एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा
धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-25( दूसरा भाग)
चूल्हे के साथ स्कूल
सरकारी हाई स्कूल, तपा शहिणा ब्लॉक में आता था। शहिणा ब्लॉक में राणा ग्रुप का अकाली पक्षधर और आर.एस.एस. से संबंधित अध्यापकों से समझौता था। इसलिए इस ब्लॉक में से आर.एस.एस. पक्षधर अध्यापक दो बार चुनाव जीता। मगर समझौता तो आख़िर समझौता होता है। राणा ग्रुप को इस समझौते का बहुत फायदा था। लुधियाना ज़िले में ज़िला प्रधान के चुनाव के लिए राणा ग्रुप जिस उम्मीदवार को खड़ा करता, वह भी पूरा आर.एस.एस. का स्वयं सेवक था। दोनों पार्टियों का विचाराधारात्मक स्तर पर कतई कोई मेल नहीं था, अपितु दोनों एक दूसरे के विरोध में खड़ी थीं। इस ज़िले में राणा ग्रुप का उम्मीदवार दो-तीन बार विजयी भी रहा था। गुरदासपुर के एक या दो ब्लॉक-प्रधानों की सीट भी राणा ग्रुप आर.एस.एस. वालों के लिए ही छोड़ता। इससे राणा ग्रुप को एक बड़ा लाभ यह मिलता कि सी.पी.एम. बक्से में पंजाब के सारे आर.एस.एस. पक्षधर अध्यापकों के वोट पड़ जाते। सी.पी.आई. अर्थात ढिल्लों ग्रुप को पहले पहले तो कुछ कांग्रेस पक्षधर अथवा गोल-मोल अध्यापकों की वोटें मिलती रहीं, पर प्रांतीय स्तर पर गवर्नमेंट टीचर्ज़ यूनियन पर राणा ग्रुप का कब्ज़ा हो जाने के कारण वे गोलमोल अध्यापक भी अब राणा ग्रुप की ओर कदम बढ़ाने लग पड़े थे। नक्सली धड़ा जिसका प्रमुख नेता यशपाल था, उसके पास ज़िले की अध्यक्षता तो नहीं थी, पर कई ब्लॉकों पर उनका कब्ज़ा हो गया था। यशपाल रामपुरा फूल से संबंधित होने के कारण शहिणा ब्लॉक और शहिणा ब्लॉक ही नहीं, पूरे संगरूर ज़िले को प्रभावित करता था। इस स्कूल में काम करने वाला पी.टी.आई. हरकीरत सिंह भी यशपाल का ही श्रद्धालू था। एक चुनाव में सुरजीत सिंह डी.पी.ई भी राणा ग्रुप की ओर से खड़ा हुआ था। एक बार शहिणा ब्लॉक में तिकोनी टक्कर में यश ग्रुप का उम्मीदवार जीता था। ऐसे माहौल में मुझे सरकारी हाई स्कूल तपा में एक अध्यापक के तौर पर ही नहीं, वरन एक कर्मचारी नेता के तौर पर भी विचरना था। मेरे लिए अच्छी बात यह हुई कि ड्राइंग मास्टर मेरे कारण ढिल्लों ग्रुप में आ शामिल हुआ था। वह बड़ा धड़ल्लेदार मास्टर था। लड़कों पर भी उसका बहुत दबदबा था। अपने आप को नेता समझने वाले तपा मंडी के चौधरी भी उसके प्रभाव के अधीन थे। हाज़िरी रजिस्टर में हाज़िरी लगवाने से लेकर अन्य छोटे-मोटे कामों में बहुत से अध्यापक मेरी सहायता करते। यहाँ तक कि ज्ञानी हमीर सिंह, सुरजीत सिंह डी.पी.ई. और हरकीरत सिंह - सबसे मेरा प्यार भी था और आपसदारी भी। हम कई बार बहस करते करते अध्यापक गुटों से आगे वामपंथी राजनैतिक पार्टियों की सारी राजनीति खंगाल मारते। एक दूसरे पर दोष भी मढ़ने लग जाते। पर जब हल्ला-गुल्ला खत्म हो जाता, हम फिर से घी-खिचड़ी हो जाते। मज़े की बात तो यह थी कि सुरजीत सिंह और हरकीरत सिंह स्कूल के हर काम के लिए मुझे अपना अग्रणी मानते। हमारी इस तिकड़ी की दोस्ती और प्यार की खुशबू विद्यार्थियों में भी फैल गई थी, अध्यापकों में भी और लोगों में भी। सरकार की हर गलत बात पर हम तीनों ही मिलकर स्टैंड लेते। राणा ग्रुप के सही सोच वाले कई अध्यापक भी दिल से हमारी तरफ होते, लेकिन ग्रुप के अनुशासन के कारण चुप रहते। डी.ई.ओ. के साथ ढिल्लों ग्रुप की अनबन कोई बहुत बढ़िया रूझान नहीं था, क्योंकि आम तौर पर अधिकांश अफ़सरों की अपेक्षा डी.ई.ओ. एक अच्छा अफ़सर था। वह एक लम्बे समय तक सरकारी हाई स्कूल, रामपुरा फूल का हैड मास्टर रहा था और यह कस्बा, ब्लॉक शहिणा के बिलकुल साथ लगता होने के कारण बहुत सारे अध्यापकों के उसके संग निजी संबंध भी थे। पर राणा ग्रुप के लीडर, डी.ई.ओ. और ढिल्लों ग्रुप में बीच इस दरार को बनाये रखने के लिए कोई न कोई जुगत लड़ाते रहते। लेकिन हमारे स्कूल के अध्यापक इस षडयंत्र में शरीक नहीं होते थे।
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स्कूल में विद्यार्थियों के पढ़ाने के काम में अध्यापक भी मेरे सहायक होते। उनकी इतनी सहायता ही काफ़ी थी कि किसी भी अध्यापक ने न लोगों में और न ही विद्यार्थियों में मेरे विरुद्ध कोई बात की थी। यदि कोई मेरे पढ़ाने के विषय में पूछता भी तो अक्सर मास्टर न केवल मेरे हक में बोलते, अपितु मेरे पढ़ाने के तौर-तरीके की बहुत प्रशंसा भी करते। इस स्कूल में हर कक्षा में से मैंने एक या दो होशियार विद्यार्थियों को अपने संग जोड़ लिया था। अधिक समय तो सुखानंद बस्ती में रहने वाले रिफ्यूजी लक्ष्मण दास का लड़का हुकम चंद मेरे पास रहता। उससे बड़ी उसकी बहन थी जमना। वह दसवीं कक्षा में पढ़ती थी। वह भी हमारे घर आती। घर में वह ऐसे घुलमिल गई थी मानो घर की ही लड़की हो। ये दोनों बहन-भाई मुझको पढ़ने-लिखने का काम भी देते। एक विद्यार्थी बेअंत सिंह था, वह भी क्लास में मेरे संग छाया की तरह रहता। हर शरारती लड़के की हरकत नोट करता और मुझे बता देता। वह दो वर्ष मुझसे पढ़ा था, नौंवी और दसवीं कक्षा में। एक था मेरी साली शीला का बेटा पाली, पढ़ने में वह बहुत होशियार था। उसका असली नाम तो कुछ और ही था, लेकिन सभी उसे पाली कहकर ही बुलाते थे। पाली भी मेरे लिखने-पढ़ने के काम में मदद करता। मेरी किसी कहानी, कविता या ग़ज़ल की नकल भी कर देता। कक्षा में तो वह किसी की आवाज़ भी न निकलने देता था। एक लड़का घडैली से था, ज़रा ठिगना-सा। रंग भी उसका सांवला था। पढ़ने में वह बहुत होशियार था और मैंने उसको कक्षा का मॉनीटर बना रखा था। वह भी मेरे लिए बहुत सहायक सिद्ध हुआ। सहायक तो अन्य विद्यार्थी भी सिद्ध हुए होंगे, पर सबकी सूची देना और उनके मेरे प्रति लगाव की कहानियों का वृतांत पेश करना यहाँ संभव नहीं। इस बात को यदि मैं इन शब्दों में खत्म करूँ कि जो भी कक्षा मुझे पढ़ाने के लिए मिलती, उनमें से आरंभ में ही एक-दो होशियार और सीधे-सरल विद्यार्थी मैं दस-पाँच दिन के निरीक्षण के पश्चात् अपने अधीन कर लेता और उन्हें अपना विश्वासपात्र बनाकर रखता। यह एक किस्म का स्कूल में मेरा गुप्तचर विभाग या यह कह लो कि सी.आई.डी. का महकमा होता जो विद्यार्थियों की गलत हरकतों को मेरे नोटिस में लाता। विद्यार्थियों को मेरी इस जुगत का पता चल गया था, जिसकी वजह से कोई भी मेरी कक्षा में शरारत करने या मुझे धोखा देने की कोशिश नहीं करता था। हुकम चंद तो समझो मेरे इतना करीब हो गया था कि वह स्कूल की हर अच्छी-बुरी बात का ख़याल रखता और उसके बारे में मुझे बताता रहता। इस प्रकार, पूरी तरह नेत्रहीन हो जाने के बावजूद स्कूल में पढ़ाने में कभी मुझे कोई कठिनाई पेश नहीं आई थी। हैड मास्टर साहब भी हमेशा मेरा ख़याल रखते और उन्होंने कभी भी मेरी इज्ज़त में फ़र्क़ नहीं पड़ने दिया था।
तपा मंडी में आने से मुझे कुछ आर्थिक लाभ भी हुआ। मैंने सरकारी नौकरी के दौरान कभी भी अपने स्कूल के विद्यार्थियों की ट्यूशन नहीं की थी, पर ज्ञानी करने वाले विद्यार्थी मेरे पास हर सैशन में आते रहते, विशेष तौर पर लड़कियाँ। बाकी स्कूल के कुछ अध्यापक स्कूल के विद्यार्थियों की भी ट्यूशन करते, पर मैंने कभी एक भी स्कूल विद्यार्थी को ट्यूशन नहीं पढ़ाई थी। शायद, इस कारण भी साथी अध्यापकों से मेरी आत्मीयता बनी रही, क्योंकि ट्यूशन के मामले में मैं उनका प्रतिस्पर्धी नहीं था। ज्ञानी की कक्षा बाकायदा पढ़ाते रहने के कारण मुझे दो लाभ हुए - एक तो चार पैसे आने से हाथ खुला रहता, दूसरा मैं पंजाबी साहित्य से जुड़ता रहता। इसके अतिरिक्त, एक अन्य लाभ भी था। मैं किसी न किसी लड़की या लड़के को अपनी कहानी डिक्टेट करवाने के लिए बुला लिया करता। मेरा यह काम करने के लिए उन विद्यार्थियों ने कभी माथे पर बल नहीं डाला था, क्योंकि कई विद्यार्थियों से मैं ट्यूशन फीस लेता ही नहीं था। दस-बीस दिन यदि महीने से ऊपर हो जाते, मैंने किसी से पैसे नहीं मांगे थे। इस तरह विद्यार्थियों से मेरा संबंध उस तरह के अध्यापकों वाला नहीं था जो ट्यूशन के मामले में बड़े सख्त थे।
इस स्कूल में मैं 30 दिसम्बर 1981 तक रहा। यहीं से मैं लेक्चरर बनकर सरकारी कालेज, मालेरकोटला गया।
यदि हैड मास्टर सिंगला साहब ने मेरे प्रति इतना मोह-प्यार रखा तो मैं भी उसके लिए जान कुर्बान करने तक गया। यहाँ संक्षेप में एक घटना का उल्लेख करना ज़रूरी है। हुआ इस तरह कि 31 मार्च को जब स्कूल का परिणाम निकाला गया तो नौंवी के बहुत से विद्यार्थी फेल हो गए। जो छात्र फेल हुए थे, वे थे भी समझो झंडे के नीचे। अपने फेल होने कारण वे हैड मास्टर को ही समझते थे। नतीजा सुनाने वाले दिन दोपहर के समय जब हैड मास्टर साहब बाहर निकले, उन छात्रों में से दो-तीन छात्रों ने हैड मास्टर पर लाठियों से हमला कर दिया। हैड मास्टर को काफ़ी चोटें आईं। हैड मास्टर पर हुआ यह हमला समूचे अध्यापक वर्ग पर हुआ हमला था। सारे स्टाफ ने उन विद्यार्थियों की गिरफ्तारी के लिए संघर्ष आरंभ कर दिया। इस संघर्ष में मैं सबसे आगे थे। पुलिसवाले लड़कों को पकड़ नहीं रहे थे। उन लड़कों में से एक लड़का पुलिसवाले का बेटा था। वैसे भी, तपा मंडी में जब कर्मचारियों का कभी भी टकराव पैदा होता तो मंडी के लाला लोग मास्टरों के पक्ष में कम ही खड़े होते। आम भोले-भाले लोगों में यह प्रचार किया जाता कि मास्टर तो कामरेड हैं, मास्टरों की तनख्वाहें बहुत हैं, मास्टर पढ़ाते नहीं हैं, मास्टर ट्यूशनें करते हैं, आदि-आदि।
जब विद्यार्थियों पर पुलिस ने हाथ न डाला तो हमने इलाके के अन्य अध्यापकों को शहर में प्रदर्शन करने के लिए आमंत्रण भेज दिया। बहुत बड़ी संख्या में अध्यापक विद्यार्थियों की इस हरकत और सरकार की अध्यापक विरोधी भूमिका के कारण शामिल हुए। इस अनहोनी के विरुद्ध पूरे शहर में से जुलूस निकाला गया और भरपूर रैली की गई। विद्यार्थियों के माता-पिता विद्यार्थियों से माफ़ी मंगवाने के लिए तो तैयार थे, पर उन्हें कोई और सख्त सजा दिलाने के लिए यूँ ही लीपापोती वाली बातें से ही काम निबटाना चाहते थे, जिसके कारण हमने अपने संघर्ष को तहसील स्तर पर शुरू करने के लिए मन बना लिया। उस समय कोई खान साहब बरनाला में ए.एस.पी. था और था भी बहुत ईमानदार अफ़सर। सुना था कि यह ए.एस.पी, डॉ. ज़ाकिर हुसैन का रिश्तेदार है। अध्यापकों से वह बड़े आदर से मिला। मैं उस डेपुटेशन में शामिल था, पर हमारे बैठे-बैठे ही विद्यार्थियों के हक में अकाली नेता करतार सिंह जोशीला आ गया। उन दिनों जोशीला साहब सुरजीत सिंह बरनाला का दाहिना हाथ समझे जाते थे। लेकिन खान साहब की दिलेरी की दाद देना बनता है कि उन्होंने जोशीला साहब को इस तरह शर्मिन्दा किया कि वह पुन: बात करने के लायक नहीं रहा, पर पता नहीं क्या हुआ, सिंगला साहब विद्यार्थियों के माता-पिता से समझौता कर बैठे। सिंगला साहब का भाई प्यारा लाल एस.डी.एम. का रीडर था, संभव है कि उस कारण ही हैड मास्टर को समझौता करना पड़ा हो, लेकिन हम अध्यापकों को इस बात का गर्व है कि सब अध्यापक सिंगला साहब के पीछे थे।
(जारी…)
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