समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Sunday, March 6, 2011

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-19(प्रथम भाग)
आओ फिर धौले चलें और रूड़ेके भी

मेरे विवाह में स्कूल से प्रिंसीपल को छोड़कर और कोई नहीं गया था। वह भी सवेरे की चाय-पानी पीकर लौट आया था। धौले गए को मुझे दो महीने हो गए थे। इसलिए गाँव में भी किसी के साथ लिहाज नहीं बना था। मैं स्कूल के मास्टरों और धौले में से किसी भी व्यक्ति के मेरे विवाह में शामिल न होने पर अन्दर ही अन्दर खुश था। कारण यह था कि किसी ने मेरी पत्नी को देखा नहीं था। लोग भीतर की बात को नहीं समझते। उन्हें किसी के दुख-सुख से क्या ! मेरी पत्नी के मोटी होने को एक शुगल समझकर कानों कान बातें होतीं। लेकिन सालभर बाद जब हम धौले गए थे, ऐसा कुछ नहीं हुआ था। वर्ष भर के अन्दर मैं भी कुछ कुछ देह से भारी लगने लग पड़ा था। मेरी पत्नी भी पहले से कुछ पतली हो गई थी। मैंने उसे डायटिंग करने की खास हिदायत की हुई थी और उसे भी महसूस हो रहा था कि उसे अपना वजन घटाना चाहिए।
विवाह 10 दिसम्बर 1966 का था। कुछ दिन बाद ही दिसम्बर की छुट्टियाँ हो गई थीं। जनवरी-फरवरी में मैंने साइकिल से जाने की बजाय बरास्ता हंडियाआ क्रॉसिंग बस से जाता रहा। इससे थकावट भी नहीं होती थी और रात में दसवीं कक्षा के दो लड़कों को पढ़ाना भी आसान लगता था। ये दोनों लड़के भाई के किसी लिहाजी के बच्चे थे और थे भी सौ फीसदी मुफ़्तखोरे। दर्शना देवी को उनका रात में आना बिलकुल अच्छा नहीं लगता था, पर बेचारी बोल कुछ नहीं सकती थी। भाई की हुक्मउदूली भी मैं नहीं कर सकता था। मेरा यह भी विचार था कि दोनों लड़कों में से एक का पिता परीक्षा के बाद चार-पाँच सौ रुपये अवश्य देकर जाएगा। वह बहुत बड़ा ठेकेदार था पर परीक्षा तो क्या, नतीजा निकलने के बाद भी दोनों के पिता भाई के पास आकर धन्यवाद कर गए थे पर मुझसे मिले तक नहीं थे। न ही लड़कों में से कोई आकर मुझसे मिला था। उन लड़कों में से एक लड़का पिछले दिनों शायद बिग्रेडियर रिटायर हुआ है और दूसरा करोड़पति ठेकेदार है। जब मैं उन विद्यार्थियों को याद करता हूँ तो इनके प्रति मेरे अन्दर कभी गर्व की भावना जाग्रत होती है तो कभी नफ़रत की। असल में, पूरे देश में अध्यापक का सम्मान तो क्या, उसकी मज़दूरी भी नहीं दी जाती। वे अध्यापक बिलकुल ठीक हैं जो मुँह मांगे पैसे लेकर पढ़ाते हैं। अपनी मेहनत क्यों छोड़ी जाए ? जब कोई अन्य सौदा मुफ़्त मे नहीं मिलता तो विद्या को दान समझकर अपना समय क्यों बर्बाद किया जाए। मेरी इस धारणा को अच्छा समझो या खराब, पर मेरे जीवन का अनुभव यह बताता है कि जिन बच्चों को मैंने मुफ़्त में पढ़ाया है, उनमें से अधिकांश बाद में मिलने पर दुआ-सलाम भी नहीं करते। लेकिन मैं यह बात सभी विद्यार्थियों पर लागू नहीं कर सकता।
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अगले वर्ष आठवीं कक्षा की अंग्रेजी के अलावा बाकी का टाइम टेबल पहले वाला ही मिल गया था। धौला साहब से दुआ-सलाम पहले से ज्यादा हो गई थी। दूसरे दो मास्टर अन्दर ही अन्दर इस बात से दुखी थे कि मैं रहता भी अपनी अकड़ में हूँ और दूसरे मास्टरों की तरह उनकी चौकी भी नहीं भरता और न ही धौला साहब के सामने उनकी तरह पूंछ हिलाता हूँ। प्रिंसीपल बेचारा बड़ा डरपोक था। बात बात में मुझे कई बार कह चुका था कि मै सीनियर अध्यापकों के संग बना कर रखूँ, पर मुझे समझ में नहीं आता था कि बना कर कैसे रखी जा सकती है।
असल बात यह थी कि पिछले कुछ वर्षों में जिन अध्यापकों ने उनके अध्यापकों की ताबेदारी नहीं की थी, उनके पैर उन्होंने लगने नहीं दिए थे। फिर उनके पास सम्पूरन सिंह धौले के साथ बने सम्बन्धों का हथियार भी था। इस कारण भी वे नये बने मास्टर की अकड़ खत्म कर देना चाहते थे। पर एक मैं था कि उनकी किसी भी चाल में नहीं फंसा था। उसका एक कारण यह भी था कि मेरी स्कूल के बाबू ज्ञान चंद पुंज से निकटता बढ़ गई थी। स्कूल में जिसकी स्कूल के बाबू से बनती है, समझो स्कूल का प्रधान उसकी मुट्ठी में अपने आप आ जाता है। पुंज के साथ अच्छी छनने के कारण मेरा दफ्तर का कोई भी काम नहीं रुकता था। ज्ञानी गुरचरन सिंह भी यह समझ गया था कि यह बंदा किसी के काबू में नहीं आने वाला। दूसरा यह कि एक जे.बी.टी. अध्यापक गुरबचन सिंह धालीवाल बरनाला से आता था, वह स्कूल में कबड्डी और भंगड़े का इंचार्ज था। बात करते समय छोटे-बड़े किसी का लिहाज नहीं रखता था। मेरे इस स्कूल में आने से पहले एक गुरसिख ज़िला शिक्षा अधिकारी स्कूल में आया था और गुरबचन को दाढ़ी काटने के कारण ऊँचा-नीचा बोल गया था। हैड मास्टर भी उन दिनों में धौला साहब का यार और पंजाब के हैड मास्टरों का प्रधान जलौर सिंह था। इसके बावजूद गुरबचन ने डी.ई.ओ. को इस निजी किस्म के मसले पर रोक टोक करने के लिए डपट कर बिठा दिया था। यह गुरबचन बरनाला में मेरे साले हरबंश का ट्यूटर था। इसलिए उसके संग बनी लिहाज एक ब्राह्मण और दूसरी खत्री अध्यापक को झटका देने के लिए काफी थी। नया पंजाबी लेक्चरर जीवन सिंह और पंजाबी साहित्य सभा, बरनाला के प्रमुख मेंबरों में से करम चंद ऋषि के साथ भी मेरी अच्छी मित्रता हो गई थी। दोपहर की रोटी हम तीनों ही एक साथ बैठकर खाते थे। अंग्रेजी मास्टर पंडित जी और साइंस के एम.एस.सी. कंडेस्ड कोर्स के खत्री मास्टर लेबॉरट्री में बैठ कर दोपहर का खाना खाते। साइंस मास्टर होने के कारण कपूर के पास बैठने के लिए लैब एक बढ़िया अड्डा था। कुछ पूंछ दबाऊ मास्टर भी उनके पास जा बैठते।
गुरबचन की प्राइमरी ब्रांच हॉयर सेकेंडरी क्लासों वाली बिल्डिंग से कुछ दूरी पर थी। इसलिए आम तौर पर उसके साथ मुलाकात स्कूल लगने के समय या पूरी छुट्टी के बाद ही होती। कई बार आधी छुट्टी के समय भी वह हमारे पास आ जाता। गुरबचन दलित था, बहुत तगड़ा था और जैसा कि मैं पहले बता चुका हूँ, वह सिरे का मुँहफट था। यदि कोई उल्टी-सीधी बात करता, उसकी ठुकाई करने में भी मैं भी कम नहीं था। इसलिए जल्दबाजी में कोई हमारे संग पंगा नहीं लेता था।
मुझे यह स्मरण नहीं कि मेरे खिलाफ़ विद्यार्थियों में भड़काने की कोई बात पंडित जी या कपूर ने की हो, पर दोनों मुझसे दुखी बहुत रहते थे। जीवन सिंह भी और गुरबचन पर भी। ऋषि बोलता नहीं था, सबके साथ उसकी दुआ-सलाम अच्छी थी। दुआ-सलाम तो मैंने भी खराब नहीं होने दी थी, पर मैंने कपूर के किसी मजाक और पंडित जी के व्यंग्य का करारा जवाब देने में देर नहीं की थी। दसवीं और ग्यारहवीं के विद्यार्थी मेरा सम्मान अब वैसा ही करते थे, जैसा वे उपर्युक्त दोनों जाने-माने अध्यापकों का करते थे। कारण यह था कि मैं न कभी स्कूल विलम्ब से पहुँचा था, न कभी प्रिंसीपल से अन्य किसी प्रकार की छूट मांगी थी। कभी एक घंटे की छुट्टी भी बग़ैर अर्ज़ी दिए प्रिंसीपल से नहीं ली थी। प्राइवेट स्कूलों का अनुभवी होने और दूर-दराज के धौल-धक्के खाने के कारण मुझे इतनी समझ आ गई थी कि अपनी कमजोरी पर भी पर्दा डालने के लिए बच्चों में मकबूल होना कितना ज़रूरी है। बाकायदा पीरियड लगाना, पढ़ाते समय हर विषय को रोचक बनाकर पेश करना, पाठ्यक्रम और किताबों से बाहर का ज्ञान देना और बच्चों को प्यार करना, आदि कुछ ऐसे गुर थे, जिनके कारण शीघ्र ही मैं गिनती के अध्यापकों में शुमार हो गया था। स्कूल में मैं सबसे पहले हाज़िरी लगाने वाला अध्यापक गिना जाने लग पड़ा था। पूरी छूट्टी होने पर भी मैं सबसे पीछे हाज़िरी लगाने के लिए जाता। तनख्वाह लेने के समय भी मैं उस समय पहुँचता जब कपूर साहब की चौधराहट खत्म होने के बाद तनख्वाह लेने वाले एक-दो अध्यापक ही रह जाते। उन्हें तनख्वाह देते समय सिर्फ़ ज्ञान चंद पुंज ही होता। मैंने कपूर के हाथ से शायद एक-दो बार ही तनख्वाह ली होगी। पंडित जी और कपूर साहब की चौधराहट मुझे कतई पसंद नहीं थी। कई बार सोचता, ये महारथी किस बात पर स्कूल में चौधराहट किए जा रहे हैं। फिर बिलकुल समझ में आ गया था कि धौला साहब की जी-हुज़ूरी, ज्ञानी गुरबचन सिंह के साथ निकटता और दफ़्तर के हर कागज-पत्र की निगरानी के कारण ये अभिमानी चौधरी स्कूल पर छाये हुए हैं।
जीवन सिंह और मेरे स्कूल में आने के बाद उनका यह प्रभाव घटते-घटते साधारण सा रह गया था। जीवन सिंह सबसे वरिष्ठ लेक्चरर था जिस वजह से वह स्कूल का वाइस-प्रिंसीपल था। इसके बाद मैथ वाले लेक्चरर का नंबर था। उसके बाद अंग्रेजी का लेक्चरर प्रकाश चंद और फिर पंडित जी और कपूर। कपूर के बाद एक अन्य मास्टर मुझसे वरिष्ठ था। शायद, स्कूल में मेरा छठा-सातवां नंबर था।
1966-67 के सैशन के दौरान स्कूल में मेरे साथ दो प्रमुख घटनाएँ घटित हुईं। एक तो यह कि ग्यारहवीं के विद्यार्थी अपनी मर्जी के अनुसार क्लास लगाना चाहते थे। मैं किसी सूरत में अनुशासन भंग नहीं होने देना चाहता था। उधर विद्यार्थी अपनी बात पर अड़ गए और मैं अपनी बात पर। विवश होकर मैंने क्लास लगानी बन्द कर दी। तीसरे ही दिन यह बात प्रिंसीपल के पास पहुँच गई। वह चाहता था कि मैं विद्यार्थियों की बात मान लूँ लेकिन मेरी दलील यह थी कि ये विद्यार्थी ग्यारहवीं कक्षा के होने के कारण स्कूल में कालेजों वाली छूट चाहते हैं। उन दिनों में कहीं-कहीं ही हॉयर सेकेंडरी स्कूल होता था, जहाँ ग्यारहवीं क्लास हुआ करती थी। और वह भी सिर्फ़ सामाजिक विषयों की। मेडिकल या नान-मेडिकल कक्षाएँ अभी ग्रामीण स्कूलों में आरंभ नहीं हुई थीं, क्योंकि उनके लिए स्कूल में भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान और जीव विज्ञान की प्रयोगशालाएँ चाहिए थीं और इन तीन विषयों के लेक्चररों के अतिरिक्त मैथ के लेक्चरर की भी आवश्यकता थी। यह सब प्रबंध प्रारंभिक दौर में सरकार की ओर से नहीं किए गए थे। विशेष तौर पर इन विषयों के लेक्चरर उन दिनों में सहजता से नहीं मिला करते थे। कालेज में ग्यारहवीं को प्रि-यूनिवर्सिटी कहा करते थे और सुबह की सभा की कालेजों में कोई परंपरा नहीं थी जबकि स्कूल में हॉयर सेकेंडरी अर्थात ग्यारहवीं कक्षा के विद्यार्थी भी समय से स्कूल आते और सुबह की सभा में शामिल होते। कालेजों की भांति कोई खाली पीरियड भी नहीं होता था। कालेजों की भांति स्कूल में कोई कैंटीन भी नहीं होती थी। तात्पर्य यह कि कालेजों वाली कोई आज़ादी, छूट हॉयर सेकेंडरी स्कूलों में ग्यारहवीं के विद्यार्थियों के लिए नहीं होती थी।
मैं सदैव विद्यार्थियों की आज़ादी और उनके अधिकारों के हक में रहा, पर अराजकता कभी भी बर्दाश्त नहीं की। यहाँ भी प्रश्न मेरी जिद्द का नहीं था, उसूल का था, लेकिन प्रिंसीपल विद्यार्थियों को समझाने में सफल नहीं हुआ था। पता नहीं, विद्यार्थियों को किसने अक्ल दी, उन्होंने अपनी गलती मान ली और मैंने क्लास लेना प्रारंभ कर दिया। मैंने किसी अध्यापक पर शक नहीं किया था क्योंकि ऐसा करने से कुछ और समस्याएँ पैदा हो सकती थीं। ग्यारहवीं कक्षा को मैं अक्सर कालेजों की भांति लेक्चर के माध्यम से पढ़ाता और आवश्यकता पड़ने पर पाठ्य-पुस्तक का इस्तेमाल भी करता। पाठ्य-पुस्तक का इस्तेमाल मैं इसलिए करता था, क्योंकि ऐसा करने पर किसी भी पाठ के सार से अनछुआ रह जाने की गुंजाइश नहीं रहती थी। यह मेरी ज़रूरत भी थी। मेरी विधि के बिलकुल उलट प्रिंसीपल इतिहास पढ़ाते समय विद्यार्थियों को नोट्स लिखवाता। वह इतिहास में एम.ए. था और मुख्य अध्यापक से प्रमोट होकर प्रिंसीपल बना था। पहले वह मैथ मास्टर था। नौकरी के दौरान ही उसने इतिहास में एम.ए. की थी। वैसे उसे इतिहास में कोई रुचि नहीं थी। कक्षा में वह किताब ले जाता। किताब में से देखकर बोले जाता और विद्यार्थी लिखते रहते। कुछ विद्यार्थी लिखते भी नहीं थे। जिन्हें नहीं लिखना होता, वे पीछे बैठ जाते। लिखने का ढोंग करते रहते। प्रिंसीपल ने किसी भी विद्यार्थी को कभी टोका नहीं था। पीरियड लगाने के बाद वह हिस्ट्री की वही किताब लाकर दफ्तर के अपने मेज की दराज में रख देता।
मुझसे जुड़ी घटना के बाद विद्यार्थियों की ओर से की गई अराजकता की यह दूसरी घटना थी कि उनमें से कोई विद्यार्थी उस समय जब प्रिंसीपल और क्लर्क दफ्तर से इधर-उधर होते थे, हिस्ट्री की वह किताब प्रिंसीपल की दराज में से निकाल कर ले गया था। अगले रोज़ जब प्रिंसीपल ने पीरियड लेना था, किताब दराज में नहीं थी। उसने मुझे बुलाया और किताब के गुम हो जाने के बारे में बताया। साथ ही, यह भी बताया कि वह किताब कुंदरा की लिखी हुई है। कुंदरा शायद उस पुस्तक का लेखक था। प्रिंसीपल जो पहले ही बहुत मायूस रहता था, उसका चेहरा उतरा हुआ था। वह कक्षा में नहीं गया। विद्यार्थी कभी कक्षा के अन्दर जा रहे थे और कभी बाहर निकलकर शोर मचा रहे थे। यह तो मुझे अच्छी तरह याद नहीं कि प्रिंसीपल उस तरह की दूसरी किताब कहाँ से लाया, पर हफ़्ता भर प्रिंसीपल ने कक्षा नहीं ली थी और दफ्तर में काम का बहाना लगाकर किसी अन्य अध्यापक जिसका पीरियड खाली होता, को उस कक्षा में भेज देता। दो बार मुझे भी उस कक्षा में जाने का अवसर मिला। मुझे पूरा यकीन था कि किताब विद्यार्थियों ने ही दराज में से निकाली है और विद्यार्थी प्रिंसीपल की शराफ़त का नाजायज़ फायदा उठाते हैं। दूसरा, मेरे दिमाग में यह बात दृढ़ हो गई कि अपनी एक-आध किताब लेकर कक्षा में जाना और विद्यार्थियों को लिखवाना कोई अच्छा तरीका नहीं है। इससे अध्यापक का विद्यार्थियों पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता। केवल भाषा अध्यापक ही पाठ्य-पुस्तक का प्रयोग कक्षा में करते हुए उस समय अच्छे लगते थे और अब भी लगते हैं। लेकिन मेरे जैसा अध्यापक जो स्वयं किताब से देर तक देखकर पढ़-लिख नहीं सकता, उसके लिए यह आवश्यक था कि वह ग्यारहवीं कक्षा को पढ़ाने से पहले चैप्टर के मुख्य नुक्ते अपने दिमाग में बिठा कर आए। ऐसा करने के लिए मुझे घर से पहले चैप्टर सुनकर जाना पड़ता था। इस काम के लिए मैं घर के बच्चों की ही सहायता लेता था। विवाह के पश्चात मैंने सोचा तो यह था कि यह काम मैं अपनी पत्नी से लूँगा, पर सुदर्शना देवी तो बेचारी पढ़ने-लिखने में इतनी ढीली थी कि पंजाबी का एक पृष्ठ पढ़ने के लिए उसे पंद्रह-बीस मिनट चाहिए थे और यदि कोई अंग्रेजी का शब्द आ जाता तो वह राह में ही अटक जाती। इसलिए मुझे यह काम दूसरों से ही लेना पड़ता। यह मेरा सौभाग्य ही समझो कि मैं एक अच्छा वक्ता होने के कारण दस मिनट की सामग्री को चालीस मिनट तक भी खींच सकता था। यदि चैप्टर नहीं भी पढ़कर जाता तो मेरे विषय के विशाल घेरे के कारण मैं विद्यार्थियों को यह पता नहीं नहीं चलने देता था कि आज मैं तैयारी करके नहीं आया हूँ। पीरियड सवालों-जवाबों और लतीफ़ेबाजी में ही गुजार देता। इस प्रकार कभी-कभार विद्यार्थियों का भी कक्षा में हल्का-फुल्का मनोरंजन हो जाता और मेरा पर्दा भी बना रहता। शेष निचली कक्षाओं के सन्दर्भ में जैसा कि मैं पहले भी बता चुका हूँ, मैं पहले वाले स्कूलों वाला ही उपाय प्रयोग में लाता। एक उपाय यह बरतता कि कुछ होशियार और कुछ शरारती विद्यार्थियों को किसी न किसी तरह अपने हाथों के नीचे रखता। ऐसा करने के लिए मुझे नई कक्षा को नियंत्रण में रखने हेतु करीब दो हफ़्ते लग जाते और फिर पूरा वर्ष मौज रहती।
आने-जाने के लिए मैंने पहली अप्रैल से तपा से हंढ़िआये का रेलवे पास बनवा लिया था क्योंकि बस पर आने-जाने में खर्च अधिक हो जाता और तनख्वाह का कम से कम दस प्रतिशत हिस्सा उड़ जाता। उन दिनों मेरे लिए पाँच-दस रुपये भी बहुत अहमियत रखते थे क्योंकि तनख्वाह दो सौ से कम थी।
पहली अप्रैल से स्कूल सुबह सात बजे लगने लग पड़ा था। बठिंडा से बरनाला जाने वाली गाड़ी तपा के स्टेशन पर करीब छह बजे आ जाती। मैं गाड़ी पकड़ता और हंढ़िआये जाकर उतर जाता। वहाँ मैंने अपना साइकिल रखा हुआ था। पहले साइकिल खुड्डी गाँव के एक हलवाई की दुकान पर रखा। स्टेशन का नाम हंढ़िआया था पर असल में हंढ़िआया यहाँ से डेढ़-दो किलोमीटर दूर था। स्टेशन के करीब जो गाँव था, वह था खुड्डी कलां। पर दो हफ़्ते बाद हलवाई की दुकान पर साइकिल रखना रास न आया क्योंकि मेरे साइकिल रखकर चले जाने के बाद वह साइकिल की खूब रगड़ाई करता। यही कारण था कि एक बार साइकिल के पिछले टायर की हवा निकली हुई मुझे मिली थी। फिर पाँच-सात दिन बाद कोई साइकिल ही वहाँ से ले गया था, वह भी हलवाई से पूछकर। लेकिन करीब पंद्रह मिनट बाद साइकिल ले जाने वाला व्यक्ति आ गया था। उस दिन अगर मैं साइकिल पूरी रफ्तार से न चलाता तो मैं स्कूल में सात बजे नहीं पहुँच सकता था और तेज चलाना मेरे लिए खतरनाक सिद्ध हो सकता था। स्टेशन से लिंक रोड बठिंडा-तपा-बरनाला मुख्य रोड तक जाती थी। वहाँ से हंढ़िआया क्रॉसिंग और फिर बस वाला वही धौले का रूट। इस तरह मुझे नौ-दस किलोमीटर साइकिल चलाना पड़ता था। आते समय जो गाड़ी मुझे मिलती थी, उसे हम ‘ढाई का डिब्बा’ कहते थे क्योंकि वह पूरी ट्रेन की बजाय चार-पाँच डिब्बों वाली ही गाड़ी होती थी। उसमें पूरे डिब्बे लग जाने के बाद भी तपा से बठिंडा तक लोग उसे ‘ढाई का डिब्बा’ ही कहते थे। बाद में मैं स्टेशन मास्टर से कहकर टिकट खिड़की के साथ वाली एक अन्य खिड़की के पास अपना साइकिल खड़ा करने लग पड़ा था। साइकिल में ताला तो लगाता ही था, इसके अलावा साइकिल के डंडे और खिड़की के सरिये में से लोहे की चेन निकालकर उसके दोनों सिरों पर भी ताला लगा देता था। यह तरीका मैंने तब तक अपनाया जब तक कि मैंने एक खास घटना के घट जाने पर यह रूट नहीं छोड़ा।
बात कुछ इस प्रकार हुई कि पूरी छुट्टी के बाद जब मैं हंढ़िआया क्रॉसिंग की तरफ जा रहा था तो ऐसी काली आंधी आई कि मेरे लिए साइकिल चलाना कठिन ही नहीं, असंभव हो गया। मैं साइकिल से उतर कर शीशम के पेड़ के नीचे तने से पीठ टिकाकर बैठ गया और साइकिल भी ज़मीन पर लिटा दिया। आंधी और बारिश ने आधा-पौना घंटा वह क़हर बरपाया कि मैं तो क्या, कोई भी मुसाफ़िर मुझे साइकिल पर जाता दिखाई नहीं दिया था। या यूँ कह लो, उस समय कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा था। करीब तीन बजे आंधी के कुछ मद्धम पड़ने पर मैं क्रॉसिंग की तरफ चल पड़ा। मुझसे साइकिल चलाया ही नहीं जा रहा था। बमुश्किल साइकिल को खींचता हुआ तेजी से चला जा रहा था। सोचा कि अगर इसी तरह ही चलकर स्टेशन पर पहुँचूंगा तो वहाँ दो घंटे बैठना पड़ेगा, शाम वाली गाड़ी ही मिलेगी। मैं यह सोच ही रहा था कि बरनाला की ओर से एक ट्रक आ गया, बालू से भरा हुआ। पहले तो ड्राइवर और क्लीनर माना ही नहीं, फिर मेरी मिन्नत और कुछ मेरे पीछे पड़ने पर वे मान गए। मुश्किल से साइकिल ट्रक में चढ़वाया और मुझे खुद भी पीछे बालू पर बैठना पड़ा। तपा सड़क पर जब ट्रक रुका तो मैं उतरने लगा, घड़ी के फ्रेम में से मशीन निकलकर सड़क से हटकर कच्चे में जा गिरी। बमुश्किल साइकिल उतारा और ट्रक के क्लीनर को पाँच रुपये देकर बड़ी मुश्किल से मनाया। यहाँ उस तरह की आंधी नहीं थी। सो, घड़ी की मशीन, डायल और चेन को जेब में डालकर मैंने लिंक रोड पर साइकिल चढ़ा लिया। रेते से भरे चिरर... चिरर करते साइकिल को बमुश्किल घर तक ले जा पाया।
मुँह-सिर सारा रेते से भर गया था। मुँह धोया। आँखें लाल-सुर्ख हुई पड़ी थीं। घड़ी पत्नी को पकड़ाई। डायल एच.एम.टी. का था और मशीन टाइटस की। इसका पत्नी को तो कुछ पता न चला पर मैं समझ गया था कि घड़ी डुप्लीकेट है। रात में जब पत्नी के साथ बात की तो उसने बताया कि घड़ी बड़े मामा ने दी थी। वह इस ठगी पर बहुत दुखी थी। ठगी बहुत छोटी थी। उस समय दोनों घड़ियों के बीच तीस-चालीस रुपये का अन्तर था। पर सुदर्शना देवी इस ठगी पर बहुत परेशान थी। हो सकता है, पहले भी बड़े मामा ने विवाहों अथवा अन्य कामों में इस तरह का रोल अदा किया हो।
इसके बाद मैंने धौले से आने-जाने का अपना रास्ता बदल लिया। धौले में बदली के समय साइकिल पर घुन्नस की पगडंडी से होकर स्कूल जाने वाला राह मुझे बिलकुल सस्ता भी लगा और आसान भी। यह अलग बात है कि कच्चे राह के बाद खेत आ जाते, उन दिनों वहाँ बाज़रा बोया होता था और था भी वह मेरी कमर से काफी ऊँचा। पगडंगी सिर्फ़ डेढ़ फुट की ही थी, जिस कारण साइकिल कई बार डोल जाता और बाज़रे के कांटों की मेरी बांहों पर रंगड़ लगने के कारण जलन पैदा होने लगती। जाते समय तो ठंडा मौसम होने के कारण कुछ पता न चलता था, लौटते समय दो ढाई बजे तेज धूप होती, कभी कभी बहुत सेक होता, सारा टीलों वाला रास्ता था। हालांकि टीले भी जोते हुए थे, पर साइकिल चलाने में बहुत कठिनाई होती। पसीना चू-चू कर टखनों तक पहुँच जाता और गुरगाबी में पैर चिपचिप करने लग पड़ते। पर मुझे फिर भी यह रास्ता पहले से ठीक लगा क्योंकि साइकिल हंढ़िआया में खड़ी करने के लिए किसी के सम्मुख मिन्नत-चिरौरी करने की ज़रूरत नहीं थी और उस आंधी-बारिश वाली मेरे अन्दर बसी तल्ख़ी के कारण मेरा उस राह से नाता छूट गया था।
रबी की फसल बुआई होने के कारण बाजरे के कांटों और तेज धूप के सेक से मुक्ति मिल गई थी। लेकिन राह ही कुछ ऐसा था कि जाते वक्त कुछ थोड़ा और लौटते वक्त पूरी तरह पसीने-पसीने हो जाता। सड़क पर आकर बिलकुल बायें हाथ साइकिल चलाता। बस या ट्रक को देखकर साइकिल धीमी कर लेता या कई बार कच्चे पर उतार लेता लेकिन अन्दर ही अन्दर डरता रहता। कई बार तो एक साथ कई बसों या ट्रकों के आने से या उनके क्रॉस करने पर साइकिल पर से उतर कर दो-चार मिनट एक तरफ होकर खड़ा हो जाता। जाते समय कभी कभी महिते जाने वाला कोई अध्यापक मिल जाता तो वहाँ तक बातों में ही वक्त गुजर जाता, पर लौटते समय मास्टरों में मैं अकेला ही सड़क पर होता। किसी ने बुला लिया तो बोल पड़ा, नहीं तो अपनी धुन में साइकिल चलाये जाता। लिंक रोड पर आकर साइकिल कुछ धीमे चलाता क्योंकि सड़क के दोनों तरफ काफी हिस्सा जोहड़ों ने घेर रखा था और जोहड़ों के बाद बाबा सुखानंद मठ से लेकर बाज़ार में से होते हुए अपने घर तक भीड़-भाड़ में से निकलना पड़ता। इसलिए बहुत सचेत रहना पड़ता, आम साइकिल चलाने वालों से अधिक। हालांकि उस समय 1990 के बाद वाली कारों, स्कूटरों और मोटरसाइकिलों की भीड़ सड़क पर नहीं होती थी, पर पैदल चलने वालों, साइकिलों, ऊँठ गाड़ियों और ठेलियों से सड़क भरी होती और मुझे अपनी कमजोरी का पूरा ज्ञान था, जिस कारण मैंने कभी कोई खतरा मोल नहीं लिया था। कुछ मेरे सफ़र ने और कुछ घर के हालात ने आख़िर मुझे दिसम्बर 1967 में धौले में रहने के लिए विवश कर ही दिया और मैं शतराणें में बनाये वही बांस की बाही वाले बाण के दो मंजे, दो ट्रंक, चार बिस्तरे और अन्य छोटा-मोटा सामान रेहड़ी पर लाद कर धौला पहुँच गया। माँ और पत्नी सुदर्शना देवी को बस में चढ़ा दिया। रहने के लिए बग़ैर किराये का नौकरों का खाली घर मिल गया। यह गाँव से बिलकुल बाहर की ओर था और इसे नौकरों का घर इसलिए कहा जाता था क्योंकि इसके मालिक किसी समय में मलाया में नौकरी किया करते थे और अब उन्होंने खेतों में अपने घर बना लिए थे और अब यह मकान खाली पड़ा था। उनका एक लड़का जगदेव उस समय सातवीं कक्षा में पढ़ता था और उसे मुफ़्त में पढ़ाना ही इस मकान का किराया समझ लो।
मुझे गाँव से बाहर रहने में कभी भी डर नहीं लगा था। पहाड़ों में मैं बहुत सा समय ऐसे ही मकानों में रहा था जहाँ कोई-कोई मकान ही बना होता और शेष चारों ओर सन्नाटा होता। सुबह के वक्त जंगल-पानी जाने के लिए भी मुझे यह जगह ठीक लगती। अंधेरे-उजाले में जाने की स्थिति में पूरे गाँव में से गुजर कर जाने से कहीं अधिक मेरे लिए यह घर उपयुक्त था। शीघ्र ही सुदर्शना देवी की सिलाई मशीन और स्वैटर बुनने की कला ने भी अपना रंग दिखाया और घर में कभी दोपहर में तो कभी शाम के वक्त सिलाई सीखने वाली लड़कियों की जमात लगी ही रहती। चार पैसे भी आने लग पड़े और सुदर्शना देवी भी व्यस्त हो गई। मेरी सल्हीणे वाली बहन की छोटी बेटी राजी भी आ गई और उसे छठी कक्षा में दाख़िला दिला दिया। उस कारण घर में और रौनक बढ़ गई। यद्यपि खर्चा भी बढ़ा पर यह खर्चा ऐसा था कि चुभता नहीं था। नाम मात्र की फीस और किताबों-कापियों का खर्च अब वाले माडल स्कूलों जैसा नहीं था। इसलिए राजी का आना हममें से किसी को भी बोझ नहीं लगता था।
बहुत समय बाद हमारे घर में गाय बंधी थी पर गाय रही सिर्फ़ एक महीना। मेरी माँ पशु संभालने में बहुत माहिर थी और सन् 1956 तक कभी हमारा किल्ला दूध देने वाले पशु से खाली नहीं रहा था। लेकिन गाय सींग मारने वाली निकली। जिस घर में हम रहते थे, उसके एक ओर एक कमरे में एक मुसलमान भी रहता था, बलौर मुहम्मद। जाति का गुज्जर था और उसे इस गाँव में सन् 1947 के समय की उसके बाप और ताया की धनौले वाली ज़मीन शरणार्थियों को अलाट कर दिए जाने के कारण बदले में धौला में ज़मीन मिल गई थी और वह ज़मीन इन मकान-मालिकों के पास ठेके पर थी, जिस कारण रोटी-पानी और रिहाइश की सहुलियत इस परिवार की ओर से बलौर मुहम्मद को मिली हुई थी। पहले दिन गाय की धार निकालने के लिए बलौर आगे आ गया और लोगों ने यह वहम डाल दिया कि गाय-बैल यदि किसी मुसलमान से छू जाए तो वह पशु बेकाबू हो जाता है। लेकिन मैं इसे एक वहम ही समझता था। परन्तु इस बात के लिए मायूस ज़रूर था कि 190 रुपये में ली गाय सिर्फ़ 110 रुपये में बेचनी पड़ी। धौले में रहने से पहले दो महीनों में यह मेरे लिए पहला घाटा था और इस घाटे के कारण भी माँ कुछ उदास रही थी।

धौले में रहने के कारण आने-जाने का बोझ मेरे सिर से उतर गया था पर नया छोटा-मोटा सामान खरीदने, चारपाइयाँ बनवाने और गाय की खरीद-फरोख्त में पड़े घाटे के कारण सुदर्शना देवी द्वारा जोड़ा गया तीन-चार सौ रुपया बीच में ही उड़-उड़ा गया था।
इस घर के बहुत करीब सम्पूरण सिंह धौले का घर था। उसकी माँ प्राय: ही आ जाती, उसकी बड़ी पत्नी भी और छोटी भी। इस कारण धौला साहिब के समस्त परिवार से काफी निकटता बढ़ गई थी। इस निकटता का लाभ मुझे स्कूल में भी हुआ। सम्पूरण सिंह का बेटा दर्शन सिंह दसवीं में और बड़ी बेटी गुरचरन छठी कक्षा में थी। उसके भाई बलविंदर सिंह का बेटा शेरी उर्फ़ शमशेर सिंह नौवीं कक्षा में तथा छोटे भाई तेजा सिंह का लड़का बिल्लू शायद सातवीं कक्षा में पढ़ता था। बाकी सब बच्चे सीधे और सरल थे पर बिल्लू बेहद शरारती था। तेजा सिंह तपा के आर्य स्कूल में मुझसे तीन कक्षाएँ आगे था और मेरा पुराना परिचित भी था, जिस वजह से बिल्लू के शरारती होने और पढ़ाई में ध्यान न देने वाली बात मैंने उसे बता दी थी। इन दोनों बातों की वजह से मैंने उसे एक दिन कक्षा में पीटा भी था। उस दिन उसने मुझे जब मैं घर जा रहा था, पत्थर का टुकड़ा उठाकर दे मारा था पर मैं बच गया था। पत्थर कान से दो-तीन इंच के फासले पर से गुजर गया था। यदि लग गया होता तो सिर में से खून की लम्बी धार फूट पड़ती। हालांकि वह मुझे दिखाई नहीं दिया था पर मुझे पता था कि यह काम बिल्लू का ही है। मैंने कोई शिकायत न की। लेकिन उसके घर में से ही किसी ने तेजा सिंह को सबकुछ बता दिया था। अगले दिन वह स्वयं ही आकर मेरे आगे रोने लग पड़ा था। मुझे लगा कि तेजा सिंह ने उसे घर में पीटा होगा, यदि पीटा न होगा तो डांटा-फटकारा ज़रूर होगा। मैंने बिल्लू को यह कहकर भेज दिया कि भविष्य में ऐसा काम नहीं करना। यह सारी कहानी किसी न किसी तरह धौला साहिब के पास पहुँच गई। उन्होंने मुझसे कहा, ''तरसेम, है तो तू कामरेड, पर स्वभाव तेरा महाजनों वाला है।'' मैंने कहा, ''धौला साहिब, इसे तेजा सिंह ने ही घर में खूब डांट-फटकार दिया होगा। मै और भला क्या करता इसका।'' इसके पश्चात् हमारे बीच अपनत्व इतना बढ़ गया कि उसने कई बार दारू आदि के लिए भी पूछा। पूछा ही नहीं, वह चाहता था कि कभी कभार तो मैं ज़रूर शाम के वक्त उसकी महफ़िल में हाज़िर होऊँ।
नौकरों का घर छोड़कर हम किराये पर सुंदर सिंह के मकान में आ गए थे। सामने ही चानण सिंह पंच का घर था, धौला साहिब का घर यहाँ से भी उतनी ही दूर पड़ता था जितनी दूर मेरा पहले वाला मकान। दूसरा, गुरचरन और राजी के सहेलीपन के कारण और धौला साहिब की छोटी पत्नी सुखमिंदर कौर और मेरी पत्नी सुदर्शना देवी के परस्पर अपनत्व के कारण हमारी निकटता और अधिक बढ़ गई थी। मकान में हम दो परिवार रहते थे- दायीं ओर करम चंद रिशी और बायीं ओर मैं। दरवाजे पर बने चौबारे में सुंदर सिंह का भतीजा गारी रहता था। रिशी कभी-कभार धौला साहिब की महफ़िल में चला जाता। दारू पीने पर रिशी की पत्नी यानी हमारी भाभी साहिबा मेरे पर नाराज होती। मैं उसकी कड़वी-कसैली बातें झेलता और साथ में सुदर्शना देवी की भी। ऐसी ही शराबी हालत में एक दिन घर के खुले आँगन में नाचता-कूदता रिशी कह रहा था, ''मैं ताया बनूँगा। जिस दिन मैं ताया बना, रूड़ी पर लेटूँगा।'' उन दिनों सुदर्शना देवी गर्भवती थी। रिशी के शराबी शब्द पवित्र वचन बन गए जब 23 अक्तूबर 1969 को मेरे बड़े बेटे का जन्म बरनाला में हुआ। हमारे घरों में पहले अक्सर लड़कियाँ ही जन्मती थी। मेरे बहुत से ताया-चाचाओं के पहले दो-तीन लड़कियाँ ही हुई थीं और बाद में लड़का। मेरे भाई के भी पहले तो कोई बच्चा हुआ ही नहीं था। बाद में, पहले एक लड़की हुई, वह मर गई। फिर बड़े इलाज के बाद दो लड़कियाँ हुईं- उषा और सरोज। इसके बाद मेरे भाई के दो बेटे हुए थे- सुरेश और नरेश। सो, मेरे घर में बेटे का जन्म लेना हमारे लिए एक चमत्कारी घटना थी और बेहद खुशी वाली थी। धौला साहिब की बड़ी बेटी गुरचरन यह ख़बर लेकर आई थी और मेरी माँ को यह लड़की कोई बड़ी देवी प्रतीत होती थी। उस दिन नज़दीक से और कुछ नहीं मिला, माँ ने बताशे मंगा कर पहले गुरचरन को दिए, फिर जो भी बधाई देने आता, उसे भी बताशे देकर माँ मुँह मीठा करवा देती थी।
(जारी…)
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1 comment:

Sanjeet Tripathi said...

hmm, so kahani aise mod leti hui aage badh rahi hai, rochkta bani hui hai,
muaafi chahunga ki itni der se pahuncha padhne k liye,

shukriya kabul karein, soochit karte rahne ke liye...