समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Sunday, September 2, 2012

पंजाबी उपन्यास



 ''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


। छत्तीस ॥

ज्ञानेन्द्र के क़त्ल से सारा साउथाल दहल जाता है। कुछ पता नहीं चल रहा कि क़त्ल किसने किया है। तरह-तरह के कयास लगाये जा रहे हैं। ब्रितानिया की मेन स्ट्रीम की अख़बारें इस क़त्ल का गंभीर नोटिस लेती हैं। इस घटना के बारे में संपादकीय लिखे जाते हैं। इस क़त्ल को कलम की आज़ादी पर हमला समझा जा रहा है। दुनिया भर की अखबारों में इस क़त्ल की चर्चा होती है, पर धीरे-धीरे इस घटना का असर मद्धम पड़ने लगता है। 'वास परवास' यद्यपि अभी भी ठीक चल रहा है, पर ज्ञानेन्द्र पाठकों की स्मृतियों में ज्यों-का-त्यों बैठा है।
      ग्रेवाल को आज उसकी कमी बहुत चुभ रही है। वह जीवित होता तो उसको आज जगजीत परवाना की ज़रूरत न पड़ती। परवाना साउथाल का माना हुआ कवि है और एक लेखक संगठन का अध्यक्ष है। साउथाल में कई कई गुरद्वारों, मंदिरों, मस्जिदों की तरह कई लेखक संगठन भी हैं। परवाना के घर जाने के लिए वह सोमरसैट एवेन्यू से निकल कर लेडी मार्गेट रोड पर आ जाता है। फिर कारलाइल रोड पर से होकर डेन एवेन्यू पर। डेन एवेन्यू सीधी ब्राडवे को निकलती है। ब्राडवे नित्य की तरह व्यस्त है। वह सोचता है कि अच्छा हुआ जो कार नहीं लाया। उसके बायीं ओर थोड़ा हटकर ग्रेवाल इंपोरियम नज़र आ रहा है। एक पल नज़र भरकर उधर देखता है। मन ही मन कहता है कि काफ़ी साज-सजावट कर ली लगती है। ब्राडवे पर सामने ही मीट की दुकान है। यहाँ से कभी वह मीट खरीदा करता था। अब तो घर में मीट बनाये को एक मुद्दत हो गई। रसोई के काम में वह बहुत आलसी है। बना-बनाया ही टेक-अवे कर लेता है। यह साउथाल है। यहाँ तो गैस जलाने की भी ज़रूरत नहीं पड़नी चाहिए। मीट की दुकान के शीशे पर पहले पंजाबी में 'झटका' लिखा होता था, अब 'हलाल' लिख दिया गया है। हे लाम अलफ लाम - हलाल। साथ ही प्रताप खैहरे का रेस्ट्रोरेंट है और सामने चौधरी का। वह जगमोहन को बताया करता है कि बड़ी बात नहीं यदि साउथाल में सिक्ख-मुसलमान दंगे हो जाएँ। वह गुस्से को अंदर पीता हुआ चलता जाता है।
      जगजीत परवाना छोटे-मोटे मुशायरे या अन्य कार्यक्रम करवाता रहता है। पहले वह और कामरेड इकबाल एक ही ग्रुप में हुआ करते थे, पर अब नहीं हैं। जब खालिस्तान का शोर-शराबा हुआ था तो एक सभा के कई ग्रुप बन गए थे। कई तरक्कीपसंद कहलाने वाले लेखक नंगे हो गए थे। बाहर से तरक्कीपसंद और अन्दर से मूलवादी। कभी ग्रेवाल को भी कविता का शौक हुआ करता था। अब नहीं है। ग्रेवाल को परवाना की शायरी अच्छी लगती है। चुस्त शब्दावली और बौद्धिकता। पर कविता तो उसको शीला स्पैरो की ही पसंद है। छोटे कद की खूबसूरत लड़की, तेज़-तेज़ कदम रखती और चिड़िया की भाँति फुदकती शीला स्पैरो। अब भी 'वास-परवास' में पूरे एक सफ़े पर अपनी ग़ज़लें छपी देखकर वह बाग-बाग हो गई थी। वह ब्राडवे पर से नहर के साथ-साथ मुड़ जाता है। पब की तरफ़ देखता है जो अब नया बना दिया गया है। तब तो दंगाइयों ने राख की ढेरी बना दिया था। सन 1979 में साउथाल में नस्ली दंगे हुए थे। कुछ नस्लवादी लोगों को भड़काने के लिए साउथाल में मीटिंगें करनी चाहते थे। लोगों को लगा कि दुश्मन तो घर में आ घुसा। बस, सर्तक हो गए।
      परवाना उसको तपाक से मिलता है। जफ्फी डालकर पूछता है-
      ''ग्रेवाल, तू तो बिलकुल ही गायब हो गया। मिलता ही नहीं कभी।''
      ''तू तो जानता ही है परवाना, लाइफ़ स्टाइल ही ऐसा है, बस चलो चल ही हो रहा है।''
      ''तू तो यार अकेली जान है, अगर तेरी लाइफ़ चलो चल है तो हम परिवारवालों का क्या बनेगा।''
      तब तक परवाना की पत्नी नछत्तर कौर भी उनके पास आ जाती है। वे सब एक दूसरे के पुराने परिचित हैं। वह आते ही पूछती है -
      ''रे ग्रेवाल, तू ही है ? जब इन्होंने बताया कि तूने आना है तो यकीन ही नहीं हुआ। मैं तो कई बार तुम्हारी दुकान पर भी जाती हूँ, वहाँ भी कभी नहीं देखा तुमको।''
      ''भरजाई, दुकान में गए को तो मुझे पन्द्रह साल हो गए, सब कुछ भाइयों के सुपुर्द कर दिया।''
      ''चलो, कोई बात नहीं। वे भी तो अपने है। तेरी तो जॉब ही बताते हैं कि अच्छी है, जुगिंदर कौर करमजली के करमों में नहीं था।''
      ग्रेवाल कुछ नहीं बोलता। परवाना भयभीत है कि कहीं कोई जज्बाती तोड़-फोड़ न हो जाए। वह बात को बदलते हुए कहता है-
      ''देख ले, ज्ञानेन्द्र तो भंग के भाड़े ही चला गया।''
      ''बहुत बुरा हुआ।''
      ''बाबाओं से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है।''
      ''पता नहीं ये बुरा काम कौन कर गया, कमाल की बात है कि अभी तक कुछ पता नहीं चला।''
      परवाना की पत्नी चाय ले आती है। परवाना ग्रेवाल से पूछता है-
      ''पुराने मित्रों में से कोई मिलता है ?''
      ''बहुत कम। तू बता, तू तो फंक्शन करता रहता है।''
      ''हम फंक्शन करवाते हैं, सबको बुलाते हैं, पर इकबाल अभी भी नाराज है। कहता है, तुमने ज्ञानेन्द्र के अख़बार में छप कर उसका साथ दिया। मैं कहता हूँ, हमारे छपने, न छपने से ज्ञानेन्द्र अपने विचार तो बदलने से रहा। कवि ने कविता लिखी है, वह चाहता है कि वह लोगों तक पहुँचे और 'वास-परवास' से बढ़िया कोई ज़रिया नहीं लोगों तक पहुँचने का। मैं कहता हूँ कि कामरेड, देख, हम अपने दिल की बात कह सकते हैं। पिछले विशेष अंक में मेरी कविताएँ पूरे सफ़े पर लगीं थी, पर ये सभी मूलवाद के विरुद्ध थीं।''
      ''मेरे साथ भी काफ़ी समय तक नाराज रहा। मैंने कहा कि मैं कभी खालिस्तान का समर्थक नहीं रहा और न ही इसके हक में लिखा, पर कामरेड 'आई.डब्ल्यू.ए. के ज़माने में बैठा हुआ है।''
      ''वो एक दूसरा ही दौर था, हम भी जवान थे, तुझे याद है कि भारत की प्रधान मंत्री आई तो हमने उसकी ग़लत नीतियों के कारण उसके खिलाफ़ प्रदर्शन किया था। इकबाल ने प्रधान मंत्री के ऊपर अंडा फेंक कर मारा था।''
      ''अंडा भी इस स्कीम से मारा कि जब वह डुमीनयन सिनेमा का दरवाज़ा पार करने लगी तो इसने अंडे को दरवाज़े से ज़रा-सा ऊपर दीवार पर मारा और अंडा फूट कर प्रधान मंत्री के जूड़े में यूँ गिरा जैसे कटोरी में गिरता है।''
      ग्रेवाल के कहने पर दोनों ताली बजाकर हँसने लगते हैं। ग्रेवाल फिर कहता है-
      ''फिर तो उसके पिट्ठू उसका सिर पोंछते रहे।''
      ''ग्रेवाल, यह ज़रूरी भी था, वह भी अपने आप को डिक्टेटर समझने लग पड़ी थी, लोक राय की चिंता करना उसने छोड़ दिया था, पर यह तो बहुत पुरानी बात हो गई। तू बता, यह निमंत्रण पत्र किसको भेजना है ?''
      ''मेरे परिचय में एक औरत है, कविता लिखती है, वह इधर आना चाहती है सैर के लिए और मेरी ड्यूटी लगी हुई है कि उसे किसी सभा-गोष्ठी के कार्यक्रम में लिए निमंत्रण मिल जाए। निमंत्रण मिलने पर
वीज़ा आसानी से मिल सकता है।''
      ''हम लोग गर्मियों में फंक्शन किया करते हैं, एक इन्वीटेशन भेज देंगे।''
      ''तुम इन्वीटेशन मुझे दे देना, उसके साथ मैं अपनी स्पांसरशिप भी लगा दूँगा ताकि श्योर हो जाए।''
      ''क्या नाम है उसका ? कोई नामी-गिरामी कवयित्री है ?''
      ''शीला स्पैरो।''
      ''वो तो हमारी बढ़िया कवयित्री है, उसको वीज़ा के लिए कौन मना करेगा।''
      ''बात तो तेरी ठीक है पर वहाँ लोगों को यकीन नहीं आता।''
      ''नहीं, वह तो नामी औरत है। पिछले दिनों उसके नाम को लेकर भारतीय साहित्य अकादमी की बहुत आलोचना हुई कि उसको ईनाम क्यों नहीं दिया गया जब कि हकदार वह बहुत समय से है।''
      ''यह बात मैंने भी पढ़ी थी कहीं, शायद आने वाले समय में कभी मिल जाए।''
      ''नहीं, हमारे मुल्क में करप्शन बहुत है। अगर ध्यान से देखें तो औरतों को ईनाम सिर्फ़ जवानी में ही मिलते हैं।'' कहकर परवाना हँसने लगता है। फिर पूछता है-
      ''तेरी रिश्तेदार है ?''
      ''नहीं, मेरे जानकार की परिचित है, पिछली बार गया तो मिली थी। वैसे मेरी क्लास-फैलो भी रही है।''
      ''तू जैसा कहेगा, कर लेंगे। कोई फंक्शन न भी हुआ तो हम वैसे ही लैटर ड्राफ्ट कर लेंगे, तू वरी न कर। इतना ही बहुत है कि तू आज मिला तो सही, वह भी इतने सालों बाद।''
      ''पुराने लोग अब कम ही दिखाई देते हैं। एक दिन गुरजंट सिंह औलख मिला था। कहता था कि साउथाल में परिचितों का अकाल पड़ गया है। पहले सौ आदमी हाथ मिलाने वाले मिल जाया करते थे, अब 'हैलो' कहने के लिए भी चेहरे खोजने पड़ते हैं।''
      ''औलख चलने-फिरने में तगड़ा है। एक ज़माना था जब वह साउथाल को अपनी मिल्कियत समझा करता था। एम.पी. बनने के चांस थे, पर ये छोटू राम आउट-साइड रहकर गोल कर गया और नोमीनेशन जीत गया।''
      ''चलो, यह तो हमारी भारतीय राजनीति का हिस्सा है, दूसरे को टंगड़ी मारना।''
      ''पर औलख के दिमाग में से नेतागिरी का कीड़ा नहीं निकला अभी, तभी तो हर रोज़ पूरे साउथाल का चक्कर लगाता फिरता है।''
      लौटते हुए ग्रेवाल गुरजंट के विषय में सोच रहा है कि अकेलेपन से भागकर ही साउथाल का चक्कर लगाता होगा। उसकी पत्नी भी कई वर्षों से उससे अलग रहती है। वह सोचता है कि वह औलख से कहीं अधिक खुशकिस्मत है कि वह अकेला नहीं। किताबों का उसको बहुत सहारा है।
      घर जाने के लिए वह फिर डेन एवेन्यू पर मुड़ने लगता है, पर तभी उसका मन ब्राडवे का एक चक्कर लगाने के लिए हो आता है। ब्राडवे पर इतनी भीड़ है कि कंधे से कंधा बज रहा है। ऐसी भीड़ की अब उसको आदत नहीं रही। भुनते कबाबों की खुशबू उसको अच्छी लगती है। फुटपाथ पर लगी जलेबियों की रेहड़ी देखकर एक बार उसका दिल करता है कि यहीं खड़े होकर जलेबियाँ खाने लगे। कुछ और आगे जाएगा तो सामने ग्रेवाल इम्पोरियम दिखाई देने लगेगा, पर वह उसके सामने से नहीं गुज़रना चाहता। उसके दोनों भाई सोचेंगे कि वह कमज़ोर पड़ गया है। जिन भाइयों के लिए उसने अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया था, उन्होंने उसको बिजनेस में से इस तरह निकाल कर बाहर फेंक दिया जैसे मक्खन में से बाल फेंकते हैं। वह बहुत पहले ही यह फैसला कर चुका है कि उसको स्टोर नहीं चाहिए। शुरू शुरू में वह भाइयों के व्यवहार से बहुत दुखी रहा करता था, पर अब नहीं। स्टोर को उसने कभी अपनी कमज़ोरी नहीं बनने दिया।
      अपने से छोटे गुरजे और सुरजे को संभालते संभालते ही उसने जुगिंदर कौर को खो दिया। भाइयों को इंग्लैंड बुलाया। उनके विवाह किए। घर लेकर दिए। वे काम उसके संग दुकान में ही करते थे। उसने सोचा कि अब वे बिजनेस संभाल सकते हैं, क्यों न वह अपनी पढ़ाई पूरी कर ले। वह दुकान में से ऐसा गया कि दुबारा वहाँ न घुसा। भाइयों ने घुसने ही नहीं दिया। सारा कारोबार खुद संभाल लिया। दुकान हालांकि अभी भी उसके नाम पर ही है, परन्तु शेष सभी काग़ज़ात भाइयों ने अपने नाम पर करवा लिए हैं। भाई समझते हैं कि अब वह कहाँ ले जाएगा। उसके बाद तो सबकुछ उन्हीं का है। फिर भी वे उस पर नज़र रखते हैं कि कहीं दूसरी औरत न ले आए। वे जानते हैं कि कालेज में पढ़ाने के कारण औरतें उसके घर में आती-जाती रहती हैं। जब कोई औरत अधिक दिन रह जाए तो उन्हें चिंता सताने लगती है। आते-जाते वे अपने भाई के घर के सामने से गुज़रते हुए इस बात का ध्यान रखते हैं कि कोई अनजान कार तो उसके घर के सामने नहीं खड़ी है, अगर खड़ी है, तो कितनी देर तक खड़ी रहती है।
      इसी तरह ज्यादा चिंता उन्हें उस वक्त होती है, जब परमिंदर कौर ग्रेवाल के पीछे-पीछे घूमने लगती है। खुद ही ग्रेवाल की तरफ से विवाह के लिए 'हाँ' समझ कर खुश हुई घूमती है और अपना हक बनाने के लिए एक दिन ग्रेवाल इम्पोरियम में जा खड़ी होती है। गुरजे और सुरजे के हाथ-पाँव फूल जाते हैं। एक बार तो उन्हें लगता है कि सबकुछ हाथ से गया। दुकान अभी भी बड़े भाई के नाम है। इन बीते वर्षों के मुनाफे का भी कोई हिसाब-किताब नहीं। वह अपने भाई से मिलने के लिए तैयार होने लगते हैं। उन दोनों ने भाई के संग करने वाली बातें भी तय कर ली हैं। कुछ प्यार, कुछ मिन्नत-विनय और कुछ धमकियाँ। परन्तु बला टल जाती है। परमिंदर कौर समझ जाती है कि ग्रेवाल उससे विवाह नहीं करेगा।
(जारी…)

1 comment:

ashok andrey said...

Harjeet jee ke is upanyaas kii kadi bhee bandhe rakhti hai.sundar.