समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Sunday, May 2, 2010

पंजाबी उपन्यास



''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


॥ तीन ॥

उसके मन में आता है कि राजा राज भोज के सामने से एक चक्कर लगा कर आए। बचपन में वह अंधेरे से बहुत डरा करता था। उसका चाचा उसे जानबूझ कर अंधेरे में ले जाता और बताता कि अंधेरे में डरने-डराने वाली कोई बात शै नहीं है। दौड़ना छोड़ कर वह चलने लगता है। एलेग्जेंडरा रोड से होता हुआ वूलवर्थ के सामने जा निकलता है। ब्राडवे अभी भी व्यस्त है। लोग वैसे ही चल-फिर रहे हैं। समय हालांकि अधिक हो गया है पर अभी भरपूर रोशनी है। वह ब्राडवे से बायीं ओर मुड़ जाता है। राजा राज भोज रेस्टोरेंट के सामने आ खड़ा होता है। रुक कर अच्छी तरह देखता है। वह स्वयं से कहने लगता है कि क्या है यहाँ जो उसे डरा रहा है। कुछ भी नहीं है। उसे लगता है कि उसका मन अब कुछ मजबूत हो रहा है। वह खुश है। वह सोचता है कि साल भर का बिज़नेस खराब हो गया इस रेस्टोरेंट का। बहुत शिखर पर था इसका व्यापार। इसके बन्द हो जाने से दो अन्य नए रेस्टोरेंटों को खुलने का अवसर मिल गया है।
ट्रैफिक लाइट पर स्थित पब जिसे उसका असली नाम भुला कर लाइटों वाला पब कहा जाता है, की ओर देखता हुआ वह बत्ती पार कर लेता है। उसे सिगरेट की तलब हो रही है और बियर की भी। वह गिलास भरवा कर बैठने की जगह तलाशने लगता है। सामने से अंकल पाला सिंह हाथ हिलाता दिखाई देता है। वह उसकी ओर चल देता है। वह चाहता तो नहीं कि पाला सिंह के पास बैठे क्योंकि ऐसा करने पर वह सिगरेट नहीं पी सकेगा। उसके बैठते ही पाला सिंह कहता है -
''जोगिंग करके आया लगता है, पसीने में तर है।''
''हाँ अंकल।''
''मैंने भी वालीबाल खेला है जवानी में, तेरा डैडी भी साथ होता था। क्या हाल है हमारे यार का ?''
''अंकल, भापा जी मौजें मारते हैं, सरपंच बने फिरते हैं।''
''चक्कर नहीं लगाता इधर का ?''
''मानते नहीं, कहते हैं, तुम ही आकर मिल जाया करो, हम यहाँ अपने गाँव में ही ठीक हैं।''
''जग्गे, बात तो उसकी ठीक है, जब वहीं सब ठीक है तो बेगाने मुल्कों में भटकने की क्या ज़रूरत है। देख ले, ज़िन्दगी कितनी कठिन है यहाँ।''
जगमोहन 'हाँ' में सिर हिला कर बियर का बड़ा-सा घूंट भरता हुआ गिलास रख देता है। सिगरेट की तलब बहुत तेज हो रही है। पाला सिंह फिर कहता है-
''जग्गे, कभी घर का चक्कर लगा लिया कर, तेरी अंटी याद करती रहती है।''
''अंकल, आऊँगा किसी दिन।''
कुछ देर बाद पाला सिंह कहता है-
''यह देख, साधू के साथ क्या हुआ। हमारे साथ ही आया था, इक्ट्ठे ही गत्तेवाली फैक्टरी में काम करते रहे हैं, पर वह मर्द का बच्चा निकला, असली मर्द !''
कहते हुए वह मूंछें ऐंठने लगता है। बियर का गिलास खत्म करते हुए फिर कहता है-
''इसी तरह की जाती है इज्ज़त की रखवाली, उफ्फ नहीं की साधू ने...।''
उसने दोनों मूंछें खड़ी कर रखी हैं। जगमोहन के अन्दर कुछ डूबने लगता है। वह जल्दी में अपनी बियर खत्म करके बहाना बनाकर उठ खड़ा होता है और पब से बाहर आकर सिगरेट सुलगा लेता है। दीवार के साथ पीठ टिकाकर लम्बे-लम्बे कश खींचता फिर धीरे-धीरे लेडी मार्गेट की राह पर हो जाता है। वह ऐसे चलता है मानो बहुत थका हुआ हो। बड़ी मुश्किल से घर पहुँचता है। मूड बदलने की कोशिश करता घर में प्रवेश करता है।
मनदीप अधिक कुछ कहे बग़ैर खाना ले आती है। किरन और जीवन को नींद आ रही है। मनदीप उन्हें बैड पर लिटा आती है। वापस आकर कहने लगती है-
''जैग, कल मेरी शॉपिंग करा दो।''
''ब्राडवे पर जाना और ले आना जो लाना है।''
''यहाँ साउथाल ब्राडवे पर थर्ड क्लास माल है। मुझे किसी स्टोर में शॉपिंग करनी है। हंसलो चलें। ब्रैंटक्रास या फिर आक्सफोर्ड स्ट्रीट। यहाँ कोई ढंग की चीज़ मिलनी है, बताओ कब चलें ?''
''कल, परसों जब मर्जी।''
जगमोहन कह रहा है। उसका मन बहस करने को नहीं कर रहा। नहीं तो वक्त बर्बाद करने का गिला करता और बड़े स्टोरों की मंहगाई के बारे में कुछ कहता। मनदीप उसके चुपचाप मान जाने से खुश है। वह फिर कहती है-
''जैग, यू श्योर कि मेरे बाद बच्चों को संभाल लोगे ?''
''क्यों, मुझे क्या है ? इन्हें स्कूल ही भेजना है, खाना हमको मैकडानल्ड है या कंटकी, कपड़े ही रेड्डी करने हैं, डोंट यू वरी।''
बैड पर लेटते ही मनदीप कहती है-
''कहते हैं कि साधू सिंह को सजा नहीं होने वाली।''
''क्यों ?'' गुस्से में बोलता वह उठ कर बैठ जाता है। मनदीप कहने लगती है-
''ओ हो... मैंने तो यूँ ही कहा, आज काम पर बातें हो रही थीं कि कोई गवाह जो नहीं है, उसके ब्वॉय फ्रेण्ड का पता नहीं, किधर भाग गया। रेस्टोरेंट वाले भी कह रहे हैं कि हमें कुछ नहीं पता।''
''पर जब साधू सिंह खुद गिल्टी प्लीड किए जा रहा है।''
''कहते हैं, ऐसे कानून नहीं मानता। हो सकता है उसका माइंड पूरी तरह ठीक न हो शायद।''
''बड़ी वकील बनी हो, आराम से सो जा।''
कहता हुआ जगमोहन सोने की कोशिश करता है। सपने में उसे साधू सिंह मिलता है। ब्राडवे पर उसी रेस्टोरेंट के सामने ही। साधू सिंह जगमोहन का हालचाल पूछते हुए उसकी सलाह लेता है कि इस रेस्टोरेंट का नया नाम क्या रखे क्योंकि यह जगह उसने इसके मालिक से खरीद ली है। ऐसा कहते हुए साधू सिंह पाला सिंह की तरह ही मूंछों को मरोड़ता रहता है। दूसरी तरफ एक पुलिसमैन चला आ रहा है। जगमोहन उसे कुछ कहने के लिए आवाज़ देता है पर उसकी नींद खुल जाती है।
जगमोहन उठकर नीचे लाउन्ज़ में आ जाता है। आज इतवार है। कौन सा काम पर जाना है। उसे नींद उचट जाने की कोई चिन्ता नहीं। वह सैटी पर बैठ जाता है। सुखी उसके सामने स्वीमिंग पूल के फट्टे पर आ खड़ी होती है। पानी में छलांग मारते समय चोर आँखों से उसकी तरफ देखती है। फिर पुल के दूसरी तरफ निकल कर जहाँ हुसैन खड़ा है, एक बार उसकी तरफ टेढ़ी नज़र से देखती है। जगमोहन मन ही मन कहता है, 'सुखी, तू ही समझती होगी कि मुझे तेरे से कोई नफ़रत नहीं थी, बल्कि मैं तो तुझे बहुत पसंद करता था। मेरी आँखों में से तूने पढ़ ही लिया होगा। मैं दूसरों से अलग हूँ।'
वह हुसैन के विषय में सोचता है जो पानी में से निकलती सुखी को देखकर फूला नहीं समाता था और जब सुखी पर कठिन वक्त आया तो छोड़कर भाग गया। बताते हैं कि सबसे पहले हुसैन ही भागा था। फिर ग्राहक और रेस्टोरेंट वाले भी एक तरफ हो गए थे। सुखी अकेली रह गई थी, साधू सिंह की तीन फुटी तलवार के सामने। पता नहीं सुखी उस वक्त क्या सोच रही होगी। फिर उसे गुस्से का भरा साधू सिंह दिखाई देता है। उसे पता चलता है कि सुखी हुसैन के संग बैठी राजा राज भोज में खाना खा रही है। पागल सुखी ! खाना खाने के लिए साउथाल का रेस्टोरेंट ही मिलता है। साधू सिंह रेस्टोरेंट के दरवाजे पर खड़ा है। उसके हाथ में नंगी तलवार देख कर लोग चीखें मारते हुए इधर-उधर भागते हैं। सुखी खड़ी रहती है। वह साधू सिंह की तरफ देखती है, फिर उसकी तलवार की ओर। वह नहीं डरती। बाप से कौन-सी बेटी डरती है। अगर डरती होती तो साधू सिंह उसके मुकाबले बहुत बूढ़ा है, वह अपना बचाव कर सकती है। उसका यह न डरना ही उसका क़त्ल करवा देता है।
(जारी…)

2 comments:

रूपसिंह चन्देल said...

यार, आत्मकथा समाप्त हो गयी ? अटवाल पंजाबी के एक अचए कथाकार हैं, उनका यह उपन्यास भी बांधता है.

बधाई,

चन्देल

harjeetatwal said...

chandel saheb ji,
aap ko mera novel achha lag raha hai ye mere liye fakhar ki bat hai. mene apka mere novel 'ret' ka review parha tha, achha laga tha. ye novel parh kar vi agar pasand aye to likhna.
harjeet atwal