समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

Saturday, April 10, 2010

आत्मकथा



‘अनुवाद घर’ के सुधी पाठकों/व्यूअर्स को पहली बार सम्बोधित होते हुए मुझे एक रोमांच की अनुभूति हो रही है और खुश भी हूँ। ‘अनुवाद घर’ की कमान अनुज कुमार जी ने मुझे सौंप दी है। ब्लॉग की दुनिया में यह मेरा पहला कदम है। पर पहले से बने ब्लॉग के कारण मुझे कुछ अतिरिक्त श्रम नहीं करना पड़ा। मेरा प्रयास रहेगा कि जिस उद्देश्यों के लिए ‘अनुवाद घर’ की स्थापना की गई है, उसे मैं ईमानदारी और लगन से पूरा कर सकूँ। इसमें मेरे पिता का मार्गदर्शन तो है ही, आप सभी सुधीजनों का सहयोग और स्नेह भी बहुत महत्व रखता है। अभी फिलहाल पंजाबी की दो कृतियों का हिंदी अनुवाद ही हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। मैं चाहूँगी कि कुछ और महत्वपूर्ण और उत्कृष्ट पंजाबी कृतियों का हिंदी अनुवाद ‘अनुवाद घर’ में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हो। डा0 एस तरसेम जी की आत्मकथा “धृतराष्ट्र” का प्रकाशन अब माह के हर दूसरे और चौथे शनिवार हुआ करेगा और अटवाल जी के उपन्यास “साउथाल” हर माह के प्रथम और तीसरे रविवार को पोस्ट हुआ करेगा। आपके सुझावों और टिप्पणियों का मैं स्वागत करूँगी।
-दीप्ति नीरव

एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-7(शेष भाग)


जीना पहाड़ों का जीना

जुआर वास के समय सबसे बड़ा लाभ तो यह हुआ कि मुझे जी भरकर साहित्य पढ़ने का अवसर मिला। नानक सिंह, कंवल, गुरबख्श सिंह, सेखों, सुजान सिंह, धीर, विर्क और बहुत सारे अन्य कथा लेखक मैंने यहीं रह कर ही पढ़े। स्कूल की लायब्रेरी में पुस्तकों का भरपूर खजाना था। मैं पाँच-सात किताबें एक साथ लायब्रेरी से निकलवा लाता। दसेक दिन के बाद उन्हें लौटा कर दूसरी ले आता। छुट्टी वाले दिन एक उपन्यास पूरा पढ़ कर उठता। इन सब किताबों के पढ़ने का कारण यह था कि मुझे किसी ने कहा था कि अगर एम.ए. में अच्छे नंबर लेने हैं तो पाठयक्रम में लगे लेखक की सारी किताबें पढ़ो। एम.ए. पंजाबी का सिलेबस मैंने जुलाई-अगस्त में ही खरीद लिया था और अप्रैल 1962 में एम.ए. की परीक्षा भी दे सकता था। पर लेखक की सारी किताबें पढ़ने की दी गई किसी की शिक्षा ने मेरी गाड़ी पटरी से ऐसी उतारी कि मैं एम.ए. पास करने की लकीर पर पुन: अट्ठारह-बीस वर्षों तक न आ सका। हाँ, जुआर में रहकर अस्सी से अधिक पंजाबी की किताबें अवश्य पढ़ लीं। शायद ये किताबें मेरे लेखक बनने में सहायक हुई हों।
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माँ को आए एक महीना हो चुका था। दिल माँ का भी पूरी तरह लग गया था और मेरा भी। पर भाई के पत्र के कारण जनवरी के किसी दिन मुझे तपा जाना पड़ गया। उधर स्कूल टेक-ओवर करने के संबंध में गुरबचन सिंह दीवाना जुआर पहुँच गया। हैड मास्टर ने उसे मेरे बारे में बताया और माँ के बारे में भी। काम खत्म करके दीवाना साहब घर पहुँच गए। माँ के घुटने छुए। रात को उसके ठहरने का प्रबंध स्कूल में ही किया गया था, पर मोह के कारण उसने माँ के पास ठहरने का ही फैसला सुना दिया। आधा काम समाप्त करके वह अगले दिन चला गया। जब मैं वापस लौटा, माँ ने सारी कहानी सुनाई। राम सिंह ने यह कहानी अपने ढंग से सुनाई। हैड मास्टर और बाकी स्टाफ ने अपने ढंग से। दीवाना साहब के आने से हम माँ-बेटे का मान-सम्मान स्कूल में भी और घर में भी बहुत बढ़ गया था।
जब दीवाना साहब दूसरी बार आए, उसने स्कूल को पहले सरकारी तौर पर सूचना दी हुई थी। राज कुमार कपूर जो बढ़िया मुर्गे बनाने की बातें बहुत बार कर चुका था, उसे हमने शाम को स्कूल में ही रोक लिया। मैं भी घर नहीं गया। माँ को बंते के माध्यम से सन्देशा भेज दिया था। घर की निकाली दारू आ गई। राज कुमार की मुर्गा बनाने की कला भी सिर चढ़ कर बोली। साथ में दीवाना साहब कहते रहे-
''तरसेम, हमने नाजायज़ काम कोई नहीं करके जाना।'' पर अगर सारा नाजायज़ नहीं तो आधा नाजायज़ काम तो दीवाना साहब कर ही गए थे। अगर वह इस तरह न करते तो जनता हाई स्कूल जुआर सरकारी हाई स्कूल न बनता। गरमी की छुट्टियाँ होने से पहले ही स्कूल के टेक-ओवर होने के आदेश आ गए थे। मेरे जैसे अनट्रेंड अध्यापकों को अस्थायी तौर पर नियुक्त किया जाना था, जिसके कारण मैंने नौकरी छोड़ कर बी.एड. करने का फैसला कर लिया था। अब यह कह नहीं सकते कि यह मेरे कारण था या मुख्य अध्यापक और प्रबंधकों की सेवा के कारण था अथवा दीवाना साहब की खुली हुई तबीयत के कारण था कि कम से कम हेम राज शर्मा, सेकेंड मास्टर और राम नाथ शर्मा की पक्की सरकारी नौकरी की नींव टिक गई थी।
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माँ के आ जाने के बाद मेरे खाने-पीने का सिलसिला इतना बढ़िया हो गया कि दूध-घी खा-पीकर रूह भर गई। किसी की रोक टोक नहीं थी। किसी की निगरानी नहीं थी। मैं मानो मन का मालिक होऊँ। अण्डों की भुर्जी के अलावा हफ्ते में हम एक दो बार आलुओं का कड़ाह भी बनाते। पहाड़ी देसी घी में बने इस कड़ाह का कोई मुकाबला नहीं था। एक बार माँ ने पेठे का कड़ाह बना कर एक और करामात कर दिखाई थी। बात कुछ इस तरह हुई कि राम सिंह के परिवार ने कोई व्रत रखा हुआ था। व्रत में अनाज़ नहीं खाना था। फल वहाँ कोई मिलता ही नहीं था। उन्होंने पेठे के बड़े-बड़े टुकड़े करके उबाल लिए। आधा पौंना सेर के ये उबले हुए टुकड़े उन्होंने माँ को भी दिए। पता नहीं उन्होंने यह पेठा किस तरह खाया। मैंने छोटा सा टुकड़ा मुँह में रख कर देखा, कतई स्वाद नहीं था। माँ को भी स्वाद नहीं लगा। माँ ने इसे उन्हें लौटाया इसलिए नहीं कि कहीं वे बुरा न मान जाएँ। धार्मिक भावनाओं के कारण उसे बाहर फेंकना माँ के लिए कठिन था। माँ ने क्या किया कि पेठे के इन उबले हुए टुकड़ों का सख्त टुकड़ा उतार दिया। पानी अच्छी तरह निचोड़ कर उबला हुआ पेठा कद्दूकश कर लिया। कड़ाही में घी डाल कर कितनी ही देर उसे भूनती रही। आलुओं के कड़ाह से भी अधिक समय लगाया। आलुओं के कड़ाह की तरह ही चीनी डाली। जब प्लेट में यह कड़ाह परोस कर दिया, यह आलुओं के कड़ाह से भी अधिक स्वादिष्ट था। माँ ने छोटी कटोरी में कुछ कड़ाह डाल कर जब हमीरा को दिया और उसने आगे परसाद की तरह आधा-आधा चम्मच सबको बांटा तो सारा टब्बर दंग रह गया। इसके बाद भी माँ ने कई बार पेठे का कड़ाह बनाया होगा। माँ के लिए पेठे का यह कड़ाह बनाना एक ऐसा सफल तर्जुबा साबित हुआ कि उसके बाद से आलुओं की जगह हमारे घर में पेठे का ही कड़ाह बनने लगा।
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माँ को बंते की माँ ने बताया था कि चिंतपुरनी यहाँ से दस-बारह मील है। उन्हें भी चिंतपुरनी जाना था। माँ पहले ही तैयार थी और मैं भी। उनके कहने पर हम पैदल ही चल पड़े। माँ की बांह कभी कलो पकड़ती, कभी काका। हम सड़क सड़क जाने के बजाय राम सिंह के कहे अनुसार शार्ट कट रास्ते पर चल पड़े थे। अगर उतराई आती तो माँ को लगता कि कहीं वह गिर न पड़े। मुझे यह डर नहीं लगता था। मैं कई बार इन पहाड़ी रास्तों पर आ-जा चुका था। जब चढ़ाई आ जाती तो माँ का साँस फूल जाता। सोटी के सहारे चलने के बावजूद वह थक जाती। कभी रास्ता बहुत तंग होता। दोनों तरफ खड्ड होतीं। डर लगता कि माँ कहीं खड्ड में ही न फिसल जाए। एक स्थान पर राह भी भूल गए थे। छोटे-बड़े गोल-गोल पत्थरों पर चलकर पैर थक गए थे। कहीं कहीं बीच में कोई छोटा-बड़ा चौ आता। हम दोनों माँ-बेटा संभल संभल कर चलते। 'बस, वो आ गया। अब सड़क पर पहुँचने ही वाले हैं' करते-कराते को चार घंटे बीत गए थे। जो रोटी हमें चिंतपुरनी जाकर खानी थी, वह राह में ही एक जगह पानी देख कर खा ली। माँ की हालत को देख कर मैंने निश्चय कर लिया था कि लौटते हुए बस पर आएंगे। भरवाईं वाली सड़क आई तो कहीं जाकर साँस में साँस आई। वहाँ से भी तीन-चार मील तो चलना ही पड़ा होगा और फिर सीढ़ियों का सिलसिला। माता का भवन देखकर माँ ने हाथ जोड़े। सीढ़ियाँ ही सीढ़ियाँ। हमारे जैसे मैदानी बस-मुसाफ़िरों के लिए यह चढ़ाई एवरेस्ट से कम नहीं थी। ''अस्सी चार चौरासी घंटों वाली माता तेरी सदा ही जै...'' के जैकारे सुनने पर माँ के चेहरे पर रौनक आ गई। मेरे अन्दर भी कुछ धार्मिक श्रद्धा जाग पड़ी थी। मेरी यह पहली धार्मिक यात्रा थी। माँ ने बड़ी श्रद्धा से कड़ाही करवायी। भवन (चिंतपुरनी) में छोटी-छोटी घंटियाँ ही घंटियाँ। लोग घंटियाँ भी बजाते और जैकारे भी बुलाते। माँ भी जैकारों में शामिल होती।
''चिंता पूरी करने वाली है सब की। निश्चय लेकर माथा टेकना। तुझसे कुछ नहीं छिपाना माता ने।'' माथा टेकते समय माँ मुझे समझाती रही थी। माँ ने तपा ले जाने के लिए कई खिलौने खरीदे और आमपापड़ भी। लौटते समय वे तो सब उसी राह वापस चले गए, पर मैं और माँ काके को संग लेकर मुबारकपुर चौकी वाली बस चढ़ गए। करीब छह बजे हमें होशियारपुर से आने वाली बस मिल गई और हम लाड़ के बड़े आम के पास बस रुकवा कर उतर गए। काका साथ होने के कारण अंधेरा होने के बावजूद घर पहुँचने में कोई खास दिक्कत नहीं आई। मेरे पास चिंतपुरनी से खरीदी हुई एक मूंठ वाली सोटी भी थी। उसका भी बड़ा सहारा रहा।
माँ लाटां वाली (ज्वालामुखी) भी जाना चाहती थी और कांगड़े भी, पर भाई की चिट्ठी ने माँ के इस प्रोग्राम में विघ्न डाल दिया।
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जुआर की यादों में गुरदर्शन से हुई दोस्ती के जिक्र के बगैर मेरे जुआर वास का यह अध्याय अधूरा रहेगा। पहले गुरदर्शन दर्शन प्रेमी के नाम से छपा करता था। पटियाला जी.ए.एम.एस. करते समय उसकी मुहब्बत जिस लड़की के साथ हुई, बाद में उसके साथ ही उसका विवाह हो गया था, पर वह दर्शन प्रेमी की जगह गुरदर्शन बन गया था। सरकारी नौकरी मिलने के बाद उसकी पहली नियुक्ति कुहाड़ छन्न में हुई। उसके विषय में मुझे जुआर की डिस्पेंसरी वाले वैद्य ने बताया था। कुहाड़ छन्न जुआर से कोई पाँच-छह मील के फासले पर था। कभी वह जुआर आ जाता और कभी मैं कुहाड़ छन्न चला जाता। कवि के तौर पर उसका अच्छा नाम बन चुका था। लेकिन वह आवश्यकता से अधिक जज्बाती था। इधर-उधर लगाने वाला भी था और कानों का कच्चा भी। यूँ ही हरेक पर भरोसा करना उसकी फितरत थी। उसके पीछे लग कर मैं भी कई ऐसे यार बना बैठा था जो ज़िन्दगी में कभी काम नहीं आए। वह शिव कुमार की तरह बढ़िया गीत लिखता और बढ़िया ढंग से गाता। उसके कहने पर ही मैंने भी कुछ रचनाएं अच्छे परचों में भेजीं। कई बार हम दोनों एक ही पृष्ठ पर छपते। उन दिनों में निरंजन अवतार ने 'त्रिंझण' नाम से एक परचा शुरू किया। हम दोनों अब अधिकांश रचनाएं 'त्रिंझण' में ही भेजा करते। रवीन्द्रनाथ टैगोर के कहानी संग्रह 'काबुली वाला' की कहानियाँ मैंने उसके कहने पर ही पंजाबी में अनुवाद करके 'त्रिंझण' में छपने के लिए भेजीं।
हरबीर भंवर के विवाह का कार्ड गुरदर्शन को आया था। वह मुझे भी संग ले गया। शोभा सिंह आर्टिस्ट के शार्गिद हरबीर भंवर से मिलने के आकर्षण के कारण ही मैं गुरदर्शन की बात मान कर उसके विवाह में शामिल हुआ था। उस समय हरबीर अंदरेटे के पास किसी प्राइमरी स्कूल में अध्यापक था और रोज़ शोभा सिंह के पास आ जाता था।
गुरदर्शन तो शीघ्र ही विवाह में आए हरबीर के दोस्तों में घुलमिल गया, पर उनके खाने-पीने का तरीका मुझे बिलकुल ही नहीं भा रहा था। रात को बारात के ठहरने के कारण बहुत से शराबी अपनी मौज-मस्ती में थे और मैं फंसे हुए कौवे की तरह गुरदर्शन के संग जैसे तैसे वक्त गुजार रहा था। बाद में एक और विवाह में जाने के लिए गुरदर्शन ने मुझे कहा, पर मैं तो पहले ही कानों को हाथ लगा बैठा था।
गुरदर्शन की उस समय की दोस्ती उसके निधन तक निभी। उसके एक के बाद एक पाँच बेटियाँ पैदा हुईं। उसने लड़कियों को पढ़ाने के लिए किसी ऐसे स्थान पर तबादला करवाने के लिए कहा जहाँ लड़कियाँ कालेज में पढ़ सकें। मैंने मास्टर बाबू सिंह से कह कर उसकी बदली आलीके में करवा दी, तपा से बमुश्किल पाँच-छह किलोमीटर दूर। लेकिन यहाँ भी उसके इधर की उधर लगाने वाले स्वभाव ने मेरे और उसके रिश्ते को यदि खत्म नहीं किया तो सीमित अवश्य कर दिया। वहाँ से उसके बठिण्डा में तबादला हो जाने के बाद उड़ती-उड़ती ख़बर मिली कि उसे कैंसर है। कैंसर उसके लिए जानलेवा सिद्ध हुआ। जुआर में बने इस मित्र के भोग में भी मैं सम्मिलित न हो सका। परिवार की भी कोई सहायता नहीं कर सका, इस बात का मुझे सदैव अफ़सोस रहेगा।
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मार्च से पहले पहले मुझे चार बार तपा जाना पड़ा। दो बार ऐसा हुआ कि बस जुआर की बजाय मुबारकपुर चौकी पर ही रुक गई, नहिरी भी नहीं गई। यहाँ से जुआर ग्यारह मील था। लाड़ दो मील कम होगा, नौ मील समझो। पूरा चाँद धरती पर अपनी दूधिया रोशनी बिखेर रहा था। टार्च भी मेरे पास थी। मुबारकपुर चौकी में ठहरने का भी कोई प्रबंध नहीं था। दायें हाथ में बैग और उसी हाथ में सोटी थामे मैं नहिरी की ओर चल दिया। चलने में कोई कठिनाई नहीं आई। सड़क बिलकुल साफ़ दिख रही थी। नहिरी में रुकने का इरादा भी त्याग दिया। राह में कहीं टार्च भी नहीं जलानी पड़ी थी। मैं लगभग पौंने घंटे में थड़े वाले उस पेड़ के पास पहुँच गया, जहाँ मैं कई बार सैर करते हुए निकल जाया करता था। राह सारा मेरा जाना-पहचाना था। यहाँ से मैंने पगडंडी पकड़ ली और ढलान की तरफ उतर पड़ा। राह में पानी भी आया पर सावधानी से पैर रखते हुए पुन: पगडंडी पर पहुँच गया। जहाँ कोई पेड़ आ जाता, वहाँ मुश्किल ज़रूर आती। चाँदनी पेड़ के पत्तों पर पड़ती और दूर तक पड़ती परछाइयों के कारण राह दिखाई देना बन्द हो जाता। वहाँ मैं टार्च जला लेता। पेड़ों की इस तरह की रुकावट राह में तीन-चार बार तो आई ही होगी, पर नहिरी में रात काटने की बजाय यह मुश्किल मेरा राह रोक न सकी। हाँ, बाघ का डर कभी-कभी बेचैनी ज़रूर पैदा करता। आख़िर ग्यारह बजे से पहले मैं घर पहुँच गया था। राम सिंह का सारा परिवार भी हैरान था और माँ भी। राम सिंह के बताये अनुसार दस-बारह मील का यह सफ़र तो रात में पहाड़ी लोग भी नहीं करते।
लगभग एक महीने बाद मुबारकपुर चौकी पर फिर करीब साढ़े सात बजे चल कर साढ़े दस के आसपास मैं लाड़ पहुँच गया था। उस दिन भी चन्द्रमा के उजाले और टार्च के साथ साथ पिछले अनुभव ने शुरू से अन्त तक मेरा हौसला बनाये रखा। मेरी दिलेरी की यह बात राम सिंह और बंते ने सारे इलाके में घुमा दी थी। हाँ, मुझे भी लगता है कि यह मेरी दिलेरी ही थी कि मैंने अपनी आँखों की रोशनी की कमी के बावजूद दो बार रात में पैदल इतना लम्बा सफ़र तय किया था। इसका लाभ मुझे यह हुआ कि मुझे यह अंदाजा हो गया कि मेरी नज़र रात में कहाँ और कैसे काम करती है।
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साइंस को छोड़ कर शेष सभी विषयों में पढ़ाने की सामर्थ्य के कारण मैट्रिक की परीक्षाओं में विद्यार्थियों के साथ जाने की मेरी भी डयूटी लगा दी गई। सेंटर जुआर से कोई पन्द्रह किलोमीटर दूर गरली नाम का एक पहाड़ी कस्बा था। गरली ब्यास दरिया के किनारे स्थित था और था भी बड़ा रौनक वाला कस्बा। सराय पहले ही बुक करवा ली गई थी। तीन कमरे विद्यार्थियों के लिए और एक कमरा मेरे लिए था। किशनू रसोइया साथ था। जिस अध्यापक का भी पेपर होता, वह पेपर से एक दिन पहले आता और रात में विद्यार्थियों को घंटा दो घंटा पढ़ाता। जिस विषय के अध्यापक नहीं आ सके थे, उनके पेपर करने का ढंग-तरीका मैंने समझाया। वैसे भी विद्यार्थी आवश्यकता पड़ने पर मेरे पास मेरे कमरे में कुछ न कुछ पूछने के लिए आते ही रहते। सुबह और शाम का समय मैंने ब्यास दरिया के किनारे जाने के लिए निश्चित किया हुआ था। सराय से दरिया डेढ़-दो किलोमीटर की दूरी पर था। दोनों ओर कुछ ऊँचे-ऊँचे दरख्त और हरी-भरी झाड़ियाँ थीं। जब कोई अध्यापक आया होता तो सैर के लिए वह मेरे संग जाता। सेकेंड मास्टर जो मेरे साथ पहले भी काफी खुल चुका था, गरली आकर ब्यास दरिया के किनारे कुछ ऐसा खुला कि जिस बात को मैं अश्लील समझा करता था, वह अब मुझे अश्लील नहीं लगती थी। शाम के वक्त ठंडी हुमकती हवा में उसने चुटकुलों की झड़ी लगा दी। बहुत से चुटकुले जिन्सी संबंधों का कथा रूप थे। हँस-हँस कर मेरी कमर दोहरी हो गई। चुटकुले भी उसने अकबर-बीरबल, महाराजा रणजीत सिंह, गांधी, जिन्ना, सरदार पटेल, मास्टर तारा सिंह, माउंट बेटन और चर्चिल आदि को पात्र बना कर सुनाए। कोई हिसाब का मास्टर चुटकुलों का भी माहिर हो सकता है और अश्लील समझी जाने वाली हास्यरसी घटनाएं असल में अश्लील नहीं समझी जानी चाहिएं, ये दो धारणाएँ मेरे मन में सेकेंड मास्टर के चुटकुलों ने दृढ़ता से बिठा दीं।
परीक्षा के बीस दिन विवाह जैसे व्यतीत हुए। दरिया किनारे की लहरों के ये खूबसूरत नज़ारे आज भी मेरे स्मृति में रचे-बसे हुए हैं।
पता नहीं, यह गरली का मोह था या अपने आप को सबसे अच्छा अध्यापक कहलाने की इच्छा कि परीक्षा समाप्त कर स्कूल पहुँचते ही हैड मास्टर का अगला आदेश भी मान लिया। अगले दिन छोटी कक्षाओं की परीक्षाएं शुरू होनी थीं। साइंस मास्टर दिन की फरलो मारने के बावजूद आते हुए कागज के दो रिम होशियारपुर से नहीं ला सका था। गरली से करीब ऐसी कोई जगह नहीं थी जहाँ कागज मिल सके। गरली जाने की किसी भी अध्यापक ने हामी नहीं भरी। साढ़े नौ के आसपास हम गरली से वापस आए थे। हैड मास्टर ने बड़ी ही विन्रमता से यह काम मेरे जिम्मे लगा दिया था। माँ से मिले हुए भी बीस दिन हो गए थे। फिर भी, पता नहीं क्यों मैं हैड मास्टर को मना नहीं कर सका। अड्डे पर पहुँचा, बस जा चुकी थी। चौदह-पंद्रह मील का रास्ता क्या होता है, यह सोच कर मैं पैदल ही चल पड़ा। दोपहर एक बजे गरली पहुँचा। सराय वाले पंडित जी से मिला। पिछले बीस दिन के बने संबंधों के कारण ही जैसे मैं उसके घर का सदस्य बन गया होऊँ। उसने दोपहर की रोटी खाने के लिए मुझे मना लिया। कागज खरीद कर जब बस अड्डे पर आया, जुआर को जाने वाली बस दसेक मिनट पहले ही जा चुकी थी। शाम वाली बस तभी जाती थी जब सवारियाँ पूरी हों। ठहरने को तो मैं पंडित जी के पास ठहर सकता था पर कंधे पर कागज के रिम रख कर चलना ही उचित समझा। मरी हुई-सी धूप थी, ठंडी हवा थी। साथ में एक पहाड़ी लड़के के मिल जाने के कारण रास्ता मुझे कठिन नहीं लगा। वह लड़का भी वहाँ परीक्षा देकर गया था। मैंने उसे पहचाना नहीं था पर उसने मुझे पहचान लिया था। एक दो वाक्यों के आदान-प्रदान के बाद कागज के रिम अब मेरे कंधे पर नहीं, उस लड़के के कंधे पर थे। बल खाती, कभी हल्की चढाई और कभी उतराई वाली सड़क मानो मेरे पैरों को लग गई हो। आदर-भाव से भरपूर वह लड़का मेरे ना-ना कहने पर भी गाँव रक्कड़ से भी दो-ढाई मील आगे तक कागज उठाये मेरे साथ ही रहा। करीब साढ़े छह बजे तक मैं जुआर स्कूल में पहुँच गया था। हैड मास्टर दफ्तर में बैठा मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। जब हैड मास्टर को मैंने सारी कहानी बताई, तो उसने मेरी प्रशंसा करने वाला फार्मूला दोहराना आरंभ कर दिया। सामने से जौंढू हलवाई से पेड़े और चाय मंगवाई और अहसान के नीचे दबा हैड मास्टर खाने-पीने के बाद मेरे साथ ही चल पड़ा और राह में पड़ते अपने घर की ओर मुड़ते हुए हाथ मिला कर कहने लगा-
''ज्ञानी जी, अब आराम करो दो चार दिन घर में। हमने तो माता जी को भी कष्ट दिया, जिस बेटे के साथ वे परदेस में आए हैं, तुम्हें उनकी आँखों से दूर रखा। बस, नौवीं के पंजाबी के पेपर वाले दिन चक्कर मार जाना।''
जब घर पहुँचा, दिन बिलकुल छिप चुका था। माँ सचमुच उदास थी। अगले दिन जो चिट्ठी मिली, उसने हम दोनों को ही गम में डुबा दिया था। ताया के छोटे बेटे हेमराज की मौत हमारे लिए एक बड़ा सदमा थी। माँ तपा जाने के लिए उतावली थी। बंते के हाथ मुख्य अध्यापक को रुक्का भेज कर हम अगले दिन ही तपा के लिए चल पड़े थे।
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माँ तो तपा में ही रह गई। अभी 'काणां-मकाणां'(मृत्यु के बाद सहानुभूति प्रकट करने की रस्म) जानी थीं। मेरा भी मन था कि मैं भी मकाणों वाले दिन साथ जाऊँ, पर भाई ने जो प्रोग्राम बनाया उसके अनुसार मैं तीसरे दिन जुआर के लिए चल पड़ा। रोटी-पानी का वही पुराना सिलसिला। मैं राशन ला कर दे देता, पकी पकाई रोटी मिलने लग पड़ी। बंता पेपर देकर अपने भाई के पास चला गया। कुछ दिन पश्चात् हमीरा को भी लक्ष्मण आकर ले गया। मेरा राज़दान उप-वैद्य राज कुमार कपूर भी नौकरी छोड़ कर चला गया था। स्कूल भी पेपरों के बाद सुनसान सा हो गया था। बस, इस समय यदि मेरा कोई सहारा था तो वह थीं किताबें। लायब्रेरी की सबसे अधिक पंजाबी की पुस्तकें मैंने मार्च से मई महीने में ही पढीं। कुछ दिन जालंधर बिता कर बंते के लौट आने पर हमारा इधर-उधर घूमने-घुमाने का भी चक्कर बना रहता।
एक बार हम दोनों हमीरा की ससुराल भी गए, पर मैंने जो सोच कर चढ़ाई-उतराई और खाइयों वाला बीस मील का सफ़र तय किया था, उसकी मेहनत मेरे काम न आई। एक रात वहाँ रहे भी। मेहमानों की भांति उन्होंने सेवा भी की, पर इस सेवा का ज़रा भी आनन्द नहीं आया।
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जून माह से छुट्टियाँ होनी थीं। जुलाई में बी.एड. के दाख़िले होने थे। जुलाई से ही स्कूल 'टेक ओवर' हो जाना था। मुझे अस्थायी तौर पर पंजाबी टीचर की पोस्ट तो मिल सकती थी, पर अनट्रेंड होने के कारण स्थायी नियुक्ति की कोई संभावना नहीं थी। इसलिए बी.एड. में दाख़िला लेने का निश्चय कर मैं नौकरी छोड़ आया लेकिन छुट्टियों का आधा वेतन उन्होंने मुझे शायद दो कारणों से दे दिया। एक तो यह कि मैं उनके बहुत काम आया था और दूसरा यह कि गुरबचन सिंह दीवाना अभी भी उप मंडल शिक्षा अधिकारी था। उससे स्कूल वालों को अभी भी कई काम पड़ने थे। इसलिए वे मुझसे बनाकर रखना चाहते थे।
'जीना पहाड़ों का जीना' - जो गीत मैंने रेडियो पर सुना था, उस ज़िन्दगी का कुछ हिस्सा मैंने भी जीकर देख लिया था, पर जो याद मुझे आज भी उन्मत्त कर देती है और अभी भी मेरे पैर जुआर की ओर जाने को उत्सुक रहते हैं, उसका कारण है - लक्ष्मी की सुन्दरता और हमीरा की मुहब्बत।
मैं तीन बार फिर जुआर गया। उसका उल्लेख आगे करूँगा।
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कोई ज़रूरी नहीं कि सुन्दर चेहरा ही मनुष्य को याद रहता है और मर्द को किसी सुन्दरी की सूरत। कुछ ऐसे चेहरे भी होते हैं जिनका भोलापन और कलाकारी किसी की ज़िन्दगी का ख़जाना बन जाती है। जुआर में मेरी उपस्थिति के पहले दिन वाला वह काला-सा, छोटे मुँहवाला लड़का जो नहिरी से मेरा सामान उठाकर मुझे स्कूल तक ले गया था, मेरी स्मृतियों में आज तक अंकित है। सेवादारी में उसका कोई मुकाबला नहीं था। पढ़ाई में बहुत अच्छा था और बड़ों की सेवा आदि करने में भी। वह जहाँ भी हो, खूब फले-बसे।
.एक तेली मुसलमान का लड़का था, छठी कक्षा में पढ़ता था। वह कमाल का गाता था। मद्धम कद और चपटे नयन-नक्श वाला वह बच्चू भी मुझे बहुत याद आता है। उसका एक गीत तो मैंने बीस-पच्चीस बार सुना ही होगा और उसके कुछ बोल तो मुझे अभी तक याद हैं :-
दिन चढ़ने जो आ ही गया मुन्नूआं
उठ ना स्कूले वे जाणा
वे मुन्नूआं उठ ना मदरसे वे जाणा।

हौरू तां पढ़-पढ़ अफसर बणि गए
तिंजो करनैल बणाणा
वे मुन्नूआं तिंजो जरनैल बणाणा।

कुछ अन्य पहाड़ी गीत मैंने अपने कांगड़ा और नदौण वास के दौरान लड़के-लड़कियों से सुने, उन गीतों के बारे में आगे बात करूँगा।
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एक दिन रात में बंते ने जो हरकत की, वह उस समय तो मुझे कुछ अजीब लगी। अपना बिस्तर छोड़कर वह मेरे साथ आ लेटा था और वह चाहता था कि मैं उसके साथ वह सबकुछ करूँ जो लड़के आपस में करते हैं। लेकिन बाद में बी.एड. करते समय मुझे इस हरकत में कुछ भी अजीब या नाजायज़ महसूस नहीं हुआ। चौदह-पंद्रह वर्षीय लड़के को किसी के साथ समलिंगी रिश्ते में बंधने को मनोविज्ञान की पुस्तकों में एक स्वाभाविक रुचि बताया गया था। इस रुचि को कुरुचि में बदलने वाले कुछ बड़ी उम्र के लोगों के संबंध में मैं बहुत कुछ सुन चुका था। इस तरह के एक व्यक्ति से मेरा वास्ता भी पड़ा था पर मैं अपनी कामवासना को इस हद तक काबू में रखने में तो सफल रहा ही कि एक अध्यापक होते हुए किसी बच्चे अथवा किशोर को इस कीचड़ में सनने नहीं दिया। बड़े होकर मुझे यह अहसास हुआ कि ज़िन्दगी में यह भी मेरी एक प्राप्ति है।
जो लोग खच्चर-रेहड़े की सवारी के आदी हो जाते हैं, वे गाड़ी चढ़ना भूल जाते हैं। कई बार जिनकी गाड़ी छूट जाती है, वे फिर खच्चर-रेहड़े की तलाश करते हैं। पर याद रखो कि रेहड़ा रेहड़ा ही होता है और गाड़ी गाड़ी ही। गाड़ी यदि अपनी हो तो फिर बात ही क्या ! गाड़ी भी अगर एक ही ड्राइवर के हाथ में रहे, तभी ठीक है।
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जब स्कूल के 'टेक ओवर' की बात चली और यह भी पता चला कि अनट्रेंड टीचरों को स्कूल के सरकारी होने पर स्थायी तौर पर नहीं रखा जाएगा तो मेरे अन्दर ट्रेड यूनियन वाला कीड़ा पता नहीं कहाँ से जाग पड़ा कि मैंने ज़िला कांगड़ा और कुल्लू के सभी प्राइवेट स्कलों के कहीं से पते एकत्र किए, कुछ अनट्रेंड अध्यापकों के नामों की सूचियाँ प्राप्त कीं और सबको 'हिली एरिया अनट्रेंड टीचर यूनियन' नामक संस्था बनाने की सूचना पोस्टकार्डों द्वारा दे दी। मीटिंग का दिन भी सुनिश्चित कर दिया। बीस से अधिक अनट्रेंड टीचर आ गए। बाकायदा संस्था का चुनाव कर लिया गया। सरकार से पत्र-व्यवहार का सिलसिला भी शुरू हो गया। अखबारों में ख़बरें भेजीं। उन दिनों में अंग्रेजी ट्रिब्यून, हिंदी का शायद वीर अर्जुन या वीर प्रताप, पंजाबी की अकाली पत्रिका और रणजीत ही चलते थे। सभी अख़बारों में ख़बरें भेजीं। जब ख़बर ट्रिब्यून में लगी तो कुछ और अनट्रेंड अध्यापकों ने भी मुझसे सम्पर्क कायम किया। शायद कुछ पल्ले पड़ भी जाता अगर मैं जनता हाई स्कूल, जुआर की नौकरी न छोड़ता। बाद में पता चला कि मेरे आ जाने के पश्चात् यूनियन अपने आप ही खत्म हो गई थी।
(जारी…)
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4 comments:

Sanjeet Tripathi said...

shukriya is kisht ka bhi link bhejne ke liye. padh raha hu, dar-asal har kisht me tarsem sahab ek alag hi anubhav karwa baithte hai, jaise is kisht me to alag alag kai anubhav hai.....

padh raha hun.........

सुरेश यादव said...

आत्मकथा बहुत हि सशक्त रुप में प्रस्तुत की गई है बधाई

vijay kumar sappatti said...

aapka shukriya , aapka ye prayaas bahut hi accha hai , is se hame dusri bhaashao me likha acha sahitya padhne ko mil paa raha hai ..

meri dil se badhyi aapko aur lekhak ko ...

abhaar

vijay
-pls read my new poem at www.poemsofvijay.blogspot.com

अलका सिन्हा said...

दीप्ति,
तुम्हारा यह प्रयास अच्छा लगा. ख़ुशी हुई देखकर कि अब पंजाबी लेखकों को पढ़ना - समझना सुलभ होगा. उम्मीद करती हूँ कि अगले चरण में हिंदी क्लासिक्स भी पंजाबी लेखकों के लिए सहज उपलब्ध होंगे. इस सेतु निर्माण के लिए शुभकामनाएं!
-- अलका सिन्हा