एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा
धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-15( तीसरा भाग)
नया महकमा, नये अनुभव
जनवरी 1966 में उड़ती उड़ती ख़बर मिली कि सब ब्लॉक एक्सटेंशन एजूकेटरों की छटनी की जा रही है। इसके दो कारण थे - एक तो यह कि सैनेटरी इंस्पेक्टरों के लिए उन दिनों तरक्की का कोई चैनल नहीं था। उनकी मांग थी कि कम से कम एक पोस्ट ऊपर उनकी प्रमोशन होनी चाहिए। एक अफ़वाह यह थी कि ये एजूकेटर जनता में परिवार नियोजन का प्रभाव डालने में सफल नहीं हुए थे। मैंने डॉ. जैन से कहा कि वह बहन जी से मालूम करके बताएँ कि हमारा क्या हो रहा है। जैसे मैंने पहले भी उल्लेख किया है कि उस समय की स्वास्थ मंत्री ओम प्रभा जैन उनकी बहन थी। डॉ. जैन ने चार-पाँच दिन बाद मुझे बुलाकर बताया कि छटनी के आदेश जारी हो चुके हैं। 28 फरवरी 1966 को सभी एजूकेटरों का फारिग कर दिया जाना है।
हमने अपने भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए एक मीटिंग बुलाई। हरचेत सिंह, जो पी.एच.सी., कौली(पटियाला) में काम करता था, उसके और मेरे उद्यम से ही यह मीटिंग रखी गई थी। पटियाला में यह मीटिंग की गई। छंटनी के आदेश के वापस होने का तो अब सवाल ही पैदा नहीं होता था, इसलिए हमने एस.एस.एस. बोर्ड के चेअरमैन को मिलने का निर्णय किया। हमारी हलचल का परिणाम यह निकला कि छंटनी के नोटिस की तारीख़ एक महीना और बढ़ा दी गई। इस तरह 31 मार्च 1966 को सभी हैल्थ एजूकेटर हटा दिए जाने थे। बोर्ड से अभी हम मिले भी नहीं थे कि हमारे सबसे जूनियर ऑडीटरों के पदों पर चयन कर लिया गया। ग्रेड था - 80-5-120 का। पर इन पदों पर भी सरकार ने नियुक्तियाँ न करने का फैसला ले लिया था। यह सूचना, बोर्ड के दफ्तर में न होने के कारण ही यह आदेश हुए थे।
बहुत से एजूकेटर 150 के मूल वेतन की नौकरी छोड़कर 80 रुपये के मूल वेतन की नौकरी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे, लेकिन कुछेक तैयार थे। शायद वे सोचते होंगे- भागते चोर की लंगोटी ही सही। हम एक डेपुटेशन की शक्ल में बोर्ड के चेअरमैन सरदार उजागर सिंह से मिले। उसने मुझे पहचान लिया था क्योंकि मैंने पहले भी उसके साथ खुल कर बातें की हुई थीं। इसलिए मुझे उसके साथ बात करने में कोई झिझक महसूस नहीं हुई थी। उन दिनों पंजाब में कुछ नायब तहसीलदारों और पंचायत अफ़सरों के पद रिक्त पड़े थे। इन रिक्त पदों की संख्या 44 से अधिक थी। नायब तहसीलदारों के पद का ग्रेड हैल्थ एजूकेटर वाला ही था और पंचायत अफ़सरों के पद का ग्रेड उससे कम था लेकिन अफ़सर वाली पूंछ पीछे लगी होने के कारण सभी हैल्थ एजूकेटर पंचायत अफ़सर बनने के लिए भी तैयार थे। जब मैं इस संबंध में चेअरमैन साहब से विनती की तो वह हँसकर कहने लगे, ''काका जी, तुम किस दुनिया में रहते हो? नायब तहसीलदारों के पद क्या तुम्हारे लिए हैं?'' ''फिर जी आप हमें पंचायत अफ़सर लगा दो।'' मैंने पुन: बड़ी विनम्रता से कहा। वह फिर हँस कर बोले, ''ये पोस्टें भी तुम्हारे लिए नहीं हैं।'' जब कोई भी तीर चलता न दिखाई दिया तो मैंने कहा, ''हममें से तीन बी.ए., बी.एड भी हैं।'' ''हाँ, यह काम की बात की न। मास्टर लगना है ?'' मैंने ''हाँ'' में सिर हिला दिया। त्रिलोक सिंह बिलगे से था और एक महिला कुलजीत कौर थी जिसके गाँव का नाम अब मुझे याद नहीं। चेअरमैन साहब ने सुपरिटेंडेंट भनोट साहब को बुलाया और हमसे अर्जियाँ लेने के लिए कहा। हम तीनों के सामाजिक शिक्षा के अध्यापकों के पद पर आदेश करके डायरेक्टर, शिक्षा विभाग, पंजाब को भेज दिए गए और आदेश की एक प्रति हमें भी दे दी गई। गुरचरन सिंह जो उस समय हरपालपुर (पटियाला) में हैल्थ एजूकेटर था, मालूम नहीं डिप्टी सुपरिटेंडेंट (जेल) के आदेश कैसे ले आया। शेष सभी के आदेश 60-4-100 वाले ग्रेड की पोस्ट पर कर दिए गए। वे आसमान से गिरकर यदि खजूर में अटक जाते तो शायद स्वीकार कर लेते, पर उनमें से अधिकांश तो यूँ समझते थे मानो उन्हें ज़मीन पर पटक दिया गया हो। कुछ ने बेबसी में वह पोस्ट स्वीकार कर ली तो कुछ ने इसे अपना अपमान समझकर बेकार रहना उचित समझा।
31 मार्च 1966 को दोपहर के बाद मुझे सेवा-विमुक्त कर दिया गया। डा. अवतार सिंह की बदली हो चुकी थी। इसलिए इंचार्ज था- वेद प्रकाश फार्मासिस्ट। उसने मुझे स्मरण दिलाया कि मेरे आठ महीनों के टी.ए. बिल जो सी.एम.ओ. के दफ्तर में पड़े थे, मुझे उनका पता करना चाहिए। रकम आठ सौ के लगभग थी। मेरे तीन वेतनों से भी अधिक। सी.एम.ओ. के बाबू और रोकड़ के दफ्तरी से वेद प्रकाश ने ही बात की। नब्बे रुपये में सौदा हो गया और मुझे हैल्थ एजूकेटर के पद से विमुक्त होने के कुछ दिन के भीतर ही सारी रकम का भुगतान हो गया।
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शतराणे से रिलीव होना उस समय तो मेरे लिए दुखदायी घड़ी थी। मैं इस बात से भी दुखी था कि किसी ने मुझसे अभी तक विदायगी पार्टी की बात भी नहीं की थी। जिसके स्थान पर मैं यहाँ नियुक्त हुआ था, उसे कितने मान-सम्मान से विदायगी पार्टी दी गई थी। उसे याद करके मेरा मन भर आया। फिर मेरे मन ने पलटा खाया कि वह सिर्फ़ उसकी विदायगी पार्टी नहीं थी, मेरी स्वागत पार्टी भी थी। और फिर उस समय पार्टी के पीछे एक निश्च्छल इन्सान डा. अवतार था। इस वेद प्रकाश फार्मासिस्ट को क्या मालूम कि विदा हो रहे साथी को कैसे विदा किया जाता है। इसे तो घर घर जाकर टीके लगाने, पैसे बटारने और ज़मीन खरीदने के बारे में ही पता है। उस समय मेरे दिमाग में यह बात भी नहीं थी कि मेरे टी.ए. बिल पास करवाने वाला यह वेद प्रकाश ही था, बेशक बिल पास करवाने के लिए मुझे अपनी ज़िन्दगी में पहली बार बाबुओं की मुट्ठी गरम करनी पड़ी थी। मैं अभी रिलीविंग चिट बनवा ही रहा था कि दविंदर कौर ने दरियाई मल की दुकान से चाय पानी मंगवा कर दूसरे कमरे में रख दिया था। यद्यपि हम छह-सात कर्मचारी ही उपस्थित थे, पर दविंदर कौर के चेहरे पर बहुत उदासी थी मानो उसका कोई सगा भाई उसे छोड़कर जा रहा हो। मन उसका भी भर आया था और मेरा भी। दर्शन सिंह संधू और शुक्ला भी बहुत उदास थे। मेरी यह प्यारी बहन और दोनों मित्र मुझे बहुत याद आते हैं। 1979 में पता चला था कि शुक्ला की मृत्यु हो गई है। यह सुनकर मैं बहुत दुखी हुआ था। उसके सभी भाई एक एक करके चले गए थे। बस, वह अकेला ही माँ का इकलौता सहारा था। जब भी मैं पटियाला गया, मैंने उसकी माँ से मिलने का यत्न किया लेकिन उसका पूरा पता न होने के कारण मैं उस बेसहारा विधवा माँ से दुख साझा करने का अवसर प्राप्त नहीं कर सका।
दर्शन सिंह संधू की बदली पटियाला में राजेन्द्र अस्पताल में हो गई थी। किसी ने बताया था कि उसकी टांग और बांह का ऑपरेशन किया गया था और अब वह पहले से ठीक चल-फिर लेता है। लेकिन जब मैं एक दिन उसे अस्पताल में मिलने गया, वह छुट्टी पर था। लड़की होने के कारण मैंने दविंदर कौर को कभी भी मिलने का यत्न नहीं किया। सोचता था कि माँ और भाई क्या सोचेंगे। विवाह के बाद तो ऐसा करना और भी कठिन था। लेकिन वे मेरे प्यारे साथी और प्यारी बहनें जिन्होंने मुझे भरे मन से विदा किया था, उनके चेहरे अभी भी कभी-कभार मेरी आँखों के आगे आ जाते हैं।
विदायगी के बाद अगले दिन हमें तपा के लिए चलना था। संधू और शुक्ला की माँएँ तो उदास थी हीं, राज राणी भी बेहद उदास थी। बख्शी की आँखों में आँसू थे। सेवा सिंह मेरा सामान चढ़ाने के लिए बस-अड्डे पर आया हुआ था। दोबारा शतराणे अस्पताल में 1997 में गया था, पूरे 32 साल बाद। बस, वहाँ से गुजरा था। उस दिन छुट्टी होने के कारण अस्पताल में कोई नहीं था। दरियाई मल और बख्शी के परिवार में भी कोई नहीं मिला था। मेरे समय का कोई भी कर्मचारी वहाँ नहीं था। जो दाई और चौकीदार मुझे मिले भी, वे भी अजनबी की तरह मिले।
शतराणे बस-अड्डे पर हमारी रिहायश इस तरह थी जैसे खानाबदोश रहते हों। कमरे बेशक पक्के थे पर ईंट-बाले की छतें और कीकर के दरवाजों वाले ये कमरे बिलकुल भी जंचते नहीं थे। लेकिन फिर भी हमारे दिन त्यौहार की तरह गुजरे थे। हम पाँच कमरों में चार घर बसते थे। दाल-भाजी की सांझ तो थी ही, अन्य दुख-सुख भी साझे थे। गर्मियों में हम बाहर सोया करते थे। सबके साथ-साथ बिस्तर लगे होते थे। शुक्ला बीड़ी पिया करता था। बीड़ी वह बुझने ही नहीं देता था। बीड़ी पीते समय वह खांसता भी था। 1965 की हिंद-पाक लड़ाई की सब ख़बरें और ब्लैक आउट के सब दृश्य मैंने शतराणा में ही देखे थे। ब्लैक आउट के कारण दिन छिपने से पहले ही रोटी-सब्जी बनाकर सब खाली हो जाते थे। कोई दीया-बत्ती नहीं जलता था। शुक्ला जब बीड़ी लगाता, सब उसके पीछे पड़ जाते। सबसे ज्यादा ऊँचा-नीचा उसकी माँ ही बोलती, पर वह दोनों हाथ बीड़ी के ऊपर रखकर बीड़ी के सुट्टे मारता रहता। बीड़ी सुलगाने के समय भी वह कोशिश करता कि रोशनी बाहर न जाए, पर दियासलाई की लौ बाहर चली ही जाती थी। ऊँचा-नीचा उसे सुनना ही पड़ता। आख़िर यह सब कुछ हँसी में ही खत्म होता।
मेरी तनख्वाह भी सबसे अधिक थी और रुतबा भी बड़ा था। इसलिए संधू की माँ भी और शुक्ला की माँ भी बात बात में अपने बेटों की तनख्वाह और छोटे ओहदे को लेकर कलपती रहतीं। मुझे लगता जैसे वे मेरी माँ को सुना सुनाकर बातें कर रही हों। हमारे सभी के बिस्तर पास-पास होने के कारण अक्सर एक-दूजे की बात सुनाई दे ही जाती। लेकिन मेरी माँ तो माला फेरने में मगन होती, उस पर इनकी बातों का कोई असर न होता। मुझ पर इस तरह की बातों का असर इसलिए नहीं होता था क्योंकि मैं औरतों के चुगली दरबार की विषय-वस्तु के बारे में जानता था।
हैल्थ एजूकेटर के पद से विमुक्त होने के बाद अध्यापक के पद पर उपस्थित होने के लिए मुझे दो पड़ावों में से गुजरना था। उस समय अभी हरियाणा पंजाब से अलग नहीं हुआ था और कुल्लू और कांगड़ा ज़िले भी पंजाब में ही थे। एस.एस.एस. बोर्ड ने मेरे आदेश में कुल्लू और कांगड़ा ज़िले में मेरी नियुक्ति की सिफारिश की थी जिसकी वजह से मुझे डी.पी.आई के दफ्तर से आदेश लेकर मंडल शिक्षा अधिकारी, जालंधर से कांगड़ा या कुल्लू के किसी स्टेशन के आदेश प्राप्त करने की हिदायत हुई थी। इस इधर-उधर जाने में अप्रैल का महीना आरंभ हो गया था। मैं 1963-64 में कांगड़ा में प्राइवेट स्कूल में काम कर चुका था और उससे पहले भी एक पहाड़ी गाँव जुआर में। इसलिए मुझे कांगड़ा ज़िला के सब बड़े गाँवों और कस्बों की जानकारी थी। बाहर लगी खाली पदों की सूची पर सरकारी हायर सेकेंडरी स्कूल, नदौण में भी सामाजिक शिक्षा अध्यापक की पोस्ट खाली दिखाई गई थी। मैं हालांकि नदौण कभी गया नहीं था पर दसवीं की परीक्षा के समय 1962 में मेरी ड्यूटी विद्यार्थियों के साथ गरली की लगा दी गई थी। गरली एक छोटा-सा कस्बा था जो उस समय ज़िला होशियारपुर की तहसील ऊना का आख़िरी स्टेशन था या शायद ज़िला कांगड़ा का पहला स्टेशन। यहाँ ये नदौण दसेक किलोमीटर के फासले पर था। जब 1962 में मार्च के महीने में दो बार पैदल गरली से वापस जुआर आ रहा था, उस समय नदौण को जाने वाली पक्की सड़क मेरी देखी हुई थी और उधर से आने वाले ठंडी हवाओं की याद मेरे अन्दर अभी भी ताज़ा थी। इसलिए मैं फॉर्म में नदौण भरकर दे दिया। उसी दिन मेरे आदेश हो गए। आदेश में नौकरी पर उपस्थित होने से पहले सी.एम.ओ., धर्मशाला से मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट लेने की हिदायत थी। उस समय ज़िला तो कांगड़ा था पर ज़िले के सारे दफ्तर धर्मशाला में थे।
मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट की हिदायत पढ़कर मैं पूरी तरह हिल गया था। हिला हुआ तो मैं पहले ही था, अधिक ग्रेड की पोस्ट से कम ग्रेड की पोस्ट पर लगने के कारण और दूसरा इसलिए कि जिस इलाके को मैं सीले वायुमंडल के कारण छोड़कर गया था, मैं उसी इलाके में पुन: जाने के लिए मजबूर था। लेकिन फिर से मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट लेने वाली हिदायत तो असल में मेरे लिए बहुत डरावनी और कंपा देने वाली थी। पिछले बरस ही संगरूर से जिस तरह बड़ी कठिनाई से मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट लिया था, उसके बारे में मैं जानता था या मेरा भाई। संगरूर तो मेरा अपना इलाका था, ऊपर से डॉ. नरेश की मेहरबानी हो गई थी, पर धर्मशाला का तो मुझे कोई परिन्दा भी नहीं जानता था।
सोचते-सोचते आख़िर दिमाग काम कर ही गया। पिछले मेडिकल सर्टिफिकेट की सत्यापित प्रति मेरे पास थी। शायद यह सर्टिफिकेट ही काम आ जाए, यह सोच कर मैंने चिक उठाई और ई.ओ. के कमरे में घुस गया। ई.ओ. अर्थात अमला अफ़सर, जैसा कि बाहर तख्ती लगी हुई थी, कोई बंता सिंह था। सफ़ेद दाढ़ीवाला यह बेहद भला पुरुष प्रतीत होता था। मैंने डरते हुए कहा, ''सर, मैं रिट्रैंच्ड इम्प्लाई हूँ। पिछले साल मई में ही मेरा मेडिकल हुआ था।'' मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट की नकल मैंने उसकी मेज पर रखते हुए कहा। ''फिर तुम्हें मेडिकल करवाने की कोई ज़रूरत नहीं। अर्जी लिखो, मैं अभी आर्डर कर देता हूँ।'' ई.ओ. साहब मुझे रब से कम नहीं लग रहा था। अर्जी लिखने का तरीका मुझे आता था। सारी उम्र अर्जियाँ लिखने में ही बीती थी। मैंने मंडल शिक्षा अधिकारी, जालंधर को सम्बोधित करते हुए प्रार्थना पत्र लिख लिया। ई.ओ. साहब ने अर्जी मार्क की और मुझे सुपरिटेंडेंट साहब के पास भेज दिया। शाम पाँच बजे से पहले मुझे मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट की छूट देते हुए प्रिंसीपल, सरकारी हायर सेकेंडरी स्कूल, नदौण के नाम पत्र बनाकर दे दिया गया। मेरी जान में जान आई। यह तो याद नहीं कि मैं जालंधर में कहाँ ठहरा, पर ठहरा मैं जालंधर में ही था। सी.ई.ओ. दफ्तर का एक चपरासी नदौण के किसी करीबी गाँव का रहने वाला था। उसने मुझे नदौण जाने के लिए जो रास्ता बताया, वह मैं पहले ही जानता था। यह वही रास्ता था, जिस अड्डे से होशियारपुर जाकर मैं कभी जुआर या कांगड़ा की बस पकड़ा करता था। इसलिए वापस तपा जाने की कोई आवश्यकता नहीं थी। गुजारे लायक सामान मेरे पास था और यहाँ से सवेरे जल्दी चलकर मैं दोपहर से पहले हाज़िर हो सकता था। डूबते को तिनके के सहारे वाली बात थी। एक दिन की तनख्वाह और समय से हाज़िर होने के लालच के कारण मेरा जालंधर में ठहरना ही ठीक था।
(जारी…)
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धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-15( तीसरा भाग)
नया महकमा, नये अनुभव
जनवरी 1966 में उड़ती उड़ती ख़बर मिली कि सब ब्लॉक एक्सटेंशन एजूकेटरों की छटनी की जा रही है। इसके दो कारण थे - एक तो यह कि सैनेटरी इंस्पेक्टरों के लिए उन दिनों तरक्की का कोई चैनल नहीं था। उनकी मांग थी कि कम से कम एक पोस्ट ऊपर उनकी प्रमोशन होनी चाहिए। एक अफ़वाह यह थी कि ये एजूकेटर जनता में परिवार नियोजन का प्रभाव डालने में सफल नहीं हुए थे। मैंने डॉ. जैन से कहा कि वह बहन जी से मालूम करके बताएँ कि हमारा क्या हो रहा है। जैसे मैंने पहले भी उल्लेख किया है कि उस समय की स्वास्थ मंत्री ओम प्रभा जैन उनकी बहन थी। डॉ. जैन ने चार-पाँच दिन बाद मुझे बुलाकर बताया कि छटनी के आदेश जारी हो चुके हैं। 28 फरवरी 1966 को सभी एजूकेटरों का फारिग कर दिया जाना है।
हमने अपने भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए एक मीटिंग बुलाई। हरचेत सिंह, जो पी.एच.सी., कौली(पटियाला) में काम करता था, उसके और मेरे उद्यम से ही यह मीटिंग रखी गई थी। पटियाला में यह मीटिंग की गई। छंटनी के आदेश के वापस होने का तो अब सवाल ही पैदा नहीं होता था, इसलिए हमने एस.एस.एस. बोर्ड के चेअरमैन को मिलने का निर्णय किया। हमारी हलचल का परिणाम यह निकला कि छंटनी के नोटिस की तारीख़ एक महीना और बढ़ा दी गई। इस तरह 31 मार्च 1966 को सभी हैल्थ एजूकेटर हटा दिए जाने थे। बोर्ड से अभी हम मिले भी नहीं थे कि हमारे सबसे जूनियर ऑडीटरों के पदों पर चयन कर लिया गया। ग्रेड था - 80-5-120 का। पर इन पदों पर भी सरकार ने नियुक्तियाँ न करने का फैसला ले लिया था। यह सूचना, बोर्ड के दफ्तर में न होने के कारण ही यह आदेश हुए थे।
बहुत से एजूकेटर 150 के मूल वेतन की नौकरी छोड़कर 80 रुपये के मूल वेतन की नौकरी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे, लेकिन कुछेक तैयार थे। शायद वे सोचते होंगे- भागते चोर की लंगोटी ही सही। हम एक डेपुटेशन की शक्ल में बोर्ड के चेअरमैन सरदार उजागर सिंह से मिले। उसने मुझे पहचान लिया था क्योंकि मैंने पहले भी उसके साथ खुल कर बातें की हुई थीं। इसलिए मुझे उसके साथ बात करने में कोई झिझक महसूस नहीं हुई थी। उन दिनों पंजाब में कुछ नायब तहसीलदारों और पंचायत अफ़सरों के पद रिक्त पड़े थे। इन रिक्त पदों की संख्या 44 से अधिक थी। नायब तहसीलदारों के पद का ग्रेड हैल्थ एजूकेटर वाला ही था और पंचायत अफ़सरों के पद का ग्रेड उससे कम था लेकिन अफ़सर वाली पूंछ पीछे लगी होने के कारण सभी हैल्थ एजूकेटर पंचायत अफ़सर बनने के लिए भी तैयार थे। जब मैं इस संबंध में चेअरमैन साहब से विनती की तो वह हँसकर कहने लगे, ''काका जी, तुम किस दुनिया में रहते हो? नायब तहसीलदारों के पद क्या तुम्हारे लिए हैं?'' ''फिर जी आप हमें पंचायत अफ़सर लगा दो।'' मैंने पुन: बड़ी विनम्रता से कहा। वह फिर हँस कर बोले, ''ये पोस्टें भी तुम्हारे लिए नहीं हैं।'' जब कोई भी तीर चलता न दिखाई दिया तो मैंने कहा, ''हममें से तीन बी.ए., बी.एड भी हैं।'' ''हाँ, यह काम की बात की न। मास्टर लगना है ?'' मैंने ''हाँ'' में सिर हिला दिया। त्रिलोक सिंह बिलगे से था और एक महिला कुलजीत कौर थी जिसके गाँव का नाम अब मुझे याद नहीं। चेअरमैन साहब ने सुपरिटेंडेंट भनोट साहब को बुलाया और हमसे अर्जियाँ लेने के लिए कहा। हम तीनों के सामाजिक शिक्षा के अध्यापकों के पद पर आदेश करके डायरेक्टर, शिक्षा विभाग, पंजाब को भेज दिए गए और आदेश की एक प्रति हमें भी दे दी गई। गुरचरन सिंह जो उस समय हरपालपुर (पटियाला) में हैल्थ एजूकेटर था, मालूम नहीं डिप्टी सुपरिटेंडेंट (जेल) के आदेश कैसे ले आया। शेष सभी के आदेश 60-4-100 वाले ग्रेड की पोस्ट पर कर दिए गए। वे आसमान से गिरकर यदि खजूर में अटक जाते तो शायद स्वीकार कर लेते, पर उनमें से अधिकांश तो यूँ समझते थे मानो उन्हें ज़मीन पर पटक दिया गया हो। कुछ ने बेबसी में वह पोस्ट स्वीकार कर ली तो कुछ ने इसे अपना अपमान समझकर बेकार रहना उचित समझा।
31 मार्च 1966 को दोपहर के बाद मुझे सेवा-विमुक्त कर दिया गया। डा. अवतार सिंह की बदली हो चुकी थी। इसलिए इंचार्ज था- वेद प्रकाश फार्मासिस्ट। उसने मुझे स्मरण दिलाया कि मेरे आठ महीनों के टी.ए. बिल जो सी.एम.ओ. के दफ्तर में पड़े थे, मुझे उनका पता करना चाहिए। रकम आठ सौ के लगभग थी। मेरे तीन वेतनों से भी अधिक। सी.एम.ओ. के बाबू और रोकड़ के दफ्तरी से वेद प्रकाश ने ही बात की। नब्बे रुपये में सौदा हो गया और मुझे हैल्थ एजूकेटर के पद से विमुक्त होने के कुछ दिन के भीतर ही सारी रकम का भुगतान हो गया।
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शतराणे से रिलीव होना उस समय तो मेरे लिए दुखदायी घड़ी थी। मैं इस बात से भी दुखी था कि किसी ने मुझसे अभी तक विदायगी पार्टी की बात भी नहीं की थी। जिसके स्थान पर मैं यहाँ नियुक्त हुआ था, उसे कितने मान-सम्मान से विदायगी पार्टी दी गई थी। उसे याद करके मेरा मन भर आया। फिर मेरे मन ने पलटा खाया कि वह सिर्फ़ उसकी विदायगी पार्टी नहीं थी, मेरी स्वागत पार्टी भी थी। और फिर उस समय पार्टी के पीछे एक निश्च्छल इन्सान डा. अवतार था। इस वेद प्रकाश फार्मासिस्ट को क्या मालूम कि विदा हो रहे साथी को कैसे विदा किया जाता है। इसे तो घर घर जाकर टीके लगाने, पैसे बटारने और ज़मीन खरीदने के बारे में ही पता है। उस समय मेरे दिमाग में यह बात भी नहीं थी कि मेरे टी.ए. बिल पास करवाने वाला यह वेद प्रकाश ही था, बेशक बिल पास करवाने के लिए मुझे अपनी ज़िन्दगी में पहली बार बाबुओं की मुट्ठी गरम करनी पड़ी थी। मैं अभी रिलीविंग चिट बनवा ही रहा था कि दविंदर कौर ने दरियाई मल की दुकान से चाय पानी मंगवा कर दूसरे कमरे में रख दिया था। यद्यपि हम छह-सात कर्मचारी ही उपस्थित थे, पर दविंदर कौर के चेहरे पर बहुत उदासी थी मानो उसका कोई सगा भाई उसे छोड़कर जा रहा हो। मन उसका भी भर आया था और मेरा भी। दर्शन सिंह संधू और शुक्ला भी बहुत उदास थे। मेरी यह प्यारी बहन और दोनों मित्र मुझे बहुत याद आते हैं। 1979 में पता चला था कि शुक्ला की मृत्यु हो गई है। यह सुनकर मैं बहुत दुखी हुआ था। उसके सभी भाई एक एक करके चले गए थे। बस, वह अकेला ही माँ का इकलौता सहारा था। जब भी मैं पटियाला गया, मैंने उसकी माँ से मिलने का यत्न किया लेकिन उसका पूरा पता न होने के कारण मैं उस बेसहारा विधवा माँ से दुख साझा करने का अवसर प्राप्त नहीं कर सका।
दर्शन सिंह संधू की बदली पटियाला में राजेन्द्र अस्पताल में हो गई थी। किसी ने बताया था कि उसकी टांग और बांह का ऑपरेशन किया गया था और अब वह पहले से ठीक चल-फिर लेता है। लेकिन जब मैं एक दिन उसे अस्पताल में मिलने गया, वह छुट्टी पर था। लड़की होने के कारण मैंने दविंदर कौर को कभी भी मिलने का यत्न नहीं किया। सोचता था कि माँ और भाई क्या सोचेंगे। विवाह के बाद तो ऐसा करना और भी कठिन था। लेकिन वे मेरे प्यारे साथी और प्यारी बहनें जिन्होंने मुझे भरे मन से विदा किया था, उनके चेहरे अभी भी कभी-कभार मेरी आँखों के आगे आ जाते हैं।
विदायगी के बाद अगले दिन हमें तपा के लिए चलना था। संधू और शुक्ला की माँएँ तो उदास थी हीं, राज राणी भी बेहद उदास थी। बख्शी की आँखों में आँसू थे। सेवा सिंह मेरा सामान चढ़ाने के लिए बस-अड्डे पर आया हुआ था। दोबारा शतराणे अस्पताल में 1997 में गया था, पूरे 32 साल बाद। बस, वहाँ से गुजरा था। उस दिन छुट्टी होने के कारण अस्पताल में कोई नहीं था। दरियाई मल और बख्शी के परिवार में भी कोई नहीं मिला था। मेरे समय का कोई भी कर्मचारी वहाँ नहीं था। जो दाई और चौकीदार मुझे मिले भी, वे भी अजनबी की तरह मिले।
शतराणे बस-अड्डे पर हमारी रिहायश इस तरह थी जैसे खानाबदोश रहते हों। कमरे बेशक पक्के थे पर ईंट-बाले की छतें और कीकर के दरवाजों वाले ये कमरे बिलकुल भी जंचते नहीं थे। लेकिन फिर भी हमारे दिन त्यौहार की तरह गुजरे थे। हम पाँच कमरों में चार घर बसते थे। दाल-भाजी की सांझ तो थी ही, अन्य दुख-सुख भी साझे थे। गर्मियों में हम बाहर सोया करते थे। सबके साथ-साथ बिस्तर लगे होते थे। शुक्ला बीड़ी पिया करता था। बीड़ी वह बुझने ही नहीं देता था। बीड़ी पीते समय वह खांसता भी था। 1965 की हिंद-पाक लड़ाई की सब ख़बरें और ब्लैक आउट के सब दृश्य मैंने शतराणा में ही देखे थे। ब्लैक आउट के कारण दिन छिपने से पहले ही रोटी-सब्जी बनाकर सब खाली हो जाते थे। कोई दीया-बत्ती नहीं जलता था। शुक्ला जब बीड़ी लगाता, सब उसके पीछे पड़ जाते। सबसे ज्यादा ऊँचा-नीचा उसकी माँ ही बोलती, पर वह दोनों हाथ बीड़ी के ऊपर रखकर बीड़ी के सुट्टे मारता रहता। बीड़ी सुलगाने के समय भी वह कोशिश करता कि रोशनी बाहर न जाए, पर दियासलाई की लौ बाहर चली ही जाती थी। ऊँचा-नीचा उसे सुनना ही पड़ता। आख़िर यह सब कुछ हँसी में ही खत्म होता।
मेरी तनख्वाह भी सबसे अधिक थी और रुतबा भी बड़ा था। इसलिए संधू की माँ भी और शुक्ला की माँ भी बात बात में अपने बेटों की तनख्वाह और छोटे ओहदे को लेकर कलपती रहतीं। मुझे लगता जैसे वे मेरी माँ को सुना सुनाकर बातें कर रही हों। हमारे सभी के बिस्तर पास-पास होने के कारण अक्सर एक-दूजे की बात सुनाई दे ही जाती। लेकिन मेरी माँ तो माला फेरने में मगन होती, उस पर इनकी बातों का कोई असर न होता। मुझ पर इस तरह की बातों का असर इसलिए नहीं होता था क्योंकि मैं औरतों के चुगली दरबार की विषय-वस्तु के बारे में जानता था।
हैल्थ एजूकेटर के पद से विमुक्त होने के बाद अध्यापक के पद पर उपस्थित होने के लिए मुझे दो पड़ावों में से गुजरना था। उस समय अभी हरियाणा पंजाब से अलग नहीं हुआ था और कुल्लू और कांगड़ा ज़िले भी पंजाब में ही थे। एस.एस.एस. बोर्ड ने मेरे आदेश में कुल्लू और कांगड़ा ज़िले में मेरी नियुक्ति की सिफारिश की थी जिसकी वजह से मुझे डी.पी.आई के दफ्तर से आदेश लेकर मंडल शिक्षा अधिकारी, जालंधर से कांगड़ा या कुल्लू के किसी स्टेशन के आदेश प्राप्त करने की हिदायत हुई थी। इस इधर-उधर जाने में अप्रैल का महीना आरंभ हो गया था। मैं 1963-64 में कांगड़ा में प्राइवेट स्कूल में काम कर चुका था और उससे पहले भी एक पहाड़ी गाँव जुआर में। इसलिए मुझे कांगड़ा ज़िला के सब बड़े गाँवों और कस्बों की जानकारी थी। बाहर लगी खाली पदों की सूची पर सरकारी हायर सेकेंडरी स्कूल, नदौण में भी सामाजिक शिक्षा अध्यापक की पोस्ट खाली दिखाई गई थी। मैं हालांकि नदौण कभी गया नहीं था पर दसवीं की परीक्षा के समय 1962 में मेरी ड्यूटी विद्यार्थियों के साथ गरली की लगा दी गई थी। गरली एक छोटा-सा कस्बा था जो उस समय ज़िला होशियारपुर की तहसील ऊना का आख़िरी स्टेशन था या शायद ज़िला कांगड़ा का पहला स्टेशन। यहाँ ये नदौण दसेक किलोमीटर के फासले पर था। जब 1962 में मार्च के महीने में दो बार पैदल गरली से वापस जुआर आ रहा था, उस समय नदौण को जाने वाली पक्की सड़क मेरी देखी हुई थी और उधर से आने वाले ठंडी हवाओं की याद मेरे अन्दर अभी भी ताज़ा थी। इसलिए मैं फॉर्म में नदौण भरकर दे दिया। उसी दिन मेरे आदेश हो गए। आदेश में नौकरी पर उपस्थित होने से पहले सी.एम.ओ., धर्मशाला से मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट लेने की हिदायत थी। उस समय ज़िला तो कांगड़ा था पर ज़िले के सारे दफ्तर धर्मशाला में थे।
मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट की हिदायत पढ़कर मैं पूरी तरह हिल गया था। हिला हुआ तो मैं पहले ही था, अधिक ग्रेड की पोस्ट से कम ग्रेड की पोस्ट पर लगने के कारण और दूसरा इसलिए कि जिस इलाके को मैं सीले वायुमंडल के कारण छोड़कर गया था, मैं उसी इलाके में पुन: जाने के लिए मजबूर था। लेकिन फिर से मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट लेने वाली हिदायत तो असल में मेरे लिए बहुत डरावनी और कंपा देने वाली थी। पिछले बरस ही संगरूर से जिस तरह बड़ी कठिनाई से मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट लिया था, उसके बारे में मैं जानता था या मेरा भाई। संगरूर तो मेरा अपना इलाका था, ऊपर से डॉ. नरेश की मेहरबानी हो गई थी, पर धर्मशाला का तो मुझे कोई परिन्दा भी नहीं जानता था।
सोचते-सोचते आख़िर दिमाग काम कर ही गया। पिछले मेडिकल सर्टिफिकेट की सत्यापित प्रति मेरे पास थी। शायद यह सर्टिफिकेट ही काम आ जाए, यह सोच कर मैंने चिक उठाई और ई.ओ. के कमरे में घुस गया। ई.ओ. अर्थात अमला अफ़सर, जैसा कि बाहर तख्ती लगी हुई थी, कोई बंता सिंह था। सफ़ेद दाढ़ीवाला यह बेहद भला पुरुष प्रतीत होता था। मैंने डरते हुए कहा, ''सर, मैं रिट्रैंच्ड इम्प्लाई हूँ। पिछले साल मई में ही मेरा मेडिकल हुआ था।'' मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट की नकल मैंने उसकी मेज पर रखते हुए कहा। ''फिर तुम्हें मेडिकल करवाने की कोई ज़रूरत नहीं। अर्जी लिखो, मैं अभी आर्डर कर देता हूँ।'' ई.ओ. साहब मुझे रब से कम नहीं लग रहा था। अर्जी लिखने का तरीका मुझे आता था। सारी उम्र अर्जियाँ लिखने में ही बीती थी। मैंने मंडल शिक्षा अधिकारी, जालंधर को सम्बोधित करते हुए प्रार्थना पत्र लिख लिया। ई.ओ. साहब ने अर्जी मार्क की और मुझे सुपरिटेंडेंट साहब के पास भेज दिया। शाम पाँच बजे से पहले मुझे मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट की छूट देते हुए प्रिंसीपल, सरकारी हायर सेकेंडरी स्कूल, नदौण के नाम पत्र बनाकर दे दिया गया। मेरी जान में जान आई। यह तो याद नहीं कि मैं जालंधर में कहाँ ठहरा, पर ठहरा मैं जालंधर में ही था। सी.ई.ओ. दफ्तर का एक चपरासी नदौण के किसी करीबी गाँव का रहने वाला था। उसने मुझे नदौण जाने के लिए जो रास्ता बताया, वह मैं पहले ही जानता था। यह वही रास्ता था, जिस अड्डे से होशियारपुर जाकर मैं कभी जुआर या कांगड़ा की बस पकड़ा करता था। इसलिए वापस तपा जाने की कोई आवश्यकता नहीं थी। गुजारे लायक सामान मेरे पास था और यहाँ से सवेरे जल्दी चलकर मैं दोपहर से पहले हाज़िर हो सकता था। डूबते को तिनके के सहारे वाली बात थी। एक दिन की तनख्वाह और समय से हाज़िर होने के लालच के कारण मेरा जालंधर में ठहरना ही ठीक था।
(जारी…)
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1 comment:
दिलचस्प .जारी रखिये .....
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