समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Saturday, April 24, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-8(प्रथम भाग)


मैंने भी कॉलेज का मुँह देखा

यह बात मैं पहले कह आया हूँ कि स्कूल में मुझे सातवीं कक्षा तक ही पढ़ने का अवसर मिला था और शेष सारी बी.ए. तक की पढ़ाई गिर-पड़ कर ही की थी। कॉलेज का मुँह देखने का शायद अवसर न ही मिलता अगर मास्टर बनने के लिए बी.एड. की ट्रेनिंग आवश्यक न होती। बी.एड. उन दिनों कॉलेज में प्रवेश लेकर ही की जाती थी। पहले इस डिग्री को बी.टी. अर्थात् बैचलर ऑफ टीचिंग कहा जाता था, पर 1959-60 के पश्चात् इस डिग्री का नाम बी.एड. अर्थात् बैचलर ऑफ एजूकेशन पड़ गया था।
तब बी.एड. के दाख़िले के लिए कोई कॉम्पिटिशन नहीं होता था। जिसके पास भी बी.ए. या बी.एस.सी. की डिग्री होती थी, वह किसी बी.एड. कॉलेज में जाकर फॉर्म और फ़ीस भरे और दाख़िला ले ले। मेरे भाई ने 1961 में डी.एम. ट्रेनिंग कॉलेज, मोगा से बी.एड. की थी। मोगा हमारे लिए कोई अनजाना नहीं था। माँ बताया करती थी कि तपा में आने से पहले मोगा में अपनी आढ़त की दुकान थी। मेरे छोटे ताया बाला राम के बड़े बेटे हंसराज ने डी.एम. इंटर कॉलेज, मोगा से ही 1938 में स्कूल में पहले स्थान पर रहकर मैट्रिक पास की थी। मेरे भाई ने भी 1940 में इसी कॉलेज से मैट्रिक पास की थी। वह भी पहले स्थान पर रहा था। अब यह कॉलेज एम.डी.ए.एस. सीनियर सेकेंडरी स्कूल के नाम से चलता है और यहाँ लगे मैरिट बोर्ड पर मैंने हंसराज अग्रवाल और हरबंश लाल गोयल दोनों के नाम 1962 और उसके बाद कई बार पढ़े थे, क्योंकि इस स्कूल में बी.एड. करते समय हमें टीचिंग प्रैक्टिस के लिए जाना पड़ता था। वैसे भी मोगा मेरे लिए पराया नहीं था। मेरा बड़ा ताया जिसे हम 'बाई' कहा करते थे, यहीं रहता था। बाई के बड़े पुत्र विलैती राम के तीन पुत्रों का कारोबार भी मोगे में ही था। मेरी सगी बुआ गणेशी भी मोगे की गली नंबर छह में ब्याही हुई थी। फूफा गुरदयाल मल के बड़े भाई धन्नामल देसी घी वाले की बड़ी दोहती 1960 में ही मेरे सगे भांजे दर्शन लाल से ब्याही गई थी। धन्नामल भिंडरावाला मोगे का सबसे बारसूख व्यक्ति था और उसके पल्ले डाली गई उसकी बड़ी बेटी की लड़की से मेरे भांजे के ब्याहे जाने से भिंडरावालों के अब पायताने की बजाय हम सिरहाने बैठ गए थे। बड़े ताया की छोटी बेटी लीला साधू राम भिंडरावाले को ब्याही हुई थी और वह नगरपालिका का प्रधान रह चुका था। साथ ही, दसेक मील के फासले पर गाँव सल्हीणे मेरी अपनी बहन शीला ब्याही हुई थी जिसका मोगे से इस तरह का रिश्ता था जैसे जट्ट का खेत से होता है। शरीके-कबीले और रिश्तेदारियों के कारण मोगा हमारे लिए भी अपने खेत पर जाने की तरह ही था।
जुआर के स्कूल से हिसाब-किताब नक्की करके जो साढ़े तीन सौ रुपये लेकर मैं आया था, वे भाई ने मुझसे नहीं लिए थे और बी.एड. के दाख़िले के लिए संभाल कर रख लेने के लिए कहा था। दाख़िला भरने और किताबें खरीदने के बाद भी पचास रुपये बच गए थे। दाख़िला भरवाने के लिए फूफा ही संग गया था। पहले दिन रहा भी बुआ के पास ही था। भाई भी बी.एड. करते समय हॉस्टल में ही रहा था, पर रात में रोटी वह बुआ के पास आकर ही खाता था। इसका कारण शायद यह था कि उन दिनों बुआ की बेटी रामो दसवीं में पढ़ती थी। शाम को भाई उसे अंग्रेजी और हिसाब पढ़ाने के लिए आया करता था और रोटी भी खा जाता था। बनियों वाले हिसाब के अनुसार चलें तो यह एक प्रकार का ट्यूशन पढ़ाने का बुआ का अपने भतीजे के साथ एक मौन समझौता था। अब इस प्रकार की ज़रूरत बुआ को नहीं थी। वैसे मेरा स्वभाव बुआ की गुलामी को बर्दाश्त करने वाला भी नहीं था। इसलिए न हॉस्टल और न ही बुआ का घर मेरा आसरा बन सका।
माँ को भी मेरे पास जुआर में रह कर सुख की बुरी आदत पड़ गई थी। मैंने भी सोचा कि अगर माँ को मोगा ले जाऊँ तो कुछ महीनों के लिए साँप भी मरता है और लाठी भी बचती है। माँ और भाभी के बीच की खींचतान कुछ महीने तो खत्म होगी ही, मुझे भी हॉस्टल की कच्ची-पक्की रोटियाँ नहीं खानी पडेंग़ी। अत: जब यह तजवीज़ मैंने भाई और भाभी के समक्ष रखी, दोनों खुश थे। दोनों की खुशी के कारण भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। जुआर जाने जैसा माँ को जैसे फिर से चाव चढ़ आया था।
मोगे की गली नंबर दो के सामने एम.डी.ए.एस. हॉयर सेकेंडरी स्कूल के समीप दस रुपये महीना पर एक चौबारा मिल गया। चौबारे के साथ ही सल्हीणे वाली बहन के एक पड़ोसी की रिहायश थी। बुआ के घर जाने में भी दो मिनट से अधिक का समय नहीं लगता था। माँ के लिए इस चौबारे में रह कर मेरी अनुपस्थिति में समय गुजारना कठिन नहीं था। कोई न कोई रिश्तेदार स्त्री उसके पास बैठी ही रहती। माँ के ताया की बेटी हर कौर के लिए तो हमारा चौबारा एक पक्का अड्डा बन गया था।
रोटी खाने-पकाने का मामला तो हल हो गया था, पर राशन, चौबारे का किराया और कॉलेज के अन्य खर्चों का प्रबंध मुझे स्वयं ही करना था। भाई भी यहाँ पर ट्यूशनों के सहारे ही बी.एड. करके गया था। मेरे लिए भी ट्यूशनें करना ज़रूरी था।
ताया के पोते मास्टर देवराज का मोगा के अध्यापकों और विद्यार्थियों में अच्छा रसूख था। वह पहले सनातन धर्म स्कूल में पढ़ाता था और अब मोगे के निकट ही किसी स्कूल में मास्टर था। सनातन धर्म स्कूल का सेकेंड मास्टर रिखी राम, देवराज की बहुत मानता था। दोनों के प्रभाव से मुझे दो ट्यूशनें मिल गई थीं और मिली भी पूरे सेंशन के लिए।
पहली ट्यूशन एक लड़की की थी। वह मोटी लड़की नरम और भोली थी लेकिन अमीरों के बच्चों की भांति लाडली होने के कारण पढ़ने में रुचि नहीं लेती थी। बाप उसका सिर पर नहीं था। ट्यूशन के पैसे उसकी माँ को अपने पुत्रों से पकड़कर कर ही देने होते थे और पैसे देने में उस बूढ़ी के पुत्र बड़े सुस्त थे। लड़की किसी स्कूल में नहीं पढ़ती थी इसलिए दो बजे ही उसे पढ़ाने चला जाता। उसका घर हमारे चौबारे से चारेक फर्लांग के फासले पर था। कभी मैं कॉलेज से सीधा पढ़ाने चला जाता और कभी घर से रोटी खाने के बाद। उसे बड़े लाड़ से पढ़ाना पड़ता। पढ़ने की बजाय वह बातें करने में अधिक रुचि रखती थी, पर मैं उसकी बात सुने बिना ही उसे पढ़ने में लगाये रखता। हालांकि ट्यूशन पढ़ाने के पहले दिन कोई बात तो खुली ही नहीं थी, पर एफ.ए. में पढ़ती दूसरी लड़की मेरा आधे से ज्यादा समय खा जाती। जवाब मैं दो बातों के कारण नहीं दे सकता था। एक तो यह कि वह परिवार मेरी ख़ातिर-सेवा बहुत करता था। मेरी इच्छानुसार रोज़ कुछ ठंडा या गरम पिलाया जाता। चाय के संग कुछ खाने के लिए भी रखा जाता। पूरा परिवार लड़कियों की माँ सहित मुझे हाथ जोड़कर नमस्कार करता। दूसरा यह कि महीना पूरा होने से पहले ही वह वृद्ध माता पचास रुपये घर आकर दे जाती थी। ऐसी ट्यूशन छोड़कर मैं कोई दूसरी झंझट वाली ट्यूशन नहीं करना चाहता था। वैसे भी यह ट्यूशन मास्टर रिखी राम के रसूख से ही मिली थी, नहीं तो बी.एड. के विद्यार्थी के लिए ट्यूशनें कहाँ धरी थीं! अपने विद्यार्थियों की ट्यूशनें तो अधिकतर संबंधित स्कूलों के मास्टर स्वयं ही हथिया लेते थे।
दूसरी ट्यूशन मेरे से दसेक वर्ष बड़े विद्यार्थी की थी। उसका अपना बेटा शायद मसूरी में पढ़ता था। यद्यपि वह हलवाई का काम करता था, पर इस कारोबार में भी वह किसी मिल मालिक से कम नहीं था। पहले तो वह अनपढ़ ही था, पढ़ने-लिखने की लौ उसे कारोबार में आ जाने के बाद ही लगी थी। वह मेरे घर पढ़ने आता। घर में मेरे पास सिर्फ़ दो चारपाइयाँ थीं। मेज-कुर्सी कोई था ही नहीं। इस भद्र पुरुष ने मेरी आर्थिक स्थिति भांप ली थी। इसलिए उसने दो कुर्सियाँ और एक मेज़ मेरी अनुपस्थिति में मेरे चौबारे में भिजवा दीं। मैं उसकी श्रद्धा और सत्कार के सम्मुख कुछ भी नहीं बोल सकता था। मुझसे बड़ी उम्रवाला कोई विद्यार्थी मेरा इतना सत्कार करेगा, इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मैं अँधेरा होने से पहले पहले आमतौर पर उसे पढ़ाने का काम समाप्त कर लेता। एफ.ए. अंग्रेजी के इस विद्यार्थी का दिमागी स्तर तो बहुत ऊँचा नहीं था, पर वह परिश्रमी बहुत था। कई बार दिन भी छिप जाता और अँधेरा हो जाता। उसकी इच्छा होती कि मैं उसे और पढ़ाता रहूँ। मैं उसे इन्कार भी नहीं कर सकता था। यद्यपि उसके ऐनक लगी हुई थी और मेरे भी, पर उसे दीवार पर लगी ट्यूब की रोशनी में पढ़ने में कोई मुश्किल नहीं थी। मुझे इस तरह की मुश्किल कई साल से आ रही थी। इसलिए मैंने टेबुल लैम्प का प्रबंध कर लिया था। पंद्रह वॉट के दूधिया बल्ब से मुझे किताब पढ़ने में कोई कठिनाई नहीं होती थी। उसे अधिक समय देने में भी मुझे कोई तकलीफ़ नहीं होती थी। ट्यूशन के पचास रुपये तो वह दिया ही करता था, मेरे छोटे-मोटे दूसरे कई घरेलू काम भी वह करवा दिया करता था। मिट्टी के तेल और बालण से लेकर सारा राशन उसका नौकर ही मेरे घर में पहुँचाता था।
एक और ट्यूशन भी पढ़ाई थी, पर लड़का बहुत शरारती होने के कारण करीब दो महीने बाद मैंने वह ट्यूशन छोड़ दी थी। मेरे लिए दो टयूशनों से प्राप्त होने वाली आय ही बहुत थी। इससे ही न केवल अपने कॉलेज की बकाया फीस, किताबों और कापियों का खर्च चलाया बल्कि चूल्हे का भी और कपड़े-लत्ते का भी खर्च पूरा किया।
किसी समय जब हम मोगा में रहा करते थे और मेरा अभी जन्म भी नहीं हुआ था, बहन कान्ता यहाँ कन्या पाठशाला में पढ़ कर गई थी। मेरी यह विवाहित बहन हमें मिलने मालेर कोटले से मोगा आई थी। उसकी गोद में उस समय उसका छोटा बेटा नन्हा था जिसे आजकल हम अजय कुमार कहते हैं। नन्हें को लिवर का भयानक रोग था, बचने की कोई आस नहीं थी। शायद बहन उसे वैद्य तीर्थराम को दिखाने आई थी। तीर्थराम हमारे जीजा जी साधू राम का मित्र था। दोनों राजनीतिज्ञ थे और गहरे मित्र भी। शायद यही आसरा देखकर बहन आई हो। पाँच दस दिन माँ बेटी ने खूब बातें कीं और दिल हल्का किया। भांजे का रोग यदि कम नहीं हुआ था तो बढ़ा भी नहीं था। कान्ता के मोगा आने की ख़बर सुनकर तारा भी गोदी की दोनों बेटियों को लेकर आ पहुँची और सल्हीणे वाली बहन शीला के तो पैरों में ही था मोगा। तीन बहनें और चौथी माँ और शाम के वक्त मौसी हर कौर की महफिल ! एक ट्यूशन पढ़ाने के अलावा छोटे से इस चौबारे में यह स्त्री कांफ्रेस अक्सर लगती रहती। मैं इसलिए नहीं बोलता था क्योंकि तपा में मैंने अपनी इन बहनों और माँ को कभी खुल कर हँसते हुए नहीं देखा था। यहाँ इन सबको पूरी आज़ादी थी। इनकी पंद्रह अगस्त तो अब जैसे मोगे के इस चौबारे में ही आ गई हो !
(जारी…)
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3 comments:

Sanjeet Tripathi said...

der se padhaa lekin kahani me yun mod aana behtari ki soochna de gaya....

poadh raha hu

रूपसिंह चन्देल said...

डॉ. तरसेम की आत्मकथा के अंश बीच बीच में छूटते रहे, लेकिन जो अंश भी पढ़ा अपने दिन याद आते रहे. सामान्य व्यक्ति के लिए कितना कठिन होता है आगे बढ़ना. मैंने तो कॉलेज का मुंह केवल चार दिन ही देखा वह भी मार्निंग शिफ्ट में नौकरी करते हुए और फिर ट्रांसफर----- उसके बाद की सारी पढ़ाई एक निजी छात्र के रूप में----- अच्छा लग रहा है. अनुवाद का तो कहना ही क्या....!

चन्देल

Anonymous said...

hello ji

you guys are doing wonderful job. keep it up.
regards
harpreet sekha
hsekha@hotmail.com