समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Saturday, March 12, 2011

पंजाबी उपन्यास


''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

।। इक्कीस ॥
जिस दिन से नसीब कौर का निधन हुआ है, जगमोहन हर रोज़ ही पाला सिंह के पास जा बैठता है। लोग आते-जाते रहते हैं पर जगमोहन घर के सदस्यों की भाँति हाज़िर रहता है। जैसे पाला सिंह उसके पिता के साथ फौज में रहा है, वैसे ही जगमोहन की माँ और नसीब कौर भी आपस में सहेलियाँ रही हैं। जब जगमोहन इंग्लैंड आया था तो इस घर से उसे अपने घर जैसा ही प्यार मिला था, इसलिए अफ़सोस के अवसर पर वह उनके साथ रहना चाहता है। आज जब वह पाला सिंह के घर आता है तो प्रदुमण सिंह सामने बैठा मिलता है। नसीब कौर अचानक गुजर गई है। लोगों के लिए तो वह अचानक रब को प्यारी हुई है, पर असल में वह काफ़ी देर से बीमार थी। उसे अंतड़ियों की कोई बीमारी रही है। डॉक्टर कहते हैं कि किसी समय ये अंतड़ियाँ आपस में उलझ गई हैं। पाला सिंह हमेशा खुश रहने वाला व्यक्ति होने के कारण किसी को इस बारे में बताता भी नहीं। पत्नी की मौत को खिले माथे वाहेगुरू की मर्जी कहकर मंजूर कर लेता है। शोक व्यक्त करने आए व्यक्तियों के साथ भी ज्यादा दुख की बात नहीं करता। वैसे भी लॉन्ज में से सोफ़े उठा कर नीचे फर्श पर दरी के ऊपर चादरें नहीं बिछाता जैसा कि ऐसे मौकों पर रिवाज है। वह कुर्सियाँ कुछ और लाकर रख देता है ताकि अफ़सोस प्रकट करने आए मर्द-औरत एक ही स्थान पर बैठ जाएँ। बीसेक व्यक्ति तो आराम से बैठ जाते हैं। इससे अधिक हों तो कुर्सियाँ और भी पड़ी हैं, लेकिन कभी ज़रूरत नहीं पड़ती। उसे अफ़सोस की बातें इसलिए भी अच्छी नहीं लग रहीं कि उसके बच्चे अभी पूरे जिम्मेदार नहीं हुए, कम से कम उतने जितना वह समझता है कि होने चाहिएँ। कोई ब्याहा नहीं है। बड़ा मोहनदेव अभी इसी साल काम पर लगा है और छोटा अमरदेव डिग्री करके हटा है और मनिंदर अभी यूनिवर्सिटी में है। इसलिए वह सोच रहा है कि शीघ्र से शीघ्र फ्यूनरल की रस्म हो और ज़िन्दगी पुन: नार्मल होकर चलने लग पड़े। उसकी बेटी मनिंदर अभी अफ़सोस करने लायक भी नहीं। औरतें आ-आकर उसे रुलाने लगती हैं। पाला सिंह खीझने लग पड़ता है।
अफ़सोस की सीमित-सी बातें प्रदुमण के पास खत्म हो जाती हैं तो वह पाला सिंह से उसकी कार के बारे में कुछ पूछने लगता है। एक पल के लिए तो उसको लगता है कि वह व्यवहारिक तौर पर बहुत ग़रीब हो गया है, इतना ग़रीब की अफ़सोस प्रकट करने के लिए उसके पास शब्द ही खत्म हो गए हैं। जगमोहन के आ जाने पर उसे कुछ हौसला होता है कि वह ही कोई बात करेगा। जगमोहन को आम अफ़सोस प्रकट करने वालों से कहीं अधिक ही दुख है। बात करते समय उसे कुछ होने लगता है मानो वह अपनी माँ के बारे में ही बात कर रहा हो। प्रदुमण उसे धीरे से पूछता है-
''होम ऑफिस से कोई जवाब आया ?''
''तुम्हें ही आएगा, मेरा मतलब कुलजीत को ही आएगा, अपना अड्रेस तो हम कभी देते नहीं।''
''बैठा करते हो अभी भी ?''
''मैं अकेला ही होता हूँ, वीकएंड पर ही जाता हूँ पर कोई कम ही आता है।''
जगमोहन बताता है। पाला सिंह उसकी बात सुनकर कहता है-
''अडवाइज़ ब्यूरो की बात करत हो ?''
''हाँ, इन लड़कों ने हिम्मत तो मारी थी पर कामयाबी नहीं मिली।''
''कामयाबी इन्हें राख़ मिलनी थी। एक तो ये पैसे नहीं लेते थे और दूसरा ये गलत केस नहीं पकड़ते थे। कहते है- लोग झूठे ख़ालिस्तानी बनकर स्टे मांगते हैं।''
''तुम्हें भला ख़ालिस्तान दाँत काटता है ?''
''अंकल जी, आपको चाहिए ख़ालिस्तान ?''
''हमने क्या करना है!''
''अंकल जी, फिर गलत बात तो गलत है न।''
''ओ जवान, ये लोग कोई बड़ा गुनाह नहीं कर रहे। अगर हमारा मुल्क हमें नौकरी दे सकता होता तो हम ऐसे गलत सहारे क्यों खोजते। सारी दुनिया ही गलत आई है यहाँ, इललीगल... यह कोई नई बात तो थी नहीं कि पक्के होने के लिए झूठ बोलना या बैक डोर का इस्तेमाल करना पड़ता है।''
''अंकल जी, मेरी आत्मा नहीं मानती गलत काम करने के लिए।''
''तू बड़ा धर्मपुत्र बना फिरता है। वकील पता नहीं तुझे किसने बना दिया। साधू सिंह के केस के समय भी तू पागल हुआ फिरता रहा। इसका डैडी इतना बहादुर बंदा है, हम आर्मी में एक साथ रहे हैं, वो चुन चुनकर दुश्मन को मारा करता था, कभी उफ्फ नहीं करता था।''
''वो दुश्मन होंगे पर ये तो साधू सिंह की अपनी बेटी थी जिसे उसने मारा था।''
''जब आदमी दुश्मन ही हो जाए तो रिश्ते खत्म हो जाते हैं। लड़की ने दुश्मनी की और साधू सिंह ने निभा दी, मूँछ नीची नहीं होने दी।''
कहते हुए पाला सिंह मूँछों को मरोड़ा देने लगता है। मनिंदर आकर पूछती है-
''डैड, चाय तो नहीं चाहिए ?''
''नहीं बेटा, जूस लाकर दे इन्हें।''
फिर वह आदमी गिनते हुए कहता है-
''बेटा, पाँच गिलास लाना।''
बड़ा बेटा मोहनदेव भी काम पर से लौट आता है। वह सबसे हाथ मिलाकर बैठ जाता है। सभी उससे भी अफ़सोस प्रकट करते हैं। मोहनदेव उनके अफ़सोस का उत्तर दे रहा है। पाला सिंह का एक हाथ मूँछों पर है। दो मर्द और एक औरत और आ जाते हैं। औरत मनिंदर के गले लगकर रोने लगती है। दोनों मर्द हाथ जोड़कर सत्श्री अकाल कहते हुए सैटी पर बैठ जाते हैं। एक पूछता है-
''न, भरजाई को बीमारी क्या थी ?''
''बस, अन्दर ही अन्दर बीमारी थी। डॉक्टरों को भी समझ नहीं आई, हमें भी भरोसा था, पर पता तभी चला जब वह हमें छोड़कर चली गई।''
''बहुत माड़ा हुआ।''
''चलो जी, उसकी मर्जी।''
''चल पाला सिंह, अब हौसला रख। तू ही इनकी माँ और तू ही इनका पिता।''
पाला सिंह 'हाँ' में सिर हिला रहा है और अभी भी एक हाथ उसका मूँछ पर है। जब सब बात खत्म करते हैं तो वह कहता है-
''जनम-मरण तो ऊपर वाले के हाथ है, असल बात तो यह है कि जितने दिन जियो, अच्छी तरह जियो, इज्ज़त से।''
प्रदुमण सिंह जगमोहन को उठने के लिए इशारा करता है। जगमोहन अभी बैठना चाहता है पर प्रदुमण सिंह के कहने पर उसे उठना पड़ता है। प्रदुमण सिंह कहता है-
''अच्छा भई पाला सिंह, मेरे लायक कोई काम हो तो बता देना।''
''दुम्मण, तूने ही करना है सब।''
''फ्यूनरल कब की है ?''
''इससे अगले ट्यूज़डे। ग्यारह बजे बॉडी घर आएगी, एक बजे हैनवर्थ क्रिमेटोरियम में है संस्कार और दो बजे हम सबको बड़े गुरुद्वारे में पहुँचना है।''
''आ जाएँगे, पहले भी चक्कर लगाएँगे।''
प्रदुमण सिंह चलते हुए कहता है। जगमोहन भी पाला सिंह से अलविदा ले लेता है। बाहर निकलते ही पाला सिंह का छोटा लड़का अमरदेव मिलता है। वे उसके साथ हाथ मिलाते हुए बाहर निकल आते हैं। प्रदुमण सिंह पूछता है -
''आज जोगिंग करने नहीं गया ?''
''सवेरे सवेरे गया था। जोगिंग के बग़ैर तो गुजारा नहीं और दूसरा स्वीमिंग ज़रूरी होती थी, अब कुछ कम हुई है।''
स्वीमिंग वाली बात वह एकदम ख़त्म कर देता है मानो उसका कोई अर्थ ही न हो। सुखी की मौत के बाद वह तैरने के लिए बहुत कम जाया करता है। कभी-कभी अपने बेटों को हेज़ ले जाया करता है। वह सोचता है कि अब निरंतर जाना प्रारंभ कर देगा। तैरना शरीर के लिए बढ़िया व्यायाम है। फिर जगमोहन मज़ाक के मूड में आते हुए कहता है -
''तुम्हारा अंकल जी ठीक है।''
''वो कैसे ?''
''अगर आंटी फैक्टरी हो तो घर खाली, यदि आंटी घर में हो तो फैक्टरी खाली पड़ी होती है।''
''तू भाई जग्गे शैतान हुए जाता है। हम तो अगले की हैल्प करते हैं।''
''मैं कौन सा कहता हूँ कि आप अगले को लूटते हो।''
''मैं तो सबका भला सोचता हूँ। मैं चाहता हूँ कि कुलजीत स्थायी हो जाए और अपने घर बसे। तेरा कहना वो सच है कि और बहुत हैं, यहाँ साउथाल में ऐसी औरतों की कमी नहीं, पर जब तक खाना-पीना संभव है, खाए-पिये जाते हैं, सच बात तो यह है।''
''जो भी सच हो, जब लड़की को इस तरह फांस लोगे तो फिर बसने लायक कहाँ रहेगी।''
''मैं बूढ़ा बंदा भला उसको कहाँ से फांस लूँगा। उसकी कौन सी आदत बिगाड़ दूँगा।''
''जो भी हो, वह पक्की हो जाएगी, उसके केस में दम है, उससे ससुराल वालों की ज्यादती साफ़ झलकती है। पर टाइम लग जाएगा।''
''कितने टाइम में बन जाएगी बात ?''
''साल या हो सकता है छह महीने में ही।'' कहते हुए जगमोहन अपनी कार की ओर चल पड़ता है।
प्रदुमण फिर कार चलाता हुआ सोचने लगता है कि छह महीने तो आए कि आए। उसके मन में आता है कि क्यों न कुलजीत को वह किसी दिन कारे से मिलवा लाए। कारे ने उस दिन उसको पब में बुलाया था तो उसके संग एक जवान-सी औरत भी थी जिसका कारा उस पर रौब झाड़ रहा था। वह बुदबुदाते हुए कहता है -
''कारे, मैं आया अपने बर्ड को लेकर तेरे पास।''
(जारी…)

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