समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Sunday, July 29, 2012

आत्मकथा





एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा
धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-29

कालेज मेरा पहला दिन

वैसे तो लेक्चरर के तौर पर कालेज में मेरा पहला दिन 31 दिसम्बर 1981 से शुरू हो गया था परन्तु असली पहला दिन मैं उसको समझता हूँ, जब मैं पहली बार पढ़ाने के लिए कालेज गया। इससे पहले कुछ दिन मुझे क्लास में जाने की आवश्यकता नहीं पड़ी थी, क्योंकि दिसम्बर-जनवरी टैस्ट चल रहे थे और ये टैस्ट ही कालेज में विद्यार्थियों के यूनिवर्सिटी परीक्षा में बैठने के लिए आधार थे, अब भी हैं। मेरी इस परीक्षा में ड्यूटी नहीं लगी थी। कारण स्पष्ट है कि मैं एक निरीक्षक के तौर पर परीक्षा में काम कर ही नहीं सकता था। इसलिए मैं समय पर कालेज तो आता। दफ्तर के बरामदे के सामने बैडमिंटन कोर्ट के दोनों ओर सीमेंट के बैंच बने हुए थे, उन्हीं बैंचों में से किसी एक बैंच पर बैठ जाता। कालेज में लेक्चरर की हाज़िरी नहीं लगा करती थी। डा. हरमंदर सिंह दिओल उन दिनों में कालेज के प्रिंसीपल थे। मेरा तीसरा कहानी संग्रह ''पाटिया दुध'' अभी छप कर आया ही थाजब उन्होंने एक दिन मुझे अपने दफ्तर में बुलाया, मैंने अपना कहानी संग्रह ''पाटिया दुध'' उन्हें भेंट कर दिया। किताब लेकर वे बहुत प्रसन्न हुए। मुझे बाद में पता चला कि दिओल साहब खुद भी पढ़ने और लिखने का शौक रखते हैं। उनकी मानववादी पहुँच का उल्लेख करना यहाँ बहुत ज़रूरी है।
      प्रो. सरबजीत सिंह गिल पंजाबी विभाग के हैड थे। प्रो. स.स. पदम इस विभाग में उससे अगले स्थान पर थे। पदम साहिब बरनाला के होने के कारण मेरे पहले ही परिचित थे। वैसे भी, वह स्वयं साहित्यकार होने के कारण मेरे साथ दिल से मोह रखते थे। जब कर्मचंद ऋषि और मैं धौला में एक ही घर में रहा करते थे, उस समय अक्सर ऋषि से पदम साहिब का चिट्ठी-पत्र चलता रहता था। जब चिट्ठी-पत्र की वे यादें मैंने पदम साहिब को ताज़ा करवाईं तो वह मुझसे और अधिक मोह करने लग पड़े।
      कालेज के कमरा नंबर 9 में कई वरिष्ठ लेक्चरर और पदम साहिब खाली पीरियडों में आकर बैठा करते थे। मुझे दो-चार दिन में ही पता चल गया था कि पदम साहिब यद्यपि कालेज में वरिष्ठता के लिहाज़ से पाँचवे-छठे नंबर पर हैं, पर प्रभाव के तौर पर वह कालेज में प्रमुख हैं। उनके द्वारा मुझे खाली समय में 9 नंबर कमरे में बैठने के लिए कहना मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी। एक एडहॉक नेत्रहीन लेक्चरर को 75 लेक्चररों में इतने वरिष्ठ स्टाफ में बैठने का अवसर मिलना कोई छोटी बात नहीं थी।
      घरेलू परीक्षा के तुरन्त बाद कक्षाएँ प्रारंभ हो गई थीं। मुझे अधिकांश पीरियड बी.ए. भाग दो तक ही दिए गए और वे भी अनिवार्य पंजाबी के, पंजाबी लिटरेचर के नहीं। दूसरे पीरियड से मेरा टाइम टेबल शुरू होता था। यह पीरियड प्रैप के 'पंजाबी अनिवार्य' के विषय का था। यह कक्षा दफ्तर से कुछ दूर एक दरख्त के नीचे लगा करती थी। कमरों के अभाव के कारण पंजाब की बहुत की कक्षाएँ उन दिनों कमरों से बाहर ही लगा करती थीं। इस कक्षा में मेरी एक भान्जी नीरजा भी पढ़ती थी। उसकी सहेली पाली अक्सर नीरजा के संग घर आ जाती थी। मैंने मालेरकोटला आकर अपना ठिकाना बहन के घर को ही बनाया था। उनके कारण ही मैंने मालेरकोटला कालेज में नियुक्ति करवाई थी। जीजा जी का निधन हो जाने के कारण घर में मेरी बहन चन्द्र कांता के अलावा प्रैप अर्थात ग्यारहवीं में पढ़ने वाली मेरी यह भान्जी नीरजा और लड़कियों के जैन कालेज में पढ़ती मेरी बड़ी भान्जी सुनंदा थी। बहन का बड़ा बेटा और सबसे छोटा बेटा मुम्बई में कारोबार करते थे और बीच वाला बेटा उस समय एम.बी.बी.एस. करके कहीं बाहर नौकरी करता था। इसलिए मेरा उनके यहाँ रहना उनको एक सहारा महसूस होता था और मुझे अपनी बहन के पास रहना बिलकुल पराया नहीं लगता था।
      पाली और नीरजा को मैंने पहले ही बता दिया था कि मुझे वही टाइम टेबल मिला है जो पहले किरपाल सिंह के पास था। इसलिए जब पंजाबी विभाग के हैड प्रैप को यह बताने के लिए गए कि प्रो. किरपाल सिंह की जगह अब प्रो. एस. तरसेम उन्हें पढ़ाया करेंगे, तो उन्होंने मेरी नेत्रहीनता के विषय में भी विद्यार्थियों को बता दिया। यह सुनकर विद्यार्थियों में खुसुर-पुसुर शुरू हो गई और एक लड़का जिसका नाम शायद विनोद धीर था, कुछ अधिक ही उच्छृंखल होकर बोला कि ब्लाइंड आदमी हमें क्या पढ़ा सकता है। पाली जिसका पूरा नाम हरपाल कौर था, खड़ी होकर कहने लगी कि हमें पढ़कर देख लेना चाहिए, अगर अच्छा पढ़ाएँगे तो इसमें क्या हर्ज़ है कि यह ब्लाइंड हैं। दूसरे शब्दों में पाली ने बड़ी जुगत से मेरा पक्ष लिया था। दरख्त के नीचे से विद्यार्थी उठकर हैड के पीछे-पीछे बैडमिंटन कोर्ट के पक्के फर्श पर आ बैठे। मैंने हैड की आमद पर विभाग का हैड होने के नाते उनका आदर किया। वहाँ आकर भी हैड ने मेरी शैक्षिक योग्यता और मेरे छपे तीन कहानी संग्रहों और सैकड़ों कविताओं/ग़ज़लों के संबंध में विद्यार्थियों को बताया और फिर स्वयं चले गए।
      मेरे लिए यह परीक्षा की घड़ी थी। मैं समझता था कि इसमें पास होना मेरे लिए बेहद आवश्यक है। पहले कभी भी मैं ऐसे अवसरों पर डोला नहीं था। अब भी मैंने लेक्चर शुरू करने से पहले विद्यार्थियों को अपना संक्षिप्त सा परिचय देने के पश्चात पूछा कि किस पाठ्य-पुस्तक में से, कहाँ से पढ़ना है। वही विद्यार्थी धीर जो पहले हैड द्वारा मेरे बारे में बताये जाने पर मुझसे पढ़ने से इन्कार कर रहा था, उसी ने कहा कि कविता पढ़नी है - ताजमहल। यह मेरी खुशकिस्मती ही समझो कि मैंने ज्ञानी और पंजाबी की एम.ए. करते समय प्रो. मोहन सिंह की चुनिंदा कविताओं की पुस्तकें पढ़ रखी थीं। सबब से यह पूरी की पूरी कविता मुझे ज़बानी याद थी। इसलिए इस कविता को पढ़ाने के लिए मेरी नेत्रहीनता कोई रुकावट नहीं बन सकती थी। मैंने पहले प्रो. मोहन सिंह के जीवन के बारे में बहुत कुछ बताया और फिर क्रमवार प्रो.मोहन सिंह के काव्य-संग्रहों की सूची ज़बानी बता दी। यह भी बताया कि मोहन सिंह एक प्रगतिशील कवि हैं और प्रगतिशील लेखक किसे कहा जाता है, इस विषय में भी ग्यारहवीं के पेपर को सामने रखकर संक्षेप में जानकारी दी। फिर मुगल बादशाह शाहजहाँ के ताज महल बनाने की पृष्ठभूमि भी बहुत ही सरल और संक्षिप्त रूप में बताई। साथ यह भी बता दिया कि 'ताज महल' को लेकर कविताएँ और भी कवियों ने लिखी हैं, क्योंकि मैं जानता था कि इस कक्षा में कुछ विद्यार्थी मुसलमान ज़रूर होंगे, जिन्हें उर्दू साहित्य के बारे में जानकारी अवश्य होगी। इसलिए साहिर लुधियानवी की कविता 'ताज महल' के विषय में भी बताया और यह भी बताया कि प्रो. मोहन सिंह और साहिर की इस कविता में एक साझी बात यह है कि पैसे और ताकत के ज़ोर पर शाहजहाँ ने उस समय गरीब मिस्त्रियों और मज़दूरों पर जुल्म ढाह कर अपनी पत्नी मुमताज़ महल की यह यादगार बनवाई थी। चूंकि शाहजहां ने अपनी प्रजा से मुहब्बत की अपेक्षा अपनी पत्नी से मुहब्बत को अधिक आंका, इसलिए ये दोनों कवि इस अद्भुत और सुन्दर इमारत को सुन्दर नहीं मानते और यह कहकर मैंने पहले साहिर की कविता 'ताज महल' का यह शेर सुनाया :
     
इक शहनशाह ने दौलत का सहारा लेकर
      हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक

      इस शेर के अर्थ भी बताये और फिर पाठ्य-पुस्तक में शामिल कविता का मूल पाठ शुरू कर दिया। 
      अभी मैं पहले बंद के अर्थ और उसकी व्याख्या करने ही लगा था कि घंटी बज गई। जितना समय मैं बोलता रहा, बच्चे गेहूँ के घुन की भाँति निश्चल-से बैठे रहे। मैं महसूस करता था कि मेरा जादू चल गया है। विद्यार्थियों की उस दिन मैंने हाज़िरी नहीं लगाई थी और उनसे कहा था कि वे इस पीरियड के लिए यहीं पर आएँ।
      विभाग का हैड मेरी बांह पकड़कर मुझे दफ्तर में ले गया। बरामदे में अध्यापक और विद्यार्थी आ जा रहे होंगे, यह अहसास मुझे उनके पदचापों से लगा था। हैड ने प्रिंसीपल दिओल के सम्मुख मेरी बहुत प्रशंसा की। शायद मेरे लेक्चर का कुछ हिस्सा प्रिंसीपल साहिब ने भी सुना हो, क्योंकि मेरे कक्षा-अनुशासन की प्रशंसा वह भी कर रहे थे।
      टाइम टेबल के अनुसार मैंने शेष तीन दिन और पीरियड लिए। बाकी कक्षाओं को भी उसी तरह लेक्चर दिया जैसे प्रैप को दिया था।
      स्टाफ रूम में हाज़िरी लगाने के बाद मैं 9 नंबर कमरे में चला गया था और वहाँ से मुझे किसी विद्यार्थी के संग पदम साहिब के घर भेज दिया गया था।
      मेरे जाने से पहले ही नीरजा और पाली घर पहुँच चुकी थीं। दोनों बहुत खुश थीं। उन्होंने मुझे बताया कि कालेज में बहुत सारे अध्यापकों, सभी क्लर्कों, लड़कियों के कॉमन रूम और बरामदे में सैकड़ों विद्यार्थियों ने मेरा लेक्चर सुना था। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि जैसे मैं तमाशा दिखाने वाला कोई मदारी या सरकस का कोई अद्भुत जीव होऊँ, जिसकी कलाबाज़ियों को देखने के लिए कालेज के विद्यार्थी और स्टाफ दूर-करीब खड़े होकर तमाशा देखने आए थे। मैं तमाशा बढ़िया दिखा रहा था और इस तमाशे की सफलता ने मुझे इस कालेज के सफल अध्यापक होने का सर्टिफिकेट दे दिया था।
(जारी)

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