''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।
साउथालहरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
।। तीस ॥
एक शाम ज्ञान कौर कहती है-
''जी, मैं छुट्टी न कर लूँ सवेरे ?''
''क्यों ? सेहत ठीक नहीं ?''
''नहीं, सेहत तो ठीक है। लड़कियों को छुट्टियाँ है अब। मैंने सोचा, उनके साथ बैठकर देख लूँ। उनको घर के कामकाज के बारे में बताऊँ।''
''इन्हें अपने संग ही ले जा फैक्टरी में ही, जो बताना है, वहीं बताती रहना।''
''वहाँ कौन सा घर का काम होता है।''
''चल फिर कर ले छुट्टी, आज मैं भी कहीं नहीं जाऊँगा।''
प्रदुमण सिंह कहता है। वैसे वह नहीं चाहता कि लड़कियाँ फैक्टरी में जाएँ क्योंकि यदि लड़कियाँ वहाँ हों तो उसको स्वयं भी गम्भीर रहना पड़ता है, नहीं तो वह पर्दे में रहकर किसी न किसी औरत से मजाक कर लेता है। दूसरा, मीका और गुरमीत जो ड्राइवर हैं, फैक्टरी में होते हैं और लड़कियों की तरफ आँखें फाड़-फाड़कर देखते रहते हैं। अब वह यह भी नहीं चाहता कि ज्ञान कौर घर में रहे, क्योंकि ज्ञान कौर की अनुपस्थिति में औरतें काम पूरा नहीं करतीं। वह काम करने वालों के संग सख्ती नहीं बरत पाता। कुछेक औरतों के साथ तो उसने वक्त-बेवक्त सम्बन्ध भी बना रखे हैं इसलिए भी सख्ती नहीं बरत पाता।
सम्बन्ध रखने में वह बहुत गहरे नहीं उतरता अब। कुलजीत उसको ब्लैकमेल करना चाहती थी। उसके बाद वह सतर्क हो जाता है। अब वह सम्बन्ध सिर्फ़ विवाहित औरतों के साथ ही जोड़ता है। विवाहित औरतों की भी ज़रूरत अस्थायी होती है, प्रदुमण की ज़रूरत की तरह ही। अब फरीदा उसको बहुत उपयुक्त औरत प्रतीत हो रही है। वह छलांग लगाकर आगे नहीं बढ़ना चाहता। आहिस्ता-आहिस्ता वक्त लगाकर फरीदा के करीब जाना चाहता है। फिर वह ज्ञान कौर को भी किसी प्रकार का शक नहीं पड़ने देना चाहता।
ज्ञान कौर का घर में रहकर भी ध्यान फैक्टरी की तरफ ही है। लेकिन वह अपनी बेटियों के बीच बैठकर खुश है। उनसे रोटी और सब्ज़ी बनवानी है। दोपहर को प्रदुमण सिंह भी रोटी खाने के लिए घर ही आ जाता है। जैसे जैसे बेटियाँ बड़ी हो रही हैं, ज्ञान कौर का मन उनमें ही रहने लगता है। वे घर पर हों तो फोन करके उनका हालचाल पूछती रहती है। बलराम की उसे अधिक चिन्ता नहीं होती। राजविंदर को लेकर सोचने लगती है। लेकिन जब से यह बात तय हुई है कि उसका विवाह कर दिया जाए, तब से उसको कुछ तसल्ली है और लड़के को ब्याहने का चाव-सा चढ़ा हुआ है। उसके इंडिया जाने के बारे में घर में बातें होने लगी हैं।
एक दिन वह प्रदुमण सिंह से पूछती है-
''फिर कितनी देर के लिए इंडिया जाऊँ ?''
''चार हफ्ते के लिए।''
''राजविंदर को साथ ले जाऊँ ?''
''ले जाना, अगर मान जाए तो विवाह भी कर ही देना।''
''तुम्हारे बिना ही ?''
''बाकी सब वहीं हैं। तेरे भाई हैं, देख लेना, जैसे तुझे अच्छा लगे।''
''फिर मेरे बगैर यहाँ काम कैसे चलेगा ?''
''इसका तरीका यह है कि एक औरत को फोरलेडी बना दे। सारी जिम्मेदारी उसको दे दे। उसकी थोड़ी पैनी बढ़ा दे, देखना खुद काम करेगी। बड़ी फैक्टरियों में ऐसा ही होता है।''
उस रात राजविंदर घर आता है तो ज्ञान कौर बैठी उसका इंतज़ार कर रही होती है। वह पूछता है-
''क्यों मॉम, तू सोई नहीं अभी ?''
''जिसका बेटा यूँ घूमता फिर रहा हो, माँ कैसे हो जाएगी ?''
''माँ, तू रोज सोती है, आज क्या हो गया ?''
''मुझे तेरी चिन्ता है।''
''आई डोंट थिंक सो। अगर मेरी चिन्ता हो तो मुझे मनी क्यों नहीं देती ?''
''मनी तू जितनी चाहे ले ले, पर फिजूल खर्च के लिए नहीं।''
''खर्च तो खर्च होता है मॉम, फिजूल का मुझे नहीं पता।''
''चल, हम इंडिया चलें क्रिसमस पर।''
''इंडिया ? नो, नैवर।''
''क्यों ? अपना मुल्क है।''
''नहीं, मेरा कंट्री ये है। आय'एम ब्रिटिश।''
''पर तेरे डैडी का और मेरा देश इंडिया ही है।''
''तभी तो डैडी को किल करना चाहते थे वहाँ के लोग। मैं नहीं जाता इंडिया।''
''पर वो टाइम बीत गया, अब वहाँ सब ठीक है।''
''नहीं, मुझे नहीं जाना, तू जाना है तो जा। डैडी जाए, नॉट मी।''
''फिर तेरा विवाह कैसे करेंगे ?''
''व्हट विवाह ?''
''तू विवाह नहीं करवाएगा ?''
''वॉय ?''
''तेरी उम्र हो गई है, तू अकेला घूमता फिरता है, तेरी वाइफ़ होगी तो तेरी फिक्र करेगी, तू उसका फिक्र करेगा।''
''लुक मॉम, पहले डैड भी ऐसी रबिश बातें करता था, मैं विवाह लाइक नहीं करता। मेरे पर प्रैशर नहीं डालना, नहीं तो मैं घर से चला जाऊँगा। किसी फ्रैंड के साथ रहने लग पड़ूँगा।'' राजविंदर कहता है।
ज्ञान कौर के हाथ-पैर फूलने लगते हैं कि लड़का कहीं सचमुच ही घर से न चला जाए और कहीं बाहर रहने लग पड़े। वह प्यार से उसको समझाते हुए कहती है-
''न बाबा, मत करवा विवाह। मैं तो तेरे फायदे के लिए ही कहती थी।''
राजविंदर अपने कमरे में चला जाता है। ज्ञान कौर भी थकी टांगों से सीढ़ियाँ चढ़कर अपने कमरे में जा पड़ती है। प्रदुमण सिंह अभी जाग रहा है। ज्ञान कौर कहती है-
''लड़का नहीं मानता, कहता है घर से चला जाऊँगा।''
''जाने दे अगर जाता है।''
''लोग क्या कहेंगे कि इन्होंने लड़का घर से निकाल दिया।''
''लड़का ही है, कौन सा लड़की है।''
प्रदुमण सिंह कहता है और सोने की कोशिश करता है। उसको नींद नहीं आती। बहुत देर तक करवटें बदलता रहता है। ज्ञान कौर को भी बड़ी मुश्किल से नींद आती है। सवेरे उठते ही प्रदुमण सिंह पत्नी से कहता है-
''देख, इसको लेकर सोचने में टाइम खराब न कर, बलराम के बारे में सोच। उसको ब्याह दें, फिर लड़कियों की तरफ ध्यान दें।''
''पहले भी यह बात कितनी बार सोच चुके हैं, पर करना आसान नहीं।''
''छोड़ इस बात को, सारा दिन मूड खराब रहेगा।''
कहते हुए प्रदुमण सिंह फरीदा के बारे में सोचने लगता है। फरीदा काम पर आती है। उसने रोज़ नया सूट पहना होता है। बालों में चिड़ियाँ बना रखी होती हैं। वह प्रदुमण सिंह के पास से गुजरते समय धीमी चाल में हो जाती है ताकि अच्छी तरह देख सके। प्रदुमण सिंह भी थोड़ा बन ठनकर रहने लग पड़ा है। वह सवेरे ही ज्ञान कौर से कह देता है-
''कपड़े ज़रा अच्छी तरह से प्रैस कर देना, आज बैंक मैनेजर से मिलने जाना है।''
उसको इस तरह रोज़ ही किसी न किसी से मिलने जाना होता है या फिर कोई उसको मिलने आ रहा होता है। पगड़ी भी रोज़ बदलने लग पड़ा है। पहले कत्थई रंग की ही पहना करता था, पर अब पगड़ियों का रंग बदलता रहता है। एक दिन शिन्दर कौर पूछती है-
''अंकल जी, सुल्ली से पहले बात करके पगड़ी बांधा करते हो ?''
शिन्दर कभी-कभी उसके साथ बाहर चले जाया करती है। वह उससे लड़ भी पड़ती है कि इतनी औरतों के साथ एक ही समय में उसने वास्ता क्यों रखा हुआ है। प्रदुमण सिंह कहता है-
''क्यों, तू यह बात क्यों कहती है ?''
''जिस रंग की आपने पगड़ी बांधी होती है, वह उसी रंग का सूट पहनकर आती है।''
''नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं।'' कहकर प्रदुमण सिंह फरीदा के बारे में सोचने लगता है। फिर वह डर भी जाता है कि अभी तो कुछ घटित भी नहीं हुआ और खबर पहले ही फैल गई। फरीदा दफ्तर में मुस्कराती हुई दाख़िल होती है, कहती है-
''सरदार जी, आप तो मुझे बदनाम कर छोड़ोगे ?''
''क्यों, क्या बात हो गई ?''
''औरतें कहती हैं कि सरदार की पगड़ी और मेरे सूट का रंग एक होसी।''
''यह तो कोई दिल की दिल को राह होगी।''
''हाय अल्ला ! बन्द करो यह राह ! मेरे मियाँ को पता चल गया तो वह हमें जान से मार देगा। अगर आपकी सरदारनी को पता चल गया तो मेरे बाल नोंच लेगी।''
''फरीदा, तू बहुत सुन्दर है। तेरी हर अदा खूबसूरत है। मैं तुझ अकेली को मिलना चाहता हूँ, घर से कितने बजे निकलती हो ?''
''यही पन्द्रह मिनट का तो रास्ता होसी।''
''कल तू एक घंटा देर से आना, मैं तुझे राह में मिलूँगा।''
''न सरदार जी न, परमात्मा का नाम लो। मैं ऐसा न कर सां।''
''तू तो न कर, पर मैं तो कर सां... कल सवेरे साढ़े छह बजे मैं रोड के कार्नर पर मिलूँगा।''
''नहीं जी, वहाँ नहीं, आपने मिलना है तो लेडी मार्गेट रोड पर खड़े होना।''
(जारी…)
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