एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा
धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद
: सुभाष नीरव
चैप्टर-27(द्वितीय भाग)
एक नया मोड़
दूसरे भाग की तैयारी में मुझे ख़ास मुश्किल नहीं आई थी।
गुरचरन सिंह ढिल्लों को मेरी ज़रूरत थी और मुझे ढिल्लों जैसे पढ़कर सुनाने वाले किसी
सज्जन-मित्र की। संयोग से वह नतीजा निकलने से कुछ दिन बाद मेरे पास स्वयं ही आ गया।
उसके प्रथम भाग के पेपर में 50 प्रतिशत नंबर भी शायद नहीं आए
थे। उसने सारी उम्र साइंस पढ़ी थी। इसलिए बग़ैर किसी के नेतृत्व के उसके इतने नंबर आ
जाना भी ठीक ही थे। पर हैरानी की बात यह थी कि इतिहास के पेपर में उसके नंबर मेरे से
अधिक थे। यह सबकुछ कैसे हो गया ? मैं यह दोष किसके सिर पर धरूँ
? हमारी शिक्षा प्रणाली इतनी घटिया है कि इसमें खामियाँ
ही खामियाँ हैं। सबसे बड़ा दोष यह है कि हमारे अध्यापकों में पढ़ाने से लेकर पर्यवेक्षक
और परीक्षक के तौर पर सही फ़र्ज़ निभाने में लापरवाही बरतना। लोक बाणी के अनुसार 'अध्यापक नाप कर नंबर लगाते हैं।' इस प्रकार नंबर लगाते मैंने पहले स्कूल में भी देखे हैं और बाद
में कालेज में भी। इसलिए गुरचरन सिंह के साहित्य के इतिहास वाले पेपर में मेरे से अधिक
नंबर आना कोई हैरानी की बात नहीं थी और मेरे कम नंबर आना भी कोई ख़ास बात नहीं थी, जहाँ 'अंधी पीसे, कुत्ती चाटे'
वहाँ कुछ भी संभव है।
गुरचरन और मैंने दोनों ने फ़ैसला किया कि अक्तूबर से पढ़ाई शुरू
की जाए। हर शनिवार को शाम के समय वह मेरे घर आ जाया करे, रात को आधी रात तक पढ़ा जाए। सवेरे जल्दी उठकर फिर कुछ समय
पढ़ा जाए। मुँह-हाथ धोकर नाश्ते
के बाद दोपहर तक एक शिफ्ट और लगे। वह पढ़े और मैं सुनूँ। वह लिखे और मैं लिखवाऊँ। हमारी
यह योजना सौ फीसदी कामयाब रही।
तय किए गए प्रोग्राम के अनुसार अक्तूबर से पढ़ने-लिखने का काम
शुरू कर दिया। पहले पाठ्य-पुस्तक पढ़ते। मैं साथ ही साथ संबंधित पंक्तियों, पैरों और काव्य-पंक्तियों आदि पर निशानी लगवाता रहता। आवश्यकतानुसार
पुस्तक के हाशिये पर संक्षेप में नोट्स भी लिए जाते। फिर उस पुस्तक के बारे में आलोचना
की जितनी पुस्तकें हमारे पास होतीं,
उन्हें पढ़ते। निशानी लगाने
वाली विधि पाठ्य-पुस्तक जैसी ही होती। फिर पाठ्य-पुस्तक और आलोचना संबंधी पुस्तकें
पढ़ने के उपरांत मैं प्रश्नों की सूची तैयार करवाता। सूची के क्रम के अनुसार किताबों
पर लगाई गई निशानियों के आधार पर मैं बोलता रहता, गुरचरन लिख रहता। जो भी हवाला देना होता,
उसकी निशानी पाठ्य-पुस्तक
या आलोचना पुस्तक पर लगी होती, गुरचरन पुस्तक में देखकर वह नोट्स
वाले पन्ने पर चेप देता। इस प्रकार सारी पुस्तकें क्रमवार पढ़ीं और उनके नोट्स ले लिए
गए।
गुरचरन सिंह ढिल्लों बड़ा मेहनती व्यक्ति था। साइंस वाले प्राय:
मेहनती ही होते हैं। वह जुगती भी था। वह नोट्स की दो कॉपियाँ बनाता था। बढ़िया दस्ते
लाकर हमने शीटें तैयार कर ली थीं। ऊपर लकीरदार काग़ज़ रखते, बीच में कार्बन और नीचे बिलकुल कोरा सफ़ेद काग़ज़। कार्बन कॉपी
भी असल कॉपी जैसी ही तैयार होती और कई बार उससे भी बढ़िया उभरती। हमने इस काम में बिल्कुल
भी कंजूसी नहीं की थी। बढ़िया काग़ज़,
बढ़िया कार्बन, बढ़िया पेन-पेंसिल और शनिवार शाम से लेकर इतवार दोपहर तक लंगर-पानी
का भी बढ़िया इंतज़ाम होता। बनियों के घर पैदा हुआ हूँ। फालतू खर्च भी नहीं करता, पर कंजूसी भी कभी नहीं की। गुरचरन जट्ट था। जट्ट के बारे में
कहा जाता है कि जट्ट गन्ना नहीं देता,
गुड़ की भेली दे देता है।
पर मैंने गुरचरन से न गन्ना लिया था और न भेली। मेरे लिए तो इतना ही बहुत था कि बग़ैर
किसी अहसान के मुझे एक पढ़ने वाला निष्ठावान दोस्त मिल गया था। फरवरी तक हमारा शनिवार-रविवार
को पढ़ने-लिखने का यज्ञ चलता रहा और हमने चारों पेपरों के पूरे नोट्स तैयार कर लिए थे।
लगभग छह सौ से लेकर आठ सौ तक पृष्ठ। अब गुरचरन को न मेरी ज़रूरत थी और न मुझे गुरचरन
की। पर प्रश्न यह था कि अब वो नोट्स मुझे पढ़कर कौन सुनाये। इस काम में मेरी अब साइंस
मास्टर ने नहीं, साइंस ने मदद की। उन दिनों टेप
रिकार्डर आम चल पड़े थे। इनके आम प्रचलन को ही मैं साइंस की देन कहता हूँ।
मैंने एक अच्छी कंपनी का मंहगा टेप-रिकार्डर खरीदा। तीस कैसिटें
भी खरीदीं। उसी बेटी सलोचना को फिर तकलीफ़ दी। अधिकांश नोट्स उसी की आवाज़ में रिकार्ड
हुए। कुछ नोट्स मास्टर विजय बावा ने कैसिटों में बन्द किए। उन दिनों विजय बावा तपा
मंडी में मास्टर था और तपा की एक लड़की जो मेरी छात्रा भी थी और मुझे चाचा जी भी कहा
करती थी, विजय बावा से ब्याही हुई थी। उस लड़की सत्या के कारण ही
हमने अपने घर का पिछला हिस्सा विजय बावा को किराये पर दिया हुआ था। हम उन दोनों को
अपने बच्चों की भाँति ही रखते थे और वे हमारे पास रहे भी हमारे बच्चों की भाँति ही।
बाबू पुरुषोत्तम दास प्रोत्साहन मेरी लिए सदैव वरदान बना
रहा। रमेशर दास पहले स्वयं भी आ जाता और सलोचना को भी भेज देता। इस बार मेरी तैयारी
में कोई खास कमी नहीं थी। वही बठिंडा सेंटर,
वही मेरा लिखारी बाबू पुरुषोत्तम
दास, वही परीक्षा के महीने, सारा वातावरण पहले वाला था पर हौसला पहले से दुगना-चौगुना था और सारे पेपर हुए
भी कमाल के थे। मुझे खुशी इस बात की थी कि एम.ए. न होने के कारण जिस हीनभावना का मैं
पिछले सोलह-सत्रह साल से शिकार रहा था,
उससे अब मैं मुक्त हो गया
था।
मुझे 65-70 प्रतिशत नंबर आने की उम्मीद थी, लेकिन आए 64 प्रतिशत। पेपर समाप्त होने के
बाद मुझे डॉ. आत्म हमराही ने कहा था कि मैं परीक्षकों से सम्पर्क करूँ। उसने मुझे दो
परीक्षकों के नाम भी बताये थे। एक चण्डीगढ़ में था और दूसरा दिल्ली में। अच्छे नंबरों
के लालच ने मुझे उल्टी राह पर चला दिया था। मैं चण्डीगढ़ भी गया और दिल्ली भी। लेकिन
मेरे पहुँचने से पहले ही बाजी खत्म हो चुकी थी।
डॉ. आत्म हमराही मेरा बी.एड. का सहपाठी थी। उसने तो मेरे संग
सहानुभूति के कारण ही मुझे अपनी ओर से सीधे राह पर डाला था, पर शुक्र है कि वह राह मुझे रास नहीं आया था।
एक बात मुझे बाद में पता चली कि उन्हीं दिनों लोग इम्तिहानों
में तो नकल मारते ही हैं, बाद में पेपरों का भी पीछा करते
हैं। पीछा करने की इस प्रवृत्ति पर 'पाँचवा पर्चा' शीर्षक से एक लेख भी एक अखबार में छपा था। उस समय इस बीमारी
को शुरू हुए थोड़ा ही समय हुआ होगा। हमारे जैसे पिछड़े इलाके में रहने वाले लोगों तक
यह 'प्रगतिशील'
विधि नहीं पहुँची थी। यूनिवर्सिटियों
के विद्यार्थियों में यह रोग फैल चुका था। यूनिवर्सिटियों के अध्यापक भी इसका शिकार
थे। वे अपने विद्यार्थियों और अपने बच्चों को अधिक से अधिक नंबर दिलवाने और यहाँ तक
कि उनकी जेब पर 'गोल्ड मैडल' सजवाने के लिए हर हथकंडे का प्रयोग करते थे। विद्यार्थी भी इस
सहायता के बदले अध्यापकों का यथायोग्य मान करते थे। पर मैं इस रोग का शिकार होते-होते
बच गया था।
जिस दिन एम.ए. भाग-द्वितीय का नतीजा निकला, उस दिन मैं अपने मामा की पोती के विवाह में शामिल होने के लिए
अपने ननिहाल के गाँव मौड़ां गया हुआ था। मौड़ां तपा मंडी से सिर्फ़ आठ किलोमीटर की दूरी
पर है। अभी बारात को चाय पिलाई ही थी कि मेरे भतीजे शिवजी राम जो मामा जी के बड़े बेटे
चिरंजी लाल का बेटा है और मेरे साथ उसके संबंध मित्रों जैसे ही हैं, उसको किसी ने अख़बार लाकर दिया। अख़बार था- इंडियन एक्सप्रैस।
शिवजी राम को मेरे द्वारा इम्तिहान दिए जाने की जानकारी थी। यद्यपि वह मेरा भतीजा है
पर बुलाता वह मुझे गोयल साहब कहकर ही है और उस दिन भी बड़ी उत्सुकता से वह मुझसे मेरा
रोल नंबर पूछने लगा। मैं भी समझ गया कि रिजल्ट आ गया होगा। रोल नंबर बताये जाने के
एक मिनट बाद ही उसने मुझसे पार्टी मांग ली। रोल नंबर के साथ सबके नंबर भी दिए हुए थे।
प्रथम आने वाले के नंबर 506 थे और मेरे 480 । फर्स्ट डिवीज़न बन गई थी और अख़बार के अनुसार यूनिवर्सिटी में
दूसरा स्थान भी प्राप्त हो गया था,
पर मेरी संतुष्टि नहीं
हुई थी। इसके बावजूद मैं बेहद खुश था। बग़ैर पाँचवे पर्चे के यूनिवर्सिटी में दूसरे
स्थान पर पहुँच जाना, मेरे लिए यह कोई कम प्राप्ति नहीं
थी।
विवाह में शगुन तो मैंने दे ही दिया था। अब मेरा विवाह में बिलकुल
भी जी नही लग रहा था। मन करता था कि कब घर पहुँचूँ और अपनी पत्नी सुदर्शना देवी को
यह खुशखबरी सुनाऊँ। मेरी इस प्राप्ति में उसका योगदान कोई कम नहीं था।
मैंने मामा जी के पुत्र मदन लाल से जिसकी बेटी का विवाह था, जाने की आज्ञा मांगी और किसी ज़रूरी काम का बहाना बनाकर अपने
ड्राइवर से कहकर मैं बीसेक मिनट में ही तपा पहुँच गया। आठ नंबर गली के इस घर में हमारे
लिए पहली बार यह सबसे बड़ी खुशी थी। बाबू पुरुषोत्तम, रमेशर दास और उसकी बेटियाँ, ज्ञानी रघबीर सिंह, जिन जिन को भी पता चला,
वे मेरे घर इस तरह आ रहे
थे मानो किसी शादी में शामिल होने के लिए आ रहे हों। सचमुच यह शादी का अवसर ही तो था।
बाबू पुरुषोत्तम दास इस खुशी का प्रचार करने के लिए अधीर था।
वह मुझसे तीन तस्वीरें ले गया और बरनाला के एक पत्रकार तीर्थ राम सिधवानी को वो तस्वीरें
उसने जा थमाईं। जगबाणी, पंजाब केसरी और अन्य कई अख़बारों
में मेरी तस्वीर छप गई- 'पंजाबी यूनिवर्सिटी का एक नेत्रहीन
विद्यार्थी एम.ए. पंजाबी में अप्रैल 1980
की परीक्षा में दूसरे स्थान
पर रहा।' संग मेरी फोटो भी थी और नाम भी। तपा और बरनाला में ही
नहीं, सारे पंजाब में ही पता लग गया था। हरियाणा, हिमाचल और दिल्ली तक ख़बर पहुँच गई। बतौर लेखक मेरा थोड़ा-बहुत
नाम होने के कारण बधाई की चिट्ठियाँ आने लग पड़ीं। मेरे स्कूल के अध्यापक दंग थे, उनमें से हरकीरत सिंह ने तो कह ही दिया, ''गोयल साहिब,
यह तो आपने बुक्कल में
ही भेली तोड़ ली।'' मैं खुश भी था और डरता भी था।
सरकारी काग़ज़ों में अभी मैं नेत्रहीन कर्मचारी के तौर पर स्वीकार नहीं हुआ था। यह ख़बर
तो मेरे नेत्रहीन होने का पक्का सुबूत थी। उन दिनों हमारे यहाँ एक महिला डी.पी.ई. हुआ
करती थी - सुरिंदर कौर। बड़ी भोली और सज्जन-सी स्त्री थी वह।
''वीर जी,
आप प्रोफेसर लगकर कब जा
रहे हो फिर ?'' सुरिंदर कौर मानो भोलेपन से ही पूछ रही थी। क्योंकि एम.ए.
करने से या यूनिवर्सिटी में पहले अथवा दूसरे स्थान पर आने से कोई प्रोफेसर तो नहीं
बन जाता। लेकिन उसके मीठे वचनों ने मुझे धुर अन्दर तक सरशार कर दिया। मुझे लगा कि मैं
अब प्रोफेसर ज़रूर बनूँगा। भोलीभाली महिला सुरिंदर कौर के शब्द मुझे बड़े अर्थपूर्ण लगे।
इन शब्दों को अमलीजामा पहनाने के लिए उस दिन से मैं अन्दर ही अन्दर योजनाएँ बनाने लग
पड़ा था। पर ज्ञानी हमीर सिंह मेरी तस्वीर छपवाने के हक में नहीं था। बात यह नहीं थी
कि वह राणा ग्रुप में था। असल में वह मेरा हमदर्द भी था। उसके दिमाग में एक धुकधुकी
थी कि कहीं यह ख़बर मेरी नौकरी के राह में रोड़ा ही न बन जाए।
जो विद्यार्थी मेरे से अधिक नंबर लेकर प्रथम स्थान पर आया था, उसके नाम और पते के बारे में एक साल बाद मुझे पता चला था। छह
साल बाद तो उसके विषय में बहुत कुछ पता चल गया था। उस समय तक मैं सरकारी कालेज, मालेरकोटला में स्थायी तौर पर लेक्चरर लग गया था। वह मेरे कालेज
में एडहॉक पर लेक्चरर लगने के लिए इंटरव्यू दे आया था। मेरे कालेज में आ जाने से यूनिवर्सिटी
शिक्षा की हर किस्म की पोल-पट्टियाँ मेरे सामने खुलनी आरंभ हो गई थीं। पंजाब पब्लिक
सर्विस कमीशन की पी.सी.एस. की परीक्षाओं से लेकर डॉक्टरों, लेक्चरारों और इंजीनियरों की नियुक्तियों के संबंध में यहाँ
बताने की आवश्यकता नहीं, रवि सिद्धू कांड ने ही सबकुछ जग-जाहिर
कर दिया है। इससे पहले भी बहुत या कम धूल कमीशन में उड़ती रही होगी। बहुत-सी यूनिवर्सिटियों
में भी यह धूल उड़ रही है। ईश्वर ही रक्षक है हमारी ज़मीरों का। मुझे एम.ए. में अपनी
मेहनत से हासिल पोज़ीशन पर गर्व है। यह मेरे श्रम और मेरी योग्यता की देन थी। मुझे मेरी
इस छोटी-सी प्राप्ति पर गर्व है और यह प्राप्ति ही मेरे उजले भविष्य की ज़ामन बनी।
कुछ लोग शायद मेरे 480 नंबरों पर मेरे द्वारा गर्व किए
जाने को मेरी नादानी ही न समझ बैठें। उन्हें 2003 के बाद एम.ए. में थोक में नंबर
लाने वाले विद्यार्थियों की प्राप्ति शायद मेरे से कहीं बड़ी लगे, पर मैं समझता हूँ कि अब नंबर दिए नहीं जाते, नंबरों की तो अब लूट मची हुई है। 20 प्रतिशत नंबर इंटरनल असिसटेंट के हैं जो कालेज या यूनिवर्सिटी
के अध्यापकों द्वारा स्वयं दिए जाने होते हैं। ऑब्जेक्टिव टाइप प्रश्नों के उत्तर बाहर
से की गई समाज सेवा के माध्यम से बहुत सरलता से हल हो जाते हैं। इसलिए अब तो एम.ए.
में 70-75 प्रतिशत नंबर ही अक्सर आ रहे हैं।
सो पाठको ! किसी साधू के चेले की झोली में आटा देखकर ही उसे बड़ा चेला मानने की भूल
न करो। उसकी साधूगिरी और तपस्या की परीक्षा लेकर देखो। इससे अधिक मैं सफाई के तौर पर
कुछ नहीं कहना चाहता।
(जारी…)
1 comment:
iss upanyaas ansh ko padnaa achchha laga kyonki isme ek achchhe vishay ko lekar kahani ke swarup ko prastut kiya gayaa hai.
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