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Saturday, July 9, 2011

आत्मकथा




एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम

हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-21(दूसरा भाग)


धक्का-दर-धक्का

उन दिनों मथरा दास ताया का मकान खाली पड़ा था। मथरा दास का परिवार अब हमारे पुश्तैनी गाँव शहिणे में रहता था। उसके बाकी लड़के तो बाहर काम करते थे। सिर्फ़ सोम नाथ ही गाँव में रहता था। वह मेरे से बहुत समय पहले ही नेत्रहीन हो चुका था। इसलिए सोम नाथ को मेरे साथ बड़ी हमदर्दी थी। पत्नी सुदर्शना से घर किराये पर लेने के बारे में सलाह करके मैं गाँव चला गया। सोम नाथ ने बड़ा आदर-मान किया। मुझे लगा कि मेरा सगा भाई हरबंस लाल नहीं, सोम नाथ है। जब मैंने उसको बँटवारे की सारी कहानी सुनाई और अपने आने का मकसद बताया तो वह कहने लगा-
''देख छोटे भाई, हमने मकान किराये पर कभी किसी को दिया नहीं। बाद में अगला खाली नहीं करता। पड़े हुए मुकदमें लड़ते रहो और फिर फैसले भी तो किरायेदारों के हक में होते हैं। अब तू आया है, तुझे मना नहीं। बाई का कोई बेटा-बेटी तपा वाले हट्ट-हाते में रहा कि चाचा लेख राम का पुत। तू बड़ी खुशी से वहाँ रह सकता है। किराया कुछ नहीं, पर तरसेम शायद तुझे मेरी बात अच्छी न लगे, हरबंस लाल बहुत समझदार आदमी है। उसकी अक्ल को क्या हो गया? उसने कोई अच्छी बात नहीं की। औरतें तो बीस मिल जाया करती हैं, भाई को भाई नहीं मिला करते। और फिर तुम तो राम-लक्ष्मण की जोड़ी हो। बाई जी तुम्हें सोभा और तुलसी कहा करते थे। हरबंस लाल सोभा हुआ और तू तुलसी। सोभा स्वभाव का सज्जन था और तुलसी तीखा। बाई जी हरबंस लाल को तो बहुत ही शरीफ समझते थे और तुझे ज़रा तीखा।'' सोम नाथ की बात सुनते-सुनते मेरा रोना फूट पड़ा था। बहुत नियंत्रण करने पर भी रोना बन्द नहीं हो रहा था।
सोम नाथ ने मेरी पीठ पर हाथ फेरना शुरू किया। ताई चाय लेकर आ गई। सोम नाथ ने सिर्फ़ एक-डेढ़ वाक्य में ही मेरा सारा दुख ताई के आगे रख दिया था और ताई ने भी मुझे दिलासा देते हुए मकान मुझे देने के लिए हामी भर दी। मेरे बार-बार कहने पर तीस रुपये महीना किराया तय हो गया था। घर की चाभी लेकर मैं दिन छिपने से पहले लौट आया था। रात में सामान उठाने और ताया मथरा दास के घर की साफ़-सफाई करने को लेकर सुदर्शना से सलाह-मशवरा करता रहा। मैं बड़ी हीन भावना का शिकार था। एक तरफ तो मेरी नज़र चले जाने का खतरा सिर पर तलवार की भाँति लटक रहा था और दूसरी तरफ घर से बेघर होने की शर्मिन्दगी के कारण मैं अपनी पत्नी के आगे आँखें उठाने योग्य नहीं रहा था। भाई को ताया मथरा दास का घर किराये पर मिलने की ख़बर दे दी थी। उसे यह सुनकर बहुत तसल्ली हुई होगी और भाभी को बहुत खुशी, पर माँ की आँखों में से बहती गंगा के कारण मेरा अपना भी रोना निकल गया था। जब सब नीचे सो गए, माँ दबे पाँव ऊपर चढ़ आई थी। तब माँ की चारपाई ड्योढ़ी में हुआ करती थी। इसलिए माँ के ऊपर हमारे पास आने के बारे में शायद किसी को भी पता चलने की गुंजाइश नहीं थी। माँ चौबारे में सिर्फ़ इसलिए आई थी ताकि वह बता सके कि वह लाचार है। ख़ास तौर पर माँ सुदर्शना को तसल्ली देना चाहती थी और माँ के पास प्रभु पर भरोसा रखने के सिवाय सुदर्शना को समझाने के लिए अन्य कोई दलील नहीं थी। अगले दिन स्कूल से लौटने के बाद सामान उठाने का मन बनाकर मैं एक रेहड़ी वाले को बुला लाया था। घर में सामान उठाने में मदद करने वाला भी कोई नहीं था। क्रांति को माँ के पास बिठा कर हम दोनों पति-पत्नी ने चौबारे पर से सामान नीचे उतारा। रेहड़ी वाले ने भी कुछ मदद की। ड्योढ़ी में पड़ी लकड़ी वगैरह भी रेहड़ी में लाद ली। दिन छिपने के बावजूद अड़ोस-पड़ोस को हमारे घर छोड़ने के बारे में पता चल गया था। हम अपने ही घर में से ऐसे जा रहे थे जैसे कोई किरायेदार किराये के मकान में से किसी दूसरे किराये के मकान में जा रहा हो। पत्नी सुबह ही मेरे स्कूल चले जाने पर ताया मथरा दास के मकान की सफाई और झाड़-पोंछ कर आई थी। वहाँ हमें ड्योढ़ी और साथ में सटा गली नंबर 7 में खुलने वाला एक कमरा, रसोई और आँगन मिला था। सभी कमरों और दुकानों पर ताया मथरा दास के परिवार की ओर से लगाये गए तालों को हमने हाथ लगाकर भी नहीं देखा था। हमें डर था कि कहीं हमारे कारण दुकानों और शेष कमरों में पड़े सामान का कोई नुकसान न हो जाए। इसलिए हम दोहरे अहाते के बाकी कमरों की ओर झांकने से भी डरते थे।
शेष बचा सामान जब मैं सामान बाल्टी में रख रहा था, मुझे किसी ने नहीं बुलाया था। मैंने भी माँ को छोड़कर किसी से बात नहीं की थी। शायद, मकान मालिक भी किसी किरायेदार से संग ऐसा बर्ताव न करता हो, जैसा मेरे संग हो रहा था। जब अपने भाई के दोस्त श्रीमान हरी चन्द की दुकान के सामने से निकल रहा था तो मेरी रूलाई फूट पड़ी, आँसू टप-टप बहने लगे। मैं रुक गया। मन हुआ कि श्रीमान को सब कुछ बताकर जाऊँ, पर फिर पता नहीं क्यों चल पड़ा। शायद मैंने सोचा होगा कि श्रीमान मेरे भाई का दोस्त है, वह उसका पक्ष लेगा। मेरा यह सोचना ठीक ही था। बाद में जब मेरे भाई के दोस्तों- प्रकाश चंद वकील, मास्टर चरन दास और हरबंस लाल शर्मा को यह बात पता चली तो उनके मुँह से भी मेरे पक्ष में एक भी बात नहीं निकली थी। यह अलग बात है कि वे भाई के पक्ष में भी नहीं बोले थे। बोल कर वे भाई से बिगाड़ना नहीं चाहते थे, पर सच छिप नहीं सका था। मेरे भाई के मंडी में रसूख, उसकी शराफ़त और सज्जनता पर छोटा-मोटा प्रश्नचिह्न अवश्य लगा होगा, इस बात का पता मुझे उस समय लगा जब कई वर्ष बीतने के बाद मास्टर चरन दास के छोटे बेटे सुरिंदर ने भरे बाज़ार में मेरे संग हुई बेइंसाफी के बारे में सारी पोल खोल दी।
जीजा जी और बहन जाने से पहले हमारे पास मथरा दास वाले घर में मिलने के लिए आए। उन दिनों मेरी पत्नी गर्भवती थी। बेबी होने वाला था। बहन यह कहकर मेरी पत्नी को दिलासा दे रही थी- ''देख, तेरे पानी भरे हड्ड हैं। मन पर न लगाना कोई बात। मेरे बोल याद रखना। रख रख कर भूलोगी, किसी चीज़ की कमी नहीं रहेगी।'' पर मुझे बहन की ऐसी मीठी-मीठी बातें यूँ ही गोंगलू (शलगम) पर से मिट्टी झाड़ने वाली झूठी तसल्लियाँ प्रतीत हो रही थी और थी भी बस झूठी तसल्लियाँ ही।
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एक तो भाई ने घर से बेघर किया था और दूसरा अकाली सरकार ने तो बिलकुल ही काला पानी भेजने वाली बात कर दी। मास्टरों पर अकाली सरकार बड़ी ख़फ़ा थी। उसने एक आम आदेश द्वारा सबक सिखाने के लिए मास्टरों के तबादले उनके घरों से कम से कम पचास किलोमीटर दूर करने के हिटलरी फरमान जारी कर दिए। प्राइमरी, भाषा, ड्राइंग और पी.टी.आई. अध्यापकों की बदली ज़िले के अन्दर-अन्दर ही हो सकती थी, पर मास्टरों, लेक्चररों और हैड मास्टरों का स्टेट काडर होने के कारण बदली ज़िले से बाहर करने के हुक्म जारी किए गए। जो टीचर्स यूनियन में काम करने वाले छोटे-बेड़े नेता थे, उनके ऊपर अकाली सरकार की ख़ास-नज़रें इनायत हुई, क्योंकि उन्हें सबक सिखाने के साथ ही तो अकाली मंत्रियों और विधायकों के कलेजे में ठंड पड़ सकती थी। सरकार के पास बहाना यह था कि अध्यापक घर के करीब होने के कारण स्कूलों में कम जाते हैं और अपने घरेलू कामधंधों में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं। सो, अकालियों की इस सौगात में से मेरे हिस्से जो स्टेशन आया, वह था सरदूलगढ़। इससे आगे पंजाब का और कोई स्टेशन था ही नहीं। अगला गाँव हरियाणा में आता था। बदली के आदेश मई माह में आ गए थे। सरदूलगढ़ उन दिनों ज़िला बठिंडा में था और ज़िले का शिक्षा अधिकारी था- गुरबचन सिंह दीवाना, जिसका उल्लेख मैं पहले जनता हाई स्कूल, जुआर की कहानी सुनाते समय कर चुका हूँ।
अकालियों का यह नादिरशाही हुक्म टलने वाला नहीं था, पर हमें दीवाना साहिब से यह आस थी कि वह कोई नज़दीक का स्टेशन देने में मेरी मदद करेंगे। माँ मेरे रोकने के बावजूद संग चल पड़ी। हम दफ्तर के बजाय दीवाना साहिब की कोठी पर गए। दीवाना साहिब दफ्तर जा चुके थे। दीवाना साहिब ने मेरी माँ का अभिवादन किया और मेरे गले पड़ गए कि मैं माँ को संग लेकर क्यों लाया हूँ। लेकिन बदली न कर सकने संबंधी उसने अपनी मज़बूरी भी स्पष्ट कर दी और हम उल्टे पाँव वापस लौट आए
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अब चिंता यह थी कि गर्भवती पत्नी को कौन संभालेगा ? बड़े प्रेम से बरनाला जाकर अभी बात आरंभ ही की थी कि मेरा धर्म पिता जिस को मैं दरवेश जट्ट-बनिया कहा करता था, हुक्के की नली एक तरफ करता हुआ बोला-
''भला इसमें भी कोई सोचने वाली बात है। जब तुम कहोगे, कोई लड़का जाकर दर्शना को ले आएगा। साऊ, कहाँ तपा, कहाँ बरनाला और कहाँ सरदूलगढ़ ? लड़की को क्या परेशान करना है ? बस, करांची मल्ल का जी लगना चाहिए।'' मेरे धर्मपिता करता राम मेरे बेटे क्रांति को लाड में करांची कहा करते थे। उनकी बात सुनकर मेरा कम से कम आधा बोझ उतर गया था।
अब प्रश्न था कि ताया मथरा दास के घर में पड़े सामान का क्या किया जाए ? कम से कम तीन चार महीने सुदर्शना को बरनाला में लग जाने थे। बन्द पड़े घर का किराया और फिर सरदूलगढ़ जा कर किराये पर मकान लेने के दोहरे खर्च ने मुझे चिंतित कर दिया।
मेरे दु:ख-सुख में सलाह देने वाला पत्नी के अलावा अन्य कोई नहीं था। माँ की बेबसी को मैं भलीभाँति समझता था। इसलिए उससे बात करने का कोई लाभ नहीं था। घर खाली करने के लिए गाँव सहिणे में सोम नाथ के पास जाने और सामान को कहीं दूसरी जगह रखने की समस्या मेरे सिर पर तलवार की भाँति लटक रही थी।
साथ लगता घर मामा परसा राम का था। पत्नी के कहने पर मामा परसा राम के पोते और बड़ी पोती ने हमारा सामान अपनी ड्योढ़ी वाली टांट में रख लेने के लिए हामी भर दी थी। मैं झिझकता हुआ सोम नाथ के पास गाँव पहुँच गया। जिस तरह का हमदर्दी भरा व्यवहार सोम नाथ ने मेरे संग किया, उसका मैं आज भी देनदार हूँ।
''तरसेम छोटे भाई, मैंने उस दिन भी तुझे कहा था और अब भी तुझे कहता हूँ कि भई बाई की औलाद वहाँ रह गई कि चाचा लेख राम की। किराये के लिए तू यूँ ही जिद्द करने लगा तो मैंने हाँ कर दी। ले, मैं तुझे बताऊँ। ये अपने पड़ोस में जसवीर सिंह है न, वह भी तुम्हारे मास्टरों का चौधरी कहलाता है। वह कहता था कि तबादले तो रद्द हो जाएँगे, महीने दो महीने में। ले, अगर तू फिर लौटकर तपा आ गया न, तो जब मर्जी घर में आ जाना। अगर सामान वहीं रखना है तो भी कोई बात नहीं।'' सोम नाथ की बात ने जैसे मेरे ज़ख्मों पर मरहम लगा दी हो। मैंने तीन महीने का किराया 30 रुपये के हिसाब से काँपते हाथों से पकड़ाया और उसने 'ना-ना' करते हुए किराया पकड़ लिया।
हम बरनाला वाली बस चढ़ गए। शायद मेरे सालों में से बड़ा साला सोहन लाल ही लेने आया हुआ था। मैं हंडिआये क्रॉसिंग पर उतर गया, जहाँ से मानसा होते हुए सरदूलगढ़ जाने वाली बस लेनी थी।
एक तो पत्नी और बेटे क्रांति को लेकर उपजी उदासी, दूसरे सरकार की धक्केशाही के कारण हुई बदली और तीसरी अपनी शारीरिक कमजोरी। हंडिआये से जाते हुए इस तरह महसूस हो रहा था मानो काले पानी को जा रहा होऊँ। एक संशय भी था कि 12 बजे से पहले सरदूलगढ़ पहुँच जाऊँ, ऐसा न होने पर हैड मास्टर लेट पहुँचने के कारण दोपहर बाद की हाज़िरी रिपोर्ट लेगा, पर बाद में ख़याल आया कि इससे मेरे को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। मुझे हाज़िर होने के लिए सात दिन का समय मिला है और अभी एक दिन और बाकी है।
बस सरदूलगढ़ 12 बजे से पहले पहुँच गई थी। वहाँ पहुँचकर एक अजीब-सी तसल्ली का अहसास हुआ। कारण यह था कि मेरे साथ हाई स्कूल, धौला में काम करने वाला मास्टर कृष्ण कुमार भी यहीं स्थानांतरित होकर आ चुका था, पर असली तसल्ली इस बात की थी कि विश्वामित्र शास्त्री इस स्कूल में लम्बे समय से संस्कृत अध्यापक के तौर पर काम कर रहा था।
विश्वामित्र शास्त्री और मैं तपा मंडी के आर्य हाई स्कूल में एक साथ काम करते रहे थे। उसकी पत्नी कृष्णा एक लिहाज से मेरी बहन लगती थी। विवाह से पहले वह हमारे साथ वाले घर में अपने ताया के पास रहती थी। उसके ताया के दोनों पुत्रों के साथ मेरे सगे भाइयों जैसे संबंध थे। इसलिए शास्त्री जी के संग छुट्टी के बाद उनके घर जाना मुझे कोई पराया नहीं लगा था, बल्कि ऐसा अनुभव हो रहा था जैसे तपती धूप में कोई ठंडी हवा का झौंका मेरे तन-मन को छू रहा हो।
कृष्णा सगी बहनों की तरह मिली और बच्चे तो जैसे खुश हो उठे। दोनों बच्चे मेरे पास आ जाते और कभी बाहर चले जाते।
बैग में कुछ कपड़े और अन्य छोटा-मोटा सामान इसलिए ले गया था कि कहीं रात काटनी न पड़ जाए, पर यहाँ आकर रात तो क्या, मेरा ठहरना ज़रूरी हो गया। शास्त्री जी और कृष्णा की यह तजवीज़ थी कि मैं उनके पास ही रहूँ, लेकिन उनकी गृहस्थी में मेरी उपस्थिति मुझे खुद को ही चुभती थी।
अगले चक्कर में मैं अपने कपड़े और बिस्तर ट्रंक में ठूंस कर ले गया। अब रैन बसेरा का कोई संशय नहीं था। बस अड्डे के साथ ही स्कूल था। दसवीं कक्षा के दो विद्यार्थी ज्ञान चंद और राज कुमार पहले दिन से ही मेरे श्रद्धालू बन गए थे। सो, वे अड्डे पर पहले ही आए खड़े थे। छुट्टी के बाद वे मेरा ट्रंक शास्त्री जी के घर ले गए। उनका घर भी शास्त्री जी के घर के करीब ही था। इस तरह इन दोनों लड़कों का मुझे बड़ा सहारा हो गया।
शास्त्री जी और लड़कों की मदद से मुझे एक छोटा-सा चौबारा किराये पर मिल गया। मेरे खाने-पीने का प्रबंध राज और ज्ञान ने मिलकर कर दिया था। दोपहर का भोजन राज के घर से आता और शाम का ज्ञान के घर से। वैसे शास्त्री जी भी रोटी के लिए ज़ोर डालते रहते, पर मैं उन पर बोझ नहीं बनना चाहता था। राज और ज्ञान की रोटी मैंने इसलिए मान ली थी क्योंकि मुझे स्वयं बनानी नहीं आती थी और ढाबे की रोटी मिर्चों के कारण मुझे रास नहीं आती थी। वैसे भी शाम को ढाबे पर जाकर रोटी खाने और घर वापस आने का काम मुझे कठिन लगता था। दिन छिपने के बाद तो मैं घर से बाहर निकलता ही नहीं था। मैं यह पता नहीं लगने देना चाहता था कि मेरी दृष्टि बहुत कम है और रात में मुझे बिलकुल ही नहीं दिखता। मेरा यह पर्दा किसी हद तक स्कूल में और अड़ोस-पड़ोस में भी बना रहा। हो सकता है कि किसी को अंदाजा हो गया हो, पर मैंने तुरन्त पता नहीं लगने दिया था।
छुट्टी के बाद ज्ञान और राज अक्सर मेरे पास पढ़ने आ जाते। ज्ञान परिवार की बातें भी कर जाता। उन्हें पढ़ाने से मुझे एक लाभ यह होता कि दसवीं की अंग्रेजी के अगले दिन पढ़ाने वाले पाठ का मुझे पूरा ज्ञान हो जाता।
कक्षा में मैं खुद अंग्रेजी की किताब नहीं पढ़ता था। किसी होशियार विद्यार्थी को पढ़ने के लिए कहता। मैं कठिन शब्दों के अर्थ बताता रहता और वाक्य पूरा होने पर पूर्व वाक्य का अर्थ बताता। कक्षा में लड़कियाँ भी थीं और लड़के भी, जिस वजह से मुझे अधिक सचेत होकर पढ़ाना पढ़ता था। मेरी अपनी कमज़ोरी के बावजूद मैं किसी को बिना मतलब के बोलने या हँसने नहीं देता था। जिस दिन अंग्रेजी की किताब न पढ़ानी होती, उस दिन पंजाबी से अंग्रेजी ट्रांसलेशन करवाता। टेंस (Tense½ संबंधी मेरा ज्ञान अधिकांश अध्यापकों से अधिक था। यही नहीं, इस ज्ञान को बच्चों तक पहुँचाने के लिए मेरा तरीका भी बहुत रोचक था। इस प्रकार दसवीं कक्षा पर मेरा दबदबा पूरी तरह बन गया था। एक अन्य कक्षा को अंग्रेजी भी मैं पढ़ाता था। वहाँ भी मेरे पढ़ाने का ढंग दसवीं कक्षा वाला ही था। सामाजिक शिक्षा पढ़ाने के लिए मुझे किसी किताब को पढ़ने की आवश्यकता नहीं थी। भूगोल पढ़ाते समय मैं भारत का नक्शा बोर्ड पर बना कर हर बात स्पष्ट करता। महाद्वीपों के नक्शे दीवार पर लटका कर इस तरह समझाता कि विद्यार्थी दंग रह जाते। नक्शों के माध्यम से भूगोल पढ़ाने का अभ्यास मुझे पहले धौला, रूड़के कलां और फिर मिडल स्कूल, महिता में हो गया था।
सवेरे बाहर-अन्दर जाने के लिए शास्त्री जी मेरे संग होते या ज्ञान और राज में से कोई एक होता। कभी कभार दोनों ही संग जाते। सवेरे के समय हम घग्गर दरिया के आसपास पहुँच जाते। मुझे सरदूलगढ़ आकर पता चला कि यहाँ घग्गर को नाली कहते हैं। इसका नाम नाली ही ठीक लगता था। यह बहुत बड़ा दरिया नहीं लगता था। इसके रेतीले किनारों पर से पैर फिसल-फिसल जाता। मैंने शतराणा में नौकरी के दौरान खनौरी के पास से घग्गर को देखा था जो घर्र-घर्र करके बहता, उफनता और संगीत-सा पैदा करता था। यहाँ इस नाली में पानी किसी रजबहे-खाल से भी कम था।
शनिवार-रविवार को भी मैं सरदूलगढ़ ही रहता। हर शनिवार अगर बरनाला आने के बारे में भी सोचता तो भी मन न मानता। रोज़ रोज़ ससुराल वालों के यहाँ जाना अच्छा न लगता। 'बहन के घर भाई कुत्ता, ससुरे घर जंवाई कुत्ता।' यह कहावत मुझे बरनाला जाने से रोके रखती। तपा जाने को भी जी न करता।
15 मई 1971 को मैं सरकारी हाई स्कूल, सरदूलगढ़ उपस्थित हुआ था। बीच में एक बार बरनाला का चक्कर लगा गया था। निराशा और उदासी के आगे मेरी बेबसी का आलम यह था कि मेरे अन्दर से ही आवाज़ें उठतीं। वे आवाज़ें मेरी नहीं थीं, मेरी पत्नी की थीं। भला दूसरा जनेपा भी कोई मायके में किया करता है ? घर में से भी अपना हक नहीं ले सके ? इस प्रकार हीनभावना का मारा मैं एक रात काटकर सरदूलगढ़ वापस आ गया था। मुझे अपनी ससुराल के बच्चे-बच्चे से भी मानो शर्म आती हो। वहाँ एक दिन भी काटना सूली पर टंगे पलों जैसा था।
अध्यापक मुझे गोयल साहिब या तरसेम जी कहकर बुलाते। इसके पीछे शास्त्री जी की पहलकदमी थी। मेरे परिवार और मेरी योग्यता के जो पुल शास्त्री जी ने बांधे, उसके कारण मैं मुख्य अध्यापक से लेकर विद्यार्थियों तक कुछ ही दिनों में आदर-सम्मान का पात्र बन गया था।
हालांकि स्कूल और चौबारे में मैं पढ़ाने में व्यस्त रहता, पर पत्नी के जनेपे के बारे में सोच कर घबरा जाता। ससुराल वालों के विषय में सोच कर तो मैं अपने आप को बिलकुल हल्का समझने लग पड़ता।
इस बार की गरमी की छुट्टियाँ मेरे लिए दोज़ख़ के समान थीं। न सरदूलगढ़ रहने को मन करता था, न बरनाला में। ससुराल वालों के यहाँ रहने से बढ़कर शर्मिन्दगी की बात मेरे लिए और क्या हो सकती थी। माँ के पास जाकर रहूँ ? मेरा अंतर्मन बोला। माँ बेचारी जूठे बर्तन मांजकर रोटी खाने वाली एक बेबस, विधवा औरत से अधिक कुछ नहीं थी। बहन के घर जाकर रहना और भी कठिन लग रहा था। पहले कई बार सल्हीणे बड़ी बहन शीला के पास गरमी की छुट्टियों में कई कई हफ्ते बिता आता था, पर अब तो उसे मेरे से कोई गरज़ नहीं रही थी। जब मैं उसके पास गरमी की छुट्टियों में रहने जाता, तब तो विजय या कैलाश तपा में पढ़ते थे और या फिर छोटी लड़की राजी मेरे पास धौला में पढ़ती थी। उस समय बहन को शायद कोई झेंप ही नहीं, शायद कुछ प्यार भी हो। परन्तु, अब झेंप और प्यार का असली रूप बाहर आ चुका था। घर के बँटवारे के समय जो कुछ वह करके गई थी, उस कारण सल्हीणे जाने के लिए ज़ख्मी रूह भी नहीं मानती थी।
एक बात और थी। मर्यादा भी कभी मेरी राह रोक लेती और मुझे तपा में भाई के पास जाकर रहने का हुक्म देती। अन्दर का व्यक्ति कहता- वो तुझे निकाल तो नहीं देगा। दर दर धक्के खाने से तो अच्छा है, भाई के पास जा। वहाँ माँ बैठी है। तपा में यार-दोस्त हैं। बरनाला भी साथ है ही और साथ ही रामपुरा फूल है। लोक लाज और मर्यादा का ख़याल तथा ऊपर से पत्नी की भरे मन से दी गई सहमति के कारण मैंने सब संकोच-शर्म उतार कर अपना बैग भाई के घर में टिका दिया। वह घर जिसे छह महीने पहले मैं अपना घर कहा करता था। अब वह मेरा घर नहीं था, भाई का घर था। मैं अपने हाथों यह दुकान-अहाता उसके हिस्से में लिखकर दे चुका था। पर 17 जून तक मैं वहाँ इस तरह रहा जैसे किसी जेल में होऊँ। कभी अपने मित्र रामेश्वर दास के पास चला जाता, कभी शाम लाल मुझे दूर तक सैर पर ले जाता। रामेश्वर दास से दिल की कुछ बातें साझी कर लेता। एक बार बहन तारा के पास रामपुरा फूल और एक बार मालेरकोटला बहन कांता के पास भी चक्कर लगा आया था। दोनों बहनें तसल्ली देतीं। मदन लाल जी तो कम ही बात करते थे। हाँ, मालेरकोटला वाले जीजा गुज्जर लाल जी मेरे साथ जी भर कर बातें करते, बड़ी नसीहतें देते। मुझे दिल से प्यार करते, लेकिन वे बेचारे भी तंगदस्ती का शिकार थे। ईश्वर में उनका अटल भरोसा था। मुझे भी वह ईश्वर पर भरोसा रखने के लिए कहते।
18 जून 1971 को जब मुझे मेरे दूसरे बेटे के जन्म की सूचना मिली तो इस तरह लगा जैसे तपती धरती पर बादल बरस गया हो। मेरी भतीजी सरोज ने उसका नाम बॉबी रख दिया। मैं लीचियों की पेटी ले आया। घर में सबसे खुश मेरी माँ थी और फिर बच्चे, भाई भी खुश था। मैं अगले रोज़ बरनाला चला गया। सभी खुश थे। पत्नी के चेहरे पर पहले वाली उदासी नहीं थी। लेकिन उसे मेरा तपा में भाई के घर में रहना अच्छा नहीं लगा था।
एक हफ्ते के बाद पंजीरी की जगह एक पीपी देसी घी और पाँच सौ रुपये देकर मैं समझता था कि मैंने अपना फ़र्ज़ पूरा कर लिया था। पंजीरी कैसे बनाता और कहाँ से बनवाता ? इस समस्या का इससे बढ़िया कोई हल नहीं था। माँ ने ऐसा ही करने के लिए कहा था। भाई और भाभी से पूछने की अब मैंने आवश्यकता नहीं समझी। सरदूलगढ़ विश्वामित्र शास्त्री जी को यह खुशख़बरी चिट्ठी से दे दी थी और साथ ही, बॉबी के जन्म का समय भी लिख दिया था। इसके अतिरिक्त, शास्त्री जी से एक विनती की थी कि वह मकान मालिक हंस राज के साथ साथ ज्ञान और राज को भी बॉबी के जन्म की खुशख़बरी दे दें। वापस सरदूलगढ़ जाने से पहले एक गृहस्थ के तौर पर यह सब कुछ करना ज़रूरी था।
छुट्टियों के पश्चात गाड़ी पहले वाली रफ्तार से चल पड़ी थी। लेकिन साथ ही बदली के हुक्म के रद्द होने की उम्मीद बनी रहने के कारण कभी कभार अकाली सरकार को जी भरकर कोसता और कभी गरम गरम पुलिसिया गालियाँ बकता। गालियाँ निकालने में मुझसे आगे 'फफड़े भाईके' से स्थानांतरित होकर आया एक शास्त्री था और दूसरा था, आहिस्ता-आहिस्ता गालियाँ बकने वाला एक बूढ़ा सूदखोर बनिया अध्यापक।
जब तबादले रद्द होने के आदेश आए, सब एक दूसरे को बधाई देने, चार्ज देने में एक दूसरे से उतावले थे और रिलीविंग चिट लेकर भागने को तैयार। परन्तु, मैंने ऐसा कोई उतावलापन नहीं दिखलाया था। फिर भी, मेरे कार्यमुक्त होने का काग़ज़ तैयार हो गया था। बहन कृष्णा के परिवार को मिलना, हंसराज का किराया चुकाना और गलबहियों में लेकर ज्ञान और राज से विदाई लेना, ये कुछ ऐसे भावुक पल थे जो अपने घर लौटते समय भी आँखों में आँसू ले आए। जब घर से चले थे तो यूँ लगता था मानो काला पानी जा रहे हों, पर जब वापस लौट रहा था तो यूँ लगता था जैसे सरदूलगढ़ अपना ही घर है। बस, अकाली सरकार के दाँत खट्टे करने के विषय में सोच कर ही आनन्द आ रहा था। 6 अगस्त को मुझे महिता स्कूल में लौटने पर विजेता वाला अहसास होने के साथ-साथ पुन: घर को बांधने की चिंता सिर्फ़ उस वक्त दूर हुई, जब भाई सोम नाथ ने पहले शब्द में ही तपा वाले अपने दुकान-अहाते की कुंजी देकर कहा कि मैं बेफिक्र होकर वहाँ रहूँ। लेकिन साथ ही यह भी कहा कि आठ नंबर गली वाले प्लाट में दो कमरे खड़े करने की कोई कोशिश भी करूँ। यह उसकी समझदारी थी और मुझे उसके द्वारा ऐसा कहने पर कोई गिला नहीं था। मामा परस राम की ड्योढ़ी वाली टांट पर से सामान उतार कर ताया मथरा दास के घर पहले की तरह उसे टिकाने के बाद राहत की साँस ली। दर्शना, बॉबी और क्रांति के आने से पहले माँ इधर आ गई थी, पर माँ को ताया मथरा दास के घर में हमारा रहना शर्मिन्दगी वाली बात लगती थी। इसलिए वह मेरी पत्नी सुदर्शना के संग बात करते समय बड़ी हीन भावना की शिकार लगती थी।
''मेरे पुत्त, मेरे वश की बात नहीं रही। तुझे मैंने कितनी मुश्किलों से लिया था, पर क्या पता था कि तुझे शरीकों(दुश्मनों) के घर भटकना पड़ेगा।''
माँ ने एक आह भरी और फिर बोली-
''माँएँ तरसें पुत्तों को और पुत्त तरसें टुक्कों (टुकड़ों) को।''
(जारी…)
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1 comment:

रूपसिंह चन्देल said...

बहुत ही मार्मिक अंश प्रस्तुत किया है. डॉ. तरसेम की इस आत्मकथा से मुझे एक ही शिकायत है कि इसमें बहुत ही छोटी-छोटी घटनाओं को भी समेटा गया, जिनसे कथा में अनावश्यक विस्तार हो गया लगता है. लेकिन इस सबके बावजूद आत्मकथा की पठनीयता बाधित नहीं होती.

बधाई,

रूपसिंह चन्देल