर्तन को लेकर मसला है, उसे अनुवादक सुभाष नीरव ने नोट कर लिया है और पुस्तक की अन्तिम पांडुलिपि तैयार करते समय इस पर वह ध्यान देंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।
-अनुज
krismas ki badhai. anuwadghar v dekha hai. or katha panjab ki to mujhe bahut pasand hai.
Shelley Khatri
shelleykhatri@yahoo.com
आप पंजाबी साहित्य का हिंदी मे अनुवाद द्वारा एक बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं,बधाई स्वीकार करें।
मेरा अनुरोध है मेरी वेबसाइट से कुछ अपनी मनपसंद कहानियों का पंजाबी और अंग्रेजी या अन्य भाषाओं मे अनुवाद कराने की कृपा करें। मेरी कहानियों के कई भाषाओं मे अनुवाद किए गए हैं। आपाकी सूचनार्थ मेरी कहानियां बहुत लोकप्रिय होती हैं। विभिन्न भाषाओं के साहित्य के अनुवाद से आपका अनुवाद- घर वास्तव मे सराहनीय कार्य करेगा।
सकारात्मक उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी।
शुभ कामनाओं सहित,
पुष्पा सक्सेना,पीएचडी
13819 NE 37TH PL
Bellevue,WA 98005
USA
behad sarahniye kaarya, hum hindi-bhashi laabhanwit hote rahenge. shubhkamnayen.
भाषा और संवेदनाएं दिल को भिगो जाती है ...शब्दों की सहजता अच्छी लगती है ...अनवरत लिखतें रहें ...शुभकामनाएं हेँ
Post a Comment