समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Saturday, October 30, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-15( दूसरा भाग)

नया महकमा, नये अनुभव

स्वास्थ विभाग में रोमांस की भरमार देखने को मिली। स्कूलों में यह काम कम था। मैंने तो जिस भी प्राइवेट स्कूल में काम किया, उनमें से किसी में भी कोई अध्यापिका नहीं थी। पढ़ने वाली लड़कियों की संख्या भी बहुत कम होती थी। बड़ी कक्षाओं की लड़कियों की क्लास या तो अलग लगती या अध्यापकों के साथ उन्हें बातचीत का अवसर कम मिलता। इस सम्बन्ध में मेरे संग जो पहले घटित हुआ है, वह मैं पीछे बता चुका हूँ।
हैल्थ सेंटर में तो लीला ही निराली थी। डॉ. अवतार सिंह स्वयं तो बहुत सज्जन थे। फार्मासिस्ट वेद प्रकाश भी इस मामले में पाक-साफ़ था, वह तो बस पैसे का बेटा था। स्त्रियों की ओर उसका कोई ध्यान नहीं था। एक दो को छोड़कर दोनों सैनेटरी इंस्पेक्टर, सर्वेलैंस वर्कर और सी.एम.ओ. दफ्तर में से आने वाले अफ़सरों के साथ आने वाले ड्राइवर- ये सब नर्सों पर आँख रखते। किसी के अगर कोई नर्स काबू में न आती तो वह किसी दाई के साथ रोमांस के चक्कर में पड़ जाते। यहाँ तक कि चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी भी इस काम में पीछे नहीं थे। चौकीदार सेवा सिंह बुजुर्ग़ था, बहुत सयाना था, बेहद गम्भीर। पहले ड्राइवर बाबू राम भी किसी हद तक इस चक्कर से मुक्त था। जंग सिंह को इस कुत्ते काम की जगह वेद प्रकाश से काम सीखने में अधिक दिलचस्पी थी। नर्सों में पी.एच.सी. हैडक्वार्टर की नर्स की तरफ किसी को झांकने का साहस नहीं था। उसका नखरा ऊँचा था या वह यूँ ही शरीफ थी। पर दोनों सैनेटरी इंस्पेक्टर यह कहा करते थे कि वह डॉक्टर से कम किसी से बात नहीं करती। हैडक्वाटर पर एक दाई शान्ति देवी थी। वह शतराणे की ही रहने वाली थी। उसकी ओर भी कोई आँख उठाकर नहीं देखता था। एक दाई थी अमर कौर। सब उसे अमरो कहकर बुलाते थे। वह मेकअप करने के बाद भी अच्छी नहीं लगती थी।
सैनेटरी इंस्पेक्टर सरबजीत का दुखान्त सबसे बड़ा था। मेरे पहुँचने से कई महीने पहले वहाँ जो एल.एच.वी. काम कर रही थी, सरबजीत उसे लेकर अपनी प्रेम कहानी जबरन सबको सुनाने लग पड़ता, पर वह लड़की जिसका नाम शायद दविंदर कौर था, बिलकुल चुपचाप अपने काम में मगन रहती। सरबजीत कई बहाने लगाकर उसे बुलाने की कोशिश करता पर वह मतलब की ही बात करती और उसके करीब आने में कोई न कोई बहाना लगाकर इधर-उधर चली जाती। करीब तीन महीने बाद दविंदर ने सारी कहानी मुझे बता दी। उसका पिता जब उसे यहाँ नौकरी पर छोड़कर गया था तो वह सरबजीत के साथ-साथ कुछ अन्य कर्मचारियों को दविंदर का ख़याल रखने के लिए कह गया था। लेकिन सरदार साहब को क्या पता था कि इस तरह कहने से कोई मर्द मजनूं भी बन सकता है और उसकी बेटी पर अपना कब्ज़ा जता सकता है। सरबजीत अपना क्लेम दविंदर पर बनाने के लिए पिछली लम्बी-चौड़ी घटनाओं की तफ़सील देता। उनमें से बहुत-सी घटनाएँ उसकी गलतफहमी का परिणाम थीं। सरबजीत जाति का आहलुवालिया था और दविंदर कौर जट्टों की बेटी थी। इसलिए दविंदर के माता-पिता को यह बात बिलकुल भी स्वीकार नहीं थी कि उनकी बेटी किसी दूसरी जाति में ब्याही जाए। जब तक मैं शतराणे में रहा, सरबजीत और उस लड़की में तनाव बना रहा। मैंने सरबजीत को समझाने का बड़ा प्रयास किया, पर उसने मेरी एक बात न मानी। मैंने उसे यह भी कहा, ''वह लड़की तो तेरे साथ बोलने तक को तैयार नहीं और तू उसके संग विवाह करवाने को मछली की तरह तड़प रहा है। वो कहती है- थड़े पर न चढ़ना, तू कहता है- पूरा तेली हूँ। ऐसे कोई बातें बना करती हैं। यह कोई गुड्डे-गुड़िया का खेल है।'' पर सरबजीत था निरा चिकना घड़ा, उस पर बूंद पड़ी न पड़ी, एक बराबर थी।
जिस नर्स या वर्कर की कोई बात चलती, उसकी कहानी अक्सर हैडक्वार्टर पर पहुँच जाती। मैं सब-सेंटर में भी जाया करता था। नर्सें और दाइयाँ मेरा बहुत आदर किया करती थीं। मब्बी सब-सेंटर वाली नर्स शादीशुदा थी और उसका पति उसके पास पहरेदारों की तरह रहता था। घग्गा सब-सेंटर वाली एक नर्स को कुछ महीने पहले दो बदमाश उठाकर ले गए थे, यह कहकर कि उनमें से एक की घरवाली को बच्चा होना है। उन्होंने उस बेचारी नर्स को रात भर बहुत परेशान किया। खानेवाल और मोमिआं सब-सेंटरों की नर्सें मेरे उपस्थित होने के बाद आई थीं और थी भी बिलकुल नईं। एक नर्स और भी थी हैडक्वार्टर पर, फरीदकोट ज़िले की। मेरे शतराणा में निवास के दौरान कोई न कोई बात किसी के बारे में सुनने को मिल ही जाती, पर मैं अपने दिल से इस कीचड़ से बाहर रहने की ही कोशिश करता रहता।
सब-सेंटर की जब भी कोई नर्स शतराणे आती, वह मेरे या संधू के कमरे में भी आ जाती। पटियाला वाली एक नर्स जो खानेवाल सब-सेंटर में काम करती थी, वह तो अल्मारी में पड़े डिब्बे भी खंगालने लग पड़ती। अल्मारी के कपाट नहीं थे। मेरी माँ बड़ी सख्त नज़रों से देखती, खास तौर पर जब वह मेरा शेव वाला डिब्बा खोलकर क्रीम आदि मुँह पर मलने लगती। ऐसी हरकत उसने दो-चार बार मेरी उपस्थिति में भी की थी और एक बार मेरी अनुपस्थिति में भी। मेरी माँ उसे कहती तो कुछ नहीं थी पर उसकी इस हरकत को देखकर उसने चाय-पानी पूछना बन्द कर दिया था। माँ मुझे समझाती कि मैं कहीं इस लड़की के चक्कर में न फंस जाऊँ। माँ की चक्कर वाली बात अपनी जगह पर ठीक सिद्ध हुई। वह नर्स एक सर्वेलैंस वर्कर के साथ निकटता के संबंध बना चुकी थी और इस बारे में मुझे उस वर्कर ने बता दिया था। इसी कारण वह चाहती थी कि मैं उससे हँसकर बात किया करूँ और इस बात को ढकी रहने दूँ। मैं तो किसी की भी बात आगे-पीछे नहीं करता था। इस हमाम में तो अधिकांश नंगे ही थे। आख़िर मैं इस नर्स के चक्रव्यूह में समझो आ ही गया। यह तीसरी बिमला थी जिसने मुझे अपने व्यूह में लेने की कोशिश की।
एक बार उसे मेरे दौरे का पता था। वह पटियाला से आकर पातड़ां बस अड्डे पर खड़ी थी। मैं साइकिल पर था। पातड़ां में उसे मेरे ठिकाने का पता था। वहाँ आकर मैं एक अखबार वाले या एक हलवाई की दुकान पर पाँच-सात मिनट बैठा करता था। उसने मुझे नमस्ते की और इस तरह मुस्कराई जैसे उसे बहुत कुछ मिल गया हो। टूर के बारे में पहले ही पता होने के कारण वह जानती थी कि मैं खानेवाल होकर आगे भूतगढ़ जाऊँगा। खानेवाल उस दिनों कोई बस नहीं जाया करती थी और मैं उसे साइकिल के पीछे बिठाने से इन्कार नहीं कर सकता था। वैसे भी मैं आख़िर मर्द था। एक सुन्दर लड़की इस तरह निकटता बनाने की कोशिश करे, उस जाल से भला मैं कैसे बच सकता था।
पातड़ां से कुछ आगे जाकर उसने वो हरकतें शुरू कर दीं, जिसकी मुझे इतनी जल्दी उम्मीद नहीं थी। मेरी पीठ पर वह अपनी उंगलियाँ फिराने लगी। पहले जब मैंने उसे रोका तो उसका जवाब था कि मुझे भ्रम हुआ है, पर जब मैंने पीछे की ओर अपना हाथ किया तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं सड़क के दोनों तरफ भी देख रहा था और सामने भी। शायद वह इस बात से चौकस थी। उसने मुझे कहा कि वह इतनी पागल नहीं कि राही के होते कोई शरारत करे। शरारत करने वाली बात उसने अपने मुँह से मान ली थी।
गाँव आने से कुछ गज़ पहले मैंने उसे साइकिल से उतार दिया था। मैं उसके सब-सेंटर पहुँच गया था। जिस घर में यह सब-सेंटर था, वह एक हॉकी के खिलाड़ी का घर था जो अब ज़िन्दगी की शाम बिता रहा था। मैं पहले भी उससे दो बार मिल चुका था, जिस कारण मेरा वहाँ पहुँचना कोई परायी बात नहीं थी। कुछ मिनट बाद बिमला भी पहुँच गई। उसने मुझे नमस्ते कहा और इस तरह प्रकट किया कि पहले वह मुझे मिली ही नहीं। ''लड़की, गोयल साहब ने तेरी गैर-हाज़िरी लगा देनी थी। टैम से आया कर। ये अफ़सर अच्छे हैं। हमारे ज़माने में तो अफ़सर आँख फड़कने नहीं देते थे। और फिर बच्ची, ड्यूटी ड्यूटी होती है।'' बुजुर्ग़, बुजुर्ग़ों वाली नसीहत दे रहा था और वह इस तरह खड़ी थी मानो सचमुच उससे बहुत बड़ी गलती हो गई हो। उसे हर किस्म का नाटक रचना आता था।
परिवार नियोजन के जिन दो केसों को हमने 'कन्विंस' करने जाना था, चाय पीने के बाद हम दोनों उस तरफ चल दिए। राह में प्रोग्राम यह बना कि भूतगढ़ की वापसी के बाद रात मैं उसके पास ठहरूँ। हालांकि मैं अपनी माँ को भी कह आया था और संधू को भी कि अगर भूतगढ़ से वापस नहीं लौटा गया तो अगले दिन सवेरे आऊँगा। शतराणे से भूतगढ़ 18-20 किलोमीटर दूर था और जोगेवाल से सात-आठ किलोमीटर की दूरी पर।
दोपहर की रोटी खाकर मैं अपने टूर के लिए तैयार हो गया। सरदार साहब ने स्वयं ही कह दिया कि लौटते समय मैं उनके पास रात में रुकूँ। इसलिए मेरा वहाँ रात में रुकना और आसान हो गया।
दिन छिपने से पहले मैं खानेवाल आ गया था। अंधराते के कारण मैं कभी भी बाहर अकेला दिन छिपने के बाद नहीं रहा था। यह घर भी मेरा देखा-परखा था। रोटी खाने के बाद बैठक में मेरा बिस्तर लगा दिया गया। अगर दूसरी चारपाई डालते तो सामने दरवाजा था। सर्दी होने के कारण सरदार साहब अपनी सबात में पड़ गए और जिस बैठक में मेरा बिस्तर लगाया गया था, वह असल में बिमला का कमरा था। वहीं अल्मारी में कुछ दवाइयाँ, कंडोम की डिब्बियाँ और उसका अपना बहुत-कुछ छोटा-मोटा सामान पड़ा था। सरदार साहब और मैं देर रात तक बातें करते रहे। वह अपनी खेल जीवन की और मैं अपने साहित्यिक और पारिवारिक जीवन की बातें करता रहा। उन दिनों मैंने साहित्य लिखना और पढ़ना बहुत कम किया हुआ था। बिमला ने सवेरे उठकर मुझसे माफी मांगी कि वह रात में नहीं आ सकी। साथ ही, उसका कारण भी बताया। मैं भी ऐसे माहौल में उससे कोई आस नहीं रखता था। मुझे अपनी इज्ज़त प्यारी थी, बहुत प्यारी। वैसे भी पहल उसकी थी, मेरी नहीं थी। लेकिन हम दोनों आपस में इतना खुल गए कि मैंने उसे अपनी माँ की भावनाओं से परिचित करवा दिया था। इसलिए वह जब भी दुबारा मेरे कमरे में आई, उसने किसी चीज़ को हाथ नहीं लगाया था। आकर मेरी माँ के साथ काम करवाती। मेरी माँ को वह कभी रोटी पकाने न देती। दो बार तो वह मेरी माँ के और मेरे कपड़े भी धो गई थी। पर मैंने कभी भी दुबारा खानेवाल रात नहीं बिताई थी। उसे भरोसा भी दे दिया था कि उसकी धर्म चन्द के साथ जो बातचीत है, मैं किसी को नहीं बताऊँगा। शायद वह यही चाहती थी। सी.एम.ओ. का एक ड्राइवर और हमारे दफ्तर के बाऊ जी एक नर्स जिसका नाम शायद पाल था, के साथ कई बार हैल्थ सेंटर के गैराज में ही मोर्चा लगा लेते। वे सबकुछ मुझे बता देते और संधू साहब ने इस यज्ञ में आहुति डालने की पेशकश भी की, पर मुझे पाल किसी भी तरह से अच्छी नहीं लगती थी। बिमला की अगर उस सर्वेलैंस वर्कर से बातचीत न होती तो शायद मैं उसकी ओर हाथ बढ़ाता।
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जैसा कि मैं पहले बता चुका हूँ, मेरा मुख्य काम परिवार नियोजन के प्रचार-प्रसार और उसकी सफलता से जुड़ा हुआ था। सिविल अस्पतालों, हैल्थ सेंटरों और सब-सेंटरों में कंडोम उन दिनों भी मुफ्त दिए जाते थे और अब भी। लेने वालों की कोई पड़ताल नहीं की जाती थी। अक्सर विवाहित स्त्री-पुरुष ही कंडोम लेने आते। इस तरह का जितना अधिक सामान लगता, उतना ठीक था पर असली ज़ोर इस काम पर दिया जाता था कि अधिक से अधिक नसबंदी और नलबंदी के ऑपरेशन करवाए जाएँ। उन दिनों में आज के कॉपर-टी की की तरह जो गर्भ-निरोधक उपाय इस्तेमाल किए जाते थे, उसे आई.यू.सी.डी. अर्थात इंटरा यूटरिन कांट्रासैप्टिव डिवाइश या आम भाषा में इसे लूप रखना भी कहा जाता था। कंडोम कितने भी लगते, उन्हें कर्मचारी की सफलता का पैमाना नहीं समझा जाता था। ओरल पिल्ज़ उन दिनों अभी प्रचलन में नहीं आई थीं। सबसे अधिक अहमियत नसबंदी को दी जाती थी। जिसमें मर्द का ऑपरेशन किया जाता जिससे उसके सीमन में से स्पर्म आने बन्द हो जाते थे। मर्द के स्पर्म और स्त्री के ओवम के मेल से औरत गर्भ धारण करती है। नसबंदी को छोटा ऑपरेशन समझा जाता था और हर सरकारी एम.बी.बी.एस. डॉक्टर को इस ऑपरेशन को करने की बाकायदा शिक्षा दी जाती थी। इस ऑपरेशन के लिए पोस्ट ग्रेज्यूएशन डिग्री अर्थात एम.एस. (सर्जन) की ज़रूरत नहीं थी। अब भी नसबंदी करने के लिए एम.बी.बी.एस. डॉक्टर योग्य समझे जाते हैं। नलबंदी औरत का मेजर ऑपरेशन है। यह ऑपरेशन पोस्ट ग्रज्यूएट सर्जन या स्त्री रोगों की विशेषज्ञ एम.डी. डॉक्टर करते थे, उन दिनों भी और अब भी। इसलिए सरकार की ओर से हमें हिदायत थी कि हम नसबंदी और नलबंदी पर ही ज़ोर दें। इन दोनों ऑपरेशनों को आबादी घटाने या रोकने का पक्का काम समझा जाता है। नसबंदी के कैम्प हैल्थ-सेंटर या सिविल अस्पताल में दो-तीन महीने बाद लगते ही रहते थे। जब तारीख सुनिश्चित हो जाती, हम पूरी तरह इस ओर जुट जाते। सब कर्मचारी- खासतौर पर नर्सें, एल.एच.वी., सैनेटरी इंस्पेक्टर, डॉक्टर और सबसे अधिक हैल्थ एजूकेटर व्यस्त हो जाते। हर कर्मचारी के लिए कोटा तय कर दिया जाता। हैल्थ एजूकेटर के लिए यद्यपि कोटा कुछ नहीं था पर कैम्प की सफलता की सारी जिम्मेदारी उसके सिर पर होती क्योंकि वह सारे ब्लॉक में एकमात्र कर्मचारी माना जाता था जिसके जिम्मे पूरा परिवार नियोजन का काम होता था। मुझे अच्छी तरह स्मरण है कि मेरे शतराणे में नौकरी के दौरान एक नसबंदी ऑपरेशन कैम्प समाणा और एक शतराणा में लगा था। केस लाने, उन्हें पैसे देने और जीपों पर बिठाकर उन्हें घर तक छोड़ कर आना, यह सारा काम मेरी निगरानी में हुआ था। लोगों को समझाने के लिए पंचायतों, बी.डी.ओ. स्टॉफ और पटवारी आदि सबकी मदद ली जाती थी। कैम्प की कामयाबी के लिए फिरकी की तरह घूमना पड़ता था। कम से कम एक हफ्ता तक सिर खुजलाने की भी फुर्सत नहीं होती थी। ऊपर से बड़े अफ़सरों की चेतावनियाँ सुननी पड़तीं और नीचे से अपने विभाग की भी तथा अन्य विभागों के उलाहने भी सुनने को मिलते। ऑपरेशन करने के लिए बाहर से आने वाले डॉक्टरों के चाय-पानी और उनके मान-सम्मान के प्रति भी चौकस रहने की मेरी ही जिम्मेदारी थी। शतराणा वाले कैम्प में हमने कोटा पूरा कर लिया था। कारण यह था कि शतराणे के आस पास हमारे चार सब-सेंटर थे। नर्सों ने अपनी जगह भागदौड़ की और बाकी कर्मचारियों ने अपनी जगह। मैंने अपने विभाग के कर्मचारियों को यह प्रकट करने की कोशिश की कि मेरा काम सिर्फ़ प्रचार-प्रसार करना है, केस लाना उन कर्मचारियों की ड्यूटी है जिनका इलाज के किसी न किसी क्षेत्र से संबंध है। हालांकि मैं अन्दर से समझता था कि कम काम होने से, सी.एम.ओ. और राज्य स्तर के अफ़सरों की ओर से खिंचाई मेरी ही होनी है।
समाणा ब्लॉक में लाल तिकोन के प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ी गई थी, पर सिविल अस्पताल समाणा में लगे नसबंदी के कैम्प ने हमारा नाक में दम कर दिया था। बड़ी कठिनाई से 11 केस तैयार किए थे। दो केस ऐसे आए कि ऑपरेशन करवाते समय बिफर गए। ये दोनों केस मैंने तैयार किए थे। उनमें से एक व्यक्ति ऐसा था जो घर से यह सोच कर आया था कि उसने ऑपरेशन करवाना ही नही। उसे काफी समय से खांसी थी और उसने खांसी की दवाई लेने के लिए ही जीप का फायदा उठाया था। मैंने भी उससे खांसी की दवाई देने का वायदा किया था पर उसने आते ही पर्ची बनवाने और खांसी की दवा लेने की रट लगा दी। मैं उसकी चालाकी समझ न सका। मैंने उसे गोलियाँ भी दिला दीं और उसका अधिया खांसी की दवाई से भी भरवा दिया। इस दवाई को उन दिनों चौदह नंबर मिक्सचर कहा करते थे। दवाई लेते ही वह गेट से बाहर निकल गया। हमने उसे राह में जाकर घेर लिया पर किसी को मज़बूर तो नहीं किया जा सकता था। उसने नहीं मानना था और न ही वह माना। हमें ठग कर ये गया, वो गया। मुझे बहुत निराशा हुई।
दूसरे केस में ऑपरेशन करवाने वाला सरदार कहे जा रहा था कि वह रोमां की बेअदबी नहीं होने देगा। मुझे इस भाषा की समझ थी। मैंने डॉ. जैन को सारी बात समझाई। डॉक्टर साहब ने उसे भरोसा दिलाया कि उस का ऑपरेशन बाल काटे बिना ही कर दिया जाएगा। मुझे नहीं पता कि वह ऑपरेशन कैसे किया गया, पर ऑपरेशन हो गया था और मरीज़ संतुष्ट था।
दोनों कैम्पों के बाद मैंने लगभग हर मरीज़ के घर घर जाकर उनकी जानकारी ली। समय से टांके कटवाने का प्रबंध किया। जिन केसों को और दवाई की ज़रूरत थी, उन्हें और दवाई उपलब्ध करवाई। यहाँ तक कि इन मरीज़ों के परिवार की ख़ैर-ख़बर भी पूछी। जब नसबंदी केस करवाने वाला कोई पुन: मिलता, मैं दौड़कर उसके साथ बात करने लगता। घर-परिवार की खैर-ख़बर पूछता।
तीसरा कैम्प जो बहुत ही सफल रहा, वह था शतराणे का लूप कैम्प। इस कैम्प में तीन लेडी डॉक्टरों को बुलाया गया था, पर केसों की तो जैसे बाढ़ ही आ गई हो। दोपहर से कुछ समय पहले पटियाला में सन्देशा भेज कर दो और लेडी डॉक्टरों को बुलाया गया। पाँच सौ से अधिक लूप फिट किए गए। ज़िला पटियाला में ही नहीं, इस कैम्प की धूम सारे पंजाब में पड़ गई थी। कैम्प वाले दिन एक चक्कर और पड़ गया। मेरे बहन तारा जनेपे के लिए आई हुई थी। पहले उसके दो बेटियाँ थीं। दूसरा मेरे जीजा जी का स्वभाव कुछ सख्त होने के कारण हमें यह डर था कि अगर फिर लड़की हो गई तो बहन का जीना तो इस घर में कठिन हो जाएगा। तारा को दोपहर से कुछ समय पहले तकलीफ़ हुई थी। आई तो वह इसलिए थी कि अस्पताल में डिलीवरी में कोई कठिनाई नहीं आएगी, पर उस दिन कैम्प के कारण अस्पताल में तिल रखने की जगह नहीं थी। हाँ, पाँच लेडी डॉक्टर और एक दर्जन नर्सें अवश्य उपस्थित थीं। जीपें चीलों की भांति घूम रही थीं। हैल्थ सेंटर के नज़दीक दवाई की कोई दूकान नहीं थी और पिचुरिटी के इंजेक्शन की ज़रूरत थी। यह इंजेक्शन हैल्थ-सेंटर में भी नहीं था। मैं स्वयं टीका लेने के लिए पातड़ां की तरफ जाने की तैयारी कर ही रहा था कि शमशेर सिंह ड्राइवर वाली जीप आ गई। मेरे बताने पर वह कहने लगा, ''वाह गोयल साहब, हम किसलिए हैं ?'' पर्ची लेकर उसने जीप पीछे मोड़ ली और बीस मिनट में टीका उसने मेरे हाथ में ला थमाया। मब्बी वाली नर्स जो बहुत अनुभव वाली थी और शान्ति दाई को डॉक्टर ने पहले ही घर भेज दिया था। टीका लगाया, आधे-पौने घंटे बाद काका जी ने अवतार लिया। आस पड़ोस में भी और सारे अस्पताल में भी खुशी की लहर दौड़ गई। डॉक्टर साहब कहते रहे, ''भई आज तो गोयल साहब का दिन है। कैम्प की शानदार कामयाबी और बहन जी के बेटा, भई बस कमाल हो गया।'' चारों ओर से बधाई ही बधाई की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। बाहर से आए स्टाफ को मिठाई खिलाने का काम पता नहीं किसने किया। पाँच-साढ़े पाँच तक सारा काम निपट गया। दिन छिपने से पहले गवैयों की एक टोली पता नहीं कहाँ से आ गई। सड़क के दूसरी तरफ नाचने-गाने का सिलसिला शुरू हो गया। संधू, शुक्ला, दरियाई मल, बख्शी - सबके परिवार इस तरह खुश थे मानो खुशी उनके घर ही आई हो। ऊपर का सारा काम दरियाई मल की घरवाली राज राणी ने संभाला हुआ था। मेरे लिए शतराणे की नौकरी के दौरान यह सबसे अधिक खुशी का दिन था- 29 अक्तूबर 1965 । अब इस काके का नाम अनुपम कुमार है, रामपुरा फूल में उसकी दवाइयों की दुकान इतनी बढ़िया चलती है कि सारा परिवार खुश है।
अनीता और बबली बेटा होने पर उछलती घूम रही थीं। बबली की शान जैसे बढ़ गई हो। उसके बाद ही लड़के का जन्म हुआ था। बबली का असली नाम अचला था। मेरी बड़ी बहन चन्द्रकांता के दोनों लड़कों के नाम भी 'अ' पर थे- आदर्श और अनूप। इसीलिए मेरी इस छोटी बहन तारा ने भी अपनी दोनों बेटियों के नाम भी 'अ' पर ही रखे हुए थे। हमने इसीलिए इस काके का नाम रखा - अनुपम। हमारे लिए इसके जन्म एक अनुपम घटना थी। हमारी तो बहन की इस बेटे के जन्म से ही कद्र बढ़नी थी। सचमुच इसका फ़र्क भी पड़ा। उन दिनों टेलिफोन आम नहीं होते थे। सो, मैंने तपा मंडी में अपने भाई और रामपुराफूल में जीजा जी को पत्र लिख दिए। शायद दो चिट्ठियाँ और लिखीं- एक मालेरकोटले और दूसरी सल्हीणे। मालेरकोटले तारा से बड़ी चन्द्रकांता रहती थी और सल्हीणे में बड़ी बहन शीला।
मदल लाल जी कुछ दिनों बाद आए। उनके पास घी की पीपी थी, चार सेर घी से भरी हुई पीपी। एक बादाम की गिरियों का भरा हुआ लिफाफा था और बहुत कुछ छोटा-मोटा सामान और था। बहन के ससुराल में पंजीरी बनाने वाला कोई भी नहीं था। बेचारी दादी सास तो पूरी तरह अपने योग्य भी नहीं थी। इसलिए जीजा जी सूखा सामान ही ले आए थे। वे जानते थे कि मेरी माँ स्वयं किसी बहन को बुलाकर पंजीरी बनवा लेगी। हम खुद भी चार सेर घी ले आए थे। उस दिनों शतराणे के इलाके में पाँच रुपये सेर घी मिलता था और मिलता भी बिलकुल खरा था।
मैंने कभी भी मदन लाल जी को इतना खुश नहीं देखा था। हालांकि हमारे इस कमरे की तुलना जीजा जी के बढ़िया लेंटर वाले मकान से नहीं की जा सकती थी, कहाँ राजा भोज और कहाँ कंगला तेली। पर फिर भी जीजा जी ने उस कमरे में चारपाई पर बैठ कर ही नाश्ता किया और दोपहर की रोटी भी खाई और जिस तरह की खुशी उनके चेहरे पर झलकती थी, उसका कोई पारावार नहीं था।
(जारी…)
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1 comment:

Sanjeet Tripathi said...

bahut sundar, kahani kahan se kahan pahuchi, aakhir me padhkar to mann prasann hota chala gaya......,

biti tahi bisaar de ki tarz par ab agli kisht ki pratikshaa karte hain....


shukriya, bahut hi shukriya, ise padhwane ke liye..