समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Friday, January 11, 2013

पंजाबी उपन्यास



''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।
 
साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


चालीस ॥

शनिवार का दिन है। मनदीप दोनों बेटों को संग लेकर अपनी मम्मी के घर चली जाती है। जगमोहन टेलीविज़न के सामने बैठा बोर हुआ पड़ा है। वह ग्रेवाल को फोन करता है। ग्रेवाल का कुछ पता नहीं चलता कि किस समय किधर का रुख कर ले। जगमोहन कल लेडी मार्ग्रेट रोड पर हुई नस्लवादी घटना के कारण दुखी है। उसी को लेकर सोचे जा रहा है। एक एशियन अपने परिवार के साथ कार में जा रहा था। पीछे से कोई गोरा लड़का ओवर टेक करने की कोशिश में था और ऐसा न कर सकने के कारण उसे गुस्सा आ रहा था। रेड लाइट पर आकर कार खड़ी हुई। गोरा एशियन को गालियाँ बकने लगा। एशियन भी गरम हुआ पड़ा था। बात बढ़ी। दोनों ने ही पास में पड़ी ईंटें उठा लीं। जो ईंट गोरे ने एशियन व्यक्ति को मारी, वह उसको नहीं लगी, पर जो ईंट एशियन व्यक्ति ने गोरे पर फेंकी, वह गोरे के सिर में ऐसी लगी कि वह वहीं मर गया। जगमोहन को यह घटना तंग किए हुए है। वह किसी के साथ इसे साझा करना चाहता है।
      कभी-कभी फोन करने पर ग्रेवाल घर पर मिल जाता है। वह जगमोहन को अपनी ओर आने के लिए कहता है। जगमोहन उसके घर पहुँच जाता है। दोनों सिगरेट सुलगा लेते हैं। जगमोहन कहता है-
      ''ये साथ वाले घर में एक गोरे बूढ़े को घुसता देखा है, यहीं रहता है ?''
      ''हाँ, पॉर्क के आसपास के कई घरों में से कई घर गोरों के हैं।''
      ''मैंने तो सोचा कि गोरे सारे साउथाल में से चले गए।''
      ''नहीं, कुछेक पॉकेट हैं इनके घरों की। असल में इनके पास कांउसल के घर हैं और काउंसल के घर इतनी आसानी से बदले नहीं जा सकते, बहुत लंबा प्रॉसीज़र है।''
      ''नहीं तो हमारे लोगों ने मिर्चें लगा लगाकर इन गोरों को साउथाल से बाहर निकाल दिया था।''
      वे दोनों हँस पड़ते हैं। ग्रेवाल कहने लगता है-
      ''प्राइवेट घर होते तो कभी के बेचकर जा चुके होते, पर ये कांउसल के घर तो आसानी से ट्रांसफर नहीं होते।''
      यह बात आम तौर पर प्रचलित है कि यदि किसी ने पड़ोसी गोरे का घर खरीदना हो या वैसे ही गोरे पड़ोसी से तंग-परेशान हो तो मिर्चों का तड़का लगाकर धुआँ गोरों के घर की तरफ़ कर दो, वह कुछ दिनों में ही भाग उठेगा।''
      जगमोहन ग्रेवाल के साथ कल वाली घटना साझी करके अफ़सोस प्रकट करता है। ग्रेवाल कहता है -
      ''यह कौन-सा पहला क़त्ल है।''
      ग्रेवाल को नस्लवाद के कारण हुए क़त्लों की पूरी जानकारी रहती है। वह फिर कहता है-
      ''हाँ, अपनी किस्म का यह पहला क़त्ल है, इस बार एशियन गोरे का क़त्ल हुआ है बायचांस। एशियन की तो इतनी हिम्मत भी नहीं होती कि गोरे का मुकाबला करे।''
      ''इसने हिम्मत कर ली यह सोचकर कि वह तो साउथाल में है और साउथाल उसका अपना शहर है।''
      ''ठीक है, पर अब डर यह है कि पुलिस इसको रेशियल मर्डर की हवा देकर कोई दंगा न करवा दे।''
      ''इधर तो शायद न हो, पर लंदन की ओर अपने लोगों को ज़रा ध्यान रखना पड़ेगा।''
      कुछ देर इस तरह की बातें करने के पश्चात् वे अपनी अन्य बातें करने लग पड़ते हैं। कई सप्ताह बाद मिले होने के कारण बहुत सारी बातें हैं करने वाली। जगमोहन मनिंदर को देखकर मन में पैदा हुई उमंगों के विषय में सोचता है। ग्रेवाल उससे परमिंदर कौर की ओर से निरंतर आ रहे फोनों के बारे में बात करता है। जगमोहन कहता है-
      ''सर जी, आपको वो दिल का जानी बनाए बैठी है, आप मानो या न मानो।''
      ''दिल का जानी चाहे न बनाए, पर राज़दार ज़रूर बना लेती है, दिल की कई बातें कर लिया करती है। पहले उसका हसबैंड दिल्ली के दंगों में मारा गया तो मेरे से संपर्क किया कि मैं उसे यहाँ स्थायी करवा दूँ। वह पहले भी इस तरफ़ क़ा चक्कर लगा गई थी। अब उसका यह हसबैंड मर गया तो फिर मुझसे सम्पर्क कर रही है।''
      ''रोने के लिए कंधा ढूँढ़ती होगी।''
      ''रोती कहाँ है वह। ज्ञानी तो पहले ही बूढ़ा था, जानती ही थी कि अधिक दिन नहीं रहने वाला। एक बात हो सकती है कि यह जवान औरत उस ज्ञानी बेचारे का तो बुरा हाल कर देती होगी, शायद जल्द मौत को लाने में भी सहायक हुई हो।''
      ''यह तो ज्ञानी को पता होना चाहिए था।''
      ''सामने सुन्दर औरत हो तो अक्ल पर पर्दा पड़ ही जाता है। जिस बात का इसको दुख है, वह है कि ज्ञानी जाते हुए कुछ छोड़कर नहीं गया।''
      ''यह तो बहुत बुरा हुआ बेचारी के साथ। कहाँ उसकी नज़र ग्रेवाल इंपोरियम पर थी और कहाँ यह ज्ञानी मिल गया, भूखा-नंगा।''
      ''अब उसकी आँख एक अमीर आदमी पर है, कांउसलर है ईस्ट लंदन में। औरत छोड़कर चली गई, यह उसको कंफर्ट करने जाती है।''
      ''चलो, आपके पीछे तो नहीं पड़ती अब।'' कहक़र जगमोहन हँसता है।
      फिर दोनों साउथाल की राजनीति की बातें करने लगते हैं। दोपहर के खाने के लिए एक रेस्टोरेंट में चले जाते हैं। खाना खाकर स्पाइक्स पॉर्क में घूमने लगते हैं। पॉर्क खाली-सा ही है। मौसम धूप के बावजूद ठंडा-सा है। झूलों पर तीन बच्चे झूल रहे हैं। एशियन बच्चे हैं। ग्रेवाल बहुत ग़ौर से उनकी ओर देख रहा है। जगमोहन पूछता है-
      ''सर जी, कभी बच्चों को भी मिस करते हो ?''
      ''जब मेरे बच्चे हैं ही नहीं, तो मिस क्या करना।''
      ''ऐसा तो लगता ही होगा कि काश होते।''
      ''नहीं, लगता नहीं। मुझे पता है कि मेरी लाइफ़ बच्चों वालों से अच्छी है।''
      ''फिर क्या महसूस करते हो अकेले रहक़र ?''
      ''बहुत खुश, रिलैक्स, अकेलेपन का भी अपना रस होता है।'' कहते हुए ग्रेवाल चुप हो जाता है। कुछ क़दम चलकर वह फिर कहता है-
      ''कभी कभी काम से लौटकर सैटी पर बैठा होऊँ तो दिल करने लगता है कि अब कोई चाय पिला दे।''
      ''फिर...?''
      ''फिर क्या, मैंने चाय पीने की आदत ही छोड़ दी।'' कहते हुए ग्रेवाल ठहाका मार कर हँसता है। जगमोहन भी उसका साथ देते हुए हँसने लगता है।
      झूलों की तरफ़ ग़ोरों के दो बच्चे जाते हैं। वे एशियन बच्चों को गालियाँ बकने लगते हैं। एक कहता है-
      ''यू पाकी शिट्, झूला खाली करो।''
      तीनों एशियन बच्चे झूलों से उतर कर भाग जाते हैं। ग्रेवाल उदास नज़रों से जगमोहन की ओर देखता है। जगमोहन कुछ नहीं बोलता। भागते हुए बच्चे उनके करीब से गुज़रते हैं। जगमोहन उन्हें आवाज़ देते हुए पूछता है-
      ''उनके कहने पर तुम झूले पर से क्यों उतरे ?''
      तीनों बच्चे एक-दूसरे की ओर देखने लगते हैं। फिर उनमें से एक कहता है-
      ''हम बहुत देर से जो झूल रहे थे।''
      ''तुम उन गोरों से डरे क्यों ? आओ मेरे साथ, मैं तुम्हें दुबारा स्विंग दिलाता हूँ।''
      ''नहीं नहीं अंकल, हमें जल्दी घर लौटना है।'' उनमें से एक कहता है और वे चले जाते हैं।
      वे दोनों वहीं एक बैंच पर बैठकर नस्लवाद के डंक को लेकर बातें करने लग जाते हैं।
      एक दिन ग्रेवाल जगमोहन को फोन करता है।
      ''आज शाम को क्या कर रहा है ?''
      ''बच्चों को स्विमिंग के लिए लेकर जाना है।''
      ''स्विमिंग पूल से कुछ और सोचने की बीमारी लेकर लौटेगा, चल तुझे एक फंक्शन पर ले चलूँ।''
      ''कहाँ सर जी ? कोई रंगीन फंक्शन है ?''
      ''नहीं, बिजनेस कम्युनिटी का है। मुझे निमंत्रण आया है स्पेशल। कोई मिनिस्टर इंडिया से आया हुआ है।''
      ''आपको निमंत्रण कैसे आ गया ?''
      ''मैं इनका पुराना मेंबर जो हुआ।''
      ''देख लो सर जी, कहो तो चले चलते हैं।''
      ''हाँ, मेरा अकेले जाने को मन नहीं। रेडी होकर छह बजे तक आ जाना।''
      जगमोहन उसके पास पहुँचते-पहुँचते लेट हो जाता है। फंक्शन में छह की बजाय सात बजे पहुँचते हैं। एक सूटिड-बूटिड व्यकित भाषण दे रहा है। वे दोनों बैठकर सुनने लगते हैं। बोलने वाला कह रहा है-
      ''हम इस देश का एक अहम हिस्सा है। हम इंग्लैंड की इकनॉमी को बांहों में भर लेने की तैयारी में हैं। हमने साहस करके नस्लवाद को ख़त्म किया है। अब किसी गोरे की हिम्मत नहीं पड़ती कि हमारी हवा की तरफ़ भी देख ले।''
      ग्रेवाल जगमोहन के कान में कहता है-
      ''यह आदमी बकवास कर रहा है कि नस्लवाद ख़त्म कर दिया।''
      ''आप कुछ बोलना चाहो तो मैं टाइम ले लेता हूँ। स्टेज सेक्रेटरी सोहनपाल ही लगता है। स्टेज पर पेन-पेपर लेकर बैठा है।''
      ''हाँ यार पूछ ले। मैंने भी अपनी कम्युनिटी को कभी एड्रेस नहीं किया, गुरुद्वारे के अलावा।''
      जगमोहन उठकर सोहनपाल के पास जाता है और ग्रेवाल का नाम लिखवा आता है। एक दो वक्ताओं के बाद सोहनपाल ग्रेवाल का नाम अगले वक्ता के तौर पर लेता है और उसे स्टेज पर आमंत्रित करता है।
      ''ग्रेवाल जी को साउथाल में कौन नहीं जानता, यह ग्रेवाल इंपोरियम के संस्थापक हैं, ईलिंग कालेज में सायक्लॉजी के प्रोफेसर है और लोक मसलों के बारे में बहुत गहरी समझ रखते हैं।''
      जगमोहन ताली बजाता है और उपस्थित लोग भी उसका साथ देने लगते हैं। ग्रेवाल मंच पर जाता है। एक हाथ में माइक लेकर नरम आवाज़ में बोलना प्रारंभ करता है।
      ''देश से आए मेहमान दास्तो और यहाँ उपस्थित दोस्तो, मैं नहीं समझता कि आप सब मुझे जानते होंगे। मैं ऐसे फंक्शनों में कम बोलता हूँ। किसी मसले के बारे में मेरे विचार कुछ दोस्तों तक ही महदूद रह जाया करते हैं। अब भी मुझे कुछ नहीं कहना था यदि मुझसे पूर्व एक वक्ता के नस्लवाद के विचार मुझे न उकसाते। उन्होंने कहा है कि हमने नस्लवाद ख़त्म कर दिया है या नस्लवाद ख़त्म हो गया है। मैं नहीं चाहता कि हमारे मेहमान कोई ग़लत राय बनाकर यहाँ से जाएँ। इसलिए कुछ विचार साझे कर रहा हूँ। नस्लवाद अभी समाप्त नहीं हुआ। ज्यों का त्यों ही है। अभी हाल ही में साउथाल के ऐन बीच नस्लवादी घटना घटी है। क़त्ल हुआ है। हालाँकि इस बार ग़लती से एक गोरा मारा गया है। परंतु यह गोरे की तरफ़ से हमारे व्यक्ति पर नस्लवादी हमला था। पिछले हफ्ते ही वेल्ज़ में सुंदर सिंह कुलार नाम के बुजुर्ग़ को भी गोरों ने क़त्ल किया है जिसकी ख़बर मेन स्ट्रीम की अख़बारों ने ही प्रकाशित की थीं। अक्तूबर में जो क़त्ल अस्पताल के सामने हुआ था, वह भी नस्लवादी था। और भी कई घटनाएँ घटित होती रहती हैं। कार चलाओ तो गोरे आपको गिव-वे पर राह नहीं देते। अन्य नस्लवादी इशारे और गालियाँ तो आम-सी बात हैं। आप स्कूल में अध्यापक हो, मेरी तरह पगड़ी बाँधते हो तो पता नहीं नस्लवाद के प्रभाव अधीन कोई विद्यार्थी आपकी पगड़ी उतार फेंके या मज़ाक उड़ाये। और भी बहुत कुछ है जिसे बयान करने लगूँ तो कई घंटे लग जाएँ। नस्लवाद का अनुभव उन्हीं लोगों को होता है जो गोरों के बीच विचरते हैं। जिन्हें गोरों के साथ वास्ता पड़ता है। इस साउथाल को तो हमने अपने सभ्याचार के लिए या अपने रंग के लिए एक तरह का कवच बना लिया है। यहाँ तक नस्लवादी गोरे पहुँच नहीं कर सकते। यदि करेंगे तो उनासी वाले दंगे फिर भड़क उठेंगे। वैसे भी इस समाज में हमने अपने ढंग का एक नया समाज बसा लिया है जिसकी वजह से हमारा गोरों से वास्ता नहीं पड़ता। यंग जनरेशन के लोगों से पूछो कि रात-बिरात ये अकेले निकलते हैं तो इनकी जान सूखी रहती है कि उन पर कभी भी हमला हो सकता है। मेरे दोस्तों को लगता है कि नस्लवाद का मसला हल हो गया है। ऐसा इसलिए लगता है कि यह मसला अब घिस चुका है, इतना घिस चुका है कि हमको पहले की तरह महसूस नहीं होता। इसके अलावा कई दूसरे मसले बहुत बड़े हो गए हैं। सो, नस्लवाद का मसला वहीं का वहीं है। यदि मैं इंस्टीच्युशनल रेसलिज्म के बारे में बात करने लग पड़ूँ तो बहुत टाइम लग जाएगा। मेरे द्वारा यह सब बताने का कारण तो अपने मेहमान को सही इंफोरमेशन देना है। वैसे एक बात और बता दूँ कि यह नस्लवाद कोई हौवा नहीं है कि इसका सामना न किया जा सके। हमें चाहिए कि हर नस्लवादी की आँख में आँख डालकर बात करें। नस्लवादी से डरे नहीं। इसका यही प्रमुख हल है। इन शब्दों के साथ मैं अपनी बात समाप्त करता हूँ और प्रबंधकों का धन्यवाद करता हूँ, जिन्होंने मुझे बोलने का समय दिया और आप सबका भी, जिन्होंने मुझे सुना।''
(जारी…)

1 comment:

रूपसिंह चन्देल said...

हरजीत का यह उपन्यास सही दिशा में बढ़ रहा है. अनुवाद के विषय में क्या कहना---बहुत ही सुन्दर अनुवाद है.

रूपसिंह चन्देल