समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Saturday, October 22, 2011

पंजाबी उपन्यास




''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ सत्ताईस ॥

ईलिंग काउंसल के चुनाव आ रहे हैं। सभी पार्टियों ने अपनी पार्टी की ओर से काउंसलर खड़े करने हैं। पहले अपने-अपने उम्मीदवार नामज़द करने हैं। भारद्वाज सक्रिय हो जाता है। सोहनपाल उसके साथ है। जगमोहन और गुरचरन भी हैं। दिलजीत दूर रहता है, राजनीति से एक तरफ। सोहनपाल ने उसके लिए हिलसाइड वार्ड चुना है। यहाँ का काउंसलर प्रीतम फुल्ल अनपढ़-सा व्यक्ति है। लोगों में उसका बड़ा नाम नहीं है। कुछ हेराफेरी से पिछली बार नामज़दगी जीत गया था, वैसे योग्य नहीं है। उसके मुकाबले शाम भारद्वाज ज्यादा पढ़ा-लिखा है और स्पीकर भी बढ़िया है।
हर वार्ड के पार्टी मेंबर्स को उम्मीदवार नामजद करने हैं। वह तारीख़ आ जाती है। शाम भारद्वाज ने अपने बहुत सारे नये मेंबर जो कि इस वार्ड में रहते हैं, लेबर पार्टी में भर्ती किए हैं। मित्रों के साथ वैन गाड़ियाँ भरकर लेबर पार्टी के ऐक्टन वाले दफ्तर में पहुँच जाता हे। सेलेक्शन कमेटी के तीन व्यक्ति हैं। सबसे पहले तो चेयरमैन नये सदस्यों को पार्टी ज्वाइन करने के लिए उनका धन्यवाद करता है, स्वागत करता है और वह इतनी बड़ी उपस्थिति पर हैरान भी होता है। वह अर्जियों को देखते हुए बारी-बारी से संभावित उम्मीदवारों को स्टेज पर बुलाता है। हर व्यक्ति अपना परिचय देता है और बताता है कि वह काउंसलर क्यों बनना चाहता है। सभी अपनी-अपनी सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों पर प्रकाश डालते हुए काउंसलर बनने की अपनी योग्यता के विषय में दावे करते हैं। फिर उपस्थित मेंबर उनसे भाँति-भाँति के प्रश्न पूछते हैं। कुल पांच लोगों की अर्जियां हैं- तीन एशियन और दो गोरों की। एशियनों में से सबसे अधिक प्रभावशाली भाषण मुख्तियार सिंह ग्रेवाल का है। वह कालेज में अध्यापक है। वह साउथाल में बच्चों की पढ़ाई और स्त्रियों के हकों पर ज़ोर देना चाहता है और साथ ही, वह साउथाल में घरों की बढ़ती संख्या से हो रही भीड़-भाड़ से भी चिंतित है। शाम भारद्वाज का भाषण आम मसलों के बारे में है जैसे कि साउथाल की गंदगी, बढ़ता ट्रैफिक और भाईचारे के अच्छे संबंध। इसी प्रकार प्रीतम फुल्ल रटी-रटाई बातें करता है। दोनों गोरे कुछ सही बाते करते हैं पर हाल में गोरों की संख्या कम है।
वोट पड़ते हैं। शाम भारद्वाज को इक्कीस, प्रीतम फुल्ल को उन्नीस, पीटर एंडरसन को सत्तरह, आर्थर मिलर को सोलह और ग्रेवाल को सात वोट पड़ती हैं। शाम भारद्वाज खुश है। वह अभी से ही स्वयं को काउंसलर बना समझ रहा है। लेबर पार्टी के उम्मीदवार ने साउथाल में से तो जीतना ही है। इस पार्टी का ही यहाँ पर ज़ोर है। अधिकांश एशियन लोगों के दिलों में यह बात घर किए बैठी है कि वे मज़दूर क्लास लोग हैं और लेबर पार्टी ही उनके लिए अच्छी है। इसलिए वे सभी लेबर पार्टी को ही वोट डालते हैं। शाम भारद्वाज को लगता है कि वह बस जीता ही जीता। वह अभी से सभी से बधाइयाँ ले रहा है। जगमोहन उसको दूर से हाथ हिलाकर बधाई देता है। प्रीतम फुल्ल अपने साथियों के साथ मुँह लटकाये खड़ा है। कुछेक लोग धीमे स्वर में कह रहे हैं कि यह तो सीधी हेराफेरी है। इस तरह अचानक मेंबरों की गाड़ियाँ भर कर ले आना, ये तो घटिया राजनीति है। प्रीतम फुल्ल को लगता नहीं था कि वह नामजदगी से यूँ हाथ धो बैठेगा।
जगमोहन सब उम्मीदवारों के भाषण ध्यान से परखता है। उसको सबसे बढ़िया बातें ग्रेवाल की लगती हैं। वह एक तरफ खड़ा होकर लोगों की ओर देख रहा है। जगमोहन उसके करीब जाकर उसे सम्बोधित होते हुए कहता है -
''मुझे आपकी बातें बहुत अच्छी लगीं, पर मुझे लगता है, आपने अपना होमवर्क पूरा नहीं किया। यही कारण है कि नॉमीनेशन नहीं मिली।''
ग्रेवाल हँसते हुए कहता है-
''नॉमीनेशन मिलना तो दूर की बात है, ये जो छह-सात वोट पड़े हैं, ये भी लोग धोखे में डाल गए हैं।'' कहकर वह ज़ोर से हँसता है।
जगमोहन कहता है, ''सेलेक्शन का यह तरीका ही गलत है।''
''सेलेक्शन का तरीका तो ठीक है, पर हम लोग हेराफेरी करने से नहीं हटते।''
ग्रेवाल के कहने पर जगमोहन कुछ झेंप-सा जाता है। उसको लगता है कि ग्रेवाल उसके बारे में ही कह रहा है कि वह शाम भारद्वाज की वोट बनकर आया हुआ है। ग्रेवाल पुन: कहता है-
''मैंने तो यह तुर्ज़बा ही किया है, वैसे मेरा फील्ड नहीं है यह।''
''आपका कौन-सा फील्ड है ?''
''मैं युनिवर्सिटी टीचर यूनियन में काम कर रहा हूँ। लोकल पॉलिटिक्स में इन्वोल्व होने के लिए ट्राई किया था, पर मेरे वश की बात नहीं।''
यहीं से जगमोहन का ग्रेवाल से परिचय होता है जो कि जान-पहचान की ओर बढ़ता है। एक दिन वे ईलिंग शॉपिंग सेंटर में मिलते हैं और फिर एक दिन ‘द-ग्लौस्टर’ में। विचारों का आदान-प्रदान होने लगता है। सम्बन्ध दोस्ती में बदलने लगते हैं। वे एक-दूसरे को अपना फोन नंबर देते हैं। ग्रेवाल अपने बारे में बताते हुए कहता है कि एक समय में उसे कविता लिखने का शौक रहा है। वह कामरेड इकबाल को भी भलीभांति जानता है। वह जगमोहन को साउथाल के लेखकों के विषय में कितना कुछ बताता है, परन्तु जगमोहन को इसमें अधिक दिलचस्पी नहीं है। वह 'वास-प्रवास' में से कभी कोई लेखादि पढ़ लेता है, नहीं तो पढ़ने में उसकी अधिक रुचि नहीं है। हाँ, अंग्रेजी की अख़बार वह लगातार पढ़ता है, चाहे कोई भी हाथ में आ जाए। 'द मैन' की मसालेदार ख़बरें तो वह वक्त ग़ुज़ारने के लिए पढ़ा करता है।
एक दिन अंग्रेजी की अख़बार 'द टाइम्ज़' में साउथाल की महिलाओं की संस्था 'सिस्टर्ज इन हैंड्ज़' के बारे में एक आलेख छपता है। ग्रेवाल पढ़ता और एकदम जगमोहन को फोन करता है। कहता है-
''आज का टाइम्ज़ देखा ?''
''नहीं तो।''
''देख फिर और पढ़, इन औरतों के बारे में किसी ने बड़ा लम्बा-चौड़ा आर्टिकल लिख मारा है।''
''अच्छा!''
जगमोहन टाइम्ज़ खरीदता है। ख़बर पढ़कर वह ग्रेवाल को फोन घुमाता है। कहता है -
''सर जी, यह तो किसी ने इनकी कुछ ज्यादा ही फेवर कर दी, वैसे ये इतने के लायक नहीं।''
''मेरा तो दिल कर रहा है कि टाइम्ज़ को लैटर लिखूँ और कहूँ कि किसी संस्था के बारे में लिखने से पहले उसके कामों के बारे में पूरी जांच तो कर लिया करो।''
''बात तो आपकी ठीक है सर जी, ये औरतें काम इतना नहीं करतीं। बस, ख़बरों में रहने के चक्कर में रहती हैं। ऐसे ही टाइम्ज़ का कोई रिपोर्टर फंसा लिया होगा।''
''वैसे तो अखबारवालों को भी सभी कम्युनिटीज़ को प्रतिनिधिता देनी होती है। एशियन स्त्रियों का अन्य कोई संगठन है भी तो नहीं।''
''सर जी, ये सब छोटे-से सर्किल में ही घूमती फिरती है, बस।''
जगमोहन ग्रेवाल को हमेशा 'सर जी' कहकर ही बुलाता है। सर जी मजाक में कहना आरंभ किया था कि इंडियन लोग अंकल के साथ भी जी लगा देते हैं और डैडी के साथ भी और इसी प्रकार सर के साथ भी। जगमोहन हमेशा कहता है कि इंडिया में लोगों को यह भी नहीं पता कि शब्द ‘सिस्टर’ सरनेम के साथ लगाया जाता है कि पहले नाम के साथ। उसने 'सर जी' कहना शुरू किया और अब भी 'सर जी' ही कहा करता है। यही पक्का हो गया है। ग्रेवाल हालांकि उससे अट्ठारह-बीस साल बड़ा है, परन्तु दोस्तों की तरह ही व्यवहार करता है। दोस्तों की भाँति ही खुली बातें कर लिया करता है। एक दिन जगमोहन उसके सम्मुख बैठकर सिगरेट पीने लगता है तो ग्रेवाल कहता है-
''ला यार, मुझे भी लगवा एक।''
जगमोहन को ज़रा-सी हैरानी होती है और पूछता है-
''सर जी, आप भी!''
''नहीं यार, मैं कहाँ। यह तो तुझे देखकर हुड़क-सी जाग पड़ी। कभी पिया करता था, अब मुश्किल से इस आदत से निजात पाई है।''
अब वे प्राय: मिला करते हैं। अधिकतर ग्रेवाल के घर ही बैठते हैं। ग्रेवाल अपने घर में अकेला रहता है। सिस्टर्ज इनहैंड्ज़ उनकी बात में प्राय: उपस्थित रहती हैं। ग्रेवाल जगमोहन से पूछता है -
''तू इस संस्था की ओर इतना फैसिनेटिड क्यूँ है ?''
इसका उत्तर जगमोहन के पास नहीं है। एक दिन उसके मन में कुछ ऐसा आता है कि वह ग्रीन रोड पर पंद्रह नंबर का दरवाजा जा खटखटाता है। उसके मन में है कि सिस्टर्ज इनहैंड्ज़ वाली स्त्रियाँ उतना कुछ नहीं कर रहीं, जितना करने की आवश्यकता है और जितना कुछ वे कर सकती हैं। उन्हें अपना कार्यक्षेत्र और फैलाना चाहिए। एक औरत दरवाज़ा खोलती है। वह कुछ डरी हुई-सी है। वह पूछती है -
''बताओ, मैं क्या कर सकती हूँ आपके लिए ?''
''मुझे कुलविंदर से मिलना है।''
''वह तो है नहीं।''
''वैसे होती तो यहीं है न ?''
''नहीं, अब वह यहाँ नहीं आया करती।''
''और प्रीती ?''
''प्रीती कौन ? मैं नहीं जानती।''
वह औरत न में सिर हिलाती है। जगमोहन तो वहाँ सिर्फ़ कुलविंदर को ही जानता है जो कि उसके पास सलाह लेने आई थी। फिर इधर-उधर ही मिली थी, एक-दो बार। प्रीती का नाम तो अचानक ही उसके मन में आ जाता है। प्रीती ने उसको बताया था कि वह भी इस संस्था से जुड़ी हुई है। प्रीती तो उससे बहुत दिनों से मिली ही नहीं है। उसको कभी-कभी उसकी याद भी आती है। एक बार भूपिंदर से भी उसके बारे में पूछा था। भूपिंदर ने बताया था कि प्रीती का पति उसको नाटकों में काम नहीं करने दे रहा। यह बात तो वह पहले से ही जानता है। अब इसका अर्थ है कि प्रीती का इस संस्था के साथ भी कोई सम्पर्क नहीं है। वह वहाँ से चल पड़ता है। कुछेक कदम ही चलता है तो पीछे से आवाज़ आती है-
''एक्सक्यूज़ मी।''
वह पलटकर देखता है। दरवाजे में एक अन्य औरत खड़ी है। वह पूछती है-
''कोई काम ?''
''नहीं, खास नहीं। कुलविंदर से ही मिलना था।''
''वह तो यहाँ से जा चुकी है। यदि कोई काम है, हमारे करने वाला तो बताओ।''
''नहीं, मैंने टाइम्ज़ में आपकी आर्गनाइजेशन के बारे में लेख पढ़ा है, उसके विषय में ही डिस्कस करना था कुछ।''
''आओ, मेरे साथ करो, मैं यहाँ की कन्वीनर हूँ।''
जगमोहन उसके पीछे-पीछे अन्दर चला जाता है। फ्रंट रूम में कुछ कुर्सियाँ पड़ी हैं। एक बड़ा-सा मेज लगा हुआ है। वह औरत उसको वहाँ बैठने का संकेत करती है और स्वयं भी बैठ जाती है। पूछती है-
''आपने ही वहाँ लीगल एडवाइज़ सेंटर खोल रखा है, लेडी मार्गेट रोड पर।''
''हाँ, पर बन्द करना पड़ा।''
''क्यों ?''
''कोई आता नहीं था।''
''हमने तो आप तक अप्रोच की थी, पर आपने ही मना कर दिया।''
''क्योंकि मैं तो इमीग्रेशन के केस ही करता था, दूसरे लॉ के बारे में मुझे कोई ज्यादा जानकारी नहीं।''
''बताओ, कौन सी बात करनी है?... बॉय द वे, मॉय नेम इज़ लक्ष्मी।''
''आय'एम जगमोहन।''
''आई नो ! बस बात बताओ।''
''मुझे तो यह कहना है कि जितनी आपकी कैपेसिटी है, आप लोग उतना काम नहीं कर रहे।''
''आपने आर्टिकल पढ़ा नहीं ? हमारी उपलब्धियों के बारे में नहीं पढ़ा आपने इस आर्टिकल में ?''
''देखो, इस आर्टिकल का क्या मकसद है या इसके माध्यम से इसका राइटर क्या कहना चाहता है, यह एक अलग सवाल है। मुझे तो यह कहना है कि आप स्त्रियों की मैरीड लाइफ़ की प्रॉब्लम्स को ही कवर कर रहे हो, जब कि स्त्रियों की और भी तकलीफ़ें हैं।''
''फॉर एक्ज़ाम्पिल ?''
''फॉर एक्ज़ाम्पिल... ये जबरदस्ती के विवाह, ये ऑनर किलिंग और इंडिया-पाकिस्तान में औरतों के संग कितनी ज्यादतियाँ हो रही हैं।''
''देखिए, हमारी कैपेसिटी बहुत लिमिटेड है, हमें मालूम हैं, औरतों की बहुत प्रॉब्लम्स हैं, पर इस वक्त बड़ा मसला औरत के ऊपर हो रही वायलेंस का है। भारतीयों में पंजाबी मर्द अपनी पत्नियों के साथ बहुत मारपीट करते रहे हैं, ये लोग शराब पीते हैं और शराब पीकर औरत पर हाथ उठाते हैं। दूसरा हम बुजुर्ग़ औरतों की प्रॉब्लम्स को भी डील करते हैं।''
''यह मैं जानता हूँ, मेरा कहना है कि इस एरिये का विस्तार करो, और काम करो।''
''हमारे पास ग्रांटों की कमी है, फिर भी हमने सुखी क़त्ल कांड में आवाज़ उठाई थी।''
''सिर्फ़ एक प्रदर्शन किया था।''
''और एक प्रदर्शन ही काम कर गया, क़ातिल को सज़ा हो गई। सच तो यह है कि एक प्रदर्शन भी बहुत मुश्किल से हो पाता है। सभी औरतें काम करती हैं और जुलूस में आने के लिए हसबैंड की अनुमति चाहिए। आप शायद हमारी प्रॉब्लम को इस एंगिल से नहीं समझ सकते। अब पिछले दिनों अपने एक पंजाबी व्यक्ति ने किसी से अपने घर को आग लगवा दी जिसमें उसकी तीन बेटियाँ और पत्नी जलकर मर गईं। उसने आग इसलिए लगवाई कि उसकी पत्नी बेटा पैदा करने के काबिल नहीं थी।”
''मुझे पता है इस कहानी के बारे में। मैंने 'वास-प्रवास' में पढ़ा था।''
''हम इस इशू को लेकर जुलूस निकालना चाहती हैं, पर औरतें इकट्ठी नहीं हो रहीं। औरतों को काम पर से लौटकर घर संभालना पड़ता है, बच्चे भी और पति के हुक्म भी सुनने होते हैं। सच बात तो जगमोहन जी यह है कि यह पत्नी शब्द गलत है, असली शब्द तो स्लेव है। जब हम कहते हैं कि वह औरत इस आदमी की पत्नी है, हमें कहना यह चाहिए कि वह औरत इस आदमी की गुलाम है।''
(जारी…)
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2 comments:

ashok andrey said...

iss upanyaas ko padne se vhaan ki rajnitik sthition ko jaanne men kaphi madad milti haiki hamaare bhartiya kis tarah kee jindagi jeete hai,iski bhashaa kaphi sadhee huee hai jo pathak ko bandhe rakhti hai, veise Atwal jee to ek achchhe lekhak hain. unke iss sundar ansh ke liye badhai.

उमेश महादोषी said...

उपन्यास अच्छा है.