समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

Monday, June 4, 2012

पंजाबी उपन्यास







''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


। चौंतीस ॥
यह बात है सन् साठ की जिन दिनों में पंजाबी लोग साउथाल में आकर बसने शुरू होते हैं। साउथाल में बसने के कई कारण हैं। यह एअरपोर्ट की करीब है। एक सौ पाँच नंबर बस सीधी जाती है। यहाँ घर भी आसपास के इलाकों से कुछ सस्ते हैं। यहाँ काम भी आसानी से मिल जाते हैं। कुछ लोग पहले यहाँ बसते हैं और फिर अपनो के करीब रहने के मकसद से दूसरे लोग भी यहीं रहना शुरू कर देते हैं। इन दिनों लोग वियोगग्रस्त हैं। इन्हें अपने देश और अपने परिवारों से बिछड़ने का दु:ख है। ये अपने देश के बारे में जानना चाहते हैं कि वहाँ क्या हो रहा है। उनके जज्बात को सहलाने के लिए ज्ञानेन्द्र पंजाबी का एक परचा निकालने का सपना देखता है। ज्ञानेन्द्र ने पहले दो उपन्यास लिखे हैं और यहाँ भी कुछ न कुछ लिखता रहता है। इसी दौरान भारत से आए लेखकों को अपने साथ जोड़ता है और दो पन्नों का साइक्लोस्टाइल परचा निकालता है। नाम रखता है - 'वास-परवास'। कुछ ख़बरें भारत की और कुछ यहाँ की और कुछ दिलचस्प सामग्री। परचा धीरे-धीरे मकबूल होने लगता है। इसके पृष्ठ भी बढ़ जाते हैं। दो पन्नों से दस, दस से बीस। ज्ञानेन्द्र का ख़बर लिखने का तरीका बहुत दिलचस्प और मौलिक है। ग्रामीण लोगों की मानसिकता की उसको खूब समझ है। जैसे-जैसे पंजाबी लोग साउथाल में बढ़ते जाते हैं, 'वास-परवास' का प्रचार भी बढ़ता जाता है। 'वास-परिवास' अकेले साउथाल में ही नहीं, पूरे ब्रिटेन में पढ़ा जाने लगता है। ज्ञानेन्द्र के संपादकीय की सुर कुछ विद्रोही होती है और लोग इस संपादकीय को रुचि से पढ़ते हैं। भारत में तत्कालीन सरकार इमरजेंसी लगा देती है। साउथाल के लोगों में इमरजेंसी के विरुद्ध रोष जाग पड़ता है। 'वास-परवास' इस रोष की तरजुमानी बहुत शिद्दत से करता है। इतनी शिद्दत से कि वह भारत सरकार की नज़रों में आ जाता है और उसके भारत जाने पर पाबंदी लग जाती है। इसी समय 'वास-परिवार' का दायरा इतना बढ़ जाता है कि यह दुनिया के कोने-कोने में पढ़ा जाने लगता है। इसमें सिर्फ़ समाचार और संपादकीय ही नहीं होता, और भी बहुत सारी सामग्री होती है जैसे कि कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास-अंश, लतीफ़े, प्रश्न-उत्तर और अन्य बहुत सारे लेख। अब ब्रिटेन में पंजाबी कम्युनिटी बहुत बड़ी हो चुकी है। तीज-त्योहार पंजाबी की तरह ही मनाए जाने लग पड़े हैं। भारत की तरह ही मेले लगते हैं। कबड्डी के टूरनामेंट होते हैं। 'वास-परवास' इन सबको कवर करता है। इस कवरेज़ को पढ़ने के लिए लोग अब 'वास-परवास' को घर की ज़रूरतों में शामिल करने लग पड़े हैं। जब वे साप्ताहिक खरीददारी करने के लिए जाते हैं तो उनकी टोकरी में दूध, मक्खन, सब्जियों, दालों आदि के साथ-साथ 'वास-परवास' भी होता है।
     इस अख़बार के बराबर कई अन्य अख़बार निकलते और बन्द होते रहते हैं, पर यह अख़बार अपनी गति से चलता चला जा रहा है। भारत से आया हर लीडर 'वास-परवास' के दफ्तर में उपस्थिति दर्ज़ करवाने का इच्छुक होता है। ज्ञानेन्द्र स्वयं लेखक है, इसलिए पंजाबी के लेखकों की खास इज्ज़त करता है। आर्थिक तौर पर भी मदद कर देता है। साउथाल के लेखकों को भी दफ्तर में बुलाकर महफ़िल जमाये रखता है। हर लेखक इसमें छपने में गर्व महसूस करता है। चाहे लेखक मार्क्सवादी हो या किसी धर्म से जुड़ा हो, हर कोई अपनी रचना इस अख़बार में भेजता है और ज्ञानेन्द्र रचना का स्तर परखकर बड़े चाव से उसे प्रकाशित करता है। ऐसे ही वह गाने वालों और खिलाड़ियों के साथ व्यवहार करता है। ज्ञानेन्द्र साउथाल की खास शख्सियतों में शामिल है। उसका अख़बार तो साउथाल की रूहे-रवां है। 'वास-परवास' के बगैर साउथाल की कल्पना नहीं की जा सकती।
     फिर दौर आता है खालिस्तान की लहर का। पहले तो ज्ञानेन्द्र किसी का पक्ष लिए बगैर संतुलित-सी ख़बरें छापता है, पर जब फौज हरमंदिर साहिब में दाख़िल होती है तो वह एकाएक खालिस्तान का पक्ष लेने लगता है। खालिस्तान का समर्थन करते हुए आलेख छापने लगता है। अपने संपादकीय में खालिस्तान की आवश्यकता पर बातें करता है। उसके इस रुख से बहुत सार दोस्त खफ़ा हो जाते हैं, पर वह उनकी परवाह नहीं करता। वह अपने दिल की बात कहना जारी रखता है। जहाँ वह कुछ दोस्त गवां बैठता है, वहीं बहुत सारे लोग उससे जुड़ने भी लगते हैं। लेखकों में मार्क्सवादी लेखक उसका साथ छोड़ जाते हैं, परन्तु अन्य खालिस्तानी विचारधारा वाले लेखक उसके संग आ खड़े होते हैं।
     ग्रेवाल गाहे-बगाहे 'वास-परवास' में छपता रहता है। मार्क्सवादी लेखक ग्रेवाल को कई बार कहते हैं कि वह इस परचे की मूलवादी नीति का साथ न दे, पर ज्ञानेन्द्र के साथ उसकी पुरानी मित्रता है। फिर वह लिखता भी कितना भर है। वार्षिक अंक हो या विशेष अंक, ज्ञानेन्द्र का उसको फोन आ जाता है कि लेख चाहिए। कोई गुरपर्व हो तो उससे संबंधित लेख लिखकर भेज देता है। एक दिन ज्ञानेन्द्र का फोन आता है।
     ''ले भाई ग्रेवाल, लिख एक गरमा-गर्म लेख खालिस्तान की रूप रेखा खींचता हुआ।''
     ''नहीं भाई संपादक महोदय, यह काम मैं नहीं कर सकता। मुझे नहीं चाहिए खालिस्तान।''
     ''मुझे भी नहीं चाहिए, पर तू लेख तो लिख।''
     ''नहीं, जिस काम के लिए मेरा ज़मीर न माने, वह काम मैं नहीं किया करता।''
     ग्रेवाल के इस इन्कार पर ज्ञानेन्द्र गुस्सा नहीं करता। वह उसके विचारों की कद्र करता है।
     ज्ञानेन्द्र के क़त्ल की ख़बर सुनकर ग्रेवाल कहता है-
     ''यह तो बहुत बुरा हुआ। मुझे डर था कि कुछ न कुछ होगा, पर ऐसा होगा कभी नहीं सोचा था।''
     ''कौन हो सकता है इसके पीछे ?''
     जगमोहन पूछता है। जगमोहन ज्ञानेन्द्र को कभी नहीं मिला, पर उसके अख़बार का निरंतर पाठक है। वह भी इस ख़बर से अचम्भित हुआ बैठा है। ग्रेवाल हाथ घुमाते हुए जवाब देता है-
     ''कुछ नहीं कहा जा सकता। इन बाबों के भी कई ग्रुप बने हुए हैं। एक-दूसरे के खिलाफ़ दुश्मनबाजी करते रहते हैं। ज्ञानेन्द्र भी ऐसी दुश्मनबाजी में शामिल था, पर यह कारण शायद न हो। पिछले दिनों पुलिस की एक रिपोर्ट आई थी कि ज्ञानेन्द्र की जान को ख़तरा है, पर उसने किसी किस्म की सिक्युरिटी नहीं रखी हुई थी। जो भी हुआ, बहुत बुरा हुआ।''
(जारी…) 

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