समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Saturday, September 25, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-14

दैत्य जैसा विघ्न

स्वास्थ्य विभाग में ब्लॉक एक्सटेंशन एजूकेटर के नियुक्ति पत्र मिलने के बाद पहला काम था मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट लेना। मेरी नियुक्ति पटियाला ज़िला के प्राइमरी हैल्थ सेंटर, शतराणे की हुई थी, पर मेडिकल करवाना था सी.एम.ओ. अर्थात चीफ मेडिकल आफीसर सिविल सर्जन संगरूर से। सिविल सर्जन था डॉ. एच.एस. ढिल्लों। सुना था कि डॉ. ढिल्लों किसी समय मुख्य मंत्री प्रताप सिंह कैरो का निजी डॉक्टर हुआ करता था। इसलिए ऐसे अफसर के पास पहुँच निकलाना कोई सरल काम नहीं था। मेरे भाई को भी पता था और मुझे भी कि मेडिकल करवाने में विघ्न आ सकता है। विघ्न भी आँखों का। बात हुई भी वैसी ही। हालांकि मेरे भाई ने तपा के पी.एच.सी. अर्थात प्राइमरी हैल्थ सेंटर, तपा मंडी के मेडिकल अफसर डॉ. नरेश को मेरे संग भेज दिया था और वह सिविल सर्जन को मेरे बारे में कह भी आया था, पर विघ्न आखिर पड़ ही गया। सिविल अस्पताल, संगरूर से लैबोरेट्री के सारे टैस्टों की रिपोर्ट ठीक मिली। स्क्रीनिंग वाले ने भी एक फेफड़े से संबंधित छोटी सी अड़चन लगाने के बाद आखिर रिपोर्ट ठीक कर दी थी। अब रह गया था आँखों का टैस्ट जो सिविल सर्जन के दफ्तर में होना था। बरामदे में एक चार्ट लगा हुआ था जिसे बीस फुट की दूरी से पढ़ना था। आँखों के टैस्ट के लिए यही उसूल अब भी है। मैंने ऐनक सहित दायीं आँख से अन्तिम पंक्ति को छोड़कर सभी पंक्तियाँ पढ़ दी थीं। बायीं आँख से ऐनक के बावजूद अन्तिम दो पंक्तियाँ बिलकुल न पढ़ सका और उनसे ऊपर वाली पंक्ति कुछ धुंधली नज़र आती थी। तीसरी श्रेणी के कर्मचारियों के लिए आँखों की इतनी रोशनी मेडिकल फिटनेस के लिए उन दिनों भी काफ़ी समझी जाती थी, और अब भी काफ़ी समझी जाती है। बरामदे में चार्ट लगा होने के कारण मुझे चार्ट पढ़ने में कोई कठिनाई पेश न आई। सुबह का समय था, रोशनी पूरी थी। अगर कमरे में चार्ट लगा होता तो शायद कोई मुश्किल आती। डॉक्टर साहब ने मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट भरने के लिए बाबू को आदेश दे दिया, पर बाबू ने कहा, ''साब, यह चार्ट तो पढ़वा कर देख लें।'' यह नज़दीक की नज़र टैस्ट करने के लिए चार्ट था। चार्ट अंग्रेजी में था। अंग्रेजी पढ़ने में मुझे कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन एक आँख से नीचे की तीन लाइनें और दूसरी से दो लाइनें नहीं पढ़ी जा सकीं। यह काम डॉक्टर की जगह बाबू ने किया था। बाबू ने जो नोट दिया, उसने मुझे पूरी तरह चक्कर में डाल दिया। पर डॉक्टर साहब ने मुझे यह कहकर वापस लौटा दिया कि मैं दोबारा टैस्ट करके नई ऐनक लगवाऊँ।
मैं बहुत उदास था। घर पहुँचकर जब मैंने बताया तो भाई और भी अधिक उदास हो गया। डॉक्टर नरेश से सलाह-मशविरा किया। आख़िर आँखों के एक डॉक्टर के परामर्श के बाद नज़दीक की नज़र टैस्ट करवाई गई और दूर की भी। जिस तरह के शीशे उसने बताये, वे न बठिंडा में मिलते थे, न पटियाला में। डॉक्टर ने कहा कि यह ऐनक दिल्ली से बनेगी। मैं और मेरा भाई रात की गाड़ी दिल्ली के लिए चढ़ गए। ऐनक तो बन गई पर उससे नज़दीक की नज़र की समस्या हल न हुई।
मैं दिल्ली जाते और वहाँ से लौटते हुए यही सोचता रहा कि इस तरह ज़िन्दगी कैसे कटेगी। दूर की नज़र की तो अधिक चिंता नहीं थी, पर नज़दीक की नज़र की बहुत चिंता थी। अंधराते के कारण रात के समय भी आँख से बहुत परेशानी हो रही थी। लेकिन उस वक्त आँखों की असली बीमारी का कुछ भी पता नहीं था। आखिर, उसी डॉ. नरेश को संग ले जाकर हम पुन: संगरूर सिविल सर्जन के दफ्तर पहुँच गए। भाई के एक सफल और आदर्श मुख्य अध्यापक होने की धूम पूरे ज़िला संगरूर में थी। डॉ. ढिल्लों ने भी मेरे भाई का नाम सुन रखा था। डॉ. नरेश ने बताया कि नई ऐनक तो लगवाई है पर अभी इस पर करीब की नज़र टिकी नहीं है।
डॉक्टर साहब ने मेरी दोनों ऐनकें देखीं। नज़दीक की नज़र चैक किए बिना उसने मेरी फाइल मंगवाई और 'करेक्टिड विद ग्लासिज़' लिखकर उसने बाबू को मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट तैयार करने का हुक्म दे दिया। बाबू ने सी.एम.ओ. साहब का हुक्म सुन लिया, पर यूँ लगता था मानो अन्दर से वह बहुत दुखी हो। उसने मुझे इशारे से अपने कमरे में बुला लिया। कहने लगा-
''जा, जा कर नई ऐनक लेकर आ।''
''दोनों ऐनकें तो सी.एम.ओ. साहब के मेज पर पड़ी हैं। बाबू जी, मुझे डॉक्टर साहब से बहुत डर लगता है। आप ही ले आओ तो अच्छा है।'' मैंने विनम्रता से कहा।
''फिर सर्टिफिकेट आज तो नहीं मिल सकता।''
''फिर कब मिलेगा जी ?''
''मैं कह नहीं सकता।'' बाबू के हर लफ्ज़ में तल्खी थी।
मुझे लगा मानो बाबू का चलाया पहला तीर तुक्का सफल न होने के कारण उसके अन्दर की चुभन उसे मेरे प्रति बदज़न कर रही थी। इसलिए मैं बाबू के साथ किसी और बहस में न पड़ने की बजाय सी.एम.ओ. साहब के दफ्तर की ओर चल पड़ा।
''कहाँ चले हो ?''
''जी, ऐनकें लेने।''
पता नहीं बाबू डर गया था या उसके अन्दर सद्भावना जाग्रत हो उठी थी कि उसने फटाफट सर्टिफिकेट तैयार करना शुरू कर दिया। हाथ से वह सर्टिफिकेट भरता रहा और मुँह से बड़बड़ाता रहा था।
उस समय तक मैंने कभी न तो किसी बाबू को रिश्वत दी थी और न ही किसी के आगे गिड़गिड़ाया था। मैं समझ गया था कि पहले नज़दीक की ऐनक वाला चार्ट पढ़वाकर जो समस्या उसने खड़ी कर दी थी, उसका मकसद सौ, दो सौ रुपये झाड़ने से अधिक कुछ नहीं था, क्योंकि उन दिनों में दो सौ रुपया भी एक बड़ी रकम हुआ करती थी- क्लर्क की महीने भर की तनख्वाह ! जिस पोस्ट पर मुझे लगना था, उसकी एक महीने की तनख्वाह और नए नियुक्त हुए डॉक्टर की कम से कम 25 दिन की तनख्वाह। लेकिन मेरी ओर से उसके साथ सौदा करने की बजाय दिल्ली से ऐनकें बनवाकर लाने और सी.एम.ओ. साहब की मेहरबानी के कारण उसका बुना हुआ सारा जाल छिन्न-भिन्न हो गया था। मैं उसकी बात समझने के बावजूद उसके जाल में नहीं फंस रहा था। यदि वह मेरा सर्टिफिकेट भरने का काम न करता तो संभव है कि मैं बाबू के साथ हुई बाचचीत सी.एम.ओ. साहब के सामने उगल देता। इसका शायद मुझे नुकसान भी हो सकता था। इसलिए मैं मीठा बनकर भी यह काम निकाल लेना चाहता था। बाबू पर आए गुस्से को मैं अन्दर ही अन्दर पी गया था। बाबू ने भी तिलों में तेल न देखकर मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट की तीन प्रतियाँ बनाकर सी.एम.ओ. साहब के मेज पर जा रखीं।
मेरे लिए सी.एम.ओ. साहिब भगवान बनकर आए थे। यदि अड़ जाते तो मैं किसी योग्य नहीं रहता। सर्टिफिकेट देते समय सी.एम.ओ. साहिब ने डॉक्टर से भी हाथ मिलाया और मेरे भाई से भी। मेरे मन को राहत तो मिल गई थी पर खुश बिलकुल नहीं था। दृष्टि के कम होने की चिंता ने मेरे अन्दर जो डर बिठा दिया था, उस कारण मैं ज़िन्दगी में कई प्राप्तियों से वंचित रहा हूँ। इस दर्द भरी कहानी को मैं आगे साथ-साथ बयान करता रहूँगा।
जब हम वापस तपा लौट रहे थे तो विजय जैसा अहसास दिल में कोई नहीं था। अब मेरे दिमाग में आ रहा था कि मैं कक्षा में पाठ्य पुस्तक पढ़ने से क्यों कतराता था। बी.एड. के बाद मैंने जिस भी स्कूल में पढ़ाया, कभी भी किताब स्वयं नहीं पढ़ी थी, विद्यार्थियों से ही पढ़वाता था। ब्लैक बोर्ड पर कुछ लिख तो अवश्य देता था लेकिन विद्यार्थियों की कापियों का निरीक्षण बहुत कम करता था। वैसे भी मैं विद्यार्थियों को कलम से लिखकर लाने के लिए कहा करता। उस जमाने के विद्यार्थी भले विद्यार्थी थे, अध्यापक के हुक्म को ईश्वर का हुक्म मानते थे। खुली लाइनों वाली कापियों पर कलम से लिखे हुए को पढ़ने में मुझे अधिक कठिनाई नहीं होती थी। कांगड़ा और बठिंडा में मैंने पंजाबी पढ़ाई थी, मौड़ मंडी में अंग्रेजी और सामाजिक शिक्षा, अंग्रेजी लिखने के लिए मैं 'ज़ैड' का निब इस्तेमाल करने के लिए कहता। किसी भी विद्यार्थी ने हुक्म अदूली नहीं की थी। इसलिए एक दो कापियाँ जो भी जांचता, मोटी लिखाई होने के कारण पढ़ने में मुझे कोई दिक्कत न होती। हालांकि कलम और जैड़ के निब से लिखने का रिवाज़ सुखानंद आर्य हाई स्कूल, तपा में आम था और शायद अन्य स्कूलों में भी हो, पर मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता कि विद्यार्थियों को इस तरह करने के लिए मैं उसी रिवाज के कारण कहता था या अपनी सुविधा के लिए।
मोर्चा फतह करने के बाद भी हम दोनों भाई बहुत खुश नहीं थे पर सरकारी नौकरी और वह भी अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी। साथ ही लिखने-पढ़ने से भी छुटकारा, यह मेरे लिए तसल्ली वाली बात तो थी ही, मेरे भाई के लिए भी अधिक संतुष्टि वाली बात थी।
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27 मई 1965 को मैं दोपहर से पहले प्राइमरी हैल्थ सेंटर, शतराणा पहुँच गया। वहाँ का एम.ओ. (मेडिकल आफ़ीसर) डॉ. अवतार सिंह, डॉ. नरेश का सहपाठी था और डॉक्टर साहब ने बताया था कि डॉ. अवतार को भी कविता लिखने का शौक है। उसने डॉ. अवतार सिंह के नाम मुझे चिट्ठी भी दी थी। संगरूर से शतराणे की सीधी बस मिल गई। मन में खुशी भी थी, घबराहट भी और बहुत कुछ और भी। इसका एक मात्र कारण था- मेरी नज़र का कम होना, खास तौर पर रात में चलने-फिरने की समस्या। मुझे पता था कि मेरी नौकरी दफ्तर में बैठने वाली नहीं, गांवों में जाकर लोगों से सम्पर्क करने वाली है। इस बात का डर था कि कहीं रात को ही किसी गांव में जाने की ज़रूरत न पड़ जाए। लेकिन पहले तो ड्यूटी पर हाज़िर होने की बात थी।
पी.एच.सी. शतराणा पातड़ां-नरवाणा-जींद सड़क पर स्थित था। गांव सड़क के बायें हाथ पर अन्दर की तरफ दो-ढाई किलोमीटर की दूरी पर था, भाखड़ा नहर का पुल पार करके। इस इलाके से अपरिचित होने की बात मैंने ड्राइवर को बता दी थी और यह भी बता दिया था कि मैं यहाँ अस्पताल में स्थायी नौकरी पर हाज़िर होने के लिए आया हूँ। उसने जब मेरी तनख्वाह के बारे में पूछा तो उसने अंदाजा लगाया होगा कि मैं डॉक्टर हूँ। इसलिए उसने मुझे डॉक्टर साहिब कहकर ही बुलाना आरंभ कर दिया। पहले तो मुझे इस शब्द 'डॉक्टर साहिब' का सम्बोधन पराया सा लगा लेकिन यह बात मेरे हक में पूरी उतरती थी। पी.एच.सी. के बिलकुल सामने ड्राइवर ने बस रोक दी। ''वो है डॉक्टर साहिब आपका अस्पताल।'' ड्राइवर ने अपने बायें हाथ की कनिष्ठिका(छोटी उंगली) से संकेत करते हुए कहा। मेरा गर्मियों का बिस्तरा और एक अटैची कंडक्टर और एक सवारी ने स्वयं पकड़कर उतारा। ''ले भाई, डॉक्टर साहब को अस्पताल छोड़ कर आ।'' कंडक्टर ने सवारी से कहा और उस अधेड़ से सरदार ने मेरा बिस्तरा और अटैची उठा लिया। अस्पताल के सिर्फ़ पाँच कमरे थे। चार दायीं ओर और एक बायीं ओर। बीच में बरामदा था। मैंने सरदार साहब का धन्यवाद किया जिसने मेरा बिस्तर और अटैचीकेस उठाया था। बायीं ओर दूसरा कमरा मेडिकल आफ़ीसर का था और पहला कमरा क्लर्क का। मैं पहले कमरे में घुस गया। कुर्सी पर बैठे जिस शख्स से पहली बार हाथ मिलाने का अवसर मिला उसने अपना परिचय सरबजीत सिकंद, सैनेटरी इंस्पेक्टर के रूप में करवाया। मैंने अटैची खोलकर अपनी ज्वायनिंग रिपोर्ट की दो कापियाँ उसके सामने रख दीं। वह मुझे साथ वाले कमरे में डॉ. अवतार सिंह के पास ले गया और मेरी ज्वायनिंग रिपोर्ट की दोनों कापियाँ उसके सामने रख दीं। हैल्थ सेंटर में मेरे नियुक्ति पत्र की एक प्रति पहले ही पहुँच चुकी थी, इसलिए डॉक्टर साहब को मेरे आने पर कोई हैरानी नहीं हुई थी। मैंने डॉ. अवतार सिंह को डॉ. नरेश की चिट्ठी भी दी। उसके चेहरे पर रौनक आ गई। मैंने डॉक्टर साहब की कविता 'जूती' का जिक्र किया जिसके विषय में मुझे डॉ. नरेश ने बताया था कि उसकी यह कविता कॉलेज में बहुत मकबूल हुई थी। डॉ. अवतार सिंह के चेहरे पर रौनक जैसे दुगनी-चौगुनी हो उठी हो।
पूरे अस्पताल को पाँच-सात मिनट में ही यह पता चल गया कि एक रैगुलर हैल्थ एजूकेटर आ गया है। ब्लॉक एक्सटेंशन एजूकेटर को वहाँ हैल्थ एजूकेटर कहकर बुलाया जाता था। इस पोस्ट पर अस्थायी तौर पर एक महिला काम कर रही थी। डॉक्टर साहब ने उसे बुलाया और मेरे बारे में बताने के बाद सरबजीत सिकंद से कहा कि वह उस महिला की रिलीविंग चिट तैयार कर दे। ''यह अन्न-जल का मसला है बीबी।'' डॉक्टर साहिब जैसे मुक्त हो रही महिला को ढाढ़स बंधा रहे थे। सचमुच महिला उदास थी। मैंने भी अनुभव किया कि मैं किसी को हटाकर रोजगार प्राप्त कर रहा हूँ। लेकिन ये सब अस्थायी भावनाएँ थीं। नौकरी में मैंने पहले भी कई बार अनेक लोगों को रिलीव होते और उपस्थित होते देखा था। आँखों में आँसू भी देखे थे और चेहरों पर मुस्कान भी। सन् 1965 की 27 मई थी, पंडित जवाहर लाल नेहरू की पहली बरसी। परन्तु उस दिन छुट्टी नहीं थी। इसलिए यह उपस्थित होने की तारीख़ मेरे मन-मस्तिष्क में कहीं गहरे अंकित हो रखी है।
चाय और रोटी का प्रबंध पता नहीं डॉक्टर साहब ने करवाया या सरबजीत ने, पर मुझे तसल्ली थी कि मैं ठीक स्थान पर पहुँच गया हूँ। अस्पताल गांव के बाहर की तरफ था। अस्पताल की तरफ ही कुछ दूरी पर चाय की एक दुकान थी। वह मिठाई भी रखता था। दुकान के साथ ही उनकी रिहाइश भी थी। बिलकुल उनके सामने सड़क के दूसरी तरफ पाँच-सात कमरे बने हुए थे, लेकिन डॉक्टर साहब शतराणा गांव में रहते थे। फार्मिस्ट वेद प्रकाश शर्मा करीब दो किलोमीटर के फासले पर अस्पताल के दूसरी तरफ पड़ने वाले गांव पैंद में रहते थे। सभी कर्मचारी नज़दीक के ही किसी न किसी गांव में रहते थे। अस्पताल के पास किसी की भी रिहाइश नहीं थी। सिर्फ़ सेवा सिंह चौकीदार ही अपनी ड्यूटी के कारण अस्पताल के दायीं ओर के अन्तिम कमरे में रहता था।
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मैंने अभी अपनी रिहाइश के लिए फैसला नहीं किया था कि शतराणा गांव में रहूँ या पैंद में। पातड़ां में भी जा सकता था जो छह-सात किलोमीटर के फासले पर था और वहाँ रौनक-मेला भी अच्छा था। जब मैं बस से शतराणा पहुँचा, पातड़ां रास्ते में पड़ा था। शतराणा से आगे खनौरी था, वह भी अच्छा कस्बा था, बिलकुल भाखड़ा और घग्गर नदी के पास बसा हुआ। लेकिन मैं अस्पताल के नज़दीक ही कहीं रहना चाहता था। जंग सिंह जो था तो चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी, पर वह वेद प्रकाश के साथ डिस्पेंसरी में काम करता था और चारों तरफ उसका अच्छा रसूख था। दोपहर के बाद उसने मुझे दो कमरे दिखलाये जो अस्पताल की तरफ चायवाले की दुकान से लगे दो कमरों के पीछे की ओर पड़ते थे। पहले दो कमरों में चायवाले का परिवार था, एक में बड़ा देशराज रहता था और दूसरे में छोटा बख्शी। देशराज जिसे दरियाई मल भी कहते थे, के दो जवान लड़के भी थे और बीवी भी। बख्शी बेचारा छड़ा था। यह बात मुझे बाद में पता चली थी। उसके छड़े रहने की कहानी मैंने आहिस्ता आहिस्ता सुन ली थी। यहाँ एक कमरा मुझे पसंद आ गया। हालांकि यह कमरा काम चलाऊ था, पर अस्पताल के करीब होने के कारण और साथ में एक परिवार के बसे होने के कारण मुझे यह कमरा ठीक लगा क्योंकि मुझे अपनी माँ को लेकर आना था। सो, मैंने दस रूपये महीना पर कमरा पक्का कर लिया।
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शाम को हैल्थ एजूकेटर महिला की विदाई पार्टी थी और मुझे दी जा रही स्वागत पार्टी भी, जैसा चाहे समझ लो। पार्टी का प्रबंध डॉक्टर साहब के निवास पर किया गया। वह शतराणा में एक ऐसे मकान में रहते थे जिसे एक पुरानी हवेली कहा जा सकता था। पहले दरवाजा, फिर आँगन के बाद तीन कमरे। दायीं ओर सीढ़ियाँ थीं। यहाँ चौबारे में डॉक्टर साहब की रिहाइश थी। मैं एक अन्य सैनेटरी इंस्पेक्टर सहगल की साइकिल के पीछे बैठकर डॉक्टर साहब के निवास पर पहुँचा था। पार्टी में फार्मेसिस्ट भी था, एल.एच.वी. था, और दो सैनेटरी इंस्पेक्टर भी थे। एक ए.एन.एम., दो दाइयाँ और दो दर्जा चार कर्मचारी। डॉक्टर साहब की परियों जैसी पत्नी और राजकुमारों जैसे करीब पाँच बरस के राजू को मिलकर तो मुझे ऐसा महसूस हुआ कि डॉक्टर अवतार सिंह तो बड़ा ही खुशकिस्मत अफसर है, जिसे ऐसा परिवार नसीब हुआ है। डॉक्टर साहब की पत्नी ने जिस तरह मेरा स्वागत किया, वह मेरी ज़िन्दगी का एक अविस्मरणीय पल है। नम्रता की पुंज यह स्त्री अपने हाथों से प्लेटें रख रही थी, चाय सर्व कर रही थी और उसके चेहरे पर संजीदगी भी थी और शगुफ्तगी भी।
अपना अपना परिचय देने के बाद पता चला कि एल.एच.वी. श्रीमती दविंदर कौर है, ए.एन.एम. प्रेम लता है, शांती और अमर कौर दाइयाँ हैं। इसके अलावा, चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी ओम प्रकाश था और विदा हो रही महिला का नाम शायद निर्मला था। वैसे मैं उसके नाम के बारे में निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता। डॉक्टर साहब ने बताया कि यह महिला एम.ए. पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन है। उसकी शैक्षिक योग्यता सुनकर मैं थोड़ा सिकुड़ गया था। उस समय मैं सिर्फ़ बी.ए., बी.एड. था, पर चाय पार्टी के बाद जब सुनने-सुनाने का दौर चला तो डॉक्टर साहब ने अपनी लम्बी कविता 'जूती' सुनाई। उससे पहले डॉक्टर साहब ने मेरे शायर होने के बारे में बताते हुए मुझे भी कुछ सुनाने के लिए जोर डाला। मैंने बचपन में नेहरू जी की प्राप्तियों के विषय में एक कविता लिखी थी जिसे सुनाने से पूर्व मैंने उसकी पृष्ठभूमि बताई। इस कविता के बाद मैंने दो बंद पंडित जी की मृत्यु पर लिखी कविता के भी सुनाए। डॉक्टर साहब की कविता के लिए मेरी फरमाइश भी थी और कर्मचारियों की भी। उनकी कविता अच्छी थी, सादी और प्रभावशाली। बाद में, अधिक जोर डालने पर मैंने दो कविताएँ और सुनाईं। किसी और ने शायद कुछ नहीं सुनाया था। सरबजीत ने विदा हो रही महिला की प्रशंसा में कुछ शब्द कहे और साथ ही मेरा स्वागत भी किया। डॉक्टर साहब ने उस महिला और मेरे बारे में संक्षेप में कुछ कहा था। जैसे कि मुझे बोलने का अच्छा अनुभव था, विदा हो रही महिला की कार्य कुशलता संबंधी डॉक्टर साहब और सरबजीत के भाषणों के आधार पर मैंने अपना भाषण कुछ इस तरह पेश किया कि मेरी भाषण कला, मेरी कविता से भी आगे निकल गई। अपने बारे में बोलते हुए मैंने स्वयं को नौसिखिया बताते हुए सबसे कुछ न कुछ सीखने का यकीन दिलाया और आशा व्यक्त की कि डॉक्टर साहब की सरपरस्ती और शेष कर्मचारियों की सहायता से धीरे धीरे मैं अपनी ड्यूटी निभाने में सफल हो जाऊँगा।
हम कमरे के बाहर आँगन में बैठे थे, उन दिनों शतराणा में बिजली नहीं आई थी। एक ग्लोब लैम्प पड़ा था और एक तरफ एक लालटेन टंगी हुई थी।
डॉक्टर साहब ने रस्मी तौर पर रात में उनके पास ही रहने के लिए कहा, पर मैं पहले दिन ही अपनी कमजोरी को अपने अफसर के सामने खोलना नहीं चाहता था। वैसे भी मुझे सहगल साहब के साथ अस्पताल तक चले जाना था। लालटेन संग होने के कारण सीढ़ियाँ उतरने और दरवाजे में से निकल कर साइकिल तक जाने में मुझे कोई खास दिक्कत नहीं आई थी। समझो, मेरी कमजोरी पर पर्दा पड़ा रह गया था। सहगल मुझे चौकीदार के कमरे तक छोड़ते समय संग चलने की सलाह दे रहा था। मैंने उसका शुक्रिया अदा किया और चौकीदार के पास रहने को ही वरीयता दी।
सेवा सिंह ने रोटी के लिए सलाह नहीं दी थी, दिल से कहा था, पर रोटी की मुझे भूख नहीं थी। उसने अपनी चारपाई के पास ही मेरी चारपाई बिछा दी थी। मेरे सिर पर से जैसे एक भारी बोझ उतर गया हो। दिन के समय मुझे कहीं भी आने जाने में कोई दिक्कत नहीं थी। लिखने-पढ़ने मे मैं माहिर था। वैसे भी अस्पताल में मेरे लिए कोई खास पेपर वर्क नहीं था, जिस रजिस्टर पर मैंने अपनी उपस्थिति दर्ज़ की, उससे मुझे पता चल गया था कि उस रजिस्टर पर ही रोज सवेरे आकर हाज़िरी लगानी है। यह कोई खास काम नहीं था।
नींद ऐसी आई कि पौ-फटे के समय ही आँख खुली। सेवा सिंह मुझे पातड़ां की तरफ जंगल-पानी के लिए ले गया। शायद रास्ते में पानी का कोई सोता था। हम सूरज चढ़ने से पाँच-सात मिनट बाद ही लौट कर कमरे में आ गए थे। नहाने धोने के बाद मैं नाश्ते के लिए स्वयं बख्शी की दुकान पर चला गया। अस्पताल से इस दुकान का सिर्फ़ दो मिनट का ही तो रास्ता था। सेवा सिंह ने हालांकि मुझे नाश्ते के लिए कहा था पर मैं उस पर कोई बोझ नहीं बनना चाहता था और न ही मुझे अभी उसके स्वभाव की जानकारी थी। इसलिए चाय के लिए कुछ शकरपारे और एक मट्ठी खाकर मैं कुछ शकरपारे और एक मट्ठी सेवा सिंह के लिए ले आया था। सेवा सिंह की आँखों में खुशी थी। कहने को तो उसने कहा कि क्यों तकलीफ़ की, पर शायद उसे यह पता चल गया था कि स्वभाव के तौर पर मैं खुले दिलवाला हूँ, बड़े-छोटे में कोई अन्तर नहीं समझता। सेवा सिंह के साथ मेरा यह प्यार आख़िरी दिन तक रहा।
(जारी…)
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1 comment:

उमेश महादोषी said...

एक लेखक जब अपने जीवन-अनुभव दूसरों के साथ बांटता है तो बहुत सारी छोटी-छोटी घटनाएँ भी प्रेरणाशील बन जाती हैं। उसके जीवन का संघर्ष समाज का मार्गदर्शन करता है। तरसेम साहब की यह आत्मकथा निश्चय ही प्रेरक है।